मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

जेबें यानी "पॉकेट्स", कैसे प्रचलन में आईं

जेबें यानी "पॉकेट्स"  कैसे  और  कब  इसकी जरूरत  महसूस  की गयी होगी और कैसे यह चलन में आईं होगीं, यह एक खोज का विषय है।  आज के परिधानों की कल्पना बिना जेबों के की ही नहीं जा सकती। पर सबसे   पहले कब इंसान ने इसे बनाया होगा?  वैसे तो किसी एक इंसान को इसका श्रेय नहीं जाता पर  जेबों को आज का रूप देने में अमेरिका के   जेम्स एल. पॉकेट का बहुत बड़ा हाथ है।    

शुरुआती दौर के बाद जब इंसान का परिवार बना होगा, उसने रहने का कोई स्थाई प्रबंध भी कर लिया होगा और तब तक अधोवस्त्रों का चलन भी शुरू हो चुका होगा। तब उसे भोजन के लिए शिकार के साथ-साथ और भी कुछ वस्तुओं को अपने निवास पर ले जाने की जरूरत पड़ी होगी, जिन्हें वह कमर में यहाँ-वहाँ खोंस लेता होगा। धीरे-धीरे परिस्थितियों के तहत शरीर ढकने के उपायों की इजाद हुई होगी। पर कपड़ों के साथ सिली जेबें नहीं बनी होंगीं। उसके पहले कोई छोटी-बड़ी थैली-नुमा चीज बनी होगी जिसे हाथ में लटकाया जाता होगा या कमर में बाँध लिया जाता होगा। हो सकता है इसका ख्याल उसे कंगारू के बच्चे को अपनी माँ की प्रकृति-प्रदत्त जेब में बैठा देख कर आया हो। पर सुरक्षा की दृष्टि से ऐसी छोटी थैलियां या "पॉउच" असुरक्षित ही होते थे इन पर उठाईगिरे आसानी से हाथ साफ कर जाते थे. इससे बचने के लिए उन थैलियों को कपड़ों के अंदर सीना शुरू किया गया पर वह बाजार-हाट में व्यवहारिक नहीं हो पाया। कई भुलक्कड़ इसे जहां-तहां रख कर भूल भी जाते थे। पर धीरे-धीरे जरुरत और सहूलियत को सामने रख आज की जेबों के पितामह का जन्म संभव हुआ जिसका सुधारा रूप हमारे सामने है।      

जो भी रहा हो जरूरत के अनुसार और समय के साथ-साथ कपड़ों के अंदर-बाहर जेबों का अस्तित्व चलन में आया। आज की तरह पहले इंसान के पास इतना ताम-झाम नहीं होता था, घर से बाहर निकलने पर कुछ पैसे और घर की चाबियाँ यही उसके साथ होता था जिसके लिए एक दो जेबें काफी थीं, हाँ महिलाओं को जरूर कुछ ज्यादा जगह की जरूरत होती थी इसलिए उनकी जेबें कुछ बड़े आकार की बनाई जाती थीं जिन्हें सुरक्षा की दृष्टि से उनके अंतरंग वस्त्रों में जोड़ा जाता था। 

समय बदलता गया. वस्त्रों के आकार-प्रकार-डिजाइन भी उसके साथ ढलते गए। उसके साथ ही तरह-तरह की जेबें भी बनती चली गयीं। पहले कलाई घड़ियों का चलन न होने से घड़ी के लिए एक अलग जेब होती थी। चश्मे के लिए, ट्रेन के टिकट के लिए, सिक्कों के लिए, अलग तरह की जेबें बनाई गयीं।  कुछ बड़े कागज-पत्रों के लिए अलग जेब बनी जो "कार्गो पॉकेट" कहलाई, जो जींस में नजर आती है।  कपड़ों के साथ -साथ जेबें भी उनके अनुसार बनाने लगीं।  कमीज, जैकेट, कोट, पैंट, जींस सब की अपनी तरह की जेबें होने लगी।

हालांकि इसने एक कुख्यात वर्ग "पाकेटमार" को भी पलने-बढ़ने में सहायता की है, लोगों की सिर-दर्दी बढ़ाई है. फिर भी सोचिए यह न होती तो और कितनी मुश्किलें सर उठाने लगती। अब तो इसका दायरा इतना बढ़ गया है कि लोग हर चीज में जेब खोजते हैं, चाहे छोटे पर्स हो, बड़े बैग हों, अटैची हों, बक्से हों, और तो और अब तो तैराकी के वस्त्रों और जूतों तक में जेबें लगनी शुरू हो चुकी हैं।

6 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जीमेल हुआ १० साल का - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Blog bulletin, aabhar

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर एवं अनूठी जानकारी.
नई पोस्ट : मिथकों में प्रकृति और पृथ्वी

doshiza ने कहा…

वाकई अलग सा ही है

punyarkkriti.blogspot.com ने कहा…

प्रिय शर्माजी,
सस्नेहनमन।
आज अपने ब्लॉग अकुलाहट के लिए ताला का इन्तजाम करने चला था।संयोग से आपका कुछ अलग सा दीख पड़ा।वाकयी अलग सा है।समय निकाल कर इसे नियमित देखने का प्रयास करुँगा।
वैसे मुझे अपने लिए ताला अभीतक मिला नहीं।
धन्यवाद।

Aaryan Super Knowledge ने कहा…

Bahut khubsurat jaankari. Saadar abhaar. Isi tarah blog post karten rahe.

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...