मर्तबान, मृद्भांडों के परिवार का सदस्य है। जिसका एक भाई-बंद भांड या कुल्हड़ कहलाता है ! भांड शब्द आजकल बहुत कम सुनाई पड़ता है ! जबकि गाँवों-कस्बों की भाषा अभी भी इसका चलन है। बंगाल जैसे प्रांत में अभी भी चाय वगैरह के कुल्हड़ों को भांड ही कहा जाता है ! चीनी मिटटी की बनी चाय की केतलियों की याद तो अभी भी बहुत से लोग भूले नहीं होंगे ! मिट्टी इत्यादि से बने ऐसे बर्तन पर्यावरण के साथ-साथ मानवोपयोगी भी होते हैं ! इनमें रखी वस्तुएं ना जल्दी खराब होती हैं नाहीं उनमें कोई रासायनिक परिवर्तन होता है ! इसके अलावा मिट्टी की एक अलग तासीर सी भी इनमें शामिल हो जाती है ..............!
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मरतबान, मर्तबान, बरनी या इमर्तवान ! अचार, घी, आदि रखने का चीनी मिट्टी या सादी मिट्टी आदि का चौड़े मुँह एवं हत्थे या बिना हत्थे का ढक्कनदार रोगन किया हुआ बर्तन ! किसी समय यह हर रसोई का एक अहम हिस्सा हुआ करता था ! बदलते फैशन और पश्चिम के अंधानुकरण से भले ही यह शहरी रसोइयों से दूर हो गया हो पर गांव-देहात या कस्बों में इसका प्रचलन बदस्तूर जारी रहा। होम्योपैथी, आयुर्वेद तथा यूनानी हकीमों के यहां आज भी भूरे और सफ़ेद रंग के मर्तबान या बरनियों को उपयोग में आता देखा जा सकता है। वैसे इस बहुपयोगी पात्र ने फिर वापसी की है और इस बार ज्यादा तड़क-भड़क, रंग-बिरंगे, चटकीले, आकर्षक और शिल्पयुक्त विभिन्न आकारों और आकृतियों में अवतरित हो, घरों की साज-सज्जा में चार चाँद लगा रहा है ! आजकल आधे फुट से लेकर चार-पाँच फुट तक के सजावट के काम आने वाले विभिन्न आकार के इन मर्तबानों का प्रयोग गुलदस्ते की तरह भी किया जा रहा है, जिनमें सजे फूलों से इनकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है।
मर्तबान नगर, भारत की पूर्वी सीमा से सटे हुए बर्मा राज्य के पेगू प्रदेश के इस शहर में बहुत पहले से चीनी मिट्टी के पात्र बनाए जाते रहे थे, जहां से इनका निर्यात होता था। इस नगर के नाम पर ही इन पात्रों को विदेश में 'मर्तबान' कहा जाने लगा । माले, चीन, तिब्बत, जापान, कोरिआ और ओमान जैसी जगहों में भी इनको बनाने का चलन रहा है। मध्य काल में भारत में ये उपलब्ध होने लग गए थे। विदेशी यात्री इब्नबतूता ने अपनी भारत यात्रा के विवरण में इनका वर्णन किया है। मर्तबान शब्द को यूँ तो अरबी मूल का माना जाता है और इसकी व्युत्पत्ति "मथाबान" से बताई जाती है !
मर्तबान, मृद्भांडों के परिवार का सदस्य है। जिसका एक भाई-बंद भांड या कुल्हड़ कहलाता है ! भांड शब्द आजकल बहुत कम सुनाई पड़ता है ! जबकि गाँवों-कस्बों की भाषा अभी भी इसका चलन है। बंगाल जैसे प्रांत में अभी भी चाय वगैरह के कुल्हड़ों को भांड ही कहा जाता है ! चीनी मिटटी की बनी चाय की केतलियों की याद तो अभी भी बहुत से लोग भूले नहीं होंगे ! मिट्टी इत्यादि से बने ऐसे बर्तन पर्यावरण के साथ-साथ मानवोपयोगी भी होते हैं ! इनमें रखी वस्तुएं ना जल्दी खराब होती हैं नाहीं उनमें कोई रासायनिक परिवर्तन होता है ! इसके अलावा मिट्टी की एक अलग तासीर सी भी इनमें शामिल हो जाती है ! वर्षों पहले जब आधुनिक मशीनें नहीं थीं तब से गृहणियां इन्हीं बर्तनों में अचार-मुरब्बा-घी वगैरह सुरक्षित रखती आ रही हैं।
समय के साथ-साथ हमारे यहां अब इनका प्रयोग विदेश टोटके, फेंग्शुई जैसी विधाओं में भी होने लगा है ! उसके अनुसार पीले और लाल रंग के मर्तबान सबसे प्रभावशाली होते हैं और इनका सही उपयोग घर व कार्यालय में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने, आपसी संबंधों को मधुर बनाने तथा सुख-शान्ति के लिए प्रभावशाली साबित होता है। प्राचीन चीनी वास्तुकला में भी ये अत्यंत उपयोगी माने जाते रहे हैं। जरूरत है सिर्फ सही चयन और उनके उचित उपयोग की।
6 टिप्पणियां:
रोचक जानकारी। वैसे चीनी मिट्टी की बनी केतलियाँ भी पहले काफी लोकप्रिय थीं।
जी, विकास जी,
एक मैंने सहेज कर रखी हुई है🤗
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 27 अक्टूबर 2022 को 'अपनी रक्षा का बहन, माँग रही उपहार' (चर्चा अंक 4593) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 2:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
रविन्द्र जी
बहुत बहुत आभार, सम्मिलित कर सम्मान देने हेतु 🙏🏻
बहुत सुंदर जानकारी से भरपूर पोस्ट।
सादर
हार्दिक आभार, अनीता जी 🙏🏻
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