इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
होना छत्तीसगढ़ के रायपुर के गैस-कार्डों का सत्यापन, जैसे दिखा हो बुरा सपना
सभी जानते हैं कि रसोई गैस का गलत तरीकों से इस्तेमाल किया जाता रहा है। जिससे त्योहारों जैसे मौकों पर इसकी किल्लत हो जाती है। वैसे यह भी हो सकता है कि यह किल्लत कालाबाजारी के कारण कृत्रिम रूप से बनाई जाती रही हो। इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं है। इसी बीमारी को खत्म करने के लिए एक अच्छी मंशा के साथ छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में रसोई गैस धारकों के कार्ड़ों के सत्यापन के लिए एक अभियान चलाया गया। जिससे असली उपभोक्ताओं की तस्वीर सामने आ सके और नकली कार्ड़ निरस्त किए जा सकें। पर पता नहीं क्यों इसके लिए जो तरीका अख्तियार किया गया वह पूरी तरह अव्यवहारिक था। इसके तहत उपभोक्ता को तरह-तरह के कागजों के साथ एक निश्चित जगह पर आ कर अपनी सत्यता को स्थापित करना था। उस पर तुक्का यह कि उसे ड़रा भी दिया गया था कि सत्यापन ना करवाने पर कार्ड़ निरस्त कर दिया जाएगा। बस शहर में हड़कंप मच गया। सीधा साधा 'मैंगोमैन' भिड़ गया कागजों को इक्कठा करने, बनवाने के चक्करों में, अपना काम-काज छोड़, दिन की तन्ख्वाह को दांव पर लगा अपनी सच्चाई पर मोहर लगवाने। विडंबना थी कि ये वही लोग थे जिन्होंने इस मुए कार्ड़ को बनवाने के लिए भी ना जाने कैसे-कैसे धक्के खाए थे। इन सब को यह भी पता था कि यह उनके साथ गलत हो रहा है क्योंकि कालाबाजारी वे नहीं करते। इसका सारा खेल शुरु तथा खत्म गैस एजेंसियों से ही होता है। पर करें क्या मजबूर जो ठहरे। क्या प्रशासन को पता नहीं है कि शहर के किसी भी कोने से 150-200 रुपये देकर बिना कार्ड़ के गैस टंकी आसानी से मिल जाती है। शहर के अंदर या बाहर के ढाबों पर घरेलू गैस की टंकियों से ही भोज्य पदार्थ बनाए जाते हैं। वह भी असली उपभोक्ता की जेब काट कर। वहां गैस टंकियों से भरा ट्रक पहले दिन गैस टंकी देता जाता है दूसरे दिन वही टंकी वापस ले नयी छोड़ जाता है। कुछ हल्की हुई पहले वाली को कार्ड़ धारी के मत्थे मढ दिया जाता है, जो जागरूकता के अभाव में जो मिल गया उसे ही मुकद्दर समझ, अंजाने में ही सही, अन्याय का शिकार बनता रहता है। पेट्रोल की बढती कीमतों के कारण यही गैस बहुतों की रसोई नहीं उनकी गाड़ियां चलाती है। शादी-ब्याहों में कितने जने पूछ-परख करते हैं कि यह गैस कहां से आई? कहानियों में वर्णित है कि पुराने समय में आश्रमों में पढने वाले धनाढ्य परिवार के बच्चों को मारा-पीटा या धमकाया नहीं जाता था। उसे डराने के लिए उसके पास बैठे गरीब परिवार के बच्चे को बिना उसकी गलती के दंड़ित किया जाता था जिससे डर के मारे वह धनीपुत्र डर जाए और आगे गलती ना करे। वैसा ही कुछ इस बार गैस कार्डों के सत्यापन को ले कर किया गया। होना तो यह चाहिए था कि काला बाजारी करने वाली गैस एजेंसियों पर कार्रवाही की जाती। एजेंसियों और अफसरों की मिली-भगत पर नजर रखी जाती, पर हुआ उल्टा। उसी मध्यम वर्ग पर गाज गिरी जो इस मुए कार्ड़ को बनवाते समय भी दसियों तरह की परेशानियों से दो-चार हो चुका था। उसी को फिर बली का बकरा बनाया गया, लंबी-लंबी लाइनों में लगने क बाद भी सत्यापन होगा कि नहीं की उहापोह में अपना रक्त-चाप बढवाने के साथ-साथ। यह सब ठीक वैसा ही था जैसे चोरी होने के बाद चोर को ढूंढने-पकड़ने की बजाए जिसके घर चोरी हुई हो उसी को हड़काया जाना शुरु कर दिया जाए। बताओ, तुम्हारा दरवाजा बंद था या खुला, आल्मारी में ताला लगा था कि नहीं, यदि नहीं तो क्यों नहीं लगाया था, घर किसका है, सामान खरीद कर लाए थे या कैसे मिला था, इतना सामान रखते ही क्यों थे इत्यादि-इत्यादि। उधर चोर की ना तो तलाश हो रही है नाहीं उसकी फिक्र है । ऐसी सोच है कि इतना सब करने पर वह अपने-आप सुधर जाएगा। फिलहाल तो सब स्थगित है। आने वाले दिनों में अब ऊंट पर नजर रहेगी। पर यह स्थगन किसी और दिशा की तरफ तो इशारा नहीं कर रहा ?
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1 टिप्पणी:
bahut sahi mudda uthaayaa aapne...ye duniya hai kaalaabaazaar ki paisa bolta hai.
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