सोमवार, 11 अप्रैल 2011

युद्ध से जरूर हटे थे पर ना वे भगोड़े थे नाहीं कायर

युद्ध से भागना या पीठ दिखाना कायरता की निशानी मानी जाती है। पर यदि उस दिन पराजय सामने नजर आ रही हो, हार ना टाली जा सकने वाली हो तो क्या उस समय मैदान छोड़ देना कायरता या बेवकूफी कहलाएगी या अक्लमंदी? निश्चित रूप से यह अक्लमंदी कहलाएगी। परिस्थितियों को पूरी तौर से अपने खिलाफ होता देख, युद्ध भूमि से और तैयारी करने के लिए कुछ समय के लिए हट जाने में कोई लज्जा या संकोच की बात नहीं होती बल्कि यह चतुराई है। इस बात के पूर्ण पक्षधर थे वीर शिवाजी। जब-जब उन्हें अपना पक्ष कमजोर होता दिखा उन्होंने मोर्चे से खुद को अलग कर लिया और फिर पूरी तैयारी से वापस आकर जीत हासिल की। चाहे वह पन्हालगढ की लड़ाई हो चाहे औरंगजेब की जेल हो चाहे महावत खां के साथ युद्ध हो। वैसे उसी औरंगजेब को भी बीजापुर के युद्ध में मैदान छोड़ना पड़ा था। हुमायूं को बार-बार शेरशाह से लड़ाई के दौरान बचना पड़ा था। भागने में अंग्रेज भी पीछे नहीं रहे पर उन्होंने तैयारी कर फिर-फिर वापसी की। स्वतंत्रता की लड़ाई में वीर सावरकर अंग्रजों के चंगुल से पानी के जहाज के संड़ास के 'पोर्ट-होल' से निकल भागे थे। सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों को धोखा दे देश से बाहर चले गये थे। माओत्से तुंग च्यांगकाई शेक की सेना से लड़ने में असफल रहने पर लगातार महिनों लुकते-छिपते रहे थे। चीन के आक्रमण करने पर दलाई लामा भारत चले आए थे। इंसानों की तो क्या कहें खुद भगवान श्री कृष्ण को भी इस चतुराई का सहारा लेना पड़ा था जब मथुरा पर जरासंध के बार-बार आक्रमण करने के कारण वे मथुरा छोड़ द्वारका चले गये थे। इसी से उनका एक नाम 'रणछोड़' भी है। मुहम्मद पैगंबर भी मक्का छोड़ मदीना चले गये थे। पर वह दिन भी गर्व से हिजरी संवत मान कर याद किया जाता है। लड़ाई में हार-जीत तो चलती ही रहती है। लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त होना निश्चित रूप से बहादूरी होती है पर यदि उससे विजय प्राप्त ना हो तो देश को लाभ नहीं पहुंचता। समय विपरीत जान मैदान छोड़ देना कायरता कि श्रेणी में नहीं आता। समय को अपने पक्ष में करने के लिए उठाया गया ऐसा कदम बुद्धिमत्ता पूर्ण होता है। कायरता युद्ध से भाग कर फिर युद्ध ना करने में है। ये सारे महापुरुष भले ही एक समय युद्ध से निकल गये हों पर मौका मिलते ही इन्होंने अपने दुश्मनों को हरा कर ही चैन की सांस ली थी।

5 टिप्‍पणियां:

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आपने वजा फरमाया. यदि ये बात सर्वकालिक सही है तो आज के सन्दर्भ में एक बात समझ नहीं आ रही कि अन्ना से सत्ता पक्ष [कांग्रेस] हार गया.
तो क्या मानसून सत्र में पूरी ताकत से वो इस विधेयक को धोकर रख देगा? मतलब नामंजूर कर देगा?

नीरज मुसाफ़िर ने कहा…

देश सेवा और कर्तव्य सर्वोपरि है। अगर ये काम असफल होने को हैं तो ‘जान है तो जहान है’।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

vaah pratul ji..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अच्छा आलेख प्रस्तुत किया है आपने!

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

मानव समाज में युद्ध दूसरों को गुलाम बनाने लिए नहीं अन्याय से विरोध में होना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने बहुत सार्थक बात कही थी। ”मुझे मनुष्यत्व दो, माँ! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो. माँ मुझे मनुष्य बना दो.।" आज ये सभी किताबें बन कर रह गयी हैं। किस विद्यालय में बच्चों के अबोध मन में ये बातें रोपी जाती हैं। हर ओर प्रोफेशनल बनने की होड़ है। चरित्र व्यक्ति के आचरण और व्यवहार से झलकता है। नेता जी सुभाषचंद बोस, सरदार भगतसिंह, रामप्रसाद ’बिस्मिल’ आदि ने कभी सोचा न होगा कि जिस आजादी को प्राप्त करने के लिए वे जीवन की कुर्बानी दे रहे हैं। वह भ्रष्टाचार के कारण इतना पतित हो जाएगी। भ्रष्टाचार से परहेज़ करने का पाठ सभी प्रकार के सार्वजनिक मंचों से खूब पढ़ाया जाता है परन्तु यथार्थ में क्या स्थिति है वह किसी से छुपी हुई नहीं है।
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भारत में राजनैतिक सत्ता के गुलगुले जाति-धर्म के गुड़ से बनते हैं। यदि गुड़ खराब होगा तो उससे बना हर पकवान खराब होगा। उसे शोधित किए बिना अच्छे परिणाम की कल्पना करना व्यर्थ है।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

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