श्रीमद्भागवत के अनुसार चन्द्रदेव महर्षि अत्रि और अनुसूया के पुत्र हैं। इनका वर्ण गौर है। इनके वस्त्र, अश्व और रथ श्वेत रंग के हैं। शंख के समान उज्जवल दस घोड़ों वाले अपने रथ पर ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इनके एक हाथ में गदा और दूसरा हाथ वरमुद्रा में है। इन्हें सर्वमय कहा गया है। ये सोलह कलाओं से युक्त हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इनके वंश में अवतार लिया था, इसीलिये वे भी सोलह कलाओं से युक्त थे।
ब्रह्माजी ने इन्हें बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्मणों का राजा मनोनीत किया है। इनका विवाह दक्ष की सत्ताईस कन्याओं से हुआ है, जो सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में जानी जाती हैं। इस तरह नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेव परिक्रमा करते हुए सभी प्राणियों के पोषण के साथ-साथ पर्व, संधियों व मासों का विभाजन करते हैं। इनके पुत्र का नाम बुध है जो तारा से उत्पन्न हुआ है। इनकी महादशा दस वर्ष की होती है तथा ये कर्क राशि के स्वामी हैं। इन्हें नवग्रहों में दूसरा स्थान प्राप्त है। इनकी प्रतिकूलता से मनुष्य को मानसिक कष्टों का सामना करना पड़ता है। कहते हैं कि पूर्णिमा को तांबे के पात्र में मधुमिश्रित पकवान अर्पित करने पर ये तृप्त होते हैं। जिसके फलस्वरूप मानव सभी कष्टों से मुक्ति पा जाता है।
इनका सामान्य मंत्र :- "ऊँ सों सोमाय नम:" है। इसका एक निश्चित संख्या में संध्या समय जाप करना चाहिये।
* अगला ग्रह :- मंगल।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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1 टिप्पणी:
फ़िर से सुंदर ओर उपयोगी जानकारी के लिये धन्यवाद
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