दियासलाई या माचिस, एक छोटी सी ड़िबिया। सब जगह आसानी से मिलने वाली, आग पाने का सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन। इसका जन्म 1827 में, इंगलैंड के एक रासायनिक व्यापारी, ज़ान वाल्कर, द्वारा अनजाने में हो गया था। एक दिन वह एक रासायनिक घोल को एक लकड़ी के डंडे से मिला रहा था। काम हो जाने पर उसने लकड़ी को एक तरफ रख दिया। एक-दो दिन बाद उसे बेकार समझ उसे बाहर फेंका तो वह भक्क से जल उठा। वाल्कर अचंभित रह गया। पर उसने इसको लेकर प्रयोग शुरु कर दिए। जल्दी ही उसको सफलता भी मिल गयी। उसने छोटी-छोटी तीलियों पर रसायन लगा उन्हें कठोर सतह पर रगड़ कर आग उत्पन्न करना सीख लिया। फिर उसने इसे अपना व्यवसाय बना लिया। उसने तीलियों के साथ एक रेगमाल के टुकड़े को छोटी-छोटी ड़िबियों में रख बेचना शुरु कर दिया। इस काम में उसे काफी सफलता मिली। लोगों ने इस नयी खोज को बहुत पसंद किया। कुछ साल बाद 1831 में लंदन के एक व्यावसाई ने पीले फास्फोरस को डिबियों के किनारे लगा, रेगमाल रखने की परेशानी से मुक्ति दिलाई। पर ये तीलियां सुरक्षित नहीं थीं। जरा सी रगड़ से ही ये आग पकड़ लेती थीं। इसको "सेफ्टी मैच" का रूप, 1844 में स्वीडन के वैज्ञानिक ई. पाश्च ने दिया। उसने पीले फास्फोरस की जगह लाल फास्फोरस के घोल को डिबिया के बगल में लगाया। यही इसका आधुनिक स्वरुप था। समय के साथ-साथ इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन व संशोधन होते गये, जिससे यह निरापद होती चली गयी।
भारत में इसका आगमन पहले विश्व युद्ध के आस-पास हुआ था। उस समय इसे जापान तथा स्वीडन से आयात किया जाता था। यहां भी इसे बनाने के प्रयास होते रहे पर वह बाहर से आने वाली दियासलाईयों से मुकाबला नहीं कर पाते थे, क्योंकि सारा कच्चा सामान बाहर से ही आता था। सरकार की लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की नीतियों से इस काम में भी जान आयी।
इसके निर्माण की प्रक्रिया भी काफी जटिल है। पहले मशीनों द्वारा लकड़ी की पतली छाल से अंदर और बाहर की डिबिया बना कर उसके दोनों किनारों पर लाल सल्फर और कांच के चूर्ण के मिश्रण को सरेस की सहायता से लगा देते हैं। एक समान कटी लकड़ी की छोटी-छोटी तीलियों को एक विशेष मशीन में लगे सांचे में भर कर उनके सिरों को पोटाश, सल्फर, सरेस, पैराफीन आदि के घोल में डुबा कर सुखा लिया जाता है। फिर सिरों को आकार देकर डिबियों में भर दिया जाता है। इस तरह सारे संसार को भस्म करने की शक्ति रखने वाली अग्नि को आज का मानव जेब में ले घूमता रहता है।
भारत में इसका आगमन पहले विश्व युद्ध के आस-पास हुआ था। उस समय इसे जापान तथा स्वीडन से आयात किया जाता था। यहां भी इसे बनाने के प्रयास होते रहे पर वह बाहर से आने वाली दियासलाईयों से मुकाबला नहीं कर पाते थे, क्योंकि सारा कच्चा सामान बाहर से ही आता था। सरकार की लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की नीतियों से इस काम में भी जान आयी।
इसके निर्माण की प्रक्रिया भी काफी जटिल है। पहले मशीनों द्वारा लकड़ी की पतली छाल से अंदर और बाहर की डिबिया बना कर उसके दोनों किनारों पर लाल सल्फर और कांच के चूर्ण के मिश्रण को सरेस की सहायता से लगा देते हैं। एक समान कटी लकड़ी की छोटी-छोटी तीलियों को एक विशेष मशीन में लगे सांचे में भर कर उनके सिरों को पोटाश, सल्फर, सरेस, पैराफीन आदि के घोल में डुबा कर सुखा लिया जाता है। फिर सिरों को आकार देकर डिबियों में भर दिया जाता है। इस तरह सारे संसार को भस्म करने की शक्ति रखने वाली अग्नि को आज का मानव जेब में ले घूमता रहता है।
3 टिप्पणियां:
diaslaike baare main jaan kar alag sa laga .
इस अच्छी जान कारी के लिये धन्यवाद
रोचक जानकारी.
एक टिप्पणी भेजें