आज सतीश पंचम जी की पोस्ट पर प्रदीप जी की कहानी उजास के बारे में पढ़ा जिसमें हमारी कुप्रथाओं की ओर इशारा किया गया था। यह परंपराएं कैसे अस्तित्व में आयीं, कैसे प्रचलित हुईं यह एक शोध का विषय है। कुछ प्रथाओं को तो हमारे ऋषी-मुनियों ने लोगों की भलाई के लिये एक अलग रूप में पेश किया होगा। संक्षेप में जैसे सबसे ज्यादा आक्सीजन प्रदान करने वाले पीपल के वृक्ष की रक्षा के लिये उसे देव-वृक्ष का रूप दिया गया होगा। पानी तथा हवा को साफ रखने के लिये उन्हें देवता का नाम दे दिया गया होगा। इत्यादि, इत्यादि। इन्हीं के साथ कुछ कुप्रथाएं भी चलन में आ गयीं होगीं। इसी सिलसिले में एक कहानी याद आ गयी। कैसी लगी बतलाईयेगा।
एक गुरुकुल में बहुत सारे शिष्य शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां सारा काम निश्चित और व्यवस्थित तरीके से किया जाता था। सुबह उठना, आश्रम की साफ-सफाई, नित्य कर्म, पूजा-अर्चना, पढ़ाई सब कुछ नियमबद्ध रूप से। पर कुछ दिनों से आश्रम में ही रहने वाली एक बिल्ली ठीक पूजा के बाद होने वाली आरती में आकर उत्पात मचाने लग गयी थी। उसे बहुत हटाया गया, भगाया गया पर वह मानती ही नहीं थी। अंत में तंग आ कर गुरु जी ने उसे पूजा के समय बांधने और पूजा के बाद खोल देने का आदेश अपने शिष्यों को दे दिया। बिल्ली को वहां खाने पीने को भरपूर मिलता था सो वह भी वहां से गयी नहीं।
समय बीतता गया। क्रम चलता रहा। एक दिन गुरु जी का देहावसान हो गया। उनकी जगह नये आचार्य आये। उन्होंने सारी व्यवस्था देखी, सारी दिनचर्या का जायजा लिया और वहां का संचालन संभाल लिया। दूसरे दिन पूजा के समय बिल्ली को बांधने के लिए खोजा गया तो बिल्ली नदारद। आश्रम में हड़कंप मच गया। वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार बिल्ली का बंधना जरूरी था, नहीं तो पूजा पूरी नहीं होनी थी। बिना तथ्य जाने लकीर के फकीरों को चारों ओर दौड़ा दिया गया बिल्ली को खोजने----------------------------------
इसके बाद मुझे नहीं पता कि बिल्ली मिली कि नहीं। हां इसका पता लगाऊंगा कि बिल्ली ना मिलने की एवज में उन्होंने कहीं कुत्ता तो नहीं!!!!!!!
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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11 टिप्पणियां:
प्रदीप जी की कुप्रथाओं पर चोट करती हुई कहानी पढी, आपने इस कथा के माध्यम से कुप्रथाओं के जड़ तक पहुँचाने का प्रयास किया है।
हमारे कर्मकांडों में जो नहीं हो सकता उसके लिए शॉर्ट कट या प्रायश्चित की व्यवस्था पंडितों ने बना दी है. यदि बिल्ली का बंधना रूढ हो चली हो तो फिर आटे की बिल्ली बना दी जाएगी और धागे से बाँध दिया जाएगा. समस्या का समाधान हो गया. हमारे समाज में व्याप्त ऐसी बेवकूफ़ियों पर लिख कर आपने बड़ा काम किया है. आभार.
बहुत अच्छी कल्पना की है आपने। लगभग इसी तरह की कुछ न कुछ बातें कुप्रथाओं को जन्म देने का कारण हैं।
उन्होंने कहीं कुत्ता तो नहीं!!!!!!! हा..हा..हा..हा..हा..
बिलकुल सही कहा आप ने हमारे पुर्वजो ने तो साफ़ तोर पर कई रीती रिवाज बानये ओर हम उन्हे गलत ढंग से लेने लगे, जेसे गंगा पबित्र है, लेकिन हम ने आज अपने सडे दिमाग से उसे कहा पबित्र रहने दिया,
अगस्त महीने मै कई बार आना हुआ ,काबडिये या कावडिये नाम के जीवो ने पुरे भारत को कबाड बना रखा होता है,जगराते, मंदिरो ,मस्जिदो ओर गुरुदुवारो मै लाऊड स्पीकर लगा कर अपने अपने ढंग से जोर शोर से पुजा की जाती है, क्या ऊपर वाला बहरा है???
सही फटका...लकीर के फकीरों को...बिना किसी लॉजिक के बस नापे जाओ!!
बहुत उम्दा!!
मन प्रसन्न हो गया!!
lakir ke fakir
narayan narayan
सिर्फ कुप्रथाओ पर ही नहीं, हमारे व्यवस्था पर भी कटाक्ष करता हुआ लेख..
बहुत बढ़िया.. :)
कहते हैं की एक बिल्ली को मारकर, भूसा भरकर वहीं पर स्थापित कर दिया गया.
कहीं भूसा भरी के सामने एक भी मन्नत पूरी हुई कि बस, बिलाई माता का मंदिर बनता ही है।
aap ki har post ALAG SEE hoti hai.
achhi lagee.
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