शायद चौथी या पांचवीं क्लास में था मैं। बात तब की है, जब आज की तरह शिक्षा व्यवसाय का रूप नहीं ले पायी थी जिसकी वजह से गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल नहीं खुले हुए थे। इसलिये शिक्षण केन्द्र ज्यादातर घरों से दूर ही होते थे।
पिताजी उन दिनों कलकत्ता के पास कोन्नगर नामक स्थान में लक्ष्मीनारायण जूटमिल में कार्यरत थे। वहां काम करने वाले लोगों में हर प्रांत के लोग थे। पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी, बिहारी, मद्रासी (उन दिनों हर दक्षिणवाले को मद्रासी ही समझा जाता था), हिमाचली, नेपाली और बंगाली तो होने ही थे। पर वहां रहते, काम करते सब अपनी जाति भूल एक परिवार की तरह ही थे, एक-दूसरे की खुशी गम में शरीक होते हुए।
हमारे हिंदी भाषी स्कूल का नाम था रिसड़ा विद्यापीठ, जो रिसड़ा नामक जगह में हमारे घर से करीब पांच एक मील दूर था। हम सात-आठ बच्चे रिक्शों में वहां जाते-आते थे। उस समय के रिक्शे वालों की आत्मियता का जिक्र मैं अपनी एक पोस्ट शिबू रिक्शे वाला में कर चुका हूं। रिक्शे वाले समय के पाबंद हुआ करते थे।
जिस दिन का जिक्र कर रहा हूं , उस दिन स्कूल जाते हुए अपने एक सहपाठी हरजीत के साथ मेरी किसी बात पर अनबन हो गयी थी। कारण तो अब याद नहीं पर हम दोनों दिन भर एक दूसरे से मुंह फुलाये रहे थे। उस दिन किसी कारणवश स्कूल में जल्दी छुटटी हो गयी थी। आस-पास के तथा बड़े लड़के-लड़कियां तो चले गये। पर हमारे रिक्शेवालों ने तो अपने समय पर ही आना था, सो हम वहीं धमा-चौकड़ी मचाते रहे। स्कूल से लगा हुआ एक बागीचा और तलाब भी था। खेलते-खेलते ही सब कागज की नावें बना पानी में छोड़ने लग गये। तालाब का पानी तो ठहरा हुआ होता है सो नावें भी भरसक प्रयास के बावजूद किनारे पर ही मंडरा रही थीं। हम जहां खेल रहे थे वहां से कुछ हट कर एक पेड़ पानी में गिरा पड़ा था। उसका आधा तना पानी में और आधा जमीन पर था। अपनी नाव को औरों से आगे रखने की चाह में मैं उस तने पर चल, पानी के ऊपर पहुंच गया। वहां जा अभी अपनी कागजी नाव को पानी में छोड़ भी नहीं पाया था कि तने पर पानी के संयोग से उगी काई के कारण मेरा पैर फिसला और मैं पानी में जा पड़ा । पानी मेरे कद के हिसाब से ज्यादा था। पैर तले में नहीं लग पा रहे थे। मेरे लाख हाथ पांव मारने के बावजूद काई के कारण तना पकड़ में नहीं आ रहा था। उधर सारे जने अपने-अपने में मस्त थे पर पता नहीं कैसे हरजीत का ध्यान मेरी तरफ हुआ, वह तुरंत दौड़ा और तने पर आ अपने दोनों पैरों से तने को जकड़ अपना हाथ मेरी ओर बढा मुझे किनारे तक खींच लिया। मैं सिर से पांव तक तरबतर ड़र और ठंड से कांप रहा था। पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया था। सारे बच्चे और स्कूल का स्टाफ मुझे घेरे खड़े थे। कोई रुमाल से मेरा सर सुखा रहा था, कोई मेरे कपड़े, जूते, मौजे सुखाने की जुगत में था। और हम सब इस घटना से उतने विचलित नहीं थे जितना घर जा कर ड़ांट का ड़र था। पर एक बात आज भी याद है कि मैं और हरजीत ने तब तक आपस में बात नहीं करी थी सिर्फ छिपी नज़रों से एक दूसरे को देख लेते थे। पता नहीं क्या भाव थे दोनों की आंखों में।
कुछ ही देर में रिक्शेवाले भी आ गये। हम सब घर पहुंचे, पर हमसे भी पहले पहुंच चुकी थी मेरी ड़ुबकी की खबर। और यह अच्छा ही रहा माहौल में गुस्सा नहीं चिंता थी, जिसने हमें ड़ांट फटकार से बचा लिया था। एक बात और अच्छी हुई कि इस घटना के बाद मेरी किसी से भी लड़ाई नहीं हुई, कभी भी।
18 टिप्पणियां:
bahut sunder anubhaw banta hai.....
सुन्दर और मीठा संस्मरण. बच्चों का उपरी गुस्सा मनको मलीन नहीं होने देता.
smriti ki behatarin prastuti di aapne bahot hi sundar ..........
बचपन के दिन भी क्या दिन थे...
नीरज
बहुत बढ़िया बचपन का संस्मरण प्रस्तुत करने के लिए . धन्यवाद. कहा गया है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है .
बचपन की मीठी प्यारी बातें यूँ ही अक्सर याद आ जाती है ..बढ़िया सीख भी दे गया यह संस्मरण
अच्छा लगा यह प्रसंग पढ़कर. आज आपके इतना "अलग सा" होने में हरजीत जैसे मित्रों का भी बड़ा योगदान है शायद!
बचपन इसलिए तो सच्चा होता है ,मासूम ओर बड़े दिल वाला
वाकई आपने तो बचपन की यादें ताजा कर दी
sachmuch alag saa..
bahut badhiya post aur sansmaran.. :)
स्कूल का, जगह का, दोस्त का, रिक्शेवाले का नाम इस आशा में लिखा है, शायद किसी बचपन के साथी से भेंट हो ही जाये।
अजी बचपन सब बातो से अलग होता है, मजा आ गया.शुकर बच गये, वरना आज यह लेख कोन लिखता :) ओर हमे केसे पता चलती यह सब बाते.
धन्यवाद, बहु सुंदर लगा
wonderful read -
सही कहा बचपन में घटना से उतना डर नही लगता था जितना कि घर में पड़ने वाली डांट से लगता था.वाकई दिल छूने वाली पोस्ट .......सबसे जुदा
आदमी बडा न हो और बच्चा ही रहे तो दुनिया सच्ची और अच्छी हो जायेगी।
बचपन की यादें अमिट होती है . अलग सा पढने के बाद धुंधली सी मेरी यादें भी उकरने लगी है . कई बचपन के सखा विछुड गए शायद मिले क्योंकि एक गीत हमेशा याद आता है , छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते है कभी तो मिलोगे तो पूछेंगे हॉल
bachpan ki yadein taga ho gain.
सुन्दर और ह्रदय को छू लेने वाला संस्मरण है।
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