रविवार, 21 दिसंबर 2008

आस्था अपनी अपनी, श्वान पुत्र की माँ का डर

गांव के बाहर एक घना वट वृक्ष था। जिसकी जड़ों में एक दो फुटिया पत्थर खड़ा था। उसी पत्थर और पेड़ की जड़ के बीच एक श्वान परिवार मजे से रहता आ रहा था।
एक दिन महिलाओं का सामान बेचने वाले एक व्यापारी ने थकान के कारण दोपहर को उस पेड़ के नीचे शरण ली और अपनी गठरी उसी पत्थर के सहारे टिका दी। सुस्ताने के बाद उसने अपना सामान उठाया और अपनी राह चला गया। उसकी गठरी शायद ढीली थी सो उसमें से थोड़ा सिंदुर उस पत्थर पर गिर गया। सबेरे कुछ गांव वालों ने रंगा पत्थर देखा तो उस पर कुछ फूल चढा दिये। इस तरह अब रोज उस पत्थर का जलाभिषेक होने लगा, फूल मालायें चढने लगीं, दिया-बत्ती होने लगी। लोग आ-आकर मिन्नतें मांगने लगे। दो चार की कामनायें समयानुसार प्राकृतिक रूप से पूरी हो गयीं तो उन्होंने इसे पत्थर का चमत्कार समझ उस जगह को और प्रसिद्ध कर दिया। अब लोग दूर-दूर से वहां अपनी कामना पूर्ती के लिये आने लग गये। एक दिन एक परिवार अपने बच्चे की बिमारी के ठीक हो जाने के बाद वहां चढावा चढा धूम-धाम से पूजा कर गया।
यह सब कर्म-कांड श्वान परिवार का सबसे छोटा सदस्य भी देखा करता था। दैव योग से एक दिन वह बिमार हो गया। तकलीफ जब ज्यादा बढ गयी तो उसने अपनी मां से कहा, मां तुम भी इन से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करो, ये तो सब को ठीक कर देते हैं। मां ने बात अनसुनी कर दी। पर जब श्वान पुत्र बार-बार जिद करने लगा तो मजबूर हो कर मां को कहना पड़ा कि बेटा ये हमारी बात नहीं सुनेंगें। पुत्र चकित हो बोला कि जब ये इंसान के बच्चे को ठीक कर सकते हैं तो मुझे क्यों नहीं।
हार कर मां को कहना पड़ा, बेटा तुम्हारे पिता जी ने इसे इतनी बार धोया है कि अब तो मुझे यहाँ रहते हुए भी डर लगता है।

14 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बात तो सही है। किसी के प्रति किए गए अपराध का बोध पीढ़ियों तक चलता रहता है।

Varun Kumar Jaiswal ने कहा…

आप इसको व्यक्तिगत मानते हैं | लेकिन अंततः यह एक सामाजिक बोझ बन जाती है |

संगीता पुरी ने कहा…

आस्‍था अपनी अपनी....बिल्‍कुल सही कहा।

Vivek Gupta ने कहा…

सही कहा :)

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

क्या बात है कुत्ता भी यह बात जानते है और इंसान कितनो की भावनाओ को गीला करता है जरूरत पड़ने पर बिना झिज्के मदद लेने पहुच जाता है

राज भाटिय़ा ने कहा…

मै तो इसे अँधविश्वास ही कहुगां, ओर जो हम लोगो मे भरा पडा है,

P.N. Subramanian ने कहा…

हम तो इसे विश्वास कहेंगे. क्यों "अंध" लगाना आवश्यक है क्या, खैर जो भी हो, अपने यहाँ जितने भी सड़क छाप आस्था के केंद्र दिखते हैं, उन सब की प्रारंभिक अवस्था ऐसे ही रही होगी. सुंदर कथानक. आभार.

Anil Pusadkar ने कहा…

यही हो रहा है इस देश मे।रोज़ नये मंदिर बन जाते है और घर टूट रहे हैं।

Smart Indian ने कहा…

उन्हें कुत्तों के देवता की ज़रूरत है - इंसानों के देवी-देवता तो अब तक उनके साथ भेदभाव करते रहे हैं - कुत्ते तो फ़िर भी भाग्यवान हैं, अन्य पशुओं की बलि तो आज भी होती है - चाहे बकरीद के बहाने चाहे विजया दशमी के.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सारगर्भित बात कही है इस कहानी के माध्यम से आपने !

रामराम !

रंजना ने कहा…

प्रेरक और सार्थक प्रसंग ,थोड़े में बहुत कहता हुआ.
अनुराग (स्मार्ट इंडियन) जी की बात से बहुत सहमत हूँ.यही मैं भी कहना चाहती थी.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

आपने तो इस प्रेरक प्रसंग के माध्यम से बहुत कुछ कह डाला.
बाकी है तो बात सिर्फ भावना की ही.

अजी "पत्थर पूजे हरी मिलें तो मैं पूजूं पहाड"

Unknown ने कहा…

बहुत सही बात कही है आपने...लकिन सब नजरिये का फर्क है ...और अपनी अपनी श्रधा है ....मानो तो भगवान् न मानो तो पत्थर .....

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

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