शुक्राचार्य दानवों के गुरु और पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य भी हैं। इन्होंने असुरों के कल्याण के लिए ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया था जैसा फिर कोई नहीं कर पाया। इस व्रत से देवाधिदेव शंकर भगवान प्रसन्न हुये और उन्होंने इन्हें वरदान स्वरूप मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की। जिससे देवताओं के साथ युद्ध में मारे गये दानवों को फिर जिला देना संभव हो गया था। प्रभू ने इन्हें धन का अध्यक्ष भी बना दिया, जिससे शुक्राचार् इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के साथ-साथ औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी बन गये।
ब्रह्माजी की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बन कर तीनों लोकों के प्राणों की रक्षा करने लग गये। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं। वर्षा रोकने वाले ग्रहों को ये शांत कर देते हैं। इनका वर्ण श्वेत है तथा ये श्वेत कमल पर विराजमान हैं। इनके चारों हाथों में – दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है। इनका वाहन रथ है जिसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजायें फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। ये वृष तथा तुला रशि के स्वामी हैं । इनकी महादशा बीस साल की होती है।
इनका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ शुं शुक्राय नम:”। जप का समय सूर्योदय काल है। अनुष्ठान किसी विद्वान के सहयोग से ही करना चाहिये।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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2 टिप्पणियां:
संपन्नता का प्रतीक, "शुक्र". बढ़िया. आभार.
अजी आप ने तो सभी ग्रह गिना दिये.
धन्यवाद
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