शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

तालियाँ, पैसे कमाने का एक जरिया.

इस जगत में स्तुति गान की परंपरा रही है, चाहे देवलोक हो या पृथ्वी लोक। देवी-देवताओं, गुरुओं, राजा महाराजाओं, ज्ञानी गुणी जनों आदि की पूजा अर्चना, बड़ाई, स्वागत इत्यादि में तरह-तरह के कसीदे काढे जाते रहे हैं। ये सब कभी श्रद्धा कभी खुशी कभी भय या कभी मजबूरी में भी होता रहा है। आज तो अपनी जयजयकार करवाना, तालियां बजवाना अपने आप को महत्वपूर्ण होने, दिखाने का पैमाना बन गया है। इस काम को अंजाम देने वाले भी सब जगह उपलब्ध हैं। तभी तो लच्छू सबेरे तोताराम जी का गुणगान करता मिलता है तो दोपहर को गैंडामल जी की सभा में उनकी बड़ाई करते नहीं थकता और शाम को बैलचंद की प्रशंसा में दोहरा होता चला जाता है।

यह सब अभी शुरु नहीं हुआ है, यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हमारे यहां अधिकांश शासकों के यहां चारण और भाट ये काम करते आये हैं। जिनमें से बहुतों ने मुश्किल समय में अपने फर्जानुसार देश की सेवा भी की है। पर यहां सिर्फ अपने आप को महत्वपूर्ण दिखाने के लिये की जानेवाली व्यवस्था की बात कर रहा हूं।
रोम के सम्राट नीरो ने अपनी सभा में काफी संख्या में ताली बजाने वालों को रोजी पर रखा हुआ था। जो सम्राट के मुखारविंद से निकली हर बात पर करतलध्वनी कर सभा को गुंजायमान कर देते थे।

ब्रिटेन में किराये के लोग बैले नर्तकों के प्रदर्शन पर तालियों की शुरुआत कर दर्शकों को एक तरह से मजबूर कर देते थे प्रशंसा के लिये। पर इस तरह के लोगों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। ब्रिटेन में ही एक थियेटर में ऐसी हरकत करने वाले के खिलाफ एक दर्शक ने 'दि टाईम्स' पत्र में शिकायत भी कर दी थी। पर उसका असर उल्टा ही हो गया, लोगों का ध्यान इस कमाई वाले धंधे की ओर गया और बहुत सारे लोगों ने यह काम शुरु कर दिया। जिसके लिये बाकायदा ईश्तिहारों और पत्र लेखन द्वारा इसका प्रचार शुरु हो गया।

इटली में भी यह धंधा खूब चल निकला। धीरे-धीरे इसकी दरें भी निश्चित होती चली गयीं। जिनमें अलग-अलग बातों और माहौल के लिये अलग-अलग किमतों का प्रावधान था। बीच-बीच में इसका विरोध भी होता रहा पर यह व्यवसाय दिन दूनी रात अठगुनी रफ्तार से बढता चला गया।

इन सब को छोड़ें, कभी ध्यान से अपने टी वी पर किसी ऐसे कार्यक्रम को देखें जिसमें लोग बहुत खुश, हंसते या तालियां बजाते नजर आते हों। कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का।

जाते-जाते :- पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने एन शैला नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे।
तो क्या ख्याल है--------------

9 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

कहाँ से मिलती है इतनी जानकारी

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चाँद, बादल और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com/

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लगी यह जानकारी.
धन्यवाद

राज भाटिय़ा ने कहा…

शर्मा जी एक बात भुल गया अब जर्मन एक ही है, पुर्व ओर पश्चिम मिल गये काफ़ी समय से.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

धन्यवाद भाटिया जी,
पर यह काफी पूरानी बात है जब दोनों देश एक नहीं हुए थे। लेख में इसका खुलासा ना करने का खेद है। और शो को पापुलर करने की तिकड़में तो शायद शो जैसी चीज के शुरु होने के साथ ही शुरु हो गयी होगीं।

अनुपम अग्रवाल ने कहा…

इस पर और शोध की ज़रूरत है कि इस को ब्लॉग के लिए उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है ?:)

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने एन शैला नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे।

बिल्कुल सही लिखा आपने ! शायद लाफ़्टर चेलेंज मे नवजोत सिद्धु और अर्चना पुरन सिंह इसी लिये बैठाया जाता होगा ? :)

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

भाई, ताली बजाकर पैसे कमानेवालों में एक अलग सा तबका भी है जिसकी नेता शबनम मौसी विधायक भि बन गई थी:-)

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

भाई साहेब आप तो गज़ब करते हो !!!!!!

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने एन शैला नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे....
एन शैला पर और शोध की ज़रूरत है...गज़ब करते हो आप...

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