शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

जिन्हें पशुओं ने पाला

कोई पचास साल पहले की घटना होगी। लखनऊ स्टेशन की बात है। एक आठ-दस साल का लड़का अपने चारों हाथ-पैरों पर चलता हुआ, ड़रा-ड़रा, सहमा सा, कहीं से आकर एक रेल के डिब्बे में दुबक कर बैठ गया। उससे बात करने पर वह भेड़ियों की तरह की आवाज निकालता था। उसके शरीर के बाल तथा हाथ के पंजे भी जानवारों की तरह के थे। उसका सारा बदन भी खरोंचों से भरा हुआ था जैसे कि जंगल में झाड़ियों वगैरह में दौड़ता भागता रहा हो। उसके विषय में काफी खोज-बीन के बाद यह अंदाज लगाया गया कि वह बचपन से ही भेड़ियों के बीच रहता आया होगा। बाद में उसको धीरे-धीरे मनुष्यों की तरह का व्यवहार सिखाया गया और वह उसके बाद करीब 14-15 साल तक जीवित रहा। उसका नाम रामू रखा गया था। 

सन 1971 में रोम में एक पांच साल का बच्चा पाया गया था, जो चारों हाथ-पैरों से भड़ियों की तरह चलता था और वैसा ही व्यवहार करता था। विशेषज्ञों ने इसे उसका जानवरों के बीच हुए लालन-पालन को कारण माना।

इसी तरह का एक दस-बारह साल का बालक श्रीलंका के जंगलों में पाया गया था। वह भी चारों हाथ-पैरों की सहायता से चलता था और कुत्ते की तरह भोंकता था।

दूसरे विश्व युद्ध के पहले ग्रीस में माउंट ओलिम्पस पर एक 8-9 वर्ष की बालिका एक मरे हुए भालू के पास मिली। खोज करने पर पता चला कि वह पास के गांव से गायब हो गयी थी। उसका भरण-पोषण वह भालू ही करता रहा था।

एक घटना रूस के अजरबैज़ान इलाके के इरांगेल गांव की है। वहां की एक तीन-चार साल की बच्ची आंधी तूफान से भरी बर्फानी रात में अपने मां-बाप से बिछुड़ गयी थी। उस भूली भटकी बच्ची को एक भेड़िये ने शरण दी। उसने रात भर उस बच्ची को अपनी गोद में रख ठंड से उसकी रक्षा की। अगले दिन जब गांव वालों ने उसे ढ़ूंढ़ निकाला तो उसने बताया कि रात भर एक भेड़िया उसे चाटता रहा था। इसीसे बच्ची के शरीर में गर्मी बनी रह पायी थी।

इसी तरह एक बच्चे को बंदर उठा कर ले गये थे। कुछ वर्षों पश्चात जब वह मिला तो उसकी हरकतें भी बंदरों जैसी हो गयी थीं।

अभी भी कई बार अखबारों या टी.वी. वगैरह में पढ़ने-देखने में आ जाता है, कि विभिन्न नस्ल या जाति के जानवर ने दूसरे जानवर के बच्चे को अपना दूध वगैरह पिला कर बचाया। जो कि जानवरों में भी बिना भेद-भाव के ममत्व के होने का जीता जागता प्रमाण है।

11 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

मनुष्‍यों के लिए प्रेरणास्‍पद लेख। काश हम पशुओं से भी कुछ सीख पाते।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

शायद रुप्यार्ड किपलिंग को मोगली के लिए १९००-०१ मे नोबोल प्राइज़ मिल गया था .

बेनामी ने कहा…

nice info,animals r also vry caring.

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

प्रेरणास्‍पद लेख....

P.N. Subramanian ने कहा…

लगता हैं प्राणियों में मनुष्य ही संवेदनशीलता खोता जा रहा है. प्रेरणादायक लेख. आभार.

विवेक सिंह ने कहा…

धीरू सिंह जी की बात पर गौर किया जाय :) प्रेरणास्पद लेख .

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

धीरु जी,
ध्यान दिलाने का शुक्रिया। शायद रौ में बहता चला गया था। मौगली का जन्म हुए तो सौ साल के ऊपर हो गये हैं। शायद मन में हाल में बनी फिल्म थी और दिमाग में चड़्ड़ी पहने फूल घूम रहे थे।
शुक्रिया एक बार फिर।

ghughutibasuti ने कहा…

जानवरों द्वारा पाले मनुष्यों का व्यवहार तो समझ आता है परन्तु कई मनुष्य रूप धारियों जैसे कि आतंकवादियों आदि को किसने पाला होगा समझ नहीं आता ।
घुघूती बासूती

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत खुब.बस एक जानवर ऎसा है जो बहुत खतरनाक है, वो इंसान नाम का जो किसी भी जानवर को नही छोडता अपने मुंह के स्वाद के लिये, ओर अब तो इंसानो की किडनीया भी निकालने लग गया है.
धन्यवाद

BrijmohanShrivastava ने कहा…

एक वो हैं एक हम मनुष्य है

Smart Indian ने कहा…

रुडयार्ड किपलिंग को 1907 मे नोबोल प्राइज़ मिला था. मोगली की कथा उनकी किताब जंगल बुक में 1894 में छपी थी. ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है की यह कथा भेड़ियों द्वारा पाले गए किसी सचमुच के बालक से प्रभावित थी. रुडयार्ड का बचपन और बाद के कई साल भी भारत में बिठाये जाने के कारण यह संभावना ज़रूर है की जंगल बुक व उनकी कई अन्य रचनाएं पंचतंत्र, जातक कथाएं आदि से प्रभावित थी जिनमें पशु मनुष्यों की तरह बोलते और व्यवहार करते हैं.

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