शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

ये भी तो प्रशंसा के हकदार हैं

सही समय पर इलाज ना हो पाने के कारण कमला अमरनानी के पति तथा पुत्र की असमय मौत हो गयी थी। उस भीषण दुख से उबरते हुए उन्होंने ऐसे लोगों की मदद करने का संकल्प लिया जो किसी भी कारणवश अपनों की जिंदगी बचा पाने में असमर्थ होते हैं। उल्हास नगर में गरीबों के बीच माता के नाम से लोकप्रिय कमलाजी से शहर के रिश्वतखोर डाक्टर भी घबड़ाते हैं। यदी उन्हें किसी भी डाक्टर के रिश्वत लेने या अपने काम के प्रति लापरवाह होने का पता चलता है तो फिर उस डाक्टर की खैर नहीं रहती। 44 साल पहले उन्होंने डाक्टरों की हड़ताल के कारण अपने पति और पुत्र को खोया था और अब वे नहीं चाहती कि उनकी तरह किसी और को उस विभीषीका का सामना करना पड़े। आज 96 साल की उम्र में भी वे पूरी तरह सक्रिय हैं।
*************************************************
अमेरिकी सेना में तैनात सार्जेंन्ट जानी कैंपेंन इराक गया तो था लोगों की मौत का पैगाम लेकर, पर इंसान के मन को कौन जान सका है। अपने इराक अभियान के दौरान जानी की मुलाकात वहां के राहत कैंप में एक आंख की बिमारी से ग्रस्त बच्ची, जाहिरा, से हुई, जिसका इलाज हो सकता था। जानी ने अपने गृह नगर में अपने दोस्तों और नगरवासियों से अपील कर एक बडी राशी एकत्र कर उसे अस्पताल में भर्ती करवाया। आप्रेशन सफ़ल रहा। आज जाहिरा दुनिया देख सकती है। उसकी दादी कहती है कि युद्ध चाहे तबाही लाया हो, पर मेरी पोती के लिये उसी फौज का सिपाही भगवान बन कर आया।
************************************************
बैंकाक में तीन पहिया स्कूटर को "टुक-टुक" कहते हैं। इसी पर सवार हो कर जो हवस्टर और एन्टोनियो बोलिंगब्रोक केंट ने बैंकाक से ब्रिटेन तक 12 हजार मील की यात्रा सिर्फ़ इस लिए की जिससे मानसिक तौर पर विकलांगों की सहायता की जा सके। इसमे वे सफ़ल भी रहीं और उन्होंने 50 हजार पौंड जुटा अपना मिशन पूरा किया।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

लो खरगोश फिर हार गया

बहुत हो गया। वर्षों से बदनामी का दंश सहते-सहते पूरी खरगोश जाति ग्लानी से पूरे जंगल में मुंह छुपाए रहती थी। भले ही कोई अब कुछ ना कहता हो पर शर्म के मारे खरगोशों की किसी उत्सव या जश्न मे भाग लेने की इच्छा नहीं होती थी। सो इस स्थिति से उबरने के लिए उन्होंने कोई उपाय खोजने की खातिर एक मीटिंग बुलवाई। उसमें सर्वसम्मति से फैसला हुआ कि फिर एक बार कछुओं को दौड़ के लिए राजी किया जाए और इस बार उन्हें हरा कर वर्षों से माथे पर चिपके हार के दाग को धो ड़ाला जाए। शक था कि कछुए नहीं मानेंगे पर पूरी खरगोश जाति खुशी से उछल पड़ी जब कछुओं ने बिना किसी प्रतिवाद और शर्त के फिर एक बार फिर दौड़ आयोजित करने की सहमति दे दी। खरगोश कछुओं की इस बेवकूफी की बात करते ना थकते थे।

दिन, समय, स्थान, दूरी सब तय हो गया। पूरे जंगल को इस खास दौड़ के लिए आमंत्रित किया गया ताकि सनद रहे, सारे पशु-पक्षी गवाह रहें खरगोशों की जीत के।

खरगोशों ने अपना खिलाड़ी चुन रोज प्रैक्टिस करनी शुरु कर दी। पर कछुआ कैंप में उन्हें कोई हलचल ना दिखाई देती थी। इस पर वे खुश भी थे। दौड़ का दिन आ पहुंचा। खरगोशों ने अपने प्रतियोगी को ढेर सारी नसीहतें दीं, जिनमें सबसे प्रमुख थी कि कुछ भी हो जाए, आसमान भी टूट पड़े पर उसे अपनी दौड़ खत्म किए बिना कहीं भी रुकना नहीं है। फिर ढोल-ढमाके के साथ उसे दौड़ शुरु होने के स्थान पर लाया गया। शेर ने सीटी बजा दौड़ शुरु करवाई। सीटी बजते ही खरगोश तीर की तरह अपने गंतव्य की ओर भाग निकला। इतना तेज तो वह तब भी नहीं भागा था जब एक बार उसके पीछे भेड़िया पड़ गया था। पर इस बार सारे जाति की इज्जत का सवाल था। सारी दूरी उसने बिना रुके पार की। कुछ ही दूरी पर सीमा रेखा भी दिखने लगी थी। कछुए का कहीं अता-पता भी नहीं था। मन ही मन खुशी के लड्डू फोड़ता जैसे ही वह अंतिम रेखा के पास पहुंचा कि उसने देखा कि कछुआ धीरे-धीरे सीमा रेखा पार कर रहा है और इसके वहां पहुंचते-पहुंचते कछुए ने फिर एक बार बाजी मार ली।

सारे जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गयी। खरगोश की समझ में कुछ नहीं आया कि गलती कहां हुई। पर जो होना था वह हो चुका था। कछुए ने सभी के सामने खरगोश को एक बार फिर मात दे दी थी।

कुछ दिन बीत गये। एक रात जिस कछुए ने दौड़ मे भाग लिया था उसका पुत्र सोते समय अपने बाप से लिपट कर अपने पूर्वजों की शौर्य गाथाएं सुन रहा था। तभी उसने अचानक पूछा, बाबा एक बात बताओ, खरगोश अंकल तो इतना तेज दौड़ते हैं और आप इतना धीरे चलते हैं तो उस दिन आप जीत कैसे गये?

कछुआ मुस्कुराया और बोला, बेटा उस दिन दोनों जातियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई थी। किसी भी तरह हमें अपनी इज्जत बचानी थी। इस बार खरगोश पूरी तैयारी से थे। हमारा जीतना तो नामुमकिन ही था। सो हमने एक योजना बनाई थी। जिस दिन स्थान और दिन का फैसला हुआ था उसी दिन तुम्हारा ननकु चाचा दौड़ खत्म होने वाली सीमा रेखा की ओर चल पड़ा था। दौड़ के दिन जैसे ही सीटी बजी और खरगोश दौड़ा मैं तो चुपचाप घर आ गया था। जो जीता वह तो तेरा काकू था। चल अब सो जा।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

भारत में ऐसा भी

गांव - अंजनी, जिला - मैनपुरी, राज्य - उत्तर प्रदेश।
हनुमानजी की माता अंजनी के नाम पर बसे इस गांव में दूध बेचना पाप समझा जाता है। आज जबकी देश में पानी भी खरीद कर पीना पडता है, इस दो हजार भैंसों वाले गांव में यदि कोई चोरी-छिपे दूध बेचता पाया जाता है तो उसे सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पडती है नहीं तो गांव छोड कर जाना पडता है। हजारों लीटर दूध का उत्पादन करने वाला यह गांव सार्वजनिक उत्सवों या कार्यक्रमों में मुफ़्त दूध दे उस जमाने की याद ताजा करता रहता है, जब कहा जाता था कि इस देश में दूध की नदियां बहा करती थीं। यहां की आबादी मेँ 99 प्रतिशत यदुवंशियों का है जो दूध बेचने को बेटा बेचने जैसा जघन्य काम मानते हैं। यह गांव आर्थिक रूप से काफी संपन्न है।
************************************************
नाम - जब्बार हुसैन , उम्र - 66 साल, निवास - फ़तहपुर बिंदकी।
लगन हो तो हुसैन साहब की तरह। 42 बार हाईस्कूल की परीक्षा में फ़ेल हो जाने के बावजूद इन्होंने हिम्मत नहीं हारी है और एक बार फिर ये पूरे जोशोखरोश के साथ परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए हैं। उनकी जिद है कि वह हाईस्कूल की परीक्षा जरूर पास करेंगे वह भी बिना गलत तरीकों को अपनाये। इस जनून के चलते उनकी बीवी ने उनसे तलाक ले लिया है पर हुसैन साहब अपनी धुन पर कायम हैं। इसके चलते उन्होंने जूतों की दुकान की, ट्युशन लगाई, कडी मेहनत की। उनके हौसले बुलंद हैं, वह एक-न-एक दिन अपनी मंजिल जरूर पा लेंगे। आमीन ।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

फौज में जनरल की भी तो जरूरत होती है :-)

दिनोंदिन बढती मंहगाई से तंग आ एक बुजुर्गवार फौज में भरती होने पहुंच गये।
वहां सार्जेंट ने उनसे कहा, क्या आपको मालुम नहीं कि सैनिक के पद के लिए आपकी उम्र के लोगों को भरती नहीं किया जाता?
तो बुजुर्गवार ने कहा, ठीक है, सैनिक ना सही पर फौज में जनरल की भी तो जरुरत होती है।

एक महिला से भगवान ने प्रसन्न हो उसे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा।
महिला बोली, जो देना है फटाफट दे कर नक्की करो, टी.वी.पर सीरियल शुरु होने वाला है।

पत्नी :- अपना चंदू दौड़ में फर्स्ट आया है।
पति :- बेटा किसका है....
पत्नी :- शर्म नहीं आती आपको ऐसी बातें पूछते?

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

पैसे का प्रलोभन ठुकराना भी सबके वश की बात नहीं है.

आज के जमाने में पैसों का प्रलोभन ठुकराना बहुत जिगरे की बात है। पर कुछ लोग होते हैं जिनके लिए अभी भी पैसे से बढ़ कर नैतिकता का मोल है। सचिन ने वही किया जो उनके दिल और दिमाग ने बताया। शराब सिगरेट स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं हैं तो नहीं हैं। बातें हम बड़ी-बड़ी करें और अनाप-शनाप पैसा दिखे तो दम दबा लें, यह तो दोगली निति ही हुई न। कहने को कहा जा सकता है कि सचिन को पैसे की अब उतनी जरूरत नहीं है पर उनके संगी साथियों ने, जिन्होंने यह आफर लपका वह भी कोई ऐरे-गैरे तो नहीं हैं।
चलिए सचिन की बात नहीं करते पर आप प्रसिद्ध बैडमिन्टन खिलाड़ी , पुलेला गोपीचंद को क्या कहेंगे जिनको "आल इंग्लैण्ड चैंपियनशिप" जीतने के बाद एक विश्वप्रसिद्ध शीतल पेय का भारी भरकम आफर मिला था पर उन्होंने उस यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि जिस चीज का मैं खुद उपयोग नहीं करता उसके बारे में जानते हुए दूसरों को कैसे उपयोग में लाने को कह सकता हूँ। उस समय वह कोई करोडपति तो थे नहीं ।
तो सारी बात यही है कि पैसों का प्रलोभन ठुकराना भी सबके बूते की बात नहीं है।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

जब कुली ने मेरे मित्र को रेल के डिब्बे की खिड़की से अन्दर 'पोस्ट' किया

दो दिन पहले स्टेशन जाना पड़ा था एक प्रियजन को गाड़ी चढाने। भीड़ और आपाधापी देख वर्षों पहले की एक मजेदार घटना याद आ गयी।

बहुत पुरानी बात है। मेरी उम्र रही होगी कोई 14-15 साल की। तब गाड़ियां भी आज जितनी नहीं चला करती थीं और उनके डिब्बे भी इतने आराम दायक नहीं होते थे। चोरी वगैरह होती थी पर बहुत कम इसीलिए डिब्बों की खिड़कियों में राड वगैरह भी नहीं लगी होती थीं।

दिल्ली घर होने की वजह से छुट्टियों में वहां जाना होता रहता था। उस बार एक मित्र ने भी जाने की इच्छा जाहिर की। अचानक ही सब हुआ था। सो आरक्षण नहीं हो पाया था। देख लेंगें सोच कर हावड़ा स्टेशन पहुंच गये थे। उन दिनों मुझे 'तूफान एक्सप्रेस' बहुत लुभाती थी। हालांकि और गाड़ियों से ज्यादा समय लेती थी। पर एक तो वह ताजमहल को दिखाती हुई जाती थी दूसरे रेल में ज्यादा समय बिताने का मौका देती थी, इसलीए बड़ों के समझाने के बावजूद मुझे उसी में आना-जाना अच्छा लगता था। तो मुद्दा यह कि दोनों मित्र स्टेशन पहुंचे, टिकट लिया और प्लेटफार्म पर जा धमके। गाड़ी अभी लगी नहीं थी। पर वहां की भीड़ देख लगा कि कुछ चूक हो गयी है। बिना जगह मिले इतने दूर का सफर मुश्किल लगने लगा। हमें कुछ हैरान परेशान देख एक कुली हमारे पास आया और गाड़ी और हमारे गंतव्य का पता कर बोला कि सीट दिला दूंगा, दोनों के चालीस रुपये लगेंगे। सौदा पच्चिस में तय हो गया। गाड़ी आनेवाली थी। उसने हम दोनों को आंखों में तौला फिर मेरे मित्र को कहा कि आप मेरे साथ आओ। उसे ले वह स्टेशन के आखिरी छोर तक चला गया। बाद का सारा वृतांत मुझे मित्र की जुबानी पता चला। उसने बताया कि कुली और वह स्टेशन के आखिर में चले गये तो उसने अपना एक कपड़ा दोस्त को थमा दिया और जैसे ही गाड़ी प्लेटफार्म पर आई उसने मेरे दोस्त को उठा कर खिड़की से एक कोच के अंदर पहुंचा दिया और कहा कि एक बर्थ पर कपड़ा बिछा सीट घेर ले और जोर-जोर से गोविंद-गोविंद बोलता रहे। फिर कुली तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला जिस डिब्बे से गोविंद-गोविंद की आवाज आ रही हो उसमें चढ जाना। मैंने ऐसा ही किया। इस तरह बैठने की दो सीटों का इंतजाम हो पाया। तब जा कर उस कुली का हमें घूर कर देखने और मित्र को साथ ले जाने का रहस्य भी खुला। बात यह थी कि मेरे मित्र महोदय कद काठी में मुझसे सोलह थे सो उनके मुझसे हल्के होने के कारण कुली ने उन्हें चुना था, जिससे उन्हें उठा कर खिड़की के अंदर 'पोस्ट' करने में उसे आसानी होती। फिर उसे यानि कुली को मेरा नाम तो मालुम था नहीं सो उसने 'गोविंद-गोविंद की आवाज लगाते रहने को कहा था जिससे मैं सही डिब्बे में चढ सकूं।

अब यह दूसरी बात है कि हम बस बैठ ही पाए थे यही गनीमत थी। नहीं तो उपर-नीचे, दाएं-बाएं मानुष ही मानुष। वह भी इतने की लोग 'प्रकृति की पुकार' को भी अनदेखा अनसुना करने को मजबूर थे। खाने पीने की चीजें बकायदा खिड़कियों से ही लाई ले जाई जाती रही थीं। बहुत पुरानी बात है याद नहीं रात कैसे कटी थी। हां मेरा ज्यादा देर गाड़ी के सफर का मजा लेने और गाड़ी की खिड़की से ताज को देखने का भूत तब से भाग गया।
पर जब भी वह दिन याद आता है बरबस हंसी आ जाती है।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

जिसे भी हम पूजते हैं, उसकी ऐसी की तैसी कर डालते हैं

हम एक धार्मिक देश के वाशिंदे हैं। हम बहुत भीरू हैं। इसी भीरुता के कारण हम अपने बचाव के लिए तरह-तरह के टोने-टोटके करते रहते हैं। हमें जिससे डर लगता है हम उसकी पूजा करना शुरु कर देते हैं। हमने अपनी रक्षा के लिए पत्थर से लेकर वृक्ष, जानवर और काल्पनिक शक्तियों को अपना संबल बना रखा है। पर जैसे-जैसे हमारी सुरक्षात्मक भावना पुख्ता होती जाती है, हम अपने आराध्यों की ऐसी की तैसी करने से बाज नहीं आते।

घर से ही शुरु करें जब तक मतलब निकलना होता है मां-बाप से और ज्यादा प्यारा और कोई नहीं होता पर जैसे ही उन्हीं कि बदौलत अपने पैरों पर खड़े होने की कुव्वत आ जाती है तो उनके लिए वृद्धाश्रम की खोज शुरु हो जाती है।

हमारे यहां यह बात काफी ज्यादा प्रचलित है कि जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवता वास करते हैं। देख लीजिए जहां देवता वास करते हैं वहां नारी का क्या हाल है। अरे देवता ही जब उसकी कद्र नहीं कर पाए तो हम तो गल्तियों के पुतले, इंसान हैं। कभी सुना है कि देवताओं ने अपना मतलब सिद्ध हो जाने पर किसी देवी को इंद्र का सिंहासन सौंपा हो?

हम नदियों को देवी या मां का दर्जा देते हैं पर किसी एक भी नदी के पानी को पीने लायक नहीं छोड़ा है। पीते हैं कहीं, तो वह मजबूरी है।

गाय को सदा मां के समकक्ष माना गया है। पर कभी उनके जिस्म को निचोड़ने के अलावा उनकी सेहत का ख्याल रखा है? अपने शहरों में जगह-जगह घूमती कूड़ा खाती मरियल सी गायें शायद ही दुनिया में और कहीं हों।

पानी को ही ले लीजिए, जल देवता कहते-कहते हमारा मुंह नहीं थकता पर आज जैसी इस देवता की दुर्दशा कर दी गयी है लगता है कि इसके भी देवता कूच कर चुके हैं।

पेड़ों की तो बात ही ना की जाए तो बेहतर है। जीवन देने वाली इस प्रकृति की नेमत की कैसी पूजा आज कल हो रही है जग जाहिर है। कभी ध्यान गया है किसी मंदिर में लगे किसी अभागे वृक्ष की तरफ? उसके तने या जड़ के पास अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दीया जला-जला कर उसकी लकड़ी को कोयला कर कर हमें लगता है कि वृक्ष महाराज हमारी मनोकामनाएं जरूर पूरी करेंगें। कोई कसर नहीं छोड़ते अपनी आयू बढाने के लिए उसकी जड़ों में अखाद्य पदार्थ ड़ाल-ड़ाल कर उसको असमय मृत्यु की ओर ढकेलने में। यही हाल वायु का है।

यानि कि हमने किसी भी पूज्य की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

B.S.N.L. मेहरबान तो ब्लागिंग पहलवान।

पिछले तीन तारीख से यह मायाजाल रूठा हुआ था। अपनी सीमित कोशिशों से जब समस्या से पार नहीं पाया जा सका तो इसके मठ के तांत्रिकों से गुहार लगाई। पर सेवा कर देने के बावजूद सुनवाई जल्द नहीं हो पाई। कभी इधर की बेमौसम बरसात का दोष, कभी किसी की गैर हाजिरी, कभी समय का दुखड़ा करते-करते जब हफ्ता निकल गया तो फिर याद करवाते समय आवाज में तुर्षी आना स्वाभाविक हो गया था। अब पता नहीं किसकी मेहरबानी से संत पधारे, माथा पच्ची कर इसका उद्धार किया। चलो देर आयद दुरुस्त आयद, मेरी जान में तो जान आई।
दूसरी कंपनियों वाले कैसे गज की गुहार पर दौड़े चले आते हैं। अब यह पता नहीं कि दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिख रहा है या वे भी इसी थैली के......हैं।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

एक बैंक जहां पैसे या कीमती वस्तुएं नहीं, कपडे रखे जाते हैं.

ज्यादातर यही समझा जाता है कि बैंकों में पैसा या कीमती सामान ही रखा जाता है। पर झारखंड के जमशेदपुर मे एक बैंक ऐसा है जिसका पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। इस अनोखे बैंक में इंसान की मूलभूत जरूरत कपड़े रखे जाते हैं तथा इसे "कपड़ों का बैंक" के नाम से जाना जाता है।

करीब एक दशक पुराने इस बैंक "गूंज" का मुख्य उद्देश्य देश के उन लाखों गरीब तथा जरूरतमंद लोगों को कपड़े उपलब्ध करवाना है, जो उचित वस्त्रों के अभाव मे अपमान और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का सामना करते हैं। पूरी दुनिया में अनगिनत लोगों को कपड़ों के अभाव में शारिरिक व मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। भारत के ही कुछ भागों में महिलाओं को उचित वस्त्रों के अभाव में अनेकों बार अप्रिय परिस्थियों से गुजरना पड़ता है।

इसी तरह की परेशानियों से लोगों को रोज दो-चार होता देख, कुछ संवेदनशील लोगों ने मिल कर इस शर्मनाक परिस्थिति से त्रस्त उन अभावग्रस्त लोगों को बचाने के लिए जो हल निकाला, उसी का रूप है "गूंज"।

इसी तरह यदि छोटी-छोटी धाराएं अस्तित्व में आती रहें तो गरीबी के रेगिस्तान में कहीं-कहीं तो नखलिस्तान उभर कर कुछ तो राहत प्रदान कर ही सकता है।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

राजस्थानी भाषा में पति और पत्नी के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले कुछ शब्द

कल रात अपने एक राजस्थानी मित्र के चिरंजीव की शादी में जाना हुआ था। बातों ही बातों में पता चला कि राजस्थानी भाषा में पति और पत्नी के लिए अलग-अलग करीब २५० शब्दों का प्रयोग होता है। मित्र के पिताजी ने कुछ पर्याय बताए, वही पेश कर रहा हूँ :-

पति : अलबलियो, आलीजो, उमराव, कामणगारो, केसरियो बालम, गायड़मल, ईसर, गढपतियो, चतर, जलाल, ढोला, गुमानीड़ो, छैलभंवर, पिव, भरतार, मूंछालो, राईवर, रावतियो, पांवड़ां, ललबलिया, नवलबनो, भंवर, मारूजी, रसियो, राजकवंर, रायजादो, लसकरियो, सास सपूती रा पूत, साहिबां, सुगणो, नणद रो वीर, सायबो, सरदार, इत्यादि।

पत्नी : - अरधंगी, कामणगारी, गौरी, चितहरणी, चुड़ाहाली, अलबेली, कांमणी, नखराली, चंदाबदनी, फूलवंती, मरवण, मिरगानैणी, रमणी, लाडी, सुगणीनार, पद्मणी, नार, मारू, सुवागण, स्याणी, जोड़ायत, इत्यादि।

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

ब्लॉग जगत अब एक परिवार न हो ऐसा मोहल्ला बन गया है जहां अधिकाँश दूसरे को फूटी आँख देख नहीं सुहाते

चाहे हम लाख कहें पर सच्चाई यही है कि ब्लाग जगत एक परिवार ना हो कर एक मध्यम वर्गीय मोहल्ला है। जो तरह-तरह के स्वयंभू उस्तादों, गुरुओं, आलोचकों, छिद्रान्वेषियों का जमावड़ा होता जा रहा है। जहां एक दूसरे की टांग खीचने या नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता। मुस्कान की नकाब तो सबके चेहरे पर है पर बहुतों का अधिकांश समय अपने नाखूनों को तीक्ष्ण करने में जाया जाता है।

एक मोहल्ले में रहने वाले, जैसे एक दूसरे की तरक्की, खुशहाली, उन्नति पर अपने दिल को कबाब बनाते रहते हैं वैसे ही इस ब्लागी मोहल्ले में होना शुरु हो गया है। शुरु तो खैर शुरु से ही था पर जरा संकोच, आंखों की शर्म जैसा कुछ बचा हुआ था जो 'बेनामी' जैसा बुर्का ओढवा देता था। अब तो खुले आम 'खुला खेल फर्रुखाबादी' की शुरुआत हो चुकी है। जिसमें दूसरे का दूध भी छाछ और अपना पानी भी शर्बत नजर आने लगा है। अपनी कैसी भी रचना से उतना ही लगाव है जितना एक काले भुजंग, आड़ी-टेड़ी, नालायक संतान से उसकी माँ को होता है। ठीक है आपका 'उत्पादन' अच्छा है आपकी नजर में पर दूसरे के को तो कमतर ना आंकें।

ज्यादातर कुढन यहां दी जाने वाली टिप्पणियों के कारण हैं। किसी के खाते में रोजाना 25-50 दर्ज हो जाती हैं तो किसी के यहां 2-3 आकर नमक छिड़क जाती हैं। यह नहीं समझ आता कि इससे पहले के चारों ओर कौन से चार चांद घूमने लग जाते हैं या उसके यहां 1000-1000 के लाट्टू 'चसने' लगते हैं और दूसरे के यहां मोमबत्ती जलती रह जाती है। अरे भाई आई, आई नहीं तो ना सही। पर उस मुए अहम का कोई क्या करे जो सीधा दिमाग में घुस उसे उस टिप्पणिधिराज को अपना दुश्मन मानने को मजबूर करने लगता है? उसकी हर अच्छी बुरी पोस्ट या बात सीधे कलेजे पर वार करने लगती है।

एक "बोन आफ कंटेंशन" और है। चिट्ठाजगत का सक्रियता क्रमांक। जिसमें उपस्थित चालिस नाम हजारों 'होनहारों' के दिल पर सांप लोटवाते रहते हैं। वे अपना काम धाम छोड़ उसी क्रमांक पर नजर गड़ा अपना रक्त-चाप बढवाते रहते हैं। उस चालिसे में नाम आ जाने से पता नहीं कौन सा साहित्य अकादमी या बुकर का ईनाम मिल जाता है जो कुछ लोगों की हवा बंद कर देता है।

अभी कुछ दिनों पहले हम सब एक और शर्मनाक दौर से गुजरे हैं जब कुछ लोगों के मिल बैठने पर ही लोगों की ऊंगलियां उठने लग गयीं थीं। क्या अपराध कर दिया गया था जो अभद्र भाषा के प्रयोग का भी खुल कर प्रदर्शन किया गया। जब अनदेखे अंजाने एक साथ मिल बैठेंगे तभी तो अपनत्व की भावना जोर पकड़ेगी। इसमें बुराई क्या थी? यह कोई राजनीतिक पार्टी का माहौल अपने पक्ष में करने की दावत तो थी नहीं कि उसकी भर्त्सना की गयी। पता नहीं क्यूं सही को भी गलत ठहराने की हमारी आदत खत्म नहीं होती।

मोहल्ले में सभी ऐसे हैं यह बात भी नहीं है। सैंकड़ों ऐसे शख्स हैं जो बिना किसी राग-द्वेष, तेरी-मेरी या अच्छे-बुरे के पचड़े में पड़े बगैर 'स्वांत सुखाय' के लिए अपना काम करे जा रहे हैं और सराहना भी पा रहे हैं। क्यों ना उनसे ही हम कुछ सीखें क्योंकि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ना ही उससे बड़प्पन कम होता है।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

कौन बेचारा है पति या पत्नी :-)

पत्नी खर्च पूरा ना पड़ने और पति की अल्प कमाई से परेशान थी।एक दिन रहा नहीं गया बोली, "मैं शर्म के मारे अपना सर नहीं उठा पाती हूं। मेरी मां हमारे घर का किराया देती है। मेरी मौसी के यहां से कपड़े आते हैं। मेरी बहन हमारा राशन भरती है। कब हमारी हालत सुधरेगी?
" पति बोला, "शर्म तो आनी ही चाहिए। तुम्हारे दो-दो चाचा हैं जो एक पैसा भी नहीं भेजते।"

संता तथा बंता अपना दर्द बांट रहे थे।संता, "अरे यार पिछले हफ्ते मेरी बीवी की आंख में एक बालू का कण समा गया था। डाक्टर को पूरे पांच सौ देने पड़ गये।
"बंता, "यार तू तो भाग्यशाली रहा। परसों मेरी पत्नी की आंख में एक सोने का हार समा गया था पूरे दस हजार देने पड़े।"

पति गुस्से से, "तुम हर दरवाजे पर आ खड़े हुए भिखारी को खाना देती रहती हो। इससे तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है।"
"जानती हूं। पर यह देख मुझे बड़ी शांति मिलती है कि कोई तो है जो मेरे हाथ का बना खाना बिना उसकी बुराई किए खा लेता है।"

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

पुलिस वाला, पुलिस वाला ही होता है :-)

आज हंगरी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार 'फर्ज करंथी' की एक रचना पढने को मिली। अच्छी लगी सोचा आप सब को भी शायद पसंद आ जाए :

आज सबेरे दफ्तर जाते समय जरा लेट हो गया था सो दफ्तर के आगे बिना ट्राम के रुके ही कूद पड़ा था। इसके पहले कि मैं मुंह के बल जमीन पर लंबायमान होता एक सिपाही ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे संभाल लिया। उसने मुझे स्नेह से देखा और बोला "घबराइए नहीं आप बिल्कुल सुरक्षित हैं। मैं ना पकड़ता तो आप घायल हो सकते थे।" उसने मधुर स्वर में मुझसे कहा।

उसकी दयालुता देख मेरी आंखों में पानी आ गया।
मैंने कहा "लोग नाहक ही पुलिस वालों को निर्मम, अत्याचारी, उद्दंड और अहंकारी समझते हैं, आप तो दया के साक्षात रूप हैं।"

मैंने गरमजोशी और भावुकता से उसका हाथ देर तक पकड़े रखा। फिर बोला "आपका एक बार फिर बहुत-बहुत धन्यवाद मैं आज की घटना और आपको कभी नहीं भूलूंगा। आपका शुभ नाम ?

"जीनस वार्गा.....श्रीमान।"
पर अजीब बात थी वह मेरा हाथ छोड़ नहीं रहा था। जब मैंने छुड़वाना चाहा तो उसने कहा "ठहरिए श्रीमान... अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई है। क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?"
इसी बीच उसने अपनी नोट बुक निकाल ली और पुछने लगा
"हां श्रीमान...आपका पता?....उम्र?...जन्म तिथि?....शरीर पर कोई शिनाख्ति निशान?

"अरे!!! तो तुम क्या मेरी रिपोर्ट करना चाहते हो?" मैंने विस्मय से पूछा।

"तो आपका क्या ख्याल था कि मैं आपसे मनोविनोद कर रहा था इतनी देर से, क्योंकि आप चलती ट्राम से छलांग मार कर उतरे थे ?"

बुधवार, 24 नवंबर 2010

कहते हैं कि भगवान जो करता है वह अच्छे के लिए करता है, पर यह कैसी अच्छाई है

छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में एक सवा दो साल के मासूम बच्चे की दरिंदों ने अपनी मन्नत पूरी करने के लिए बलि चढ़ा दी। ऐसी हैवानियत कहाँ से इंसान के अन्दर प्रवेश कर जाती है। किस तरह दिल करता है एक निश्छल, मासूम बच्चे का, जिसका कोई कसूर नहीं, जिसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं, जिसकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं , क़त्ल करने को। कैसी बुद्धि हो जाती है, कैसे कोई समझ लेता है कि इस तरह के पाप से ऊपरवाला खुश हो इस घृणित कर्म करने वाले से खुश हो जाएगा। यदि भगवान कहीं है और वह सबका भला चाहते हैं तो फिर वह कौन है जो इस तरह के कुकर्म करने के लिए इंसान को उकसाता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर किसी के घर की रौनक को मातम में बदलवा कर रख देता है ? क्या उसके सामने प्रभू भी बेबस हैं ?

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

खबर पर शक बिल्कुल न करें

खबर बिल्कुल सच्ची है। पर विश्वास नही होगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। पर अब तो वैज्ञानिकों ने भी इस पर अपनी मोहर लगा दी है। खबर आपके सामने है और फ़ैसला आपके हाथ में।

देव उठनी अमावस्या के समय मेघा नक्षत्र के उदय होने के पूर्व एक मुहूर्त बनता है जिसमे प्रभू का दरबार धरती वासियों के लिए कुछ देर के लिये खोला जाता है। इसका पता अभी-अभी साईंस दानों को लगा है । पहले सिर्फ पहुंचे हुए साधू-महात्मा लोग ऊपर जा अपना जीवन धन्य कर लेते थे. पर अब कोई भी इस अवसर का फ़ायदा उठा सकता है। पर यह बात खुल जाने से भीड़ इतनी बढ़ गयी कि संभालना मुश्किल हो गया । तब लाटरी का सहारा लेना पडा।

इस बार भारत, अमेरीका तथा जापान के तीन नुमांईदों को उपर जाने का वीसा मिला था। वहाँ तीनों को एक जैसा ही सवाल पूछने की इजाजत थी। पहले अमेरीकन ने पूछा कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा, प्रभू ने जवाब दिया कि सौ साल लगेंगे। अमेरीकन की आंखों मे आंसू आ गये। फिर यही सवाल जापानी ने भी किया उसको उत्तर मिला कि अभी पचास साल लगेंगे। जापानी भी उदास हो गया कि उसके देश को आदर्श बनने मे अभी समय लगेगा। अंत मे भारतवासी ने जब वही सवाल पूछा तो पहले तो प्रभू चुप रहे फिर फ़ूट-फ़ूट कर रो पड़े।

अब आज के जमाने मे कौन ऐसी बात पर विश्वास करता है, पर जब सर्वोच्च न्यायालय की ओर से कहा गया कि इस देश को भगवान भी नही बचा सकते, तो आप क्या कहेंगे ? देख, पढ़ और सुन तो रहे ही हैं न रोज-रोज।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

जब दुनिया की मशहूर कार 'रोल्स रायस' में कूड़ा ढ़ोया गया.

देशभक्ति तो नहीं पर अपनी ठसक और अहम् के कारण कई बार देसी राजाओं और नवाबों ने अंग्रेजों को उनकी औकात दिखाने में गुरेज नहीं किया था। ऐसे ही दो वाकये हाजिर हैं :-

भरतपुर के महाराजा राम सिंह एक बार इंग्लैंड गये तो प्रसिद्ध रोल्स रायस के शो रूम मे भी चले गये। अंग्रेज मैनेजर उनकी तरफ ज्यादा ध्यान ना दे अपने किसी अंग्रेज ग्राहक को ही गाड़ी दिखाता रहा। यह देख महाराजा ने अपने सेक्रेटरी से वहां कितनी कारें हैं बिकने के लिए और उनकी कीमत पता करने को कहा। मैनेजर ने उपेक्षित लहजे में बताया कि तीन कारें हैं और प्रत्येक की कीमत एक लाख रुपये है। उसे लग रहा था कि इन लोगों की हैसियत कहां होगी इतनी मंहगी कार खरीदने की। पर जब महाराजा ने उसी समय तीनों गाड़ियां खरीद लीं तो वहां खड़े सारे अंग्रेज सकपका गये। कुछ दिनों बाद जब तीनों गाड़ियां भरतपुर पहुंची तो महाराजा राम सिंह ने बड़े आराम से आज्ञा सुनाई कि तीनों गाड़ियों को कूड़ा ढोने के काम में लगा दिया जाए। उस समय रोल्स रायस एक बहुत ही प्रतिष्ठित नाम था। जब उसके निर्माता को यह बात पता चली तो उन्होंने महाराजा को मनाने की बहुत कोशिश की पर आन के धनी महाराजा नहीं माने। तब वाइसराय तक बात पहुंची उनके आग्रह पर महाराजा ने कारों को कूड़ा ढोने से तो हटवा लिया पर कहा कि हम इस कूड़ा गाड़ी में तो बैठेंगे नहीं, सो उन तीनों गाड़ियों को औनी-पौनी कीमत में बेच दिया गया।

अंग्रेजों की अक्ल ठिकाने लगाने वाले राजाओं, महाराजाओं की कमी अपने यहां कभी भी नहीं रही। हैदराबाद के निजाम अफजुलुद्दौला को अपने सामने किसी का भी ऊंचे आसन पर बैठना गवारा नहीं था। सारे दरबारी जमीन पर कालीन के ऊपर बैठा करते थे। वहां आए रेजीडेंट को यह अपनी तौहीन लगी। उसने अपने लिए कुर्सी की मांग की जिसे नवाब ने सिरे से नकार दिया। रेजीडेंट ने फिर अपनी चुस्त पतलून का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे में उससे पैर मोड़ कर नहीं बैठा जाएगा। नवाब ने तुरंत दरबार के एक हिस्से का फर्श खोद कर रेजीडेंट को पांव लटका कर बैठने की सुविधा दे उसे निरुत्तर कर दिया।

रविवार, 21 नवंबर 2010

एक श्लोक जिसमे पूरी रामायण का सार है.

एकश्लोकि रामायणम् :

आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं,
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम् ।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लकांपुरीदाहनं,
पश्चाद्रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ।।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

केले के पेड़ से अब कपडे भी बनेंगे.

रूई और जूट के बाद अब केले के पेड़ से धागा बनाने पर शोध जारी है।
नेशनल रिसर्च सेंटर फ़ार बनाना {एन आर सी बी} में केले के पेड़ की छाल से धागा और कपड़ा बनाने पर काम जारी है। केले के तने की छाल बहुत नाजुक होती है, इसलिए उससे लंबा धागा निकालना मुश्किल होता है। सेंट्रल इंस्टीट्युट आफ़ काटन टेक्नोलोजी के सहयोग से केले की छाल मे अहानिकारक रसायन मिला कर धागे को लंबा करने की कोशिश की जा रही है। अभी संस्थान ने फ़िलीपिंस और मध्य पूर्व देशों से केले के पौधों की खास प्रजातियां मंगाई हैं, जिनसे केवल धागा ही निकाला जाता है। इनसे फ़लों और फ़ूलों का उत्पादन नहीं किया जाता है। धागे से तैयार कपड़े को बाजार मे पेश करने से पहले उसकी गुणवत्ता को परखा जाएगा। वैज्ञानिक पहले देखेंगे कि धागा सिलाई के लायक है या नहीं या उस पर पक्का रंग चढ़ता है कि नहीं, इस के बाद ही उसका व्यावसायिक उत्पादन हो सकेगा।
तब तक के लिए इंतजार। आने वाले दिनों में केले का पेड़ बहुपयोगी सिद्ध होने जा रहा है।
एन आर सी बी, केले के तने के रस से एक खास तरह का पाउड़र बना रहा है, जो किड़नी स्टोन को खत्म करने के काम आएगा। इसके पहले इस संस्थान का केले के छिलके से शराब बनाने का प्रयोग सफ़ल रहा है और उसका पेटेंट भी हासिल कर लिया गया है।
केले के इतने सारे उपयोगों से अभी तक दुनिया अनजानी थी जो अब सामने आ रहे हैं।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कौन बनेगा करोडपति में हफ्तों से चली आ रही गलती पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

आश्चर्य है कि हफ्तों निकल जाने के बाद भी "कौन बनेगा करोड़पति" में चली आ रही एक गल्ती पर अयोजकों, संचालकों, उपस्थित दर्शकों, प्रतिभागियों यहां तक कि अमिताभ बच्चन जी का भी ध्यान नहीं गया है। जबकि ऐसे प्रोग्राम काफी जांच-पड़ताल के बाद प्रस्तुत किए जाते हैं।

जैसा कि बहुत से लोग जानते ही होंगे कि इस खेल की 'गरम कुर्सी' पर बैठने वाले को सही उत्तर ना मालुम होने पर सहायता के रूप में शुरु में तीन "हेल्प लाईनों" की सुविधा दी जाती है जिनमें से एक है "आडियंस पोल" इसके लिए दर्शकों को उत्तर देने के लिए दस सेकेण्ड का समय दिया जाता है। पर अमिताभ जी हर बार "इसके लिए आपको मिलेंगे तीस सेकेण्ड" कहते आ रहे हैं।

पता नहीं कैसे ऐसी चूक अभी तक जारी है।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

कंजूसी में ऐसा भी होता है

स्काटिश लोगों की कंजूसी पर बहुत सारे चुटकुले प्रचलित हैं। उनमें से एक :-

एक स्काटिश व्यक्ति जिसकी दाढी-मूंछ साफ थी बहुत दिनों बाद अमेरिका से जब अपने घर लौटा तो बड़ी मुश्किल से अपने बेतरतीब बढी हुई दाढियों वाले भाईयों को पहचान पाया। उसने उनसे पूछा कि तुम लोगों ने दाढियां क्यों बढा रखी हैं ? तो उनमें से एक ने जवाब दिया, तुम जाते समय दाढी बनाने वाला रेजर जो साथ ले गये थे।

एक सज्जन अपने मित्र से अपनी पत्नी की शिकायत कर रहे थे, क्या कहूं भाई मेरी पत्नी नये कपड़ों के लिए पागल हो रही है। अभी परसों नयी ड्रेस लाने का तकाजा किया था, आज फिर मांगने लगी। दोस्त उसका भी बाप था, पूछने लगा वह इतने नये कपड़ों का करती क्या है? मुझे क्या पता मैने कौन से ला कर दिए हैं। पहले ने जवाब दिया।

एक कंजूस एक दावत में अपने बेटे के साथ भोजन करने गया। संयोगवश दोनों आमने-सामने बैठे थे। खाते-खाते बेटे ने बीच में पानी पी लिया। घर आकर बाप ने बेटे को एक झापड़ मारा और बोला, बेवकूफ खाते समय पानी ना पीता तो चार पूड़ी और खा सकता था। बेटा कसमसाया और बोला, बापू वह तो मैंने खाने की तह जमाने के लिए पिया था, जिससे और जगह बन सके। बाप ने फिर एक झापड़ रसीद किया और बोला, बेवकूफ यह बात मुझे नहीं बता सकता था

बुधवार, 17 नवंबर 2010

राधाजी के मायके "बरसाना" जाएं तो मंदिर तक गाड़ी से नहीं सीढियों से पहुंचें

पहले कभी “राधा जी” के मायके बरसाना जाना नहीं हो पाया था। इस बार वृंदावन जाने का मौका मिला तो बरसाना देखने की हसरत पूरी हो गयी। पर वृंदावन से बरसाना जाने वाली सडक गाड़ी चालक के लिए किसी सजा से कम नहीं है, यदि गति 15 से 20 की भी मिल जाती थी तो लगता था कि सडक ठीक है। फिर वह सडक भी बरसाने के पिछली तरफ जा कर मिलती है। गांव की तंग गलियों में मंदिर का रास्ता पूछते-पूछते आगे बढते हुए पता चला कि पहाड़ी पर बने मंदिर के लिए दो रास्ते हैं एक पैदल पथ और दूसरा वाहनों के लिए। वैसे तो मेरा विश्वास है कि धार्मिक स्थलों पर पैदल ही जाना चाहिए पर समय के टोटे के कारण गाड़ी वाले मार्ग को प्राथमिकता दी गयी। और यही गल्ती हो गयी। जिसका बाद में जा कर एहसास हुआ। तो गाड़ी धीरे-धीरे संकरी गलियों को पार कर एक ऐसी जगह आ गयी जहां एक उबड़-खाबड़, ऊंचे-नीचे बेतरतीब पत्थरों से ढका, करीब सात-आठ फुट चौड़ा, दोनों ओर दो-ढाई फुट की उचाईयों से घिरा, पालिथिन के कचड़े, धूल-मिट्टी तथा घरों के कूड़े से भरा एक सर्पीला सा मार्ग जैसा कुछ पहाड़ी पर ऊपर उठता जा रहा था। पता चला कि यही वाहन पथ है। इतने में गांव के बच्चों ने कार को घेर लिया और आवाजें आने लगीं ‘गाड़ी रोकूं ? गाड़ी रोकूं ? ज्ञान में इजाफा हुआ कि उस नाले रूपी मार्ग से चूंकी एक बार में एक ही गाड़ी निकल सकती है इसलिए नीचे से या ऊपर जाकर गाड़ियों को रास्ते में दाखिल होने के पहले एक छोर खाली रखना होता है नहीं तो बीच में फंस जाने पर बहुत दिक्कत होती है। बच्चों को इस काम में मजा आता है ऊपर से तीस-चालीस रुपयों की कमाई हो जाती है। खैर नुकीले पत्थरों पर गाड़ी के दुख में दुखी होते ऊपर प्रांगण में जा पहुंचे।

राधा मंदिर एक विशाल हवेली में स्थित है जो राधाजी के बचपन, किशोरावस्था की साक्षी है। मुख्य भवन दिवार से घिरा हुआ है, जिनमें कमरे बने हुए हैं उनमें बहुत से परिवारों का निवास है जो अपने आप को राधा जी के पिता वृषभान जी का वंशज बताते हैं। भवन में प्रवेश करने पर एक बड़ा सा हाल है जिसमें राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। शाम घिर रही थी दिल्ली वापस लौटना था सो कुछ भी मालूमात हासिल नहीं कर पाया। माथा टेक उसी सर्पीले मार्ग से वापसी शुरु हुई। इस बार ऊपर पहले से पहुंची पांच एक गाड़ियां और थीं। जैसे ही समतल पर आने को हुए सामने की दो गाड़ियों के रुकने से सारा काफिला रुक गया। पांच मिनट, दस मिनट हो गये, मैं अपने लिए रास्ता बनाने वाले बच्चे को साथ ही ले आया था उसे ही कहा कि क्या हुआ है देख कर आए उसने बताया कि सामने ‘पशुओं’ को पानी पिला रहे हैं। मुझसे रहा नहीं गया। सामने जाकर देखा एक घुंघट धारी महिला घर के बाहर बाल्टी में भैंसों को पानी दे रही है। जिससे वह गली रुपी रास्ता बंद हो गया है। उसे वहीं के एक आदमी ने कहा भी कि गाड़ी निकल जाने दे पर उसने जैसे सुना ही नहीं। वहीं और कहीं से अपनी सायकिल पर आता एक और माणस खड़ा हो हमारे तमाशे का आनंद ले रहा था। उसे ही मैंने कहा कि इनसे कहो कि दो मिनट भी नहीं लगेंगे हमें निकल जाने दें फिर बिना किसी चिल्ल-पौं के पानी पिलवा दें। वह उस महिला को कनखियों से देख बोला जी पशु प्यासे हैं पहले वे पानी पीयेंगे। मेरे दिमाग में कुछ गर्म-गर्म हुआ पर फिर भी संयत स्वर में मैंने उसी से कहा (महिला तो निर्विकार थी जैसे वहां हो ही नहीं) कि बाहर से यहां आने वाले लोग आपके मेहमान जैसे हैं। वैसे भी इधर कम ही लोग आते हैं ऊपर से तुम्हारी ऐसी हरकतों से तो गांव की बदनामी ही तो होगी। अच्छे बर्ताव का अनुभव ले कर जाएंगे तो तुम्हारा और गांव का भला ही होगा। गाड़ियां निकल जाएंगी तो बिना शोर-शराबे के निश्चिंत हो पशू भी आराम से पानी पी सकेंगे। सिर्फ जिद के कारण तमाशा मत बनाओ। शायद राधाजी ने उसको सद्बुद्धी दी उसने उस महिला को कुछ कहा और भैंसें किनारे कर दी गयीं। सबने राहत की सांस ली पर आधा घंटा तो खराब हो ही गया था। इस बार लौटने का रास्ता दूसरा था जो मथुरा से करीब 40 की मी पहले मुख्य मार्ग में आकर मिलता है। साफ सुथरी बढिया सडक फिर भी घर पहुंचते-पहुंचते 9 बज ही गये थे।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पुराने दोस्त सोने जैसे होते हैं और नए दोस्त हीरे की तरह

पुराने दोस्त कंचन यानि सोने की तरह होते हैं और नये दोस्त हीरे की तरह। पर यदि हीरे जैसे दोस्त मिलें तो भी पुराने दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि हीरा भी सोने में ही जड़ा जा कर शोभा पाता है।

जब हम दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं तो भगवान हमारी पुकार सुन उनकी मदद करते हैं। इसलिए जब हम सुख-शांतिमय समय बिताते हैं तो याद रखना चाहिए कि कोई हमारे लिए प्रार्थना कर रहा है।

चिंता आने वाले कल की मुसीबतें तो दूर नहीं ही करती उल्टे आज की शांति भी छीन लेती है।

कार का आगे का शीशा काफी बड़ा होता है, जबकि पीछे देखने वाला बहुत छोटा, जो बताता है कि भूतकाल में जो हो चुका उसे भूल कर भविष्य सुधारने का प्रयास करो।
"बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध ले"

जब भगवान हमारी परेशानियां दूर करते हैं तो हमारा उनकी सक्षमता पर विश्वास और ज्यादा पुख्ता हो जाता है। पर जब वे हमारी परेशानियां दूर नहीं करते तो इसका सीधा अर्थ है कि उन्हें हमारी सक्षमता पर विश्वास है।

दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है यह सभी जानते हैं। इसलिए जब सुख, स्मृद्धी का दौर चल रहा हो तब उसका भरपूर आनंद उठाएं क्योंकि वह स्थायी नहीं है। पर जब सामने मुसीबतें आ खड़ी हों तब भी हौसला बनाए रखें क्योंकि वह भी कहां स्थायी हैं।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सागर में तैरने वाले को तरण-ताल में वह सुख कहाँ मिल पाता है

नमस्कार,
पंजाबी में एक कहावत है "मुड़, मुड़ खोती बोड़ हेंठा" यानि घूम फिर कर वहीं लौटना। (अब पूरा ट्रांसलेशन ना करवाएं :-) )

तो लब्बोलुआब यह है कि पूरे 26 दिनों बाद लौटना हुआ है। पूरे प्रवास के दौरान अपने अस्त्र-शस्त्र साथ ना होने से कितनी परेशानी होती है यह मैं ही जानता हूं। चाह कर भी आप किसी से बात नहीं हो पा रही थी। ना ढंग से दुआ सलाम हुई ना ठीक से आपके स्नेह का उत्तर दे पाया। इस सारे समय में तीन बार "कैफे" में जा कर कुछ करने की कोशिश की भी थी पर आप समझ सकते हैं कि सागर में तैरने वालों को तरण-ताल में क्या मजा आयेगा।

तो देर तो हुई है जिसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं। पर फिर भी मेरी तरफ से हरेक प्रिय जन को बीते पर्वों की तहे दिल से शुभकामनाएं तथा मेरे इस दुनिया में टपकने वाले दिन पर याद करने का बहुत-बहुत धन्यवाद।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक मासूम सी जिज्ञासा

सभी जानते हैं कि पेड़-पौधे सूर्य की रौशनी में आक्सीजन छोड़ते हैं और रात को कार्बन डाई आक्साइड। इसी लिए रात को पेड़ों के नीचे सोने को मना किया जाता है।
पर जंगलों में और उन घने जंगलों में जहां दिन में भी सूर्य की किरणें बमुश्किल पहुँच पाती हैं वहाँ जंगली जानवर और सारे पशु-पक्षी जिन्हें आक्सीजन की जरूरत होती है, रात को कैसे रह पाते हैं? जब कि वहाँ कार्बन डाई आक्साइड अपनी पूरी प्र्चन्ड़ता से उपस्थित होती होगी।

मंगलमय समय आप सब के लिए खुशियाँ, समृद्धि और शान्ति ले कर आए।
मेरे लिए भी :-)

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

शेरा को काम चाहिए

पिछले दस महीनों से कामनवेल्थ खेलों के "मास्कट" शेरा का रूप धरे सतीश बिदला खेलों के समापन के साथ ही बेरोजगार हो गए हैं।
दुबले पतले, शर्मीले स्वभाव वाले बिदला कहते हैं कि शुरू में उन्हें कम्युनिकेशन प्रभाग में काम मिला था। पर बाद में उनके स्वभाव को देख कर उन्हें "शेरा" बनने का मौका प्रदान कर दिया गया। १२वी पास सतीश बताते हैं कि जैसे-जैसे खेलों का समय नजदीक आता गया और शेरा की ख्याति बढ़ती गयी वैसे-वैसे उनके काम करने का समय भी अधाता गया। उनके अनुसार शेरा का सारा 'गेट-अप', जिसका वजन करीब ८ किलो था उस सबेरे९. बजे से शाम ६ बजे तक पहने रहना पड़ता था। उसी को पहने-पहने उन्हें स्कूल, कालेज, बाजार आदि का भ्रमण करना होता था तथा उसी को पहने-पहने विदेशी मेहमानों से भी मिलना होता था। मेरे जीवन के यादगार क्षण वे ठ जब मैं २६ जनवरी की परेड में शेरा बन कर शामिल हुआ था। राष्ट्राध्यक्ष प्रतिभा पाटिल और राहुल गांधी से मुलाक़ात भी नहीं भुला पाऊँगा। शेरा तो मेरा रूप ही हो गया है इसी ने मुझे प्रसिद्धी दिलवाई है। खेलों में भाग लेनेवाले इतने सारे खिलाड़ियों से मिलना, उनका स्नेह पाना सब शेरा की बदौलत ही हो पाया है। यह समय मेरी जिन्दगी का सबसे अहम् हिस्सा है। अब देखें आगे क्या होता है। फिलहाल तो मुझे काम की तलाश है।

ये तो रही शेरा के जीते जागते स्वरूप की बात। जब इन्हीं का यह हाल है तो उन हजारों "माडलों" का क्या हश्र होगा जिन पर लाखों रूपए लगा कर उन्हें जगह-जगह स्थापित किया गया था, सजावट के लिए। वे सारे के सारे अब बेकार की चीज हो गए हैं। उन्हें कहाँ रखा जाए या उनका क्या किया जाए इसे समझ नहीं पा रहे हैं कुर्सियों पर बैठे समझदार लोग। फिलहाल ये सारे "माडल" बेचारे किसी पार्क के कोने में या ऐसी ही किसी निर्जन जगहों पर पड़े धूल खा रहे हैं।

सही भी है न मतलब निकल गया है तो पहचानने की क्या जरूरत है।

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

prawas par hoon,

kisii ke rahane yaa naa rahane se koi phark kahaan padataa haj. phir bhii sochaa ki bataa hii diyaa jae. prawas par hoon. 20-22 din lag jayenge. ab aap sab to jante hii hain ki blogeria se piidit par kyaa gujaratii hai. aaj kaise bhii jugad bhidaayaa hai. hindi me ho nahii paa raha, par na maamaa se kanaa maamaa hi sahii.

sabko raam raam.

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

"माँ सिद्धिदात्री" जिनकी अनुकंपा से शिवजी अर्धनारीश्वर कहलाए.

नवरात्र-पूजन के नवें दिन "मां सिद्धिदात्री" की पूजा का विधान है।
मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व , ये आठ प्रकार की सिद्धियां होती हैं। मां इन सभी प्रकार की सिद्धियों को देनेवाली हैं। इनकी उपासना पूर्ण कर लेने पर भक्तों और साधकों की लौकिक-परलौकिक कोई भी कामना अधूरी नहीं रह जाती। परन्तु मां सिद्धिदात्री के कृपापात्रों के मन में किसी तरह की इच्छा बची भी नही रह जाती है। वह विषय-भोग-शून्य हो जाता है। मां का सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। संसार में व्याप्त समस्त दुखों से छुटकारा पाकर इस जीवन में सुख भोग कर मोक्ष को भी प्राप्त करने की क्षमता आराधक को प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था को पाने के लिए निरंतर नियमबद्ध रह कर मां की उपासना करनी चाहिए।

मां सिद्धिदात्री कमलासन पर विराजमान हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपरवाले दाहिने हाथ में गदा तथा नीचेवाले दाहिने हाथ में चक्र है। ऊपरवाले बायें हाथ में कमल पुष्प तथा नीचेवाले हाथ में शंख है। इनका वाहन सिंह है। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव को भी इन्हीं की कृपा से ही सारी सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी। इनकी ही अनुकंपा से शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था और वे "अर्धनारीश्वर" कहलाये थे।

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

"लो हम सब फिर भूल गये.! ! ! सबको याद दिलाना $$$ उसका क्या नाम है ! ! !"

जैसा कि अंदेशा था, खेलों के नशे ने, भव्यता की चकाचौंध ने, पदकों की बौछार ने सिर्फ और सिर्फ 15-20 दिन पहले के आक्रोश को, गुस्से को, तिलमिलाहट को भुलवा कर रख दिया। पहले इस तरह के भूलने को कुछ महीनों का समय लगा करता था पर इस बार यह आश्चर्यजनक रूप से इतनी जल्दि हो गया। प्रभू की मेहर है।

कहावत है कि नेता की पहली खासियत उसका 'चिकना घड़ा होना' जरूरी है, जिस पर कोई 'बाधा' नहीं व्यापति हो।
पता तो सबको है फिर भी एक बार और दुनिया ने देखा एक आम इंसान और "उसके सेवकों" में के फर्क का सच। यदि किसी साधारण आदमी पर कोई झूठा ही आरोप लग जाए तो उसका घर से निकलना दूभर हो जाता है। ग्लानी के मारे वह किसी से आंख नहीं मिला पाता। पर खेलों के उद्घाटन और समापन पर सबने देखा कि दुनिया भर में अपनी "करनी" के कारण नाम "कमाने" के बावजूद अगला कैसे मुर्गे की तरह गर्दन अकड़ा कर बिना किसी शर्मो-हया के हजारों लोगों के हुजूम के सामने आया, लगातार हूटींग के बावजूद आत्म प्रशंसा की और तो और खिलाड़ियों को पदक भी प्रदान किए। बेचारे खिलाड़ियों की मजबूरी थी कि वे ऐसे आदमी के हाथों पदक लेने से इंकार नहीं कर सकते थे पर मन ही मन सोच तो रहे ही होंगे कि यही बचा था हमारा सम्मान करने के लिए।
उधर उसके आकाओं के चेहरे पर व्याप्त संतोष भी इंगित कर रहा था कि तूफान गुजर चुका है। जैसे दुष्ट बच्चे की भूल पर उसके अभिभावक उसके कान मरोड़ कर एक चपत लगा अपने फर्ज की इतिश्री कर लेते हैं वैसा ही शायद कुछ हो गया हो। क्योंकि उद्घाटन और समापन के उद्बोधन में फर्क दिख रहा था। पहले भाषण में जहां चेहरे पर एक 'नर्वसनेस' छाई हुई थी, वहीं समापन दिवस पर उसी चेहरे पर आत्म विश्वास लौटता नजर आ रहा था।

बात वही है, कोई कितना चिल्लाता चीखता रहे, गैंड़े जैसी खालों पर क्या असर होने वाला है।

जय हिंद ।

जगत जननी माँ महागौरी

आज नवरात्रों का आठवां दिन है। आज के दिन दुर्गा माता के "महागौरी" स्वरूप की पूजा होती है।
पुराणों के अनुसार मां पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था। शिवजी ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर खुद इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कांतिमान, उज्जवल व गौर हो गया। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा।
इनकी आयु आठ वर्ष की मानी जाती है। इनके समस्त वस्त्र, आभूषण आदि भी श्वेत हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशुल है। ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे का बायां हाथ वर मुद्रा में है। मां शांत मुद्रा में हैं। ये अमोघ शक्तिदायक एवं शीघ्र फल देनेवालीं हैं। इनका वाहन वृषभ है।
भक्तजनों द्वारा मां गौरी की पूजा, आराधना तथा ध्यान सर्वत्र किया जाता है। इस कल्याणकारी पूजन से मनुष्य के आचरण से सयंम व दुराचरण दूर हो परिवार तथा समाज का उत्थान होता है। कुवांरी कन्याओं को सुशील वर तथा विवाहित महिलाओं के दाम्पत्य सुख में वृद्धि होती है। इनकी उपासना से पूर्व संचित पाप तो नष्ट होते ही हैं भविष्य के संताप, कष्ट, दैन्य, दुख भी पास नहीं फटकते हैं। इनका सदा ध्यान करना सर्वाधिक कल्याणकारी है।

श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।।

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

अतिश्योक्ति ही सही, पर यदि आपको अपने देश से प्यार है तो यह आपको अच्छा लगेगा.

एक पर्यटक पूरी दुनिया घूमने निकला। घूमते-घूमते वह रोम के गिरजा घर जा पहुंचा। वहां उसने एक स्वर्ण जड़ित फोन देखा जिसके पास लिखा हुआ था, एक काल के एक हजार डालर। वह बड़ा अचंभित हुआ कि सिर्फ एक काल के इतने पैसे। उसने वहां पता किया तो उसे बताया गया कि यहां से स्वर्ग में सीधे बात हो सकती है इसीलिए इतनी मंहगी काल है। वहां से वह जर्मनी गया। वहां भी उसे वैसा ही फोन और कीमत दिखी। अमेरिका में भी वही हाल था। योरोप वगैरह घूम वह खाड़ी के देशों में गया तो वहां भी उसे ऐसी व्यवस्था दिखी। अब तो वह जगहों को छोड़ हर देश के धार्मिक स्थलों में ऐसे फोन खोजता फिरा और उसे आश्चर्य हुआ कि चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, चीन हो या जापान, अफगानिस्तान हो या पाकिस्तान, चाहे रूस हो या अमेरिका, विज्ञान की तरक्की के कारण अब सब जगह यह सहूलियत मिलने लग गयी थी।

ऐसे ही घूमते-घूमते वह पर्यटक भारत भी आ तिरुपति जा पहुंचा। उसे जिज्ञासा हुई कि यह तो सब धर्मों को मानने वाला, ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाला देश है देखें यहां सीधे स्वर्ग से बात करने की सहूलियत है कि नहीं।
मंदिर में जरा सी कोशिश में ही उसे फोन भी दिख गया। पर वह यह देख आश्चर्यचकित हो खड़ा रह गया क्योंकि वहां एक काल का सिर्फ एक रुपया लिखा हुआ था। ऐसा कैसे हो सकता है ? यही सोचता हुआ वह मंदिर के पुजारीजी के पास गया और बोला, सर दुनिया भर में स्वर्ग में सीधे बात करने के हजारों रुपये लगते मैनें देखे हैं, पर यहां सिर्फ एक रुपया लिखा हुआ है, क्या गल्ति से ऐसा हुआ है?
पुजारी मुस्कुराए और बोले, बेटा तुम भारत में हो, जो अपने आप में स्वर्ग है। सो यहां यह लोकल काल है इसीलिए एक रुपया लिखा हुआ है।

सच है प्रकृति की नियामतों से भरपूर ऐसी जगह और कहाँ है।

"माँ कालरात्रि", स्वरूप चाहे कितना भी भयंकर हो, पर सदा शुभ फल देती हैं.

माँ दुर्गा जी की सातवीं शक्ति "कालरात्रि" के नाम से जानी जाती हैं। इनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। नासिका से अग्नी की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इनके चार हाथ हैं। उपरवाला दाहिना हाथ वरमुद्रा के रूप में उठा हुआ है तथा नीचेवाला अभयमुद्रा में है। उपरवाले बांयें हाथ में कांटा तथा नीचेवाले हाथ में खड़्ग धारण की हुई हैं। यद्यपि इनका स्वरूप अत्यंत भयानक है। परन्तु ये सदा शुभ फल देनेवाली हैं। इसी के कारण इनका एक नाम "शुभंकरी" भी है। इनका वाहन गर्दभ (गधा) है।

मां कालरात्रि दुष्टों का दमन करनेवाली हैं। इनके स्मर्ण मात्र से ही दैत्य, दानव, भूत-प्रेत आदि बलायें भाग जाती हैं। इनकी आराधना से अग्निभय, जलभय, जंतुभय, शत्रुभय यानि किसी तरह का डर नही रह जाता है।
इस दिन साधक को अपना मन 'सहस्त्रार चक्र में अवस्थित कर आराधना करने का विधान है। इससे उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुल जाते हैं। उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है और अक्षय पुण्यों की प्राप्ति होती है

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रीर्भयंकारी।।

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

"माँ कात्यायनी" देवी दुर्गा का छठा स्वरूप

पुराणों के अनुसार महर्षि 'कत' के पुत्र 'ऋषि कात्य' के गोत्र में महान 'महर्षि कात्यायन' का जन्म हुआ था। इन्होंने मां भगवती की कठोर तपस्या की थी। जब दानव महिषासुर का संहार करने के लिये, त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने अपने तेज का एक-एक अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था तब महर्षि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी। इसी कारणस्वरूप ये कात्यायनी कहलायीं।

इनका स्वरूप अत्यंत ही भव्य व दिव्य है। इनका वर्ण सोने के समान चमकीला तथा तेजोमय है। इनकी चार भुजाएं हैं। मां का उपरवाला दाहिना हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचेवाला वरमुद्रा में है। बायीं तरफ के उपरवाले हाथ में तलवार और नीचेवाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।

मां कात्यायनी अमोघ फल देनेवाली हैं। इनकी आराधना करने से जीवन में कोई कष्ट नहीं रहता। इस दिन साधक मन को 'आज्ञा चक्र' में स्थित कर मां की उपासना करते हैं। जिससे उन्हें हर तरह के संताप से मुक्त हो परमांनंद की प्राप्ति होती है।

चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूल वरवाहना ।
कात्यायनी शुभ दद्याद्देवी दानवघातिनी ॥

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

माँ का पांचवां स्वरूप "स्कन्दमाता", जिनके पूजन से शांति और पराक्रम में वृद्धि होती है।

नवरात्रि के पांचवें दिन मां दुर्गा के "स्कन्दमाता" स्वरुप की आराधना की जाती है।

स्कन्द, भगवान कार्तिकेय का ही एक नाम है। इन्हीं की माता होने के कारण मां दुर्गा को स्कन्दमाता के नाम से भी जाना जाता है। इनकी चार भुजाएं हैं। अपनी दाहिनी भुजा में इन्होंने भगवान् कार्तिक को बाल रुप में उठा रखा है, दुसरी भुजा अभय मुद्रा में उठी हुई है तथा बाकि दोनों हाथों में कमल-पुष्प है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। सिंह भी इनका वाहन है।इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं तथा उसे परम शांति और सुख की प्राप्ति होती है। स्कन्दमाता की आराधना से बालरुप स्कन्द भगवान की भी उपासना अपने आप हो जाती है।

नवरात्रि की पंचमी को स्कन्दमाता की आराधना करते समय साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होना चाहिए। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक भी अलौकिक तेज व कांति से संपन्न हो जाता है।

सिंहासनम्ता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

जिनके सहयोग से ब्रह्मांड की रचना संभव हो सकी, "माँ कूष्मांडा"

जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर सिर्फ़ अंधकार ही अंधकार था, तब "मां कूष्माण्डा" के सहयोग से ही ब्रह्माण्ड की रचना संभव हो पायी थी।

इनकी मंद हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा देवी अभिहित किया गया। यही सृष्टि की आदि शक्ति हैं। इनका निवास सूर्य लोक में माना जाता है। इनके शरीर की कांति, रंगत व प्रभा सूर्य के समान ही तेजोमय है। कोई भी देवी-देवता इनके तेज और प्रभाव की समानता नहीं कर सकता। इन्हीं के तेज से दसों दिशाएं प्रकाशमान होती हैं। इनके आठ हाथ हैं, जिनमें कमण्डल,धनुष, बाण, कमल, कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सिद्धियां प्रदान करने वाली जप माला है। इनका वाहन सिंह है। इनकी आराधना से यश,बल आयु तथा आरोग्य प्राप्त होता है। सभी प्रकार की सिद्धियां इनके आशिर्वाद से सुलभ हो जाती हैं।

चूंकि ये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण हैं इसलिए संतान प्राप्ति की कामना रखने वाले को मां कूष्माण्डा की पूजा अर्चना करने से लाभ होता है। इस दिन साधक का मन 'अनाहत चक्र' में अवस्थित होता है। सच्चे मन से इनकी शरण में जाने से मनुष्य को परमपद प्राप्त हो जाता है।

*********************************************
सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधाना हरतपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
**********************************************

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

परम शान्तिदायक तथा कल्याणकारी " माँ चंद्रघंटा"

नवरात्रि के तीसरे दिन, मां दुर्गा की तीसरी शक्ति "मां चंद्रघंटा" की आराधना की जाती है। इनका यह स्वरुप परम शांति तथा कल्याण प्रदान करने वाला है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान है तथा मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसीसे इनका नाम "मां चंद्रघंटा" पड़ा। इनके दस हाथ हैं जिनमें अस्त्र-शस्त्र विभुषित हैं। इनका वाहन सिंह है।आज के दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन तथा दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं। पर इन क्षणों में साधक को बहुत आवधान रहने की जरुरत होती है। मां चंद्रघण्टा की दया से साधक के समस्त पाप और बाधाएं दूर हो जाती हैं। इनकी आराधना से साधक में वीरता, निर्भयता के साथ-साथ सौभाग्य व विनम्रता का भी विकास होता है। मां का ध्यान करना हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देनेवाला होता है ************************************************
पिण्डजप्रवरारूढा चण्कोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्मां चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
************************************************

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

1857 की बदनसीब शहजादियाँ

1857 के गदर को दबाने के बाद बौखलाए हुए अंग्रेजों ने दिल्ली का जो हाल किया उसे शब्दों में बयान करना बहुत मुश्किल है। जुल्म और बर्बरता की इंतिहा थी। लूट-खसोट, आगजनी, हत्याएं यानि हैवानियत का नंगा नाच शुरु हो गया था। एक दरिंदा जो भी कुकर्म कर सकता है वह वहां हो रहा था। लोग जान बचाने को शहर छोड़ कर जहां जरा सी बचने की गुंजाइश दिखती वहां भाग रहे थे।

दिल्ली की दुर्दशा की पल-पल की खबरें लाल किले के अंदर पहुंच रही थीं। वहां एक अजीब तरह की दहशत छाई हुई थी। मौत के ड़र ने पूरे किले को अपने आगोश में ले रखा था। बादशाह जफर को अपने से ज्यादा अपने परिवार की चिंता खाए जा रही थी, जिन्हें दो-दो दिनों से खाना तक नसीब नहीं हुआ था। पर वहां खाना तो दूर जान के लाले पड़े हुए थे।

बादशाह किसी भी तरह अपने परिवार को अंग्रेजों के हाथों होने वाली दुर्दशा से बचाना चाहता था। पर कोई भी उपाय या सहायता नहीं सूझ रही थी। अंत में कोई और उपाय ना देख उसने आधी रात के समय अपनी सबसे लाड़ली शहजादी को अपने पति और एक माह की बेटी के साथ किले से निकल जाने को कहा। कुछ जवाहरात देकर अपनी बेगम नूरमहल को भी उनके साथ कर दिया। किसी तरह बचते-बचाते यह काफिला अपने रथवान के गांव में शरण ले सका। पर दो दिन के बाद ही गांव वालों को शाही मेहमानों का पता चल गया और उन्होंने ही परिवार को लूट कर कंगाल बना दिया। वहां से किसी तरह बेगम और शहजादी अपने लोगों के साथ हैदराबाद पहुंचे और वहां से मक्का के लिए रवाना हो गये। उसके बाद उनका कोई पता नहीं चला।

इसी तरह बादशाह की एक पोती थी चमन आरा। किले से भागते वक्त उसके साथ के सारे लोग मारे गये। शहजादी को अंग्रेज अफसर से मांग कर एक सिपाही अपने घर ले गया। देश की शहजादी जिसके एक हुक्म पर सैंकड़ों नौकर भागते आते थे, वही नन्हीं सी जान छोटी सी उम्र में एक सिपाही और उसके घर को संभालती रही।

बादशाह की एक और पोती थी शहजादी रुखसाना। जब दिल्ली पर कहर बरपा तो सबको अपनी-अपनी जान की पड़ गयी। बादशाह भी किसी तरह भाग कर हुमायूं के मकबरे में जा छिपा। पर रुखसाना किले के बाहर निकल नहीं पाई। उसकी देख-रेख करने वाली दाई ने अंग्रेजों की मिन्नत आरजू कर उसकी जान बचाई। दो दिनों के बाद उसे एक मुसलमान अधिकारी के हवाले कर दिया गया। पर वह भी एक मुठभेड़ में मारा गया। रुखसाना जान बचाने की खातिर भागते-भागते उन्नाव जा पहुंची। वहां के एक जमिंदार परिवार ने उसे शरण दी तथा उसका विवाह भी करवा दिया। पर बदकिस्मति ने उसका साथ नहीं छोड़ा। जमिंदारों की आपसी कलह में उसके पति और श्वसुर की हत्या हो जाने पर वह एक बार फिर सड़क पर आ गयी। जहां से भाग्य ने उसे फिर दिल्ली ला पटका। जहां उसे अपना गुजारा जामा मस्जिद की सीढियों पर भीख मांग कर करना पड़ा।

ऐसी ही अनेक दुर्दशाओं में एक दास्तान है बादशाह जफर की एक और पोती गुलबदन की। बादशाह का उस पर असीम स्नेह था। महल में उसकी तूती बोलती थी। उसके एक इशारे पर वारे न्यारे हो जाते थे। पर वक्त की मार। जान बचाने के लिए अपनी मां के साथ भागते-भागते महीनों इधर-उधर बदहाली की अवस्था में छुपते-छुपाते जैसे-तैसे अपने दिन निकाल रही थी। अंग्रेजों के ड़र से कोई भी उन्हें शरण देने को तैयार न था। अक्सर उन्हें फाका करना पड़ता था। इसी कारण उसकी मां बिमार रहने लगी। ऐसे में ही चिराग दिल्ली की एक दरागाह में आंधी-पानी से बेहाल उसकी मां ने दम तोड़ दिया। गुलबदन अपनी मां से बेहद प्यार करती थी। उसकी मौत पर वह रात भर उससे लिपट कर रोते-रोते ऐसी मुर्च्छित हुई कि फिर उसे भी होश नहीं आया। कहते हैं दोनों मां बेटी के शरीर जंगल के जानवरों की खुराक बन गये।

नवरात्र के दूसरे दिन माँ के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा होती है.

पहले एक बात कहना चाहता हूं। आम लोगों की तरह, वही कुछ रटे-रटाए श्लोकों को छोड़ (उन्हें भी लिखना पड़े तो शायद पसीना आ जाए) संस्कृत में मेरा हाथ तंग ही है। सो इन नौ दिनों के "संकलन" में यदि कोई गल्ती, गल्ती से हो जाए तो क्षमा करेंगे।

नवरात्र के दूसरे दिन "माँ ब्रह्मचारिणी" की आराधना की जाती है। पुराणों के अनुसार पर्वत राज हिमालय के घर जन्म लेने के बाद नारद मुनी के उपदेश से इन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। पहले कंद मूल फिर शाक और फिर सिर्फ़ जमीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को ग्रहण करते हुए अहर्निश भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद उन्होंने पत्रों का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका एक नाम "अपर्णा" भी पड़ा। हजारों साल तक चली इस साधना के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। उनके इस कृत्य से चारों ओर उनकी सराहना होने लगी थी। इस पर ब्रह्माजी ने उन्हें मनोकामना पूरी होने का वरदान दिया। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इनका नाम तपकारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी पड़ा।

माँ दुर्गा का यह रूप भक्तों और सिद्धों को अनंतफल देने वाला है। जीवन के कठिन समय में भी हतोत्साहित ना होने देने वाली, वैराग्यवत साहस देने वाली, सदाचार से जीवन व्यतीत करने वालों का साथ देने वाली, अपने कर्तव्य पथ से विचलित ना होने देने वाली अति दयालु माता हैं।इस दिन साधक का मन "स्वाधिष्ठान चक्र" में स्थित होता है। योगी उनकी कृपा तथा भक्ती पूर्ण रूप से प्राप्त करता है।

दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

माँ का स्वागत करें

मेहमानों की आवाजाही से हमारे यहां तो रौनक लगी रही। पहले तो गणपतजी पधारे, वैसे तो उनसे संपर्क बना रहता है पर उनका आना साल में एक बार ही हो पाता है। काफी व्यस्त रहते हैं। उनकी आवभगत में समय का पता ही नहीं चल पाया। उनके जाने के दूसरे दिन ही पितरों का आगमन हो गया, कल ही उनकी विदाई हुई और आज माँ के स्वागत का सौभाग्य प्राप्त हो गया। अपनी तो मौजां ही मौजां।

आज से नवरात्र पर्व शुरु हो रहे हैं। आप सब को भी माँ का ढ़ेरों- ढ़ेर प्यार और आशीष मिले। इन नौ दिनों में माँ के नौ स्वरुपों की पूजा होती है। आज पहला दिन है और आज माँ का "शैलपुत्री" के रूप में पूजन होता है। पर्वत राज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण इनका यह नाम पड़ा। इनका वाहन वृषभ है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल पुष्प सुशोभित रहता है। इनका विवाह भी भगवान शिवजी से ही हुआ। नव दुर्गाओं में प्रथम, माँ शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियां अनंत मानी जाती हैं। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का शुभारंभ होता है

वन्दे वाच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

इज्जत बचाने के लिए कुछ भी करेगा

हम में से अधिकांश लोगों का यह सोचना है कि आज के खिलाड़ियों को पिछले समय से ज्यादा धन प्राप्त होता है। इसका कारण भी है कि कुछ ही सालों पहले, अभी सोने की खन बने क्रिकेट को खेलने वाले खिलाड़ी सायकिलों पर खेलने आया जाया करते थे और दो-तीन सौ रुपयों के लिए अकड़ु क्लर्क के सामने खड़ा रहना पड़ता था। पर कैलिफोर्निया विश्विद्यालय के प्राध्यापक डा.डेविड यंग ने अपनी खोजों से जो बातें दुनिया के सामने रखी हैं वे हैरतगेंज हैं। डा.यंग बताते हैं कि ईसा से पहले प्राचीन ग्रीक औलंपिक में रोमन खिलाड़ी ढाई लाख पौंड सालाना के बराबर पैसा कमा लेते थे। उस समय एक जीत हासिल करने पर उन्हें ताउम्र दस हजार पौंड के बराबर पेंशन मिला करती थी। अच्छे खिलाड़ियों के लिए एक साल में पांच-सात जीत हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं थी।
डा. यंग के अनुसार उस समय खेलने वालों को सिर्फ पैसा ही नहीं मिलता था बल्कि उन्हें आजीवन मुफ्त खाना, रहना तथा अन्य कीमती उपहार भी प्राप्त होते रहते थे।
************************************************
ऊपर बात थी अपनी मेहनत के बल पर कुछ प्राप्त करने की। अब देखीए ईर्ष्या के कारण चीजें इकट्ठी करने की लत।

किश्तों पर अपना सामान बेचने वाली एक फर्म ने बोस्टन की अदालत में मिसेज फोरमैन से अपना सामान वापस लेने के लिए मुकदमा दायर किया था। फर्म का कहना था कि मिसेज फोरमैन ने उनकी फर्म से वाशिंग मशीन, रेफ्रिजेटर, वैक्यूम क्लीनर, रंगीन टी.वी., हेयर ड्रायर जैसा सामान ले तो लिया पर उसकी एक भी किश्त नहीं चुकाई।
मजे की बात यह कि यह सारा बिजली का सामान लिया तो गया पर उनके घर पर बिजली का कनेक्शन ही नहीं था। जज ने हैरान हो पूछा कि जब आपके घर में बिजली नहीं थी तो आपने इतने सारे बिजली से चलने वाले उपकरण क्यों खरीदे?
इस पर मिसेज फोरमैन ने जवाब दिया, सर मेरी सारी पड़ोसनों के पास ऐसी सारी चीजें थीं जिनकी बातें सुन मुझे शर्म आती थी इसलिए मैने ये सारी चीजें ले लीं।
जज ने पूछा आपके पति ने आपको कभी मना नहीं किया इस बात के लिए?
जी कभी नहीं। उन्होंने भी तो इस फर्म से इलेक्ट्रिकल रेजर खरीदा है। मिसेज फोरमैन का जवाब था।


कैसी लगी यह हिमाकत बताईयेगा।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

अब तो सिर्फ खेलों की सफलता की कामना है.

तमाम आरोपों, प्रत्यारोपों, शंकाओं के बावजूद कामनवेल्थ खेल समय पर शुरु हो गये। और क्या खूब शुरू हुए। इतना भव्य, सुंदर, दिल मोह लेने वाला नजारा बहुत कम देखने को मिलता है। दूरदर्शन पर प्रसारित सारे मंजर को लोग मंत्रमुग्ध हो देखते रहे। जिनमें मैं भी था।

अपने दिल की एक बात उजागर करता हूं। सोच कर हंसी भी आती है पर पूरे प्रसारण के दौरान यही प्रार्थना करता रहा कि प्रभू देश की लाज रखना। कहीं ऐसा ना हो कि यह 25 मीटर ऊपर टंगा गुब्बारा या उसमें टंगी कठपुतलियाँ नीचे आ गिरे। भगवान ने मेरी तो सुन ली पर कलमाड़ी की नहीं सुनी। लोगों ने उसके खड़े होते ही जो हूटींग करनी शुरु की उसका प्रभाव उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। लगता है लोगों को सुरक्षा बल द्वारा शांत करवाया गया होगा।

मैं उन सब कलाकारों को हार्दिक बधाई देना चाहता हूं जिन्होंने अपने मनोबल को तरह-तरह की खबरों के बीच भी बनाए रखा और ऐसी प्रस्तुति दी कि दुनिया देखती रह गयी। नमन है उस रात को यादगार बनाने वाले सारे कलाकारों को।

अब आशाएं टिकी हैं अपने खिलाड़ियों पर जो देश का नाम रौशन करने के लिए उतावले हैं।

जय हिंद।

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

कहाँ गए ऐसे लोग

उन दिनों गांधीजी तथा सरदार पटेल नरवदा जेल में थे। दोनों सुबह-सुबह नीम की दातुन किया करते थे। इसके लिए पटेल वहीं के पेड़ से रोज दातुन बना लिया करते थे। यह देख गांधीजी ने कहा, रोज-रोज दातुन लाने की जरूरत नहीं है। इस्तेमाल किया हुआ हिस्सा काट देने से दातुन बहुत दिनों तक चल सकती है। पटेल ने कहा, पर यहां नीम की बहुत सी टहनियां उपलब्ध हैं। गांधीजी ने कहा, हैं तो पर हम उनका दुरुपयोग तो नहीं कर सकते।
***********************************************
एक बार गांधीजी तथा सरोजिनी नायड़ू आगा खां महल में थे। एक दिन सरोजिनीजी ने गांधीजी को अपने साथ बैड़मिंटन खेलने को कहा। सरोजिनीजी के दाहिने हाथ में कुछ तकलीफ थी सो उन्होंने अपने बायें हाथ में रैकेट थाम रखा था। इसे देख बापू ने भी अपने बायें हाथ में रैकेट पकड़ लिया। इसे देख सरोजिनीजी हंस पड़ीं और पूछने लगीं कि आपने बायें हाथ में रैकेट क्यों पकड़ा है? बापू बोले, तुमने भी तो बायें हाथ में ले रखा है। सरोजिनी बोलीं कि मेरे तो दाहीने हाथ में दर्द है इसलिए मैंने उसे बायें हाथ में लिया है। बापू ने तुरंत जवाब दिया, मैं तुम्हारी कमजोरी का लाभ नहीं उठाना चाहता।
**************************************************
उन दिनों लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधान मंत्री थे। तभी एक प्रतिष्ठित व्यापारिक प्रतिष्ठान से उनके बड़े पुत्र हरिकृष्णजी को नौकरी की पेशकश की गयी। हरिकृष्णजी ने इसके बारे में अपने पिता लाल बहादुरजी को जानकारी दी। उन्होंने कहा कि यह प्रस्ताव मेरे प्रधान मंत्री होने के कारण आया है अब यह तुम्हारे विवेक पर निर्भर करता है कि तुम यह काम करो या ना करो। यदि तुम समझते हो कि यह काम तुम्हारी लियाकत के अनुरूप है तो जरूर जाओ अन्यथा नहीं।हरिकृष्णजी ने भी बिना एक क्षण गवांए तुरंत संस्थान को मना कर दिया।

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

इस सप्ताह मेरे जैसा ही कुछ तो नहीं दिया आपने दूसरों को ?

आजकल "देने के सुख का सप्ताह" यानि Joy of giving week चल या चलाया जा रहा है। जो याद दिला रहा है कि कुछ दान दक्षिणा करो भाई देखो कितना सुख मिलता है (किसे? खरीदना तो बाजार से ही है ना :-)) याद करो तुम्हारे पूर्वज कैसा-कैसा दान करते थे, देते-देते खुद नंगे-भिखमंगे हो जाते थे। बहुतों ने तो इस सुख के लिए अपनी जान तक गंवा दी थी। कयी रसातल में जा पहुंचे थे। बहुतों ने तो अपना परिवार तक गंवा दिया था। तुम भी सोचो मत दूसरों को कुछ तो दो।

इस समझाइश से थोड़ा जागरुक हो कर अपने चारों ओर नजर दौड़ाई तो पाया कि प्रकृति और भगवान जैसी दार्शनिकता को छोड़ भी दें तो भी कोई ना कोई कुछ ना कुछ तो दे ही रहा है। और बदले में खुश हो रहा है।
कुंठाई देने लेने को देखें तो नेता वर्षों से आश्वासन देता आरहा है और परिवार समेत खुश रहता है। कारोबारी प्रलोभन देता है और अपनी खुशी का इंतजाम करता है। छोटे व्यापारी तीन के बदले चार जैसा कुछ देते हैं, देने वाला जेब कटवा कर और लेने वाला दाम बना कर खुश हो जाते हैं।

पर कहीं-कहीं आपको सचमुच कुछ देकर भी खुश होने वाले लोग हैं। जिनसे आप रोज कुछ पाते हैं पर ध्यान नहीं देते। बुजुर्ग आशीर्वाद देते हैं जिससे आपको संबल मिलता है, मनोबल बना रहता है। पत्नी मुस्कान देती है, आपका हाथ बटाती है, घर-घर लगता है। भाई-बहन स्नेह देते हैं। बच्चे प्यार देते हैं। आपका जीवन सुखमय बना रहता है।
इतना सब मनन-चिंतन कर मैंने सोचा कि देखूं तो मैंने क्या दिया है दूसरों को? कुछ समझ नहीं आया, फिर थोड़ा ध्यान लगाया, याद किया सुबह से अपनी गतिविधियों को तो पाया कि सुबह से मैं भी बहुत कुछ देता आ रहा हूँ सभी को।
सबेरे मां पापा को बिना मिले, बताए निकल आया था, चिंता सौंप आया अब दिन भर फिक्र करेंगे कि गुमसुम सा गया है सब ठीक-ठाक हो।
महीने का अंत है, पर्स कहता है मुझे हाथ मत लगाओ, पत्नी परेशान थी कुछ जरूरी खरीदारी करनी थी, ड़पट दे कर आया था।
बच्चे तना चेहरा देख दुबके रहे भारीपन महसूसते तो होंगे ही।
दफ्तर आ कर दो-चार को हड़कान दी बेवजह तनाव बनाया।
काम जरूरी था। बास सोच रहा था शर्मा आएगा तो हो जाएगा। उसे भी टेंशन थमा दिया कि आज तो पूरा नहीं ही हो पाएगा।

लगा मुझे यह कैसा है मेरा देना? जो चारों ओर तनावयुक्त माहौल बनाता है। सभी को तो कुछ ना कुछ तो दिया ही पर कोई भी खुश नजर नही आता। यहां तक कि मैं खुद अजीब सा महसूस कर रहा हूं। सिर भारी हो गया है। धड़कनें तेज हो रही हैं। रक्त-चाप बढा हुआ लग रहा है। थकान हावी है। यह कैसा सुख है देने का?
सोचीए ध्यान से कहीं आप भी तो मेरी तरह ऐसा ही कुछ तो नहीं दे रहे दूसरों को ?

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

जब ध्येय एक ही है तो फिर विवाद क्यों ?

विड़ंबना है या देश का दुर्भाग्य। ध्येय एक ही होने के बावजूद दसियों सालों से अयोध्या का विवाद क्यों है? जबकि हर पक्ष वहां पूजा, अर्चना ही करना चाहता है।
जिसकी पूजा करनी होती है वह श्रद्धेय होता है। उसके सामने झुकना पड़ता है। अपना बर्चस्व भूलाना पड़ता है।यहां लड़ाई है मालिक बनने की। अपने अहम की तुष्टी की। वही अहम जिसने विश्वविजयी, महा प्रतापी, ज्ञानवान, देवताओं के दर्प को भी चूर-चूर करने वाले रावण को भी नहीं छोड़ा था।
या फिर नजरों के सामने हैं - तिरुपति, वैष्णव देवी या शिरड़ीं ?

बुधवार, 29 सितंबर 2010

प्रख्यात फ़िल्म अभिनेता मोतीलाल को सिर्फ एक सिगरेट के कारण फ़िल्म छोड़नी पड़ी थी.

पहले के दिग्गज फिल्म निर्देशकों को अपने पर पूरा विश्वास और भरोसा होता था। उनके नाम और प्रोडक्शन की बनी फिल्म का लोग इंतजार करते थे। उसमे कौन काम कर रहा है यह बात उतने मायने नहीं रखती थी। कसी हुई पटकथा और सधे निर्देशन से उनकी फिल्में सदा धूम मचाती रहती थीं। अपनी कला पर पूर्ण विश्वास होने के कारण ऐसे निर्देशक कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं करते थे। ऐसे ही फिल्म निर्देशक थे वही। शांताराम। उन्हीं से जुड़ी एक घटना का जिक्र है :-

#हिन्दी_ब्लागिंग 
उन दिनों शांतारामजी डा. कोटनीस पर एक फिल्म बना रहे थे "डा. कोटनीस की अमर कहानी।" जिसमें उन दिनों के दिग्गज तथा प्रथम श्रेणी के नायक मोतीलाल को लेना तय किया गया था। मोतीलाल ने उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया था। शांतारामजी ने उन्हें मुंहमांगी रकम भी दे दी थी।
शांताराम 
पहले दिन जब सारी बातें तय हो गयीं तो मोतीलाल ने अपने सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और वहीं पीने लगे। शांतारामजी बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। उनका नियम था कि स्टुडियो में कोई धुम्रपान नहीं करेगा। उन्होंने यह बात मोतीलाल से बताई और उनसे ऐसा ना करने को कहा। मोतीलाल को यह बात खल गयी, उन्होंने कहा कि सिगरेट तो मैं यहीं पिऊंगा। शांतारामजी ने उसी समय सारे अनुबंध खत्म कर डाले और मोतीलाल को फिल्म से अलग कर दिया। फिर खुद ही कोटनीस की भूमिका निभायी।
मोतीलाल 
इक्के-दुक्के निर्देशक को छोड़ क्या ऐसी हिम्मत है आज किसी निर्माता या निर्देशक में ?

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

आस्कर रूपी छलावे के पीछे दौड़ते आमिर

बहुतों का मेरी इस सोच से इत्तफाक नहीं होगा। पर जितना ही आमिर जाहिर करते रहे हैं कि उन्हें पुरस्कारों से लगाव नहीं है उतना ही उनका झुकाव आस्कर की ओर नजर आने लगा है। जैसे वही एक लक्ष्य रह गया है उनके लिये। लगता है कि उनकी दिली तमन्ना है कि वे अपने प्रतिद्वदियों को दिखा दें कि क्या तुम और तुम्हारे "इंडियन एवार्ड" देखो मैं आस्कर ले कर आया हूं।
वैसे भी इस पुरस्कार की दौड़ में शामिल होते ही सुर्खियां बटुरने लगती हैं। यह साल में इक्का-दुक्का फिल्म करने वाले आमिर को खबरों में बनाये रखने के लिए संजीवनी सा काम भी करती रहती है। यह तो सच है कि आमिर की फिल्में अपने विरोधियों से सदा 21 ही रहती हैं भले ही कभी-कभी टिकट खिड़की पर उतना पैसा ना बटोर पाएं। पर इस बार जिस फिल्म पर उन्होंने आशा बांधी है वह पूरी होती नहीं लगती। 'पिपली लाइव' उस स्तर की फिल्म नहीं बन पाई है जो आस्कर को भारत ला सके। यदि इस फिल्म से आमिर का नाम हट जाए तो वह किस स्तर की रह जाती है ?

इस फिल्म को लेकर जो भी जो भी शोर-शराबा हुआ (36 गढ को छोड़ कर, यहां तो इससे भावनाएं जुड़ गयीं) यह जो भी रंग जमा सकी वह सिर्फ आमिर के नाम, दाम और प्रचार के कारण ही संभव हो पाया था। अब विदेश में भी पैसा और प्रचार आंधी-पानी की तरह बहेगा पर कोई सकारात्मक परिणाम निकलेगा इसमें................

काश आमिर "इकबाल" या "बम-बम भोले" जैसी फिल्मों से जुड़े होते।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

नए भवनों पर बहुधा लगी "बजरबट्टू" की आकृति आखिर है किस की ?

अधिकांश नये और सुंदर बने भवनों पर एक ड़रावना कले रंग का चेहरा किसी हांडी या तख्ती पर बना छत के पास टंगा नजर आता है। जिसमें बड़ी-बड़ी मूंछें, लाल-लाल आंखें और बाहर निकले दांत दर्शाए गये होते हैं। ऐसी सोच है कि यह नये बने भवन को बुरी नजर से बचाता है। इसे ज्यादातर बजरबट्टू के नाम से जाना जाता है।
कौन है यह बजरबट्टू ? और कैसे यह बचाता है बुरी नजर से, यदि होती है तो?

पुराणों में इसके बारे में एक कथा है। जालंधर नाम का एक दैत्य हुआ करता था। उसने ब्रह्माजी को अपने तप द्वारा प्रसन्न कर असीम बल प्राप्त कर लिया था। जिसकी बदौलत उसने देवताओं को भी पराजित कर स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया था। इससे उसे अत्यधिक घमंड़ हो गया था और वह अपने समक्ष सबको तुच्छ समझने लग गया था। अहंकारवश वह नीति अनीती सब भुला बैठा था। हद तो तब हो गयी जब उसने अपने दूत के द्वारा भगवान शिव को पार्वतीजी को अपने हवाले कर देने का संदेश भिजवाया। स्वभाविक ही था शिवजी भयंकर रूप से क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। नेत्र से भीषण तेज की ज्वाला निकली जिससे एक भयंकर दानव की उत्पत्ति हुई। उस ड़रावनी आकृति ने जैसे ही दूत पर आक्रमण किया वह तुरंत शिवजी की शरण में चला गया। इससे उसकी जान तो बच गयी पर उस दानव की जान पर बन आयी जो भूख से बुरी तरह व्याकुल था। उसने भगवान शिव से अपनी क्षुधा शांत करने की विनती की। तत्काल कोई उपाय ना हो पने के कारण शिवजी ने उसे अपने ही अंग खाने को कह दिया। भूख से विचलित उस दानव ने धीरे-धीरे अपने मुख को छोड़ अपना सारा शरीर खा ड़ाला।

वह आकृति शिवजी से उत्पन्न हुए थी इसलिए प्रभू को बहुत प्रिय थी। उन्होंने उससे कहा, आज से तेरा नाम कीर्तीमुख होगा और तू सदा मेरे द्वार पर रहेगा। इसी कारण पहले कीर्तीमुख सिर्फ शिवालयों पर लगाया जाता था। धीरे-धीरे फिर इसे अन्य देवालयों पर भी लगाया जाने लगा। समयांतर पर इसे बुराई दूर करने का प्रतीक मान लिया गया और यह आकृति बुराई या बुरी नजर से बचने के लिए भवनों पर भी लगाई जाने लगी। पता नहीं कब और कैसे यह मुखाकृति हड़िंयों या तख्तियों पर उतरती चली गयी। जैसा कि आजकल मकानों पर टंगी दिखती हैं। जिनकी ओर नजर पहले चली जाती है। इनके लगाने का आशय भी यही होता है।

इसी का बिगड़ा रूप ट्रकों या गाड़ियों के पीछे लटकते जूते भी हो सकते हैं।

शनिवार, 25 सितंबर 2010

कहते हैं तस्वीरें बोलती हैं, पर कौन सी भाषा :-)

कहते हैं तस्वीरें बोलती हैं। लो कर लो बातआप तो आनंद लीजिए इन बेंगलुरू तस्वीरों का। समझ में आए तो समझाने का कष्ट करें :-)





आज इतनी ही पचाईये कल कुछ और गरीष्ट का इंतजाम करता हूँ।



शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

वृक्ष अकडा था या अन्याय के सामने तना था ?

वर्षों से एक कहानी पढाई/सुनाई जाती है कि एक घना वृक्ष था। विशाल, मजबूत, जिसकी छाया में इंसान हो या पशु सभी गर्मी से राहत पाते थे। उसकी ड़ालियों पर हजारों पक्षियों का बसेरा था। उस पर लगने वाले फल बिना भेदभाव के सब की क्षुधा शांत करते थे।

पर समय का फेर। एक बार भयंकर तूफान आया। ऐसा लगता था कि सारी कायनात ही खत्म हो कर रह जाएगी। लागातार पानी बरसता रहा। हवाओं ने जैसे सब कुछ उड़ा ले जाने की ठान रखी थी। प्रकृति के इस प्रकोप को वह वृक्ष भी सह नहीं पाया और जड़ से उखड़ गया।

दूसरे दिन उधर से एक ज्ञानी पुरुष अपने शिष्यों के साथ निकले। वृक्ष का हश्र देख उन्होंने अपने शिष्यों को उसे दिखा कर कहा कि देखो अहंकारी का अंत ऐसा ही होता है। घमंड़ के कारण यह विनाशकारी तूफान के सामने भी अकड़ा खड़ा रहा और मृत्यु को प्राप्त हुआ। उधर वह कोमल घास विपत्ति के समय झुक गयी और अब लहलहा रही है। इसे कहते हैं बुद्धिमत्ता।

बहुत बार मन में आया कि उस ज्ञानी पुरुष ने अपने शिष्यों को जो सबक सिखाया क्या वह सही था। वह यह भी तो बता सकते थे कि इसे कहते हैं वीरता, बहादुरी, अन्यायी के सामने ना झुकने का संकल्प। देखो और सीखो इस वृक्ष से। जिसने मरना मंजूर किया पर अन्याय के सामने झुका नहीं। वहीं यह मौकापरस्त घास है, जो लहलहा तो रही है पर हर कोई उसे रौंदता चला जाता है।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

कामनवेल्थ खेल? नहीं जी, कामन-वेल्थ यानी सार्वजनिक धन

लगता है राष्ट्रमंडल खेलों को आयोजित करने की जबरन कोशिश गले की हड़्ड़ी बन गयी है। ठीक सांप-छछुंदर की दशा हो गयी है ना निगलते बनता है ना उगलते। हड़बड़ी का काम शैतान का होता है कहावत सही होती लग रही है। कभी कोई कमी उजागर होती है तो कभी कोई। आज पुल गिरा, कल सड़क उधड़ी थी, परसों पानी भर गया था। मुझे तो ड़र है कि बेचारा कोई जिमनास्ट अपनी हड़्ड़ी ना तुड़वा बैठे किसी कमजोर उपकरण पर करतब दिखाते हुए।

ये कामनवेल्थ खेल ना होकर सिर्फ कामन-वेल्थ यानी सार्वजनिक धन रह गया है। मौका है जो जहां है बटोर ले। बदनामी का क्या है, लोगों की यादाश्त बहुत कमजोर होती है, साल-छह महीनों में सब भूल भाल जाएंगे। नहीं भी भूले तो कौन किसका क्या बिगाड़ लेगा?

सोमवार, 20 सितंबर 2010

एक अनोखा संग्रहालय, शौचालयों का




दुनिया के हर देश मे तरह-तरह के संग्रहालय हैं। जिनमें कोशिश की गयी है अपने-अपने देश के इतिहास, विज्ञान, कला-संस्कृति को सहेज कर रखने की। पर कभी आपने किसी ऐसी चीज के म्यूजियम के बारे में सुना है जो जिंदगी तो क्या रोजमर्रा में काम आने वाली अहम वस्तु है। शायद सुना भी हो।
"शौचालयों का म्यूजियम।" जिसे अंजाम दिया है देश में इंसान को अपने सर पर ‘मैला’ ढोने के अभिशाप से मुक्ति दिलवाने के लिये “सुलभ शौचालयों” की श्रृंखला बनाने वाले डा विंधेश्वरी पाठक ने। अपने एन.जी.ओ. द्वारा।
बिहार से शुरुआत कर सारे देश में धीरे-धीरे स्वच्छता का विस्तार करने वाले पाठकजी के मन में एक ऐसा संग्रहालय बनाने की बात आई जिसमें इस अहम वस्तु के इतिहास और समय-समय पर हुए बदलाव के बारे में पूरी जानकारी हासिल हो। इस योजना को मूर्त रूप देने में इनको अपना अमूल्य समय और ऊर्जा खपानी पड़ी। उन्होंने देश विदेश में आधुनिक और पुरातन काल में काम मे आने वाले शौचालयों के बारे में छोटी से छोटी जानकारी हासिल की। इसके लिये वह जगह-जगह विशेषज्ञों, जानकारों के अलावा अलग-अलग देशों के दूतावासों, उच्चायुक्तों से मिले जिन्होंने उनकी पूरी सहायता कर उन्हें इस क्षेत्र में समय-समय पर आए बदलाव, तकनिकी और शोध की विस्तृत जानकारी तथा फोटो वगैरह उपलब्ध करवाए। जो दिल्ली में "पालम-दाबड़ी मार्ग पर स्थित महावीर एन्कलेव" मे बने संग्रहालय में आम जनता के लिए उपलब्ध हैं। इस अजायबघर का उद्देश्य है, इस क्षेत्र में समय-समय पर आए बदलाव और विकास की लोगों को जानकारी देना । जिससे इस क्षेत्र से सम्बंधित लोगों को अपनी वस्तुएं बनाने में उपयोगी जानकारी मिल सके। जिससे वातावरण को दुषित होने से बचाया जा सके और प्रकृति को स्वच्छ रखने मे मदद मिल सके।
इस जगह का उचित प्रचार नहीं हो पाया है। यही कारण है कि दुनिया के इस एकमात्र अजूबे को देश-विदेश की तो क्या ही कहें, अधिकाँश दिल्ली वासियों को भी इसकी खबर नहीं है।










रविवार, 19 सितंबर 2010

पढ़िए, गुदगुदाएंगे जरूर,

आज सबेरे की अखबार में छपे कुछ चुटकुले गुदगुदा गए। सोचा खुशी बाँट ली जाए।

# पति - हमारी शादी को इतने साल हो गये पर तुम्हारा तेरा-मेरा खत्म नहीं हुआ। हर समय यह मेरे पैसे, मेरे गहने, मेरे बच्चे मेरा घर करती हो। कभी तो यह हमारा है, कहा करो।अब इतनी देर से क्या खोज रही हो अलमारी मे?हमारा पेटीकोट। पत्नी ने जवाब दिया।

# शर्माजी ने अपने पोते से कहा, बेटा एक ग्लास पानी ले आ। पोता बोला मैं अपना काम कर रहा हूं, मैं नहीं जाता।पास बैठा दूसरा पोता बोला, दादू ये बहुत बदतमीज है, बात नहीं सुनता। आप खुद ही जा कर ले लीजिए।

# छेदी लाल अपनी कार के लोन की किस्त नहीं चुका पाया था जिसके फलस्वरूप बैंक वाले उसकी कार उठा कर ले गये थे। वह बैठा-बैठा सोच रहा था कितना अच्छा होता यदि उसने अपनी शादी के लिए लोन लिया होता।

क्या आपने किसी ऐसे संग्रहालय के बारे में सुना है जो सिर्फ शौचालयों को समर्पित हो? वह भी अपने देश में? कल देखते हैं, कैसा है यह अनोखा, अनूठा म्यूजियम जिसमे प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक का इतिहास समेट रखा है दिनचर्या की इस अहम् वस्तु का।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

हवाई जहाज और नेता महाराज

बाल दिवस पर सरकार की तरफ से बच्चों को हवाई जहाज की सैर करवाने का इंतजाम किया गया। छोटे प्लेन में पाइलट के अलावा एक टीचर के साथ तीन बच्चों को एक बार में घूमाने की व्यवस्था थी। एक-दो उड़ानों के बाद वहां एक नेताजी आ पहुंचे और समझाने के बावजूद, हम तो नेता हूं। हम भी मजा लूंगा बोले और जबरन प्लेन में सवार हो गये। उनके कारण दो बच्चों को नीचे ही रहना पड़ा। ऊपर पहुंचते ही प्लेन में कुछ खराबी आ गयी। पाइलट ने कहा कि सिर्फ तीन ही पैराशूट हैं एक मेरा है मैं तो कूद रहा हूं, और वह ये गया वो गया। बचे दो में से एक नेताजी ने उठा लिया बोले, हम तो नेता हूं, देश को हमरा बहूत जरूरत है, और दन से कूद गये। जहाज तेजी से नीचे की ओर जा रहा था। गुरुदेव बोले, बेटा हम दोनों में से एक ही जान बचा सकता है, मैंने तो अपनी जिंदगी जी ली है। तुम्हारे सामने भविष्य बाहें फैलाये खड़ा है। बचे हुए पैराशूट को बांधो, और जल्दी से अपनी जान बचा लो। बच्चा बोला, हम दोनों को कुछ नहीं होगा सर, यहां दो पैराशूट हैं। नेताजी तो मेरा स्कूल बैग ले कूद गये हैं।

जहाज ने जैसे ही उड़ान भरी नेताजी जनरल क्लास से उठ पहले दर्जे में जा विराजे। होस्टेस ने उन्हें बहुत समझाया कि आपका टिकट इस दर्जे का नहीं है आप अपनी जगह जा कर बैठें। नेताजी उसकी जुर्रत पर आग-बबूला हो गये, बोले तुम जानती नहीं हम कौन हैं? एक इशारा करेंगे और तुमरा ई उड़न खटोला बंद हो कर रह जाएगा, समझी, जाओ अपना काम करो।बेचारी होस्टेस घबरा गयी उसने जा कर पाइलट को इसकी जानकारी दी। पाइलट उठा उसने नेता को कुछ कहा, नेता महाराज उसी समय उठ कर अपनी जगह जा विराजे।इतनी जल्दी और इतनी शांति के साथ सब हो जाने पर आश्चर्यचकित एयर-होस्टेस ने पाइलट से पूछा कि सर आपने ऐसा क्या कह दिया जिससे वह बंदा बिना किसी हील-हुज्जत के यहां से उठ गया? अरे कुछ नहीं मैंने उससे कहा, सर आपको तो दिल्ली जाना है, यह ट्रेन तो है नहीं कि सारी की सारी गाड़ी एक ही जगह जाती हो। यह तो हवाई जहाज है और आपकी सीट दिल्ली जा रही है यह वाली नहीं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

मेरे शेव करने पर तो आपकी भाभी ही नोटिस नही करतीं, पर वहाँ.....

मेरे मित्र त्यागराजनजी बहुत सीधे, सरल ह्रदय और खुशदिल इंसान हैं। किसी पर भी शक, शुबहा करना उन्होंने तो जैसे सीखा ही नहीं है। अक्सर हम संध्या समय चाय-बिस्कुट के साथ अपने सुख-दुख बांटते हुए दुनिया जहान को समेटते रहते हैं। पर कल जब वह आए तो कुछ अनमने से लग रहे थे, जैसे कुछ बोलना चाहते हों पर झिझक रहे हों। मैंने पूछा कि क्या बात है? कुछ परेशान से लग रहे हैं। वे बोले नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। मैंने कहा कुछ तो है जो आप मूड़ में नहीं हैं। वे धीरे से मुस्कुराए और बोले कोई गंभीर बात नहीं है कुछ शंकाएं हैं, पर आप बोलोगे कि पता नहीं आज कैसी बातें कर रहा हूं। मैंने कहा, अरे हमारे बीच ऐसी औपचारिकता कहां से आ गयी? खुल कर कहिये क्या बात है। वे बोले टी.वी. में इतने सारे विज्ञापन आते हैं तरह-तरह की हरकतों के साथ। उनमें से अधिकांश को समाज के शिखर पर बैठी बड़ी-बड़ी हस्तियां पेश करती हैं। पर अधिकतर विज्ञापनों के दावे गले नहीं उतरते। सच तो प्रस्तुत करने वाले भी जानते ही होंगे फिर उनकी क्या मजबूरी है, ना उन्हें पैसे की कमी है ना ही शोहरत की, फिर क्यूं वे ऐसा करते हैं? अब जैसे मैं रुक्षता के बचाव की खातिर एक क्रीम शाहरूख के समझाने के वर्षों पहले से लगा रहा हूं, पर मेरा रंग वैसे का वैसा ही सांवला है। मुझे लगा कि इतना बड़ा हीरो झूठ थोड़े ही बोलेगा। मेरी स्किन में ही कोई गड़बड़ी ना हो। मैं अपनी हंसी दबा कर बोला, क्या महाराज आप भी किसकी बातों में आ गये? अरे वहां सब पैसों का खेल है, उसकी बातों में सच्चाई होती तो उस क्रीम के निर्माता अपनी फैक्टरी अफ्रिका में लगाए बैठे होते, जहां चौबिसों घंटे बारहों महीने लगातार उत्पादन कर भी वे वहां की जरूरत पूरी नहीं कर पाते पर करोंड़ों कमाते। त्यागराजनजी कुछ उत्साहित हो बोले, वही तो, मैं समझ तो रहा था पर ड़ाउट क्लियर करना चाहता था। अब देखीए एक विज्ञापित ब्लेड़ से मैं दाढी बनाते आ रहा हूं, पर बाहर किसी कन्या ने तो क्या ही कहना आपकी भाभी ने भी कभी नोटिस नहीं लिया कि मैंने शेव बनाई भी है कि नहीं। और उधर शेव बनने की देर है और कन्या हाजिर। वैसे आप तो मुझे जानते ही हैं कि यदि ऐसा कोई हादसा मेरे शेव करने पर होता तो मैं तो शेव बनाना ही बंद कर देता। मैं बोला यह सब बाजार की तिकड़में हैं जिनमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं होने पर भी लोग बेवकूफ बनते रहते हैं। इनका निशाना खासकर युवा वर्ग होता है। आप एक बात बताईये, आप इतना घूमते रहते हैं। हर छोटे-बड़े शहर में आपका जाना होता है। जहां तरह-तरह के लोग किस्म-किस्म के परफ्यूम लगाए मिलते होंगे। पर कभी आपने किसी एंड़-बैंड़-मोटरस्टैंड़ छोकरों के पीछे बदहवास सी कन्याओं को दौड़ते देखा है? अरे महिलाएं अच्छे-बुरे की पहचान मर्दों से ज्यादा रखती हैं। मुझे तो आश्चर्य है कि महिलाओं की प्रगति की बात करने वाले किसी भी संगठन ने ऐसे घटिया विज्ञापनों पर रोक लगाने की कोशिश तक नहीं की है अब तक। अच्छा बताईये भाभीजी के साथ साड़ी वगैरह तो लेने गये होंगे कभी? किसी भी दुकान में लटके-झटकों के साथ साड़ी बिकते देखी है कभी? कभी किसी बीमा एंजेंट को बस या ट्रेन में बिमा पालिसी बेचते देखा है? किसी भी पैथी की दवा खा कर कोई शतायू हो सका है? किसी पेय को पी कर किसी बच्चे को ताड़ बनते देखा है? कुदरत ने हमें जैसा बनाया है वही अपने आप में अजूबा है हमें अपनी कमजोरियां दिखती हैं पर अपनी खूबियों को हम नजरंदाज करते रहते हैं। हमें लगता है कि मैं ऐसा हूं तो लोग क्या कहेंगे, अरे कौन से लोग? दुनिया में कौन है जो पूरी तरह से देवता का रूप ले पैदा हुआ है? यह जो पैसा लेकर उल्टी-सीधी बातें हमें समझाते हैं, वे खुद पच्चीसों बिमारियों से घिरे हुए हैं। दुनिया में गोरों की संख्या से कहीं ज्यादा काले, पीले, गेहुंयें रंग वालों की तादाद है। एक अच्छी खासी तादाद नाटे लोगों की है। करोंड़ों लोगों का वजन जिंदगी भर पचास का आंकड़ा नहीं छू पाता। लाखों लोग मोटापे की वजह से ढंग से हिल-ड़ुल नहीं पाते। पर आप अपनी ओर देखीये आज भी आप पांच-सात कि.मी. चलने के बावजूद थकते नहीं हैं यह भी तो भगवान की अनमोल देन है आपको। आप जो हैं खुद में एक मिसाल हैं इन टंटों में ना पड़ मस्त रहिए बिंदास होकर प्रभू द्वारा दी गयी जिन्दगी का आनन्द लीजिए। मेरे इतने लंबे भाषण से त्यागराजनजी को कुछ कुछ रिलैक्स होता देख मैंने अंदर की ओर आवाज लगाई कि क्या हुआ भाई, आज चाय अभी तक नहीं आई? तभी श्रीमतीजी चाय की ट्रे लिए नमूदार हो गयीं। चाय का पहला घूंट लेते ही त्यागराजनजी बोले, भाभीजी यह वही ताजगी वाली चाय है ना जिसमें पांच जड़ी बूटियां पड़ी होती हैं? बहुत रोकते, रोकते भी मेरा ठहाका निकल ही गया।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

प्रेम की पराकाष्ठा











भगवान से प्रेम बहुत से लोग करते हैं। पहुंचे हुए संतों ने उनकी उपस्थिति भी महसूस की है, कहते हैं। हमने उसे सदा सर्वशक्तिमान ही माना है। उसके थकने की तो कोई कल्पना भी नहीं कर पाया है। पर विदेशी भक्तों का प्रेम सराहनीय है जिनकी सोच ने, प्रेम ने, ममता ने लगातार एक ही स्थिति में खड़े प्रभू को जरा आराम देने की सोची, उनकी बांह के नीचे सहारा देकर।




उसपर छवि कितनी सुन्दर हैं, आखें ही नहीं हटती।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

लागोस से ई-मेल पर मिली एक मार्मिक घटना का ब्योरा. एक नजर जरूर डाल लें

जिस मित्र ने यह ब्योरा भेजा है उनका कहना है कि यह सच्ची घटना है। इसे मैंने कल पोस्ट किया था पर मुझे लगा कि इसे ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहिए इसीलिए आज फिर आपके सामने रख रहा हूँ।
अन्यथा न लें।

शनिवार का दिन था। मैं कुछ सामान लेने ‘बिग बाजार’ गया हुआ था।वहीं एक खिलौने की दुकान पर दुकानदार और एक 6-7 साल के बच्चे की बातचीत सुन कर ठिठक गया। दुकानदार बच्चे से कह रहा था कि बेटा तुम्हारे पास इस गुड़िया को लेने के लिए प्रयाप्त पैसे नहीं हैं। बच्चा उदास खड़ा था। तभी मुझे वहां देख वह मेरे पास आया और अपने पैसे मुझे दिखा पूछने लगा, अंकल क्या यह पैसे कम हैं? मैंने उसके पैसे गिने और उसके हाथ में पकड़ी गुड़िया की कीमत देख उससे कहा, हां बेटा पैसे तो कम हैं। फिर उससे पूछा तुम यह गुड़िया किस के लिए लेना चाहते हो? उसने जवाब दिया इसे मैं अपनी बहन को उसके जन्म दिन पर देना चाहता हूं। मैं इसे ले जा कर अपनी मम्मी को दूंगा जो मेरी बहन के पास जा रही है। बोलते-बोलते उसकी आंखों में आंसू भर आए। वह कहता जा रहा था, मेरी बहन भगवान के पास चली गयी है और मेरे पापा ने बताया है कि मेरी मम्मी भी जल्दी ही उसके पास जा रही है। तो यह गुड़िया अपनी बहन के पास भेजनी है। मैं पापा से कह कर आया हूं कि जब तक मैं वापस ना आऊं, मम्मी को जाने मत देना।
यह सब सुन मैं धक से रह गया। इतने में उसने अपना एक सुंदर सा फोटो निकाला जिसमें उसके हंसते हुए की तस्वीर थी। मुझे दिखा कर बोला इसे भी मैं गुड़िया के साथ भेजुंगा जिससे मेरी बहन मुझे याद रख सके। मैं अपनी मम्मी से बहुत प्यार करता हूं वह मुझे छोड़ कर जा रही है मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है पर वहां मेरी बहन भी अकेली है। उसने फिर हाथ में पकड़ी गुड़िया को देखा और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मैंने उससे छिपा कर अपना पर्स निकाल कर कुछ पैसे अपनी मुट्ठी में ले लिए और उससे कहा कि आओ एक बार फिर पैसे गिन कर देखते हैं। उसने अपने पैसे मेरी ओर बढा दिए। मैने अपने पैसे भी उन पैसों में मिला दिए। इस बार गिनने पर रकम गुड़िया की कीमत से कुछ ज्यादा ही निकली। यह देख बच्चा बोला मैं जानता था कि भगवान जरूर पैसे भेजेंगे। कल रात ही मैंने गुड़िया खरीदने के लिए उनसे पैसे भेजने की प्रार्थना की थी। मेरी मम्मी को सफेद गुलाब बहुत अच्छे लगते हैं पर उसके लिए मैंने भगवान से पैसे नहीं मांगे मुझे ड़र था कि ज्यादा मांगने से वे नाराज हो जाएंगे पर उन्होंने अपने आप ही और पैसे भेज दिए।

उस दिन मैं और कोई काम नहीं कर पाया और घर वापस आ गया। तभी मुझे दो दिन पहले स्थानीय अखबार में छपी एक खबर की याद आयी जिसमें बताया गया था कि एक शराबी ट्रक चालक ने हाई-वे पर एक कार, जिसमें एक युवती और एक बच्ची सवार थी, को रौंद ड़ाला था। बच्ची की वहीं मृत्यु हो गयी थी और युवती कोमा की हालत में अस्पताल में दाखिल थी।
क्या यही वह परिवार तो नहीं?

दूसरे दिन की अखबार में उस युवती की मौत का समाचार था। मैं अपने को रोक नहीं पाया और सफेद गुलाबों का एक गुच्छा लेकर अखबार में दिए गये पते पर चला गया। वहां अंतिम यात्रा की तैयारियां हो रही थीं। एक ताबूत में एक युवती का शव अंतिम दर्शनों के लिए रखा हुआ था। युवती के एक हाथ में एक सफेद गुलाब का फूल था, उसकी बगल में एक गुड़िया रखी हुए थी तथा उसके सीने पर उसी बच्चे की हंसती हुई तस्वीर पड़ी थी। मैं अपने आंसू नहीं रोक पा रहा था, पुष्प गुच्छ चढा तुरंत वहां से निकल आया।

सोच रहा था कि कैसे एक लापरवाह शराबी की शराब की लत ने उस मासूम बच्चे, जिसे मौत का अर्थ भी नहीं मालुम, उसका अपनी मां से लगाव अपनी बहन से प्यार और एक हंसते खेलते परिवार को पल भर में बर्बाद कर रख दिया।

कब समझेंगे लोग शराब की बुराईयां?
कम से कम गाड़ी चलाते समय अपने और दूसरों के परिवार का तो ख्याल करें।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

लागौस से ई-मेल द्वारा मिली एक मार्मिक घटना का ब्योरा.

शनिवार का दिन था। मैं कुछ सामान लेने ‘बिग बाजार’ गया हुआ था।
वहीं एक खिलौने की दुकान पर दुकानदार और एक 6-7 साल के बच्चे की बातचीत सुन कर ठिठक गया। दुकानदार बच्चे से कह रहा था कि बेटा तुम्हारे पास इस गुड़िया को लेने के लिए प्रयाप्त पैसे नहीं हैं। बच्चा उदास खड़ा था। तभी मुझे वहां देख वह मेरे पास आया और अपने पैसे मुझे दिखा पूछने लगा, अंकल क्या यह पैसे कम हैं? मैंने उसके पैसे गिने और उसके हाथ में पकड़ी गुड़िया की कीमत देख उससे कहा, हां बेटा पैसे तो कम हैं। फिर उससे पूछा तुम यह गुड़िया किस के लिए लेना चाहते हो? उसने जवाब दिया इसे मैं अपनी बहन को उसके जन्म दिन पर देना चाहता हूं। मैं इसे ले जा कर अपनी मम्मी को दूंगा जो मेरी बहन के पास जा रही है। बोलते-बोलते उसकी आंखों में आंसू भर आए। वह कहता जा रहा था, मेरी बहन भगवान के पास चली गयी है और मेरे पापा ने बताया है कि मेरी मम्मी भी जल्दी ही उसके पास जा रही है। तो यह गुड़िया अपनी बहन के पास भेजनी है। मैं पापा से कह कर आया हूं कि जब तक मैं वापस ना आऊं, मम्मी को जाने मत देना।
यह सब सुन मैं धक से रह गया। इतने में उसने अपना एक सुंदर सा फोटो निकाला जिसमें उसके हंसते हुए की तस्वीर थी। मुझे दिखा कर बोला इसे भी मैं गुड़िया के साथ भेजुंगा जिससे मेरी बहन मुझे याद रख सके। मैं अपनी मम्मी से बहुत प्यार करता हूं वह मुझे छोड़ कर जा रही है मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है पर वहां मेरी बहन भी अकेली है। उसने फिर हाथ में पकड़ी गुड़िया को देखा और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मैंने उससे छिपा कर अपना पर्स निकाल कर कुछ पैसे अपनी मुट्ठी में ले लिए और उससे कहा कि आओ एक बार फिर पैसे गिन कर देखते हैं। उसने अपने पैसे मेरी ओर बढा दिए। मैने अपने पैसे भी उन पैसों में मिला दिए। इस बार गिनने पर रकम गुड़िया की कीमत से कुछ ज्यादा ही निकली। यह देख बच्चा बोला मैं जानता था कि भगवन जरूर पैसे भेजेंगे। कल रात ही मैंने गुड़िया खरीदने के लिए उनसे पैसे भेजने की प्रार्थना की थी। मेरी मम्मी को सफेद गुलाब बहुत अच्छे लगते हैं पर उसके लिए मैंने भगवान से पैसे नहीं मांगे मुझे ड़र था कि ज्यादा मांगने से वे नाराज हो जाएंगे पर उन्होंने अपने आप ही और पैसे भेज दिए।

उस दिन मैं और कोई काम नहीं कर पाया और घर वापस आ गया। तभी मुझे दो दिन पहले स्थानीय अखबार में छपी एक खबर की याद आयी जिसमें बताया गया था कि एक शराबी ट्रक चालक ने हाई-वे पर एक कार, जिसमें एक युवती और एक बच्ची सवार थी, को रौंद ड़ाला था। बच्ची की वहीं मृत्यु हो गयी थी और युवती कोमा की हालत में अस्पताल में दाखिल थी।
क्या यही वह परिवार तो नहीं?

दूसरे दिन की अखबार में उस युवती की मौत का समाचार था। मैं अपने को रोक नहीं पाया और सफेद गुलाबों का एक गुच्छा लेकर अखबार में दिए गये पते पर चला गया। वहां अंतिम यात्रा की तैयारियां हो रही थीं। एक ताबूत में एक युवती का शव अंतिम दर्शनों के लिए रखा हुआ था। युवती के एक हाथ में एक सफेद गुलाब का फूल था, उसकी बगल में एक गुड़िया रखी हुए थी तथा उसके सीने पर उसी बच्चे की हंसती हुई तस्वीर पड़ी थी। मैं अपने आंसू नहीं रोक पा रहा था, पुष्प गुच्छ चढा तुरंत वहां से निकल आया।

सोच रहा था कि कैसे एक लापरवाह शराबी की शराब की लत ने उस मासूम बच्चे, जिसे मौत का अर्थ भी नहीं मालुम, उसका अपनी मां से लगाव अपनी बहन से प्यार और एक हंसते खेलते परिवार को पल भर में बर्बाद कर रख दिया।

कब समझेंगे लोग शराब की बुराईयां?
कम से कम गाड़ी चलाते समय अपने और दूसरों के परिवार का तो ख्याल करें।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

शुक्र है पत्थर तो उछला, आसमां में सुराख हो ना हो

आजादी के पहले देश के वाशिंदों के लक्ष्य, भावनाएं, इच्छाएं करीब-करीब एक जैसे ही थे। एक ही उद्देश्य था अंग्रेजों को निकाल बाहर करना। पर विभाजन के बाद दोनों पड़ोसी फिर कभी एकमत ना हो पाए। कहते हैं कि खेल दिलों को जोड़ने का काम करते हैं। पर यहां तो खेलों से भी तनाव बढता ही दिखा है। चाहे हाकी हो या क्रिकेट, आपस के मैचों के दौरान फिजा में तलखी ही घुली रहती है। लगता है खेल नहीं युद्ध हो रहा हो। इस समय भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। जिसमें जीतने वाला ऐसे जश्न मनाता है जैसे विश्वविजय प्राप्त कर ली हो। हारने वाला ऐसे शोकग्रस्त हो जाता है जैसे घर में गमी हो गयी हो। पर लंबे अर्से के बाद तनाव की तपती धूप में हल्के बादलों के छाने का एहसास हो रहा है। ठंड़ी ब्यार के रूप में दो ऐसी बातें सामने आईं हैं जो जले पर फाहे का काम कर रही हैं। उन्होंने वर्षों से सुप्त झील में लहरें भले ही ना उठा दी हों पर एक छोटी सी हलचल तो पैदा कर ही दी है।

पहले नम्बर पर है भारत के बेंगलुरु में जन्मे रोहन बापन्ना और पाकिस्तान के लाहौर में पैदा हुए एसाम कुरैशी जो 2007 से टेनिस के ड़ब्लस में एक दूसरे के जोड़ीदार बन कर धीरे-धीरे इस खेल में उचाईयों की ओर अग्रसर हैं। अभी-अभी अमेरिकी ओपेन में दोनों ने फायनल में जगह बना एक नया मुकाम बनाया है। दोनों युवक प्रेम और सौहाद्र की भावना से भरपूर हैं। उनकी दिली ख्वाहिश है कि दोनों देशों के बीच प्रेम का दरिया बहे। उनका पसंदिदा वाक्य है "युद्ध रोको, टेनिस खेलो"।
जाहिर है जब दोनों मैदान में होते हैं तो दोनों देशों के रहवासी उनकी जीत की प्रार्थना एक साथ करते हैं।

मैं टी.वी. बहुत ही कम देखता हूं। पर इस जानकारी के बाद कोशिश करूंगा उस "शो" को देखने की जिसके बारे में बताने जा रहा हूं। सुनने में आया है कि छोटे पर्दे पर एक अलग तरह का शो चल रहा है "छोटे उस्ताद-दो देश एक आवाज।" इसमें भारत और पाकिस्तान के बच्चे हिस्सा ले रहे हैं। पर आपस में प्रतिद्वंदिता नहीं कर रहे हैं बल्कि साथ गा रहे हैं। इसमें टीमें ऐसे बनाई गयीं हैं कि हर टीम के दो बच्चों में एक भारत का है तथा दूसरा पाकिस्तान का। दोनों मिल कर अपनी टीम को जिताने की कोशिश करते हैं ।
अब चूंकी टीम में बच्चे दोनों देशों के हैं तो अपनी पसंदिदा जोड़ी को जिताने के लिए दोनों देशों के नागरिल एकजुट हो वोट करेंगे। तो चाहे जैसे भी हो स्नेह की ड़ोर तो बंधेगी ही। यह जिसके भी दिमाग की उपज हो, बधाई का पात्र है।

इतिहास गवाह है कि देशों ने, अवाम ने तभी तरक्की की है जब संसार अमन, चैन, प्यार और भाईचारे की प्राण वायु में सांस लेता रहा है। नफरत और ईर्ष्या की कोख से तो सदा तबाही ने ही जन्म लिया है।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

३६गढ़ की सही तस्वीर सामने आने लगी है.

खुशी की बात है, देर से ही सही, लोग सच्चाई जानने तो लगे हमारे प्रदेश की।
दिल्ली से मिली एक ई-मेल :-

RAIPUR: In the news more for its chronic insurgeny and tribal poverty, Chhattisgarh will soon boast of one of India's most advanced, eco-friendly modern cities that will be the new capital of the mineral-rich state.

Located about 20 km east of the present capital Raipur, Naya Raipur has been designed on the lines of Malaysia's hi-tech capital complex at Putrajaya, outside Kuala Lumpur, and is expected to cater to the infrastructural needs of industry and trade in the region।

"Some 90-95 percent land acquisition has been completed and we are shifting to a new state secretariat building in Naya Raipur, the 21st century's first high-tech modern city of India, any time late this year, followed by head of department buildings within the next three-four months,
N. Baijendra Kumar,
vice-chairman of the Naya Raipur Development Authority (NRDA),

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...