मेरे मित्र त्यागराजनजी बहुत सीधे, सरल ह्रदय और खुशदिल इंसान हैं। किसी पर भी शक, शुबहा करना उन्होंने तो जैसे सीखा ही नहीं है। अक्सर हम संध्या समय चाय-बिस्कुट के साथ अपने सुख-दुख बांटते हुए दुनिया जहान को समेटते रहते हैं।
पर कल जब वह आए तो कुछ अनमने से लग रहे थे, जैसे कुछ बोलना चाहते हों पर झिझक रहे हों।
मैंने पूछा कि क्या बात है? कुछ परेशान से लग रहे हैं। वे बोले नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। मैंने कहा कुछ तो है जो आप मूड़ में नहीं हैं। वे धीरे से मुस्कुराए और बोले कोई गंभीर बात नहीं है कुछ शंकाएं हैं, पर आप बोलोगे कि पता नहीं आज कैसी बातें कर रहा हूं। मैंने कहा, अरे हमारे बीच ऐसी औपचारिकता कहां से आ गयी? खुल कर कहिये क्या बात है। वे बोले टी.वी. में इतने सारे विज्ञापन आते हैं तरह-तरह की हरकतों के साथ। उनमें से अधिकांश को समाज के शिखर पर बैठी बड़ी-बड़ी हस्तियां पेश करती हैं। पर अधिकतर विज्ञापनों के दावे गले नहीं उतरते। सच तो प्रस्तुत करने वाले भी जानते ही होंगे फिर उनकी क्या मजबूरी है, ना उन्हें पैसे की कमी है ना ही शोहरत की, फिर क्यूं वे ऐसा करते हैं?
अब जैसे मैं रुक्षता के बचाव की खातिर एक क्रीम शाहरूख के समझाने के वर्षों पहले से लगा रहा हूं, पर मेरा रंग वैसे का वैसा ही सांवला है। मुझे लगा कि इतना बड़ा हीरो झूठ थोड़े ही बोलेगा। मेरी स्किन में ही कोई गड़बड़ी ना हो।
मैं अपनी हंसी दबा कर बोला, क्या महाराज आप भी किसकी बातों में आ गये? अरे वहां सब पैसों का खेल है, उसकी बातों में सच्चाई होती तो उस क्रीम के निर्माता अपनी फैक्टरी अफ्रिका में लगाए बैठे होते, जहां चौबिसों घंटे बारहों महीने लगातार उत्पादन कर भी वे वहां की जरूरत पूरी नहीं कर पाते पर करोंड़ों कमाते।
त्यागराजनजी कुछ उत्साहित हो बोले, वही तो, मैं समझ तो रहा था पर ड़ाउट क्लियर करना चाहता था। अब देखीए एक विज्ञापित ब्लेड़ से मैं दाढी बनाते आ रहा हूं, पर बाहर किसी कन्या ने तो क्या ही कहना आपकी भाभी ने भी कभी नोटिस नहीं लिया कि मैंने शेव बनाई भी है कि नहीं। और उधर शेव बनने की देर है और कन्या हाजिर। वैसे आप तो मुझे जानते ही हैं कि यदि ऐसा कोई हादसा मेरे शेव करने पर होता तो मैं तो शेव बनाना ही बंद कर देता।
मैं बोला यह सब बाजार की तिकड़में हैं जिनमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं होने पर भी लोग बेवकूफ बनते रहते हैं। इनका निशाना खासकर युवा वर्ग होता है। आप एक बात बताईये, आप इतना घूमते रहते हैं। हर छोटे-बड़े शहर में आपका जाना होता है। जहां तरह-तरह के लोग किस्म-किस्म के परफ्यूम लगाए मिलते होंगे। पर कभी आपने किसी एंड़-बैंड़-मोटरस्टैंड़ छोकरों के पीछे बदहवास सी कन्याओं को दौड़ते देखा है? अरे महिलाएं अच्छे-बुरे की पहचान मर्दों से ज्यादा रखती हैं। मुझे तो आश्चर्य है कि महिलाओं की प्रगति की बात करने वाले किसी भी संगठन ने ऐसे घटिया विज्ञापनों पर रोक लगाने की कोशिश तक नहीं की है अब तक। अच्छा बताईये भाभीजी के साथ साड़ी वगैरह तो लेने गये होंगे कभी? किसी भी दुकान में लटके-झटकों के साथ साड़ी बिकते देखी है कभी? कभी किसी बीमा एंजेंट को बस या ट्रेन में बिमा पालिसी बेचते देखा है? किसी भी पैथी की दवा खा कर कोई शतायू हो सका है? किसी पेय को पी कर किसी बच्चे को ताड़ बनते देखा है? कुदरत ने हमें जैसा बनाया है वही अपने आप में अजूबा है हमें अपनी कमजोरियां दिखती हैं पर अपनी खूबियों को हम नजरंदाज करते रहते हैं। हमें लगता है कि मैं ऐसा हूं तो लोग क्या कहेंगे, अरे कौन से लोग? दुनिया में कौन है जो पूरी तरह से देवता का रूप ले पैदा हुआ है? यह जो पैसा लेकर उल्टी-सीधी बातें हमें समझाते हैं, वे खुद पच्चीसों बिमारियों से घिरे हुए हैं।
दुनिया में गोरों की संख्या से कहीं ज्यादा काले, पीले, गेहुंयें रंग वालों की तादाद है। एक अच्छी खासी तादाद नाटे लोगों की है। करोंड़ों लोगों का वजन जिंदगी भर पचास का आंकड़ा नहीं छू पाता। लाखों लोग मोटापे की वजह से ढंग से हिल-ड़ुल नहीं पाते।
पर आप अपनी ओर देखीये आज भी आप पांच-सात कि.मी. चलने के बावजूद थकते नहीं हैं यह भी तो भगवान की अनमोल देन है आपको। आप जो हैं खुद में एक मिसाल हैं इन टंटों में ना पड़ मस्त रहिए बिंदास होकर प्रभू द्वारा दी गयी जिन्दगी का आनन्द लीजिए।
मेरे इतने लंबे भाषण से त्यागराजनजी को कुछ कुछ रिलैक्स होता देख मैंने अंदर की ओर आवाज लगाई कि क्या हुआ भाई, आज चाय अभी तक नहीं आई?
तभी श्रीमतीजी चाय की ट्रे लिए नमूदार हो गयीं।
चाय का पहला घूंट लेते ही त्यागराजनजी बोले, भाभीजी यह वही ताजगी वाली चाय है ना जिसमें पांच जड़ी बूटियां पड़ी होती हैं?
बहुत रोकते, रोकते भी मेरा ठहाका निकल ही गया।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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4 टिप्पणियां:
:-)
सही है। विज्ञापनों की चकाचौंध दुनियां में हम अंधे से भटकते रहते हैं
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
अंक-9 स्वरोदय विज्ञान, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
चीजों का बिकना-खरीदना तो पता नहीं लेकिन हमारी सोच और भाषा तो विज्ञापन प्रभावित है ही.
कभी कभी ये विज्ञापन फायदा भी देते है जैसे हमें पता चल जाता है की किसी सामान के कितने ब्रांड बाजार में है पर हम किसी विज्ञापन से प्रभावित हो कर वह सामान नहीं खरीदते है बल्कि उसकी क्वालिटी और दाम को देख कर उसे लेते है | बड़े नाम तो बस इसलिए लिए जाते है की ग्राहकों को ध्यान उस विज्ञापन पर जाये |
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