शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

नवरात्र के दूसरे दिन माँ के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा होती है.

पहले एक बात कहना चाहता हूं। आम लोगों की तरह, वही कुछ रटे-रटाए श्लोकों को छोड़ (उन्हें भी लिखना पड़े तो शायद पसीना आ जाए) संस्कृत में मेरा हाथ तंग ही है। सो इन नौ दिनों के "संकलन" में यदि कोई गल्ती, गल्ती से हो जाए तो क्षमा करेंगे।

नवरात्र के दूसरे दिन "माँ ब्रह्मचारिणी" की आराधना की जाती है। पुराणों के अनुसार पर्वत राज हिमालय के घर जन्म लेने के बाद नारद मुनी के उपदेश से इन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। पहले कंद मूल फिर शाक और फिर सिर्फ़ जमीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को ग्रहण करते हुए अहर्निश भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद उन्होंने पत्रों का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका एक नाम "अपर्णा" भी पड़ा। हजारों साल तक चली इस साधना के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। उनके इस कृत्य से चारों ओर उनकी सराहना होने लगी थी। इस पर ब्रह्माजी ने उन्हें मनोकामना पूरी होने का वरदान दिया। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इनका नाम तपकारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी पड़ा।

माँ दुर्गा का यह रूप भक्तों और सिद्धों को अनंतफल देने वाला है। जीवन के कठिन समय में भी हतोत्साहित ना होने देने वाली, वैराग्यवत साहस देने वाली, सदाचार से जीवन व्यतीत करने वालों का साथ देने वाली, अपने कर्तव्य पथ से विचलित ना होने देने वाली अति दयालु माता हैं।इस दिन साधक का मन "स्वाधिष्ठान चक्र" में स्थित होता है। योगी उनकी कृपा तथा भक्ती पूर्ण रूप से प्राप्त करता है।

दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।

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