दो दिन पहले स्टेशन जाना पड़ा था एक प्रियजन को गाड़ी चढाने। भीड़ और आपाधापी देख वर्षों पहले की एक मजेदार घटना याद आ गयी।
बहुत पुरानी बात है। मेरी उम्र रही होगी कोई 14-15 साल की। तब गाड़ियां भी आज जितनी नहीं चला करती थीं और उनके डिब्बे भी इतने आराम दायक नहीं होते थे। चोरी वगैरह होती थी पर बहुत कम इसीलिए डिब्बों की खिड़कियों में राड वगैरह भी नहीं लगी होती थीं।
दिल्ली घर होने की वजह से छुट्टियों में वहां जाना होता रहता था। उस बार एक मित्र ने भी जाने की इच्छा जाहिर की। अचानक ही सब हुआ था। सो आरक्षण नहीं हो पाया था। देख लेंगें सोच कर हावड़ा स्टेशन पहुंच गये थे। उन दिनों मुझे 'तूफान एक्सप्रेस' बहुत लुभाती थी। हालांकि और गाड़ियों से ज्यादा समय लेती थी। पर एक तो वह ताजमहल को दिखाती हुई जाती थी दूसरे रेल में ज्यादा समय बिताने का मौका देती थी, इसलीए बड़ों के समझाने के बावजूद मुझे उसी में आना-जाना अच्छा लगता था। तो मुद्दा यह कि दोनों मित्र स्टेशन पहुंचे, टिकट लिया और प्लेटफार्म पर जा धमके। गाड़ी अभी लगी नहीं थी। पर वहां की भीड़ देख लगा कि कुछ चूक हो गयी है। बिना जगह मिले इतने दूर का सफर मुश्किल लगने लगा। हमें कुछ हैरान परेशान देख एक कुली हमारे पास आया और गाड़ी और हमारे गंतव्य का पता कर बोला कि सीट दिला दूंगा, दोनों के चालीस रुपये लगेंगे। सौदा पच्चिस में तय हो गया। गाड़ी आनेवाली थी। उसने हम दोनों को आंखों में तौला फिर मेरे मित्र को कहा कि आप मेरे साथ आओ। उसे ले वह स्टेशन के आखिरी छोर तक चला गया। बाद का सारा वृतांत मुझे मित्र की जुबानी पता चला। उसने बताया कि कुली और वह स्टेशन के आखिर में चले गये तो उसने अपना एक कपड़ा दोस्त को थमा दिया और जैसे ही गाड़ी प्लेटफार्म पर आई उसने मेरे दोस्त को उठा कर खिड़की से एक कोच के अंदर पहुंचा दिया और कहा कि एक बर्थ पर कपड़ा बिछा सीट घेर ले और जोर-जोर से गोविंद-गोविंद बोलता रहे। फिर कुली तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बोला जिस डिब्बे से गोविंद-गोविंद की आवाज आ रही हो उसमें चढ जाना। मैंने ऐसा ही किया। इस तरह बैठने की दो सीटों का इंतजाम हो पाया। तब जा कर उस कुली का हमें घूर कर देखने और मित्र को साथ ले जाने का रहस्य भी खुला। बात यह थी कि मेरे मित्र महोदय कद काठी में मुझसे सोलह थे सो उनके मुझसे हल्के होने के कारण कुली ने उन्हें चुना था, जिससे उन्हें उठा कर खिड़की के अंदर 'पोस्ट' करने में उसे आसानी होती। फिर उसे यानि कुली को मेरा नाम तो मालुम था नहीं सो उसने 'गोविंद-गोविंद की आवाज लगाते रहने को कहा था जिससे मैं सही डिब्बे में चढ सकूं।
अब यह दूसरी बात है कि हम बस बैठ ही पाए थे यही गनीमत थी। नहीं तो उपर-नीचे, दाएं-बाएं मानुष ही मानुष। वह भी इतने की लोग 'प्रकृति की पुकार' को भी अनदेखा अनसुना करने को मजबूर थे। खाने पीने की चीजें बकायदा खिड़कियों से ही लाई ले जाई जाती रही थीं। बहुत पुरानी बात है याद नहीं रात कैसे कटी थी। हां मेरा ज्यादा देर गाड़ी के सफर का मजा लेने और गाड़ी की खिड़की से ताज को देखने का भूत तब से भाग गया।
पर जब भी वह दिन याद आता है बरबस हंसी आ जाती है।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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7 टिप्पणियां:
जी उस समय ऎसा ही होता था, लेकिन आप का किस्सा पध कर मजा आ गया, धन्यवाद
खिडकी के अन्दर तो पोस्ट हम भी हुए हैं लेकिन बिना कुली के। आजकल हर डिब्बे में प्लेटफार्म की तरफ दो-दो आपातकालीन खिडकियां होती हैं। बस, अपन तो उसी में घुसकर सेट हो जाते हैं।
ये तो हकीकत है, उस समय की, बडा रोचक वृतांत लिखा आप्ने.
रामराम.
मजा आ गया, धन्यवाद!
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - सांसद हमले की ९ वी बरसी पर संसद हमले के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
मजेदार संस्मरण है | लेकिन यहाँ मुंबई से उत्तर भारत जा रही ट्रेनों के चालू डिब्बो में अब भी यही होता है आपातकालीन खिड़की से बच्चो को अन्दर डाला जाता है |
ऐसे पल जरा भी आभास नहीं होने देते कि भविष्य में वे हास्य का कारण बनेंगे
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