आजकल जब स्कूल जाते बच्चों को रिक्शे पर लदे हुए देखता हूं तो अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। तब रिक्शे में लदा नहीं बैठा जाता था। हां यदि मां-बाप के साथ छोटे बच्चे होते थे तब तो एक ही रिक्शे से काम चल जाता था। परन्तु बड़े बच्चों के लिए अलग से रिक्शा किया जाता था। यही अघोषित परंपरा थी। शायद ही कभी दो की जगह तीन सवारियां किसी रिक्शे पर दिखाई पड़ती थीं। अपने वाहन बहुत कम होते थे। रिक्शों का चलन आम था। उन्हीं दिनों मैं और मेरा हम-उम्र सहपाठी मंजीत सिंह, दोनो करीब दस-ग्यारह साल के, एक रिक्शे में स्कूल जाया करते थे। स्कूल कोई सात-आठ किमी दूर था। स्कूलों में भी आजकल जैसी अफरातफरी का माहौल नहीं हुआ करता था। सही मायनों में शिक्षा देने की परंपरा अभी जीवित थी। गर्मियों में बच्चों का ध्यान रखते हुए स्कूल सुबह के हो जाते थे, सात से ग्यारह। बाकी महिनों में वही दस से चार का समय रहता था। स्कूल की तरह ही रिक्शेवाले भी वर्षों वर्ष एक ही रहते थे, लाने-ले-जाने के लिए। इससे बच्चे भी उन्हें परिवार का ही अंग समझने लगते थे। उनसे जिद्द, मनुहार आम बात होती थी। आपको बात बतानी थी, अपने रिक्शेवाले की। वह उड़िसा का रहनेवाला था, जितना याद पड़ता है, उम्र ज्यादा नहीं थी, कोई पच्चिस-छब्बीस साल का होगा। उसको सब शिबु कह कर पुकारते थे। नाम तो शायद उसका शिव रहा होगा, पर जैसा कि बंगला या उड़िया उच्चारणों में होता है, वह शिवो और शिवो से शिबु हो गया होगा। जैसा अब समझ में आता है। उसके हम पर स्नेह के कारण शायद उसका नाम मुझे अभी तक याद है। जैसा कि होता है, एक ही दिशा से स्कूल की तरफ कयी रिक्शा वाले अपनी-अपनी बच्चा सवारियों के साथ आते थे। कयी बार अपने रिक्शे से किसी और रिक्शे को आगे होते देख बाल सुलभ इर्ष्या के कारण हम शिबु को और तेज चलने के लिए उकसाते थे और इस तरह रोज ही ‘रेस-रेस खेल’ हो जाता था। स्कूल आने-जाने के दो रास्ते थे। एक प्रमुख सड़क से तथा दूसरा घुमावदार, कुछ लंबा। शिबु अक्सर हमें लंबे रास्ते से वापस लाया करता था। उस रास्ते पर एक बड़ा बाग हुआ करता था। बाग में एक खूब बड़ी फिसलन-पट्टी भी थी। हमारे हंसने-खेलने के लिए वह अक्सर वहां घंटे-आध-घंटे के लिए रुक जाता था। जब तक हम वहां धमा-चौकड़ी मचाते थे तब तक वह पीपल के पेड़ के पत्ते में पीपल का सफेद दूध इकट्ठा करता रहता था। एक-एक बूंद से अच्छा खासा द्रव्य इकट्ठा कर वह दोने को हमें पकड़ा देता था उसी के साथ पत्ते की नाल को मोड़ एक रिंग नुमा गोला भी थमा देता था। उसने हमें बताया हुआ था कि उस से बुलबुले कैसे बनाये जाते हैं। आजकल साबुन के घोल से जैसे बनाते हैं वैसे ही। उन दिनों यह सब सामान्य लगता था। पर आज के परिवेश को देखते हुए जब सोचता हूं तो अचंभा होता है। क्या जरूरत थी शिबु को सिर्फ हमारी खुशी के लिए लंबा चक्कर काटने की? अपना समय खराब कर धैर्य पूर्वक पीपल का रस इकट्ठा करने की? हमें हंसता खुश होता देखने की? हमारी खुशी के लिए अपना पसीना बहा रोज रेस लगाने की? खूद गीले होने की परवाह ना कर बरसातों में हमें भरसक सूखा रखने की? जबकी इसके बदले नाही उसे अलग से पैसा मिलता था नाही और कोई लाभ। कभी देर-सबेर की कोयी शिकायत नहीं। क्या ऐसी बात थी कि उसके रहते हमारे घरवालों को कभी हमारी चिंता नहीं रहती थी। शायद उसके इसी स्नेह से हम रोज स्कूल जाने के लिए भी उत्साहित रहते थे। आज वह पता नहीं कहां होगा। पर जहां भी होगा, खुश रह कर खुशियां बांट रहा होगा, क्योंकि दूसरों को खुश रखने वालों के पास दुख नहीं फटका करता।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
शनिवार, 11 अक्तूबर 2008
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2 टिप्पणियां:
शिबु के संबंध में पढ कर मुझे भी मेरे दादा जी की बातें याद आती है, जब भी उनका कोई हमउम्र उन्हें कोई पुरानी बात याद दिलाता था तो वे उसे कहते थे 'तईहा के बात ला बईहा ले गे बाबू' ।
गया वो जमाना, उसकी यादें आप लोगों से पढ-सुन कर अच्छा लगता है, किसी कहानी की तरह !
शर्मा जी आज के जमाने मै तो भाई ही भाई को खुश नही देखना चाहता, पत्नि भी तो पति से मुकबाला करती है, लेकिन फ़िर भी आप वाले शिबू जरुर मिल ही जाते होगे, जो किसी की मुस्कुराहटओ पर अपनी जान भी नोछाबर कर देते हॊगे, बहुत ही प्यारी लगी आप की कहानी, आप का यह शिबू कही भी हो उसे हमारी दुआ, शुभकामन्ये भगवान उसकी मनोकामना पुरी करे.
धन्यवाद
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