श्रीलंका की एक संस्था 'श्रीलंका रेशनलिस्ट एसोसिएशन' के संस्थापक डा. अब्राहम टी. कोवूर, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक और मनोचिकित्सक थे, ने 1963 में एक लाख रुपये का इनाम उस व्यक्ति को देने की बात कही थी जो यह सिद्ध कर सके कि दुनिया में चमत्कार नाम की भी कोई चीज होती है। यह भी एक चमत्कार ही है कि इस बात के संसार भर में अखबारों द्वारा प्रकाशित, प्रचारित होने के बावजूद आज तक कोई इंसान इस राशि पर अपना हक नहीं जमा सका है। डा. कोवूर ने करीब पचास साल तक इन तथाकथित चमत्कारों का अध्ययन कर के अपने तजुर्बे से यह निष्कर्ष निकाला था कि इनमें से कुछ असत्य पर आधारित हैं, कुछ पर तर्क ही नहीं किया जा सकता और कुछके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक तथ्य है जिसकी जानकारी आम इंसान को न होने की वजह से वह इसे चमत्कार मान बैठता है।
एक लाख की राशि अपने ले जाने वाले के इंतजार में है। कोशिश करेंगे ?
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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15 टिप्पणियां:
अच्छा लगा पढकर, वैसे इस विषय पर असोसिएशन पर भी पूर्व में एक पोस्ट प्रकाशित हो चुकी है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
शर्मा जी बहुत सुंदर ओर रोचक खबर,
धन्यवाद
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे
रोचक खबर है।
हम तो चमत्कारों के इतने बड़े समर्थक हैं कि इस पुरस्कार के अब तक न लिए जाने को भी चमत्कार मानते हैं। ;)
अब तो कोई चमत्कार ही मुझे ये पुरुस्कार दिला सकता है..:)
Tasliim jii, maine wah post nahee dekhii thii. Kuchh anuchit hua ho to kshma chahunga.
ये राशि हमारे देश भारत वर्ष को दे दी जानी चाहिए...ऐसे भ्रष्ट तंत्र के बाद भी ये चल रहा है...इसके पीछे कोई तर्क नहीं है..ये बस एक चमत्कार भर है.
आज के जमाने मे भी यह संभव है?:)
रामराम.
चमत्कार को नमस्कार तो हर युग में होते आए हैं....आशा ही की जा सकती है कि देर-सवेर कोई चमत्कार इन लोगों की जेब से 1 लाख रूपये निकलवाने में कामयाब होगा।
हाँ, इसके सम्बंध में साइंस ब्लॉगर्स अशोसिएसन पर भी एक प्रविष्टि आयी थी इन दिनों । पुरस्कार चमत्कार की बाट जोह रहा है- क्यों नहीं पहुँचा अभी तक कोई ?
रोचक जानकारी!
चमत्कार उसे कहते हैं जिसे किसी तार्किकता की आवश्यकता नहीं... जो विश्वास करता है उसे प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती और जो अविश्वास करता है उसे कोई भी प्रमाण संतुष्ट नहीं कर सकता:)
यह भी तो एक चमत्कार ही है.
आपकी पोस्ट यह कैसे डाक्टर पर.. क्योंकि मुझे टिप्पणी विकल्प नहीं दिख रहा ।
हमलोग रेलवे दुर्धटना स्थल पर पहुँचते ही फ़ौरन अतिगँभीर, क्षतिग्रस्त काया, दहशतज़दा, कुछ कम घायल और मामूली घायलों को चिन्हित कर दिया करते थे । यह एक आम प्रैक्टिस थी, ज़ाहिर है यह डाक्टरों की टीम में से एक कनिष्ठ डाक्टर किसी अनुभवी वार्डब्याय की सहायता से ही किया करता है । इसमें चूक भी होती है ।
एच. आई.वी. जैसे सँक्रमित रोगियों को यदि अलग वार्ड नहीं है, तो चिन्हित किया जाना अनिवार्य है । अमूमन यह वार्ड के आन ड्यूटी सिस्टर इँचार्ज के पास दर्ज़ करा दिया जाता है । यहाँ यह चूक चिकित्सारत डाक्टर और रोगी की सुश्रुषा से जुड़े जन के बीच सँवादहीनता से हुई लगती है, पर ?
पर यह निताँत एकाँगी निष्कर्ष है । क्योंकि टीवी कैमरे के सामने उसकी पहचान यहाँ तक की नाम और घटनाबयानी को को बारँबार फ़्लैश कर देशव्यापी स्तर पर प्रचारित करने वाले चौथे खँभे को आप किस रूप में देखते हैं ? क्या कोई बतायेगा ?
यदि इसके बाद किये जाने वाले एक अन्य विश्वसनीय टेस्ट वेस्टनब्लाट के लिये रक्त नमूनों को लेने आने वाले पैथालाजी-कर्मी को सावधान करने हेतु इस प्रकार की अस्थायी टैगिंग रही हो तो ?
अब कोई यह भी उछाल सकता है कि, इस अत्याधुनिक टेस्ट में एक ’ ब्लाट ’ क्यों लगा है ?
हिन्दी ब्लागिंग मीडिया कवरेज़ का अँधानुकरण करते रहने को कब तक अभिशप्त रहेगा ? बिना सम्पूर्ण तथ्यों को खँगाले कुछ भी लिख देना एक सामाजिक अन्याय है ।
अपनी नमाज़ अदा करने में डाक्टरों के गले रोज़ा पड़ना कोई नई बात भी नहीं है
आप अपनी जगह ठीक हो सकते हैं। पर एक दुर्घटना में सैकड़ों लोगों को चिन्हित करना समझ में आता है। पर आप भी पूरी बात पढ नहीं पाये हैं शायद। यदि माथे पर पट्टी चिपकाना ही पहचान का एकमात्र उपाय रह गया है इस युग में भी अस्पतालों के पास, अपने कर्मचारियों को बचाने के लिये तो फिर उस महिला को वार्ड़ों में क्यूं घुमाया गया और फिर उन डाक्टरों ने उसका इलाज करने से क्यूं मना कर दिया ?
वैसे भी और बहुत से संक्रामक रोग हैं, उनके मरीजों के सरों पर तो पट्टियां नहीं लगाई जाती। उनसे भी तो अस्पतालों के कर्मचारियों की सेहत को खतरा हो सकता है।
रही आपके अनुसार ब्लागर के मीड़िया का "अंधानुकरण" करने की बात तो मेरा नम्र निवेदन है कि यह कोई पिच्छलगुओं का जमावड़ा नहीं है। कृपया पोस्टों को देखा करें। मीड़िया की गलत जानकारी को भी यहां कोई बक्शता नहीं है।
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