सोमवार, 8 जून 2009

जब मेरे ताऊजी और पिताजी निजाम की जेल गए. २सरा भाग :

वह दिन भी आ गया जब हमें रिहा कर दिया गया। हम सब ऐसे जोश में थे जैसे अंग्रेजों को हमने देश के बाहर खदेड़ दिया हो। लौटते समय हमारा जगह-जगह स्वागत-सत्कार होता रहा। हम भी अपने को किसी हीरो जैसा समझ रहे थे। हावड़ा स्टेशन पर पुलिस की सख्ती के बावजूद सैकड़ों लोग हमारी अगवानी के लिये मौजूद थे। हमें फूल-मालाओं से लाद दिया गया। पूरा स्टेशन नारों से गूंज रहा था और माँ हमें अपने गले से चिपटाए अनवरत आसूं बहाये जा रहीं थीं...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

मेरे पिताजी का पिछले साल स्वर्गवास हो गया था। उन्हीं की बरसी में ताऊजी का रायपुर घर आना हुआ था। तभी उन्होंने मन में कहीं दबी-छुपी वर्षों पुरानी यादों को हम सबके सामने उजागर किया था। हालांकि ताऊजी अब बानवें साल में हैं फिर भी 70-75 साल पुरानी बातें ऐसे सुना रहे थे जैसे अभी कल ही घटी हों !   
उन्होंने बताया कि :- उस समय का माहौल ही कुछ अजीब होता था। अंग्रेजों के विरुद्ध देश के लिये कुछ भी करने को लोग तैयार बैठे रहते थे। ऐसे ही संस्कार बच्चों में भी ड़ाले जाते थे। जोर-जुल्म से कोई भी ड़रता नहीं था। उसी रौ में हम भी हैदराबाद चल दिए थे। लगता था, जाते ही निजाम को सबक सिखा देंगें ! शुभ (मेरे पिताजी का नाम) थोडा नाजुक और चुप रहने वाला लड़का था और मैं (खुद ताऊजी) जरा रफ-टफ तरह का। इसलिये मैं तो कहीं भी कैसे भी निभा लेता था, पर छोटे की चिंता हो जाती थी, जो सिर्फ मेरे कहने पर मेरे साथ चला आया था। पर उसने भी गजब का साहस दिखाया कभी किसी भी कठिनाई में उदास या परेशान नहीं हुआ। 

जेल के दूसरे दिन किसी तरह कुछ आटे का जुगाड़ कर "लोहार खाने" की भट्ठी पर मैने कुछ आड़ी-टेढ़ी रोटियां सेकीं, जिनसे बहुत राहत मिली। एक-दो दिन बाद तिकड़मी दिमाग ने एक राह सुझाई। जेल में व्रत-त्योहार आदि पर अलग से राशन देने का प्रावधान था। उस दिन एकादशी का दिन था। मैने व्रत का बहाना बनाया, जिससे जेल वालों ने मुझे  अलग राशन दे दिया और कहा अपना बनाओ और खाओ। 

इसी बीच सबको सजा के दौरान काम तय कर दिया गया ! हम बच्चों को खेत में फसलों की देख-रेख का हल्का काम सौंपा गया। हमें मां की सीख याद थी कि अंग्रेजों की हर बात का विरोध करना है ! सो हमने फसल संभालने की जगह सारी खड़ी फसलें उखाड़ दीं। इसका दंड तो मिलना ही था, हमें अलग-अलग कोठरियों में बंद कर दिया गया। ज्यादा छोटा होने की वजह से शुभ को मेरे साथ ही रखा गया था। इस सबके बाद फिर हमें कुर्सी तथा गलीचा बुनाई में हाथ बटाने का काम दिया गया ! यहां भी हम बखिया उधेड़ने से बाज नहीं आए ! फिर उसी अकेली कोठरी में, जिसमें शायद जीरो वॉट की रोशनी ही होती थी, बंद कर दिए गए ! 

नाबालिग होने की वजह से हमें शारीरिक प्रताड़ना नहीं दी जाती थी पर डराया-धमकाया खूब जाता था। हम भी विरोध का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। खाना, जिसमें थोड़ा सुधार हो गया था, हमें जमीन पर बैठ कर ही खाना पड़ता था। एक दिन एक पहरेदार जूते पहन कर हमारी खाने की जगह में आ गया फिर क्या था, खाना बंद नारे शुरु ! किसी तरह हमें शांत कर भोजन करवाया गया। धीरे-धीरे समय निकलता चला गया। जेल वगैरह का कोई खौफ हमें नहीं था, उल्टे तरह-तरह की शरारतों में मजा आता था। ऐसे ही एक दिन कब्ज और पेट दुखने का नाटक किया तो हमे हास्पिटल में दाखिल कर दिया गया। हास्पिटल क्या था, तीन सीलन भरे कमरे थे। एक में एक टेबल-कुरसी तथा दो आल्मारियों में दवाऐं वगैरह होती थीं तथा दूसरे दोनों कमरों में दो–दो लोहे के पलंग जैसे कुछ थे। वहां कीड़े-मकौड़ों की भरमार थी। पर जगह बदलने से हम खुश थे। पर यह खुशी दिन की रोशनी तक ही सीमित रही। रात मे मेरे पैर पर कुछ रेंगने का आभास हुआ देखा तो बिच्छू था, फिर तो लालटेन जला कर रात भर बिच्छू ही मारते रहे !

ऐसे ही काम करते, शैतानी करते, सजा भुगतते कैसे 6 महीने बीत गए पता ही नहीं चला। वह तो संचार का उस समय कोई साधन नहीं था नहीं तो हम अपने और दोस्तों को भी बुला लेते। बचपन की समझ से इन्हीं सब चीजों में आनंन्द खोजते समय कट गया और वह दिन भी आ गया जब हमें रिहा कर दिया गया। हम सब ऐसे जोश में थे जैसे अंग्रेजों को हमने देश के बाहर खदेड़ दिया हो। लौटते समय हमारा जगह-जगह स्वागत-सत्कार होता रहा। हम भी अपने को किसी हीरो जैसा समझ रहे थे। हावड़ा स्टेशन पर पुलिस की सख्ती के बावजूद सैकड़ों लोग हमारी अगवानी के लिये मौजूद थे। हमें फूल-मालाओं से लाद दिया गया। पूरा स्टेशन नारों से गूंज रहा था और माँ हमें अपने गले से चिपटाए अनवरत आसूं बहाये जा रहीं थीं।"

ताऊजी पुरानी यादों में पूरी तरह से खो गए थे, लगता था जैसे माँ, हमारी दादीजी, अदृश्य रूप से वहां खड़ी हो उनके सर को सहला रही हों ! गहरी खामोशी पसरी हुई थी ! हम सब मौन साधे ताऊजी को देख रहे थे! जिनकी पलकों की कोर पर नमी आ गई थी और आज वर्षों बाद यह संस्मरण लिखते हुए मेरी आंखें भी बार-बार भीगती जा रही हैं, भीगती जा रही हैं..........!

7 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

ताऊजी अब बानवें साल के है . उनके पुराने संस्मरण पढ़कर जानकर मै अभिभूत हूँ . वे दीघार्यु हो. स्वस्थ रहे .और उनके संस्मरण हमें पढ़ने मिलते रहे यही कामना करता हूँ . आभार.

निर्मला कपिला ने कहा…

is badiya sansmaran ke liye shubhkamnayen

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

rochak sansamaran.....

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लगा यह सब, पढते पढते ऎस लगा जेसे यह सब हमारे साथ ही घट रहा हो.
धन्यवाद

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छा रहा आपके संस्मरण को पढ़ना.

संजय बेंगाणी ने कहा…

अरे जोर से वन्दे मातरम का नारा तो लागाओ....

बेनामी ने कहा…

kaise log the, kaisee bhawnaye thii, ab to lagata hai sab tirohit hi ho gaya hai.

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...