इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
सोमवार, 29 जून 2020
एक था धीरेंद्र ब्रह्मचारी
सोमवार, 22 जून 2020
दुर्वासा ऋषि का क्रोध बना था समुद्र मंथन का कारण
शुक्रवार, 19 जून 2020
संकट काल में तो देश की सोच लो, अपने हित साधने के मौके तो आते रहेंगे
गुरुवार, 18 जून 2020
कुनबा-परस्ती, स्वजन पक्षपात, भाई-भतीजावाद के गह्वर में सुशांत सिंह
सोमवार, 15 जून 2020
गुलाबो-सिताबो खूब लड़े हैं, आपस मा
किसी समय घुमंतू जातियों के लोगों के उपार्जन के विभिन्न जरियों में कठपुतली का तमाशा भी एक करतब हुआ करता था। इसमें ज्यादातर दो महिला किरदारों के आपसी पारिवारिक झगड़ों के काल्पनिक रोचक किस्से बना अवाम का मनोरंजन किया जाता था। किरदारों को कभी सास-बहू, कभी ननद-भौजाई, कभी देवरानी-जेठानी या फिर कभी सौतों का रूप दे दिया जाता था। उन किरदारों को ज्यादातर गुलाबो-सिताबो के नाम से बुलाया जाता था..........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
अभी पिछले दिनों अमिताभ-आयुष्मान की एक फिल्म प्रदर्शित हुई है, नाम है गुलाबो-सिताबो। फिल्म चाहे जैसी भी बनी हो पर उसने दो महत्वपूर्ण कार्यों को तो अंजाम दिया ही है। इस फिल्म ने OTT (Over The Top) पर प्रदर्शित होने वाली पहली हिंदी फिल्म के रूप में अपना नाम तो दर्ज करवाया ही साथ ही साथ गुमशुदगी के अंधेरे में विलोपित होती उस कठपुतली कला का नाम भी आमजन को याद दिलवा दिया, जिसे कम्प्यूटर गेम्स जैसे साधनों के आने के बाद लोग तकरीबन भूल ही गए थे। गुलाबो-सिताबो इसी कला की दो महिला दस्ताना कठपुतलियों (Glove Puppets) के नाम हैं, जिन्होंने एक समय उत्तर प्रदेश में धूम मचा रखी थी और वहां की कला व संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गयी थीं।
गुलाबो-सिताबो, किसी समय घुमंतू जातियों के लोगों के उपार्जन के विभिन्न जरियों में कठपुतली का तमाशा भी एक करतब हुआ करता था। इसमें ज्यादातर दो महिला किरदारों के आपसी पारिवारिक झगड़ों के काल्पनिक रोचक किस्से बना अवाम का मनोरंजन किया जाता था। किरदारों को कभी सास-बहू, कभी ननद-भौजाई, कभी देवरानी-जेठानी या फिर कभी सौतों का रूप दे दिया जाता था। उन किरदारों को ज्यादातर गुलाबो-सिताबो के नाम से बुलाया जाता था। इनके किस्से प्रदेश में एक लम्बे अरसे तक छाए रहे थे।
निरंजन लाल श्रीवास्तव और उनकी कठपुतलियां |
नवाब वाजिद अली शाह के समय ये कठपुतलियां कला का पर्याय बन गईं थीं। गुलाबो-सिताबो का सफर भले ही आजादी से पहले शुरू हुआ था, लेकिन इन्हें पुख्ता पहचान 1950 के दशक में जा कर मिल पाई, जब प्रतापगढ़ निवासी राम निरंजनलाल श्रीवास्तव, बी.आर. प्रजापति और जुबोध लाल श्रीवास्तव सरीखे कलाकारों ने कठपुतली कला का भलीभांति प्रशिक्षण ले उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा, उसका देश के विभिन्न नगरों में प्रदर्शन कर उसे व्यापक ख्याति दिलवाई। हालांकि इनकी कठपुतलियों के पहरावे, रंग-रोगन में काफी बदलाव आया था पर उन किरदारों का नाम स्थाई रूप से गुलाबो-सिताबो कर दिया गया। कारण भी था, इन नामों की प्रसिद्धि और लोकप्रियता लगातार बढ़ती ही जा रही थी। लोग उन्हीं नामों को देखना-सुनना पसंद करने लगे थे। इनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई थी कि गुलाबो-सिताबो के जरिए सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार होने लगा था। यहां तक कि अग्रिम मोर्चों पर तैनात जवानों के मनोरंजन के लिए भी इनको भेजा जाने लगा था।
शूजित सरकार द्वारा निर्देशित इस फिल्म का नाम गुलाबो-सिताबो प्रतीतात्मक है, क्योंकि इसमें झगड़ने वाले पात्र महिला न हो कर पुरुष हैं और उनकी भाषा भी व्यंग्यात्मक होने के बावजूद बहुत संयमित और सधी हुई है। पर क्या यह मात्र एक संयोग है या कुछ और कि उत्तर प्रदेश के जिस प्रतापगढ़ जिले के एक कायस्थ परिवार ने गुलाबो-सिताबो को देश-विदेश में व्यापक पहचान और प्रसिद्धि दिलवाई; उन्हीं किरदारों के नाम से जब एक फिल्म बनी तो उसमें मुख्य किरदार निभाने वाले कायस्थ कलाकार के पूर्वजों का संबंध भी उसी जिले से है ! चलो चाहे जो हो मतलब तो गुलाबो-सिताबो की नोक-झोंक और उनकी तनातनी से है, -
''जहां साग लायी पात लायी और लायी चौरैया, दूनौ जने लड़ै लागीं, पात लै गा कौआ''
शनिवार, 13 जून 2020
चीन की बंदूक, नेपाल की गोली और गुर्गों की बोली
शुक्रवार, 12 जून 2020
मिर्च अनंत, तीखापन अनंता
मंगलवार, 9 जून 2020
उम्र, संख्या पर भले ही नहीं पर उसके तकाजे पर जरूर ध्यान रखें
अगली बॉल को बॉलर ने अपनी तर्जनी और मध्यमा में फंसा कर जबरदस्त फिरकी डाली ! बॉल ने तेज घूर्णित अवस्था में जा बैट के बाहरी किनारे को छूआ और उछाल खा हवा में जा टंगी ! दोनों तरफ की सांसें थमी और निगाहें बॉल पर जमी हुईं ! सामने वाला खिलाड़ी फर्श को भूल अर्श को ताकता हुआ बॉल की ओर तेजी से लपका ! बॉल के नजदीक पहुंच, उँगलियों और हथेली को कटोरे का रूप दे उसे लपकने ही वाला था कि........
ठीक चार सेकेंड बाद छत की मुंडेर से टकराया खिलाड़ी उठता है और पूछता है कि बॉल कहां है ? बॉल कहां है ? तभी दर्शक दीर्घा से तेज आवाज आती है, ''बॉल छड्डो, देक्खो खून बै रेया ऐ ! लग्ग गई ?'' यह सुनने पर खिलाड़ी का ध्यान अपने हाथ पर जाता है, जहां दो छिद्रों से रक्त बाहर आ रहा था। नीचे जा धो-पौंछ कर डेटॉल-क्रीम वगैरह लगा निवृति पाई गई ! पर कुछ देर बाद ही कुछ अस्वाभाविक सा लगने पर जब मुआयना हुआ तो पाया गया कि दाएं पैर की तीसरी और चौथी उंगलियां कालिमा युक्त नीले रंग में रंग गई हैं ! दोनों घुटनों ने पुरानी चमड़ी को त्याग नई पाने का उपक्रम कर लिया है। दोनों हथेलियों में सूजन आ गई है ! अंगूठों के जोड़ पीड़ाग्रस्त हो चुके हैं ! ठुड्डी के टकराने से जबड़े में कुछ दर्द तो है ही उस टकराहट से उठी तरंगों ने पीठ और कमर के बीच रीढ़ की हड्डी को भी बगावत के लिए उकसा दिया है !
इन सब के साथ ही रात गहराती गई पर नींद ने भी विद्रोह कर दिया ! पूरी रात जागते ही बीती। दूसरे दिन भी उठा नहीं गया। शाम को दर्द तो था पर कुछ हिम्मत कर हिलने-डुलने, चलने-फिरने की हिम्मत जुटाई जा सकी ! इसीलिए कहता हूँ जो लोग कहते हैं ना कि उम्र सिर्फ एक संख्या है; ये वे लोग होते हैं जो अभी चोटग्रस्त या बीमार नहीं हुए होते ! उनकी बात मान जो अति उत्साही ''वरिष्ठ युवा'' नंबर-नंबर खेलने लग जाते हैं, वे समझ लें कि खुदा ना खास्ता कभी कुछ ऐंड-बैंड हो जाता है तो वह संख्या उतने ही किलोग्राम में बदल सिर पर सवार हो जाती है .............सुन रहे हैं ना !!
शुक्रवार, 5 जून 2020
पाताल भुवनेश्वर, मान्यता है कि यहां गणेश जी का असली सिर स्थापित है
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"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार
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कहते हैं कि विधि का लेख मिटाए नहीं मिटता। कितनों ने कितनी तरह की कोशीशें की पर हुआ वही जो निर्धारित था। राजा लायस और उसकी पत्नी जोकास्टा। ...
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अपनी एक पुरानी डायरी मे यह रोचक प्रसंग मिला, कैसा रहा बताइयेगा :- काफी पुरानी बात है। अंग्रेजों का बोलबाला सारे संसार में क्यूं है? क्य...