सोमवार, 30 दिसंबर 2019

नव-वर्ष अनंत, नव-वर्ष कथा अनंता

आने वाले साल के 366 दिन सब के लिए सुख-शांति और निरोगिता ले कर आएं। सभी को आने वाले समय की शुभकामनाएं !
नए साल पर अमेरिका के न्यूयार्क में टाइम्स स्क्वायर पर 1907 से चले आ रहे दुनिया के सबसे बड़े और मंहगे नव-वर्ष के जश्न पर, जहां एक युगल पर कम से कम 1200 डॉलर का खर्च बैठने के बावजूद,  इस ''बॉल ड्रॉप'' आयोजन को देखने लाखों लोग इकट्ठा हो जाते हैं। कुछ लोग तो टॉयलेट्स की कमी को ध्यान में रख ''डायपर्स'' पहन कर ही इस उत्सव में शरीक होते हैं...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
देखते-देखते सर्वमान्य क्रिश्चियन कैलेंडर की दौड़ का समय तक़रीबन पूरा हो गया। एक-दो दिन बाद उसने अपना ''बैटन'' अपने उत्तराधिकारी को पकड़ा देना है। यह दौड़ अनादिकाल से चली आ रही है, अनवरत ! पर ऐसा भी नहीं है कि समय यूँही रीतता, बीतता, खर्च हो जाता हो ! या सिर्फ कैलेंडर, संवत, नाम, अंक आदि ही आते-जाते-बदलते रहते हों ! इस सतत चलने वाली प्रक्रिया के साथ संसार के कुछ अनूठे प्रसंग भी जुड़ते चले जाते हैं, जिनकी जानकारी अपने आप में अनोखी और मजेदार भी है -
1, प्रशांत महासागर में स्थित रिपब्लिक ऑफ किरीबाती नामक द्वीप को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वहां दुनिया में सबसे पहले नव-वर्ष का स्वागत किया जाता है।

2, कहते हैं कि करीब चार हजार साल पहले मेसोपोटामिया में पहली बार नए साल का उत्सव मनाया गया था।

3, कई देशों में अलग-अलग नव-वर्ष की शुरुआत मानी जाती है। पर क्रिश्चियन नव-वर्ष की मान्यता सबसे अधिक है और यह तक़रीबन सारे संसार में मान्य है।

4, हमारा नया साल अंग्रेजी माह के मार्च - अप्रैल में पड़ता है। ग्रंथों के अनुसार जिस दिन सृष्टि का चक्र प्रथम बार विधाता ने प्रवर्तित किया, उस दिन चैत्र शुदी 1, रविवार था। उसी दिन से हमारे यहां नए साल की शुरुआत होती है। जब कहीं धूल-धक्कड़ नहीं, गंदगी-कीच नहीं, बाहर-भीतर जमीन-आसमान सब जगह स्नानोपरांत जैसी शुद्धता। शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने किसान को भी सबसे ज्यादा सुहाते इस मौसम से कल गणना की शुरूआत की होगी। भारत मे सभी शासकीय और अशासकीय कार्य तथा वित्त वर्ष भी अप्रैल (चैत्र) मास से प्रारम्भ होता है। 
5, सम्राट जूलियस सीजर ने 46 ईसा पूर्व एक जनवरी को साल का पहला दिन घोषित किया था।

6, प्राचीन योरोप में दो विपरीत दिशाओं के सर वाले भगवान जानुज को खुशहाली का प्रतीक माना जाता था। इन्हीं के नाम पर जनवरी माह का नामकरण किया गया था।
 
7, इथोपिया में साल में तेरह महीने होते हैं। इसलिए वहां अभी 2006 ही चल रहा है। वे अपना नव-वर्ष 11 सेप्टेम्बर को मनाते हैं।

8, जापान और कोरिया जैसे कुछ एशियन देशों में बच्चे के जन्म होते ही उसको एक साल का माना जाता है।

9, नए साल पर अमेरिका के न्यूयार्क में टाइम्स स्क्वायर पर 1907 से चले आ रहे दुनिया के सबसे बड़े और मंहगे नव-वर्ष के जश्न पर, जहां एक युगल पर कम से कम 1200 डॉलर का खर्च बैठने के बावजूद,  इस ''बॉल ड्रॉप'' आयोजन को देखने लाखों लोग इकट्ठा हो जाते हैं। जबकि तक़रीबन दो करोड़ अमेरिकन इस उत्सव को अपने घरों में बैठ कर देखते हैं, जबकि संसार भर में इसमें रूचि लेने वाले तो अनगिनत हैं।

10, दसियों लाख लोगों की भीड़ को संभालने के लिए हजारों पुलिस तथा सैंकड़ों सफाई कर्मी मुस्तैद रहते हैं। टाइम्स स्क्वायर को पूरी तरह साफ़ करने में 15-16 घंटे का समय लग जाता है।

11, टॉयलेट्स की कमी को ध्यान में रख कुछ लोग तो ''डायपर्स'' पहन कर ही इस उत्सव में शरीक होते हैं।

12, अमेरिका के समोया द्वोप में सबसे आखिर में नए साल का आगाज हो पाता है।

अब इस बदलती तारीखों के बारे में तो यही कहा जा सकता है कि नव-वर्ष अनंत, नव-वर्ष कथा अनंता ! आने वाले साल के 366 दिन सब के लिए सुख-शांति और निरोगिता ले कर आएं। सभी को आने वाले समय की शुभकामनाएं।

@संदर्भ अंतरजाल 

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

25 दिसंबर को ही तुलसी पूजन दिवस ??

हमारे त्यौहार किसी ना किसी प्रयोजन से जुड़े होते हैं, उनका कुछ ना कुछ महत्व भी जरूर होता है और उनका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों में भी जरूर मिलता है। लेकिन 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस की कोई कथा या जिक्र कहीं नहीं मिलता ! इसलिए ऐसी आशंका उठनी स्वाभाविक है कि सिर्फ विरोध करने की खातिर कोई ऐसा दिवस तो नहीं गढ़ दिया गया है ..............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आज क्रिसमिस के त्यौहार के साथ ही सोशल मीडिया पर जहां-तहां तुलसी दिवस होने का भी उल्लेख किया जा  रहा है। हमारे त्यौहार किसी ना किसी प्रयोजन से जुड़े होते हैं, उनका कुछ ना कुछ महत्व भी जरूर होता है और उनका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों में भी जरूर मिलता है। लेकिन 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस की कोई कथा या जिक्र कहीं नहीं मिलता। इसका कारण भी है कि यह प्रथा विवादित आसाराम बापू द्वारा 2014 में ही शुरू की गयी है !

ऐसा क्यों है यह समझना भी कोई बड़ी बात नहीं है ! पर क्या ऐसा कर के हम खुद को या अपने त्योहारों को कमतर तो नहीं कर रहे ! सभी जानते हैं कि हमारे त्योहारों के समय की गणना विक्रमी संवत के अनुसार होती है जो ईसवी संवत से बिल्कुल अलग है। चूँकि दुनिया में क्रिश्चियन कैलेण्डर चलन में है इसीलिए हमारे तीज-त्योहारों का समय हर वर्ष अलग-अलग होता है, तो फिर यह कैसे संभव है कि तुलसी दिवस हर बार 25 दिसंबर को ही पड़े ! इसलिए ऐसी आशंका उठनी स्वाभाविक है कि तुलसी जैसे बहुउपयोगी, गुणकारी, लोगों की भावना और आस्था से गहराई तक जुड़े इस पौधे की आड में सिर्फ किसी अन्य उत्सव का विरोध करने की खातिर कोई ऐसा दिवस गढ़ दिया गया हो !

मानव सदा से ही उत्सव प्रिय रहा है। पर्व, त्यौहार, उत्सव आनंद और खुशहाली का प्रतीक होते हैं, फिर वे चाहे किसी भी धर्म-समाज या पंथ के हों। आज के तनाव भरे समय में इंसान सकून  के दो पल मिलते ही अपने तनाव को भुलाना चाहता है। इसलिए जब कभी, जैसा भी मौका मिलता है वह लपक लेता है। यह स्वयं-स्फूर्त भावना है, खासकर आजकी युवा पीढ़ी की, जो बिना किसी भेदभाव के उत्पन्न होती है। यह भी सही है कि कहीं-कहीं अतिरेक भी हो जाता है। शायद इसी कारण कुछ लोगों को विदेशी त्योहारों को अपनाने पर अपने त्योहारों की अवहेलना होते नजर आती है। पर क्या हमारी परंपराऐं, संस्कृति, आस्था इतनी कमजोर हैं ?

विडंबना देखिए कि आज तकरीबन हर भारतीय की ख्वाहिश होती है कि वे खुद या उनके बच्चे विदेश जा कर अपना जीवन निर्वाह करें ! इसमें कोई बुराई भी नहीं है पर जब वहां जा कर उनकी हर अच्छी-बुरी बात या चलन का अनुसरण करना है तो उनके त्योहारों का यहां रह कर विरोध क्यों ? ध्यान सिर्फ इतना रखना है कि उसकी अच्छाईयों को ही ग्रहण करें ना कि समय के साथ उसके साथ जुड गयीं बुराईयों को भी आंख बंद कर अपना लें। 

हमारा सनातन धर्म अपने नाम के अनुसार सनातनी है। कितने उतार-चढ़ाव आए ! कितनी ही विपरीत परिस्थितियां रहीं ! कितने ही अलग-अलग मतावलंबियों ने इसके विरुद्ध प्रचार कर इसे बदनाम करने, ख़त्म करने का कुप्रयास किया ! सैंकड़ों हजारों वर्षों तक अन्य धर्मावलंबी शासकों ने हम पर राज किया ! कुछ लोग उनके बहकावे में आए भी, पर इस महान वैदिक धर्म को मिटा नहीं सके। तो फिर वसुधैव कुटुंबकंम की सोच रखने वाली हमारी सोच आज इतनी संकुचित कैसे हो गयी ? हम क्यों इतने शंकित रहने लगे इसके अस्तित्व को ले कर ? क्यों देश, समाज, व्यक्ति के प्रति हमारा दृष्टिकोण इतना संकीर्ण हो गया ? सोचने की और ध्यान देने की बात है !  

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

हौसला और उत्साह हो तो कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता

फ़ुटबाल में तो वह माहिर था पर उसे क्रिकेट खेलना ज्यादा भाता था; कारण, फ़ुटबाल में क्लास से कुछ ही घंटों की मुक्ति मिलती थी, वहीं क्रिकेट में दिन भर की मोहलत तो मिलती ही थी साथ में अच्छा खेलने पर एक-दो दिनों के लिए मास्साब की डांट से भी छुटकारा मिल जाता था। यह रहस्योघाटन बड़े होने पर खुद उसने ही किया था  ! कौन है वह ? जो क्रिकेट पिच पर कभी भी रन आउट नहीं हुआ !अपनी फिटनेस के कारण कभी भी खेल से बाहर नहीं हुआ ! जिसके रनों और विकेटों का रेकार्ड तोड़ना अभी भी दूभर बना हुआ है...............! 
   
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डीएवी सीनियर सेकेंडरी स्कूल चंडीगढ़ में पढ़ने वाला एक लड़का, जिसे स्कूल के नाम से ही बुखार चढ़ जाता था। उसका दिमाग सदा क्लास में न जाने और पढ़ाई से बचने के बहाने ढूंढा करता था। उस जमाने में सामान्यता हर अभिभावक यही चाहता था कि उसके बच्चे पढ़ाई में ही ध्यान दें जिससे उनका भविष्य सुरक्षित हो सके ! पर यहां लाख समझाने का भी कोई असर नहीं हो  रहा था। वैसे पढ़ाई में वह चाहे जैसा भी था, पर खेलों में सदा अव्वल रहने वाला वह किशोर स्कूल में फ़ुटबाल और क्रिकेट दोनों खेला करता था। फ़ुटबाल में तो वह माहिर था पर उसे क्रिकेट खेलना ज्यादा भाता था; कारण फ़ुटबाल में क्लास से कुछ घंटों की ही मुक्ति मिलती थी, वहीं क्रिकेट में दिन भर की मोहलत तो मिलती ही थी साथ में अच्छा खेलने पर एक-दो दिनों के लिए मास्साब की डांट से भी छुटकारा मिल जाता था। यह रहस्योघाटन बड़े होने पर खुद उसने किया।
   
अब जब यह पक्का हो गया कि क्रिकेट खेलने में ही ज्यादा भलाई है, तो उसने इस खेल में नियमित भाग लेना शुरू कर दिया। उसके खेल से उसकी उम्र को देखते हुए उसके सीनियर्स भी काफी प्रभावित थे। प्रोत्साहन मिलने पर उस युवक की प्रतिभा को पंख लग गए। उसने बॉलिंग और बैंटिंग दोनों में हाथ आजमाए और महारत हासिल कर ली। भाग्य की देवी मुस्कुराई और उसका चयन हरियाणा की टीम में हो गया। अपने पहले ही मैच में छह विकेट ले उसने अपनी टीम को पंजाब पर विजय दिलाई। यह तो शुरुआत थी, इसके बाद जम्मू-कश्मीर वाले मैच में आठ विकेट पैंतीस रन फिर बंगाल के विरुद्ध सात विकेट और बीस रन, फिर दिल्ली के खिलाफ 193 की नाबाद पारी ने उसे लोगों की नज़रों में ला खड़ा किया। अब उसका एकमात्र लक्ष्य देश के लिए खेलना था। जिसमें हौसला और उत्साह होता है उसका कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता। सो उसने भी अपनी क़ाबलियत के दम पर 1978 में भारत की टेस्ट टीम में स्थान बना कर अपना पहला मैच पकिस्तान के साथ खेल ही लिया ! फिर उसके बाद कभी पीछे मुड कर नहीं देखा।  उसकी ख्याति देश की सीमा फलांग विदेशों में जा पहुंची।
  
हरियाणा तूफान के नाम से पहचाने जाने वाले इस क्रिकेटर को क्रिकेट पिच पर कभी भी रन आउट होते हुए नहीं देखा गया। अपनी फिटनेस पर इसका इतना ध्यान था कि सेहत की वजह से यह कभी भी खेल से बाहर नहीं हुआ। इसका पांच हजार रन और चार सौ से ऊपर विकेटों का रेकार्ड अभी तक कोई भी आलराउंडर छू तक नहीं पाया है। आज उसके नाम को दुनिया के क्रिकेट में उच्च एवं सम्मानीय दर्जा प्राप्त है। भारत के क्रिकेट के इतिहास में इस शख्स ने वह कारनामा कर दिखाया जिसको किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। 


क्या क्रिकेट टीम के कप्तान और कोच रहे, अर्जुन पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मभूषण, विज्डन, आईसीसी क्रिकेट हॉल ऑफ फेम, भारतीय सेना का लेफ्टिनेंट कर्नल का पद फिर एनडीटीवी द्वारा भारत में 25 सबसे महान वैश्विक जीवित महापुरूष का खिताब पाने वाले इस इंसान का नाम बताना अभी भी जरुरी है ? यदि है; तो वे हैं कपिल देव रामलाल निखंज।  


संदर्भ, श्री रघुरामन, दैनिक भास्कर

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

प्याज बिना स्वाद कहां रे !

इस लिहाज से प्याज को सब्जी रूपी ''बाबा'' भी कहा जा सकता है। जैसे आजकल के फर्जी बाबे, लोगों की मति फेर, उनको अपने वाग्जाल में उलझा कहीं का नहीं छोड़ते; ठीक वैसे ही यह ''प्याजिबाबा'' भी लोगों को स्वाद के मायाजाल में उलझा कर उनका आर्थिक शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है। और इधर हम हैं कि सौ-पचास रुपये के लिए अपनी कोमलांगी, रसप्रिया जिह्वा को उसके सुख से विमुख करने को कतई राजी नहीं हैं...................!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 
ज्ञानी, गुणी, विवेकशील लोग कह गए हैं कि क्या स्साला खाने के लिए जीता है; अरे ! सिर्फ थोड़ा-बहुत जीने के लिए खा लिया कर ! अब उनको क्या बताएं कि दोनों अवस्थाओं में खाना तो खाना ही पडेगा और खाना तभी हितकर होगा जब रसना को रस आएगा। अब यह तीन इंची इंद्रिय बस देखने-कहने को ही छोटी है, कारनामे इसके बड़े-बड़े होते हैं। ये चाहे तो महाभारत करवा दे ! यह चाहे तो घास-पात को अनमोल बनवा दे। बोले तो, पूरी की पूरी मानवजाति इसके इशारों पर नाचती है। भले ही इसके लिए कुछ भी, कोई भी कीमत चुकानी पड़े। 
पढ़े-लिखे को फारसी क्या ! अब देख लीजिए, प्याज बिना खुद को छिलवाए लोगों के आंसू निकलवा रहा है कि नहीं ! किसके कारण ? सिर्फ जीभ के कारण ! जी हाँ, वही प्याज जिसके सेवन के लिए ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले ही मनाही कर दी थी। क्योंकि शायद उन्हें इसका अंदाज हो गया था कि यह नामुराद, जिसका ना तो कोई ईमान है ना हीं धर्म ! एक ना एक दिन लोगों की मुसीबत का कारण बनेगा। आज देख लीजिए ! कुछ ही दिनों पहले जिसको कोई दो रुपये किलो तक लेने को तैयार नहीं था ! किसान जिसकी उपज को नष्ट करने पर मजबूर हो गए थे, उसी शैतान की आंत की जुर्रत कुछ ही दिनों में सात सौ गुना उछाल मार आज दो सौ का आंकड़ा छूने की हो रही है। कारण सिर्फ इंसान की वही तीन इंची इंद्री, जिसे बिना प्याज भोजन, भोजन नहीं लगता। वही प्याज जिसे छीलो तो परत दर परत सिर्फ छिलका ही हाथ आता है, यानी निल बटे सन्नाटा ! पर वही सन्नाटा आज ज्वालामुखी का शोर साबित हो रहा है। 
ठीक है कि इसमें कुछ गुण भी जरूर हैं, तो गुण तो रावण में भी थे ! उनको नजरंदाज कर यदि लोग बिना प्याज के खाना बनाने लग जाएं तो इसे दो दिनों में अपनी औकात नजर आ जाए ! पर नहीं ! इसने लोगों की मति ऐसे मार रखी है कि इसके चहेते इसको हासिल करने के लिए सरकार तक उलटने को तैयार हो जाते हैं। इस लिहाज से प्याज को सब्जी रूपी ''बाबा'' भी कहा जा सकता है। जैसे आजकल के फर्जी बाबे, लोगों की मति फेर, उनको अपने वाग्जाल में उलझा कहीं का नहीं छोड़ते; ठीक वैसे ही यह प्याजिबाबा भी लोगों को स्वाद के मायाजाल में उलझा कर उनका आर्थिक शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है। और इधर हम हैं कि सौ-पचास रुपये के लिए अपनी कोमलांगी को उसके सुख से विमुख करने को कतई राजी नहीं हैं। देखना है कि यह कांदा और कितने कांड करेगा ! अभी तो आलम यह है कि ''उठाए जा उनके सितम और जिए जा, यूँ ही मुस्कुराए जा और पैसे खर्च किए जा ! (आंसू पिए जा !) 

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

"फैंटम" के निवास की याद दिलाती, देहरादून की गुच्चुपानी गुफा

किसी किले जैसी दुर्गम बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है, बीहड़ का वैसा ही रहस्यमयी वातावरण, उसी से मिलती-जुलती गुफा, वैसा ही झरना..............! 

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गुच्चुपानी ! नाम सुन कर ऐसा लगता है जैसे गुपचुप यानी पानीपुरी के चटपटे पानी की बात हो रही हो। पर यह नाम है देहरादून के प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट का। मसूरी मार्ग पर देहरादून चिड़िया घर के पास, शहर से सात-आठ की.मी. की दूरी पर स्थित इस 650 मीटर, किले जैसी बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है। इस जगह प्रकृति का एक अनोखा कारनामा भी घटित होता है जिसके तहत पानी की एक लहर उठती है और फिर गायब हो कुछ दूर जा कर फिर दिखने लगती है शायद इसी वजह से इसका नाम गुपचुप पानी पड़ा होगा जो समय के साथ बदल गुच्चुपानी हो गया होगा।



अंग्रेजों के समय में लुटेरे शासन से बचने के लिए इस जगह को खुद और अपने लूट के सामान को छिपाने के काम में लाते थे। इसके रास्तों का खतरनाक और बीहड़ होने के कारण वे पुलिस से बच निकलने में कामयाब हो जाते थे। इसीलिए इसे गुच्चुपानी के अलावा रॉबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा के नाम से भी जाना जाता है। यह आज भी उतनी ही रहस्यमय है जितनी तब थी पर अब यह एक पर्यटन स्थल का रूप ले चुकी है जहां सैंकड़ों लोग रोज तफरीह करने आते हैं।





गाड़ियों के स्टैंड के पास पानी की धारा के साथ ही सीढ़ियों के साथ एक चबूतरा सा बना हुआ है जिसके आगे पानी में जूते ले जाने की मनाही है। वहीं से पानी में होते हुए करीब सौ मीटर की दूरी पर गुफा का प्रवेश मार्ग है। दूर से यह अहसास होता है कि सामने की पहाड़ियां जुडी हुई हैं, जबकि ऐसा नहीं है। उन्हीं के बीच से निकल उस झरने के अद्भुत दृश्य के दर्शन होते हैं। पानी में चलते हुए सावधानी आवश्यक है। छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े, फिसलन और जलीय जंतुओं का ध्यान रख कर बिना जल्दीबाजी के आगे बढ़ना ही ठीक रहता है। 



धीरे-धीरे यहां भी व्यवसायिकता अपने पैर पसारने लगी है जिसके तहत खाने-पीने की दुकानों के साथ-साथ किराए पर स्लीपर और कपडे भी मिलने लगे हैं। और तो और गीले कपडे बदलने के लिए ''बूथ'' जैसी जगहें भी किराए पर दी जाने लगी हैं। डर यही है कि कहीं सहस्त्र धारा की तरह ही इस जगह का प्राकृतिक सौंदर्य भी कहीं नष्ट ना कर दिया जाए।        

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

कहनी है इक बात हमें इस देश के पहरेदारों से

खालसा पंथ में दिक्षित लोग जात-पांत के भेदभाव से दूर, आत्मज्ञानी, सरल चित्त, समाजसेवी होने के साथ-साथ किसी के बहकावे में ना आने वाले हैं ! वे जानते हैं कि हिंदू-सिख एक ही माँ की संतानें हैं ! एक ही शरीर के अंग हैं ! एक ही परिवार के सदस्य हैं ! सो यहां किसी की दाल गल नहीं रही थी ! पर भारत को  खंड-खंड करने का स्वप्न देखने वाले लोग भी जानते हैं कि धर्म के नाम पर हम कुछ जल्दी ही भावुक हो जाते हैं...........................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हिंदुस्तान ! हिंदुओं के रहने का स्थान। संपंन्न, शांतिप्रिय, जो है उसी में खुश रहने वाले लोगों का देश। कई आए, कई गए ! कुछ अपना मतलब सिद्ध कर लौट गए कुछ यहीं के हो कर रह गए। दुनिया में मंदी का दौर आया तो बाहर के देशों के लोगों की गिद्ध दृष्टि इस सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश पर पड़ी। बहुतेरे आए पर अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता से बाकी अतिक्रमणकारियों को हाशिए पर धकेल दिया। पर सिर्फ चार हजार अंग्रेजों के द्वारा इतनी बड़ी आबादी पर काबू पाना आसान नहीं था। इसीलिए षड़यन्त्र पूर्वक धर्म के नाम पर फूट फैला कर आपसी नफरत को जन्म दिया ! फिर एक से दूसरे को बचाने के नाम पर संरक्षण देने के बहाने उन्हें वश में किया ! अपनी शर्तें रखीं और धीरे-धीरे अपने शिकजे को जकड़ते चले गए। यहां तक की जाते-जाते भी उसी के सहारे देश के दो टुकड़े तो कर ही गए साथ ही अपनी कुटिल बुद्धि से देश को और भी गारत करने के लिए जाति, भाषा, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब जैसे मुद्दों द्वारा फूट डाल राज करने की नीतियां हमारे राजनेताओं को विरासत में दे गए। जिससे उपजे विद्वेष का परिणाम आज सबके सामने है।

कभी सोच के देखा जाए तो ऐसा क्या हुआ जो देश की आजादी के बाद से ही हिंदुओं, खासकर ब्राह्मणों के खिलाफ दलित मोर्चा खोला गया ! उसके पहले हजार साल तक ऐसी बात क्यों नहीं उठी ? क्या इन्हीं तीस-चालीस सालों में ही ब्राह्मणों के द्वारा ज्यादतियां हुईं ? जबकी इन्हीं ब्राह्मणों की वजह से ही ईसाईयों या मुस्लिमों द्वारा धर्मांतरण सफल नहीं हो पाया था ! नहीं तो किसी भी विधर्मी शासक ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जब यह देखा गया कि बाकी हिंदू जब तक ब्राह्मणों के संपर्क में रहेंगे तब तक उनको बहकाया नहीं जा सकता, तो इसीलिए जात-पांत का चक्रव्यूह रचा गया, पैसों का लालच और सम्मान की हड्डी फेंकी गयी ! यह दांव कुछ हद तक सफल रहा और समाज में विद्वेष की खाई गहरा गयी। वैसे सच तो यह है कि ब्राह्मण या मनुवाढ तो सिर्फ बहाना ही है, असल में हिंदुओं को बांट-काट कर किसी भी तरह सत्ता हासिल करना मकसद है।  

विडंबना ही रही कि पहले हिंदू मुस्लिम के बीच द्वेष के बीज बोए गए। फिर द्रविड़-आर्य का खेल खेला गया। उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन जैसा बना दिया गया। पर इससे कइयों का मकसद सिद्ध नहीं हो पाया। सत्ता पाने की लालसा में कुकुरमुत्तों की तरह नए-नए छत्रप उगते गए और समाज को जाति, भाषा, क्षेत्र के हिसाब से बांट कर अपना उल्लू सीधा करते चले गए। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा से त्रस्त लोगों को कभी मनु, कभी हिंदू, कभी ब्राह्मण, कभी दलित जैसे निरर्थक जुमलों में उलझाए रखने में ही उनकी बादशाहत जो कायम रहने वाली थी। और चूँकि ब्राह्मण समाज की नींव की तरह थे सो पहले उन्हीं पर हमला किया गया। उन पर इल्जाम लगाने वाले तथाकथित समाजसेवी और अपने आप को बुद्धिजीवी कहलाने वालों को क्यों दलितों के मसिहाओं की कारस्तानियां नजर नहीं आतीं ? क्या किसी एक भी दलित नेता के किसी सर्वहारा परिवार को सहारा दिया है ? परिवार को तो जाने दें किसी बच्चे के भविष्य को संवारने का जिम्मा लिया है ?

अब तक पडोसी या घर के ही कुटिल लोगों की लाख कोशिशों के बावजूद हिंदुओं और सिखों में दरार नहीं डाली जा सकी थी। इसके कुछ मुख्य कारण भी थे ! जैसे सिख धर्म का इतिहास अभी नया-नया होने के कारण उसके बारे में जानने और बताने वाले बहुत से लोग समाज को सही जानकारी देते आए थे। गुरु साहिबान की वाणियों में ऋषि-मुनियों की बातें समाहित थीं। ऐसे सैंकड़ों हिंदू घर थे जिन्होंने अपने एक पुत्र को खालसा पंथ की दीक्षा दिलवाई थी। फिर इस पंथ में दिक्षित लोग जात-पांत के भेदभाव से दूर, आत्मज्ञानी, सरल चित्त, समाजसेवी होने के साथ-साथ किसी के बहकावे में ना आने वाले थे। वे जानते थे कि हिंदू-सिख एक ही माँ की संतानें हैं ! एक ही शरीर के अंग हैं ! एक ही परिवार के सदस्य हैं ! इन्हीं सच्चाइयों के कारण यहां किसी की दाल गल नहीं रही थी। पर विरोधी ताकतें भी चुप नहीं बैठीं थीं ! धीरे-धीरे उन्होंने जहर उगलना जारी रखा ! जिसके तहत दोनों धर्मों को जुदा जताने की साजिश शुरू हो गयी। नयी सिख पीढ़ी को इतिहास की गलत जानकारी दे बहकाने की कोशिश की जाने लगी। बार-बार यह फैलाया जाता रहा कि सिखों ने हिंदुओं की रक्षा की ! पर ज्ञातव्य है कि खालसा पंथ की स्थापना के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय ही आगे आए थे। यह खुला सत्य है कि हर  परिवार ने अपना एक बेटा खालसा फौज के लिए दिया था। एक ओर जहां मराठे मुगलों से लड़ रहे थे वहीं राजपूतों और ब्राह्मणों ने भी मुग़ल साम्राज्य की नाक में दम कर रखा था। जब पहली खालसा फौज बनी तो उसका नेतृत्व भाई प्राग दास जी, जो एक ब्राह्मण थे, उनके हाथों में था। उनके बाद उनके बेटे भाई मोहन दास जी ने कमान सम्हाली। उनके अलावा सती दास जी, मति दास जी, दयाल दास जी जैसे ब्राह्मण वीरों ने गुरु जी की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे डाली। इतना ही नहीं गुरु जी को शस्त्रों की शिक्षा देने वाले भी पंडित कृपा दत्त जी जैसा योद्धा पंजाब में दुसरा नहीं हुआ। एक बैरागी ब्राह्मण लक्ष्मण दास और उनके किशोर पुत्र अजय ने सरहिंद में गुरु परिवार की रक्षा के लिए दुश्मनों से लोहा लिया और चप्पड़ चिड़ी की लड़ाई में विजय प्राप्त की। यही लक्ष्मण दास आगे चल कर बंदा बहादुर कहलाए।

कहने का तात्पर्य यही है कि भारत को खंड-खंड करने का स्वप्न देखने वालों से हमें होशियार रहने की जरुरत है। किसी के प्रलोभन, दरियादिली या झूठी सहानुभूति से भ्रमित न होकर अपने देश और समाज के लिए ही अपने आप को सजग रखना है। फिर चाहे वह पाकिस्तान द्वारा किसी धर्मस्थली तक जाने की इजाजत दे बहलाने की मंशा हो या फिर चीन द्वारा उसके यहां बेहतर व्यापार का प्रलोभन ! क्योंकि वे लोग भी जानते हैं कि धर्म के नाम पर हम कुछ जल्दी ही भावुक हो जाते हैं। 

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का अप्रतिम, बेजोड़ भवन

हमारे घटते प्राकृतिक संसाधनों, बढ़ते प्रदूषण, कम होती हरियाली और बढ़ते कंक्रीट के जंगलों का मुख्य कारण बेलगाम बढ़ती आबादी ही है। लोग बढ़ेंगे तो उनके लिए जगह भी चाहिए ! रोटी-पानी भी चाहिए ! गाडी-घोडा भी चाहिए ! और यह सब चाहिए तो फिर उपरोक्त कमियां तो सामने आएंगी ही ! पहले बड़े शहरों में ही दवाब नजर आता था, पर अब तो देश के छोटे शहर-कस्बे भी अछूते नहीं बचे हैं। मैदानों को तो छोड़ें, पर्वतीय इलाके भी अपनी नैसर्गिक सुंदरता खोने लगे हैं................!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पिछले दिनों चिर लंबित लाखामंडल की यात्रा का मौका बन पाया तो ''बेस'' देहरादून को ही ठहराया। जब वहां रुकना था तो लाजिमी था कि शहर को भी देखा-परखा जाए ! पर कभी अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध यह अर्ध-पहाड़ी शहर भी व्यावसायिकता के बाज़ार के लौह शिकंजों में जकड़ता जा रहा है। हर वह दर्शनीय स्थल जिसे देखने की अभिलाषा लिए पर्यटक यहां पहुंचते हैं उन्हें घोर निराशा ही होती है ! फिर चाहे वह सहस्त्र धारा हो, चाहे गुच्चूपानी हो या प्रकाशेश्वर मंदिर ! हर जगह अतिक्रमण और गंदगी का बोलबाला ! शहर के मर्म-स्थल घंटाघर या पल्टन बाजार की भीड़-भाड़, प्रदूषण, अफरा-तफरी, बेकाबू यातायात का जिक्र नाहीं किया जाए तो भला ! ऐसे में भी अभी वहां एक-दो जगहें ऐसी हैं, जहां जा कर दिल को सकून मिलता है। जिनमें एक धर्मस्थली, टपकेश्वर महादेव मंदिर और दूसरी कर्मस्थली, वन विभाग का रिसर्च इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं। आज पहले FRI याने भारतीय वन अनुसंधान संस्थान की बात -



चांदबाग, आज जहां दून स्कुल है, वहां 1878 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल को 1906 में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का रूप प्रदान किया गया था। फिर 1923 में आज के विशाल भूखंड पर सी.जी. ब्लूमफील्ड द्वारा निर्मित एक नई ईमारत में 1929 में इसका स्थानांतरण कर दिया गया। जिसका उद्घाटन उस समय के वायसराय लॉर्ड इरविन द्वारा किया गया था। शहर के ह्रदय-स्थल से करीब सात की.मी. की दूरी पर देहरादून-चकराता मार्ग पर यह ग्रीको-रोमन वास्तुकला की शैली वाला भव्य, सुंदर, शानदार, अप्रतिम, बेजोड़ भवन अपना सर उठाए बिना प्रयास ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसमें एक बॉटनिकल म्यूजियम भी है तरह-तरह के पेड़-पौधों की जानकारी प्रदान करता है। इसके लिए अलग से प्रवेश शुल्क लिया जाता है।



2000 एकड़ में फैला एफ.आर.आई. में 7 संग्रहालय और तिब्बत से लेकर सिंगापुर तक के तरह-तरह के पेड़-पौधे यहां पर संग्रहित हैं। इसका मुख्य भवन राष्ट्रीय विरासत घोषित किया जा चुका है। सबसे बड़े ईंटों से बने इस भवन का नाम एक बार गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है। वन शोध के क्षेत्र में प्रसिद्ध, एशिया में अपनी तरह के इकलौते संस्थान के रूप में यह दुनिया भर में प्रख्यात है। इसीलिए इसे देहरादून की पहचान और गौरव के रूप में देखा जाता है। देहरादून आने वाला शायद ही कोई पर्यटक हो जो इसे देखने ना आता हो। हर रोज यहां सैंकड़ों दर्शकों का तांता लगा रहता है। उनकी सुविधा के लिए एक कैंटीन तथा उत्तराखंड के लिबासों की बिक्री के लिए एक छोटा सा शो रूम भी यहां उपलब्ध है।     

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने...! कौन थी ये भानुमती ?

भानुमती ! कहीं की ईंट कहीं के रोडे को इकठ्ठा कर अपना कुनबा बना लेने वाली भानुमती ! किसी जादुयी पिटारे की स्वामिनी भानुमति ! दुर्योधन, कर्ण तथा अर्जुन के साथ अनोखे सम्बन्ध बनाने वाली भानुमति ! कौन थी ये महिला, जिसके नाम के मुहावरे उससे ज्यादा प्रसिद्ध हैं ? उसके बारे में विस्तार से जानने के लिए महाभारत काल में ताक-झांक करनी पड़ेगी, जहां उसके बारे में अच्छी-खासी जानकारी उपलब्ध है.......! 

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प्राचीन काल में भारत के महाजनपदों में से एक था कंबोज। जिसका क्षेत्र आधुनिक पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिलता था। उस समय कंबोज पर राजा चन्द्रवर्मा का राज था। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम था भानुमती। उसके रूप और गुणों के सामने स्वर्ग की अप्सराएं भी कहीं नहीं ठहरती थीं। उसके विवाह योग्य होने पर राजा चंद्र्वर्मा ने भानुमती के विवाह के लिए स्वयंबर का आयोजन किया। भानुमती ना सिर्फ बहुत रूपवान थी, अत्यंत बुद्धिमती होने के साथ-साथ वह शारीरिक रूप से भी अति बलिष्ठ थी। इन्हीं गुणों की ख्याति सुन उसके स्वयंबर में दुर्योधन, कर्ण, जरासंध, शिशुपाल जैसे पराक्रमी, वीर और ख्यातिप्रद राजा उससे विवाह की अभिलाषा लेकर आये थे।

जब स्वयंबर स्थल पर भानुमती पूरे श्रृंगार के साथ आई तो वहां उपस्थित सभी राजाओं के मुंह खुले के खुले रह गए। ऐसा अप्रितम सौन्दर्य ना किसी ने देखा था ना किसी ने सोचा था। जब दुर्योधन की नज़र भानुमती पर पड़ी तो उसका मन मचल उठा और उसने ठान लिया कि भानुमती से वही विवाह करेगा। परंतु भानुमती को दुर्योधन पसंद नहीं था। इसीलिए वह वरमाला ले उससे आगे बढ़ गयी। यह देख दुर्योधन अत्यंत क्रोधित हो गया और भानुमती को पकड कर जबरन उससे माला अपने गले में डलवा ली। वहां उपस्थित बाकी राजाओं में आक्रोश फ़ैल गया तथा उन्होंने इस बात का विरोध किया तो दुर्योधन ने सभी योद्धाओं को कर्ण से युद्ध करने की चुनौती दे डाली ! कुछ ने युद्ध की चुनौती स्वीकार की भी तो उन्हें कर्ण ने पलक झपकते ही हरा दिया। उसके इस शौर्य से भानुमती भी बहुत प्रभावित हुई। इसी कारण विवाहोपरांत हस्तिनापुर आने पर उसे कर्ण के साथ समय व्यतीत करना बहुत भाता था। 

भानुमती को हस्तिनापुर ले आने के बाद दुर्योधन ने भानुमती के अपहरण को यह कह कर, अप ने आप को सही ठहराया, कि भीष्म पितामह भी अपने सौतेले भाइयों के लिए अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण करके ले आए थे। इस तर्क से भानुमती भी मान गई और दोनों ने विवाह कर लिया। इनके लक्ष्मण तथा लक्ष्मणा नामक एक पुत्र तथा एक पुत्री हुई। कालांतर से लक्ष्मणा ने कृष्ण पुत्र साम्ब से भाग कर विवाह कर लिया और लक्ष्मण युद्ध में अभिमन्यु द्वारा मारा गया। फिर भी  भानुमती ने युद्ध में दुर्योधन की मृत्यु के बाद अर्जुन से विवाह कर लिया था। 

भानुमती ! जिसने दुर्योधन को पति नहीं चुनना चाहा था ! स्वयंबर के समय वह किसी और को वरमाला पहनाना चाहती थी ! पर उसे मजबूरन दुर्योधन से ब्याह रचाना पड़ा ! भले ही बाद में वह राजी हो गयी हो ! स्वयंबर के वक्त हुए युद्ध में वह कर्ण से भी प्रभावित थी ! हस्तिनापुर आने के बाद उसे कर्ण के साथ समय व्यतीत करना पसंद था ! फिर महाभारत युद्ध के पश्चात दुर्योधन की मृत्यु के उपरांत उसने अर्जुन से विवाह कर लिया ! समय, परिस्थियों और मौकापरस्ती के चलते, समयानुसार अपना मतलब सिद्ध करते रहने और दुर्योधन, कर्ण, अर्जुन के साथ अनोखे सम्बन्ध बना बार-बार अपने अलग-अलग कुनबे गढने की वजह से ही शायद यह कहावत चलन में आई - 
''कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा'' !

शनिवार, 16 नवंबर 2019

देहरादून का प्रकाशेश्वर महादेव मंदिर, जहां किसी भी तरह के चढ़ावे या दान की मनाही है

मंदिर में चढ़ावा तो प्रतिबंधित है, तो लगता है कि शायद आय की आपूर्ति के लिए संबंधित लोगों का सारा ध्यान मंदिर के बाहर और अंदर की दुकानों की बिक्री पर केंद्रित हो गया है ! नहीं तो चारों ओर फैलती गंदगी पर ध्यान न जाए ये तो असंभव सा ही है। इसके साथ ही एक और विडंबना भी दिखी कि दर्शनार्थ आने वाले भगत और श्रद्धालुगण सिर्फ किसी तरह कूड़े-पानी-गंदगी से बचते हुए अंदर जाने की जुगत में ही रहते हैं इस परेशानी को नजरंदाज करते हुए ! कभी-कभी मन में आता है कि क्या हमारे धर्मस्थलों की नियति ही है गंदा रहना ...............?

#हिन्दी_ब्लागिंग 
देहरादून दूसरा दिन ! जैसा की तय किया गया था, सुबह साढ़े नौ बजते-बजते शहर भ्रमण का दौर शुरू हो गया। सबसे पहले मसूरी रोड पर, घंटाघर से करीब बारह कि.मी. दूर. कुठाल गेट के पास सड़क के किनारे स्थित #प्रकाशेश्वर_महादेव_मंदिर पर रुकना हुआ। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर देहरादून के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। हर रोज मंदिर को फूलों से सजाया जाता है। स्फटिक का शिवलिंग यहां का मुख्य आकर्षण है। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां किसी भी तरह के चढ़ावे या दान की मनाही है। लाल और नारंगी  रंगों से सजे इस मंदिर की छत पर शिव जी के त्रिशूल सजे हुए हैं। मंदिर की दीवारों को लाल और नारंगी रंग में चित्रित किया गया है। आने वाले श्रद्धालुओं को दिन भर खीर का प्रसाद मिलता है। किसी शिव भक्त के द्वारा निर्मित इस मंदिर का इतिहास फिलहाल अज्ञात है। हालांकि मुख्य द्वार पर बंगला भाषा में सूचना पट पर एक "फरमान" जरूर लिखा हुआ है जिसमें किसी भी तरह के चढावे की मनाही का निर्देश दिया गया है। 

मंदिर के अंदर किसी पूजा सामग्री या मिठाई वगैरह की दूकान नहीं है। अलबत्ता मोती-रत्नों-रुद्राक्ष-माला वगैरह की बिक्री के लिए खासी बड़ी जगह घेर कर बिक्री की जाती है। उसी तरह मंदिर के प्रवेश द्वार के साथ ही खाने-पीने की दूकान खोल दी गयी है। वहीं एक बात और महसूस हुई कि मंदिर से जुड़े अधिकांश लोग तनावग्रस्त से लगे बाहर की दूकान पर उपस्थित सज्जन तो जैसे ग्राहकों पर एहसान सा कर रहे थे। सच कहूं तो किसी धर्मस्थल के अंदर जाते समय जो एक श्रद्धा की भावना उपजती उसका यहां तनिक अभाव सा लगा ! 

इस प्रसिद्ध मंदिर को देखने की लालसा लिए जैसे ही मंदिर के मुख्य द्वार के सामने उतरे वैसे ही मन खिन्नता से भर उठा। मुख्य द्वार के सामने ही दो बड़े-बड़े ऊपर तक कूड़े से भरे कूड़ा पात्र रखे हुए थे ! जिनके पूरे भरे होने की वजह से कूड़ा निकल-निकल कर मंदिर के अंदर-बाहर गंदगी फैला रहा था। मंदिर के अंदर भी एक कूड़ादान रखा हुआ था ! ऊपर से रही-सही कसर वहां घूमते बंदर पूरी कर रहे थे। दरवाजे पर ही एक नल भी लगा हुआ था जिसकी वजह से जूते उतारने की जगह भी गीली थी। कूड़ा और पानी दोनों मिल कर गंदगी का कहर ढा रहे थे। जबकि मंदिर के सामने जहां गाड़ियां खड़ी होती हैं वहां अफरात जगह है। वैसे भी मंदिर की काफी बड़ी जगह है, कूड़ेदान कहीं और भी बिना परेशानी रखे जा सकते हैं। 


उस समय तो संकोचवश किसी से कुछ नहीं कहा पर लौटते समय रहा ना गया ! श्रीमती जी की भी इच्छा थी एक बार और दर्शन करने की ! सो इस बार पुजारी जी से अति नम्रता से अपने मन की बात कही ! पहले तो वे मेरा मुंह ही देखते रह गए ! फिर उन्होंने सारा इल्जाम बंदरों पर थोप दिया ! जिस पर मैंने कहा कि चूँकि कूड़ादान ठीक दरवाजे पर मंदिर के सामने है तो बंदर तो आऐंगे ही और वे यहीं गंदगी फैलाएंगे, इसमें जानवरो का क्या कसूर है ? कूड़ादान को ही कहीं और रखा जाए तो ही बात बनेगी। मेरी बात कुछ समझ में आने पर उन्होंने मुझे प्रबंधक से बात करने को कहा। ये महोदय भी कुछ असमंजस में घिर गए ! बोले इस ओर ध्यान ही नहीं गया ! फिर आपकी बात पर जरूर कार्यवाही करेंगे, ये आश्वासन जरूर दिया। 


ये सब देख यही लगता है कि मंदिर में चढ़ावा तो प्रतिबंधित है, तो आय की आपूर्ति के लिए संबंधित लोगों का सारा ध्यान मंदिर के बाहर और अंदर की दुकानों की बिक्री पर केंद्रित हो गया है ! नहीं तो इतनी बड़ी बात पर ध्यान न जाए ये तो असंभव सा ही है। इसके साथ ही एक और विडंबना भी दिखी कि दर्शनार्थ आने वाले भगत और श्रद्धालुगण सिर्फ किसी तरह कूड़े-पानी-गंदगी से बचते हुए अंदर जाने की जुगत में ही रहते हैं इस परेशानी को नजरंदाज करते हुए ! कभी-कभी मन में आता है कि क्या हमारे धर्मस्थलों की नियति ही है गंदा रहना ? 

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

दिल्ली-देहरादून-लाखामंडल

दिनों-दिन बढ़ती आबादी का बोझ महानगरों से निकल अब छोटे शहरों को भी अपने चंगुल में लेने लगा है। पहाड़ की गोद में  बसा सुंदर प्यारा सा शहर देहरादून भी इसकी चपेट में आ चुका है। आबादी के साथ ही बढ़ते निर्माण, धुंआ उगलते बेलगाम वाहन, बेतरतीब यातायात,  घटती हरियाली, उड़ती धूल यहां भी लोगों को मास्क लगाने को मजबूर कर रहे हैं ............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
लाखामंडल :- यहां जाने की इच्छा एक लंबे अरसे के बाद इस बार नवम्बर में जा कर पूरी हुई। जब किसी तरह आठ से बारह नवम्बर का समय दायित्वों-परिस्थितियों से समझौता कर निकाला गया। पूरा खाका और ताना-बाना फिट कर आठ की सुबह देहरादून शताब्दी की सीट पर जा जमे। साथ में श्रीमती जी और बड़े बेटे चेतन का साथ भी था। देहरादून के होटल में चार दिनों की बुकिंग की जा चुकी थी। पर पहले दिन ही जब मित्र दीक्षित जी को हमारे वहां होने का पता चला तो उन दोनों द्वारा आग्रह युक्त इतना स्नेहिल दवाब पड़ा कि लाख झिझक और संकोच के बावजूद अगले दिन शहर से दूर साफ़-सुथरे वातावरण में उनके बड़े से, 5BHK एपार्टमेंट की चाबी लेने को बाध्य हो गए। पर शर्त यह रही कि हमारा सिर्फ और सिर्फ रहना ही होगा। उनका अपना दूसरा फ़्लैट भी उसी परिसर में बगल में ही था। 

घर की छत से नजर आता विहंगम दृश्य 
पहला दिन :- होटल स्टेशन के पास ही था। आठ की दोपहर बाद का समय भीड़-भाड़ वाले पलटन बाजार की गश्त, घडी मीनार की छाया में हलकी-फुलकी उदर पूजा करते और अगले दिनों का कार्यक्रम तय करने तथा टैक्सी वगैरह के इंतजाम में ही निकल गया। आज की रेल यात्रा की थकान को देखते हुए यह तय रहा कि दूसरे दिन यानि नौ को देहरादून का कम थकाने वाला भ्रमण कर दस को लाखामंडल की ओर निकला जाए, क्योंकि वहां की करीब सवा सौ कि.मी. की दूरी तक आने-जाने में आठ घंटे तथा वहां तक़रीबन दो घंटे यानी कुल दस-ग्यारह घंटों के लिए तारो-ताजा होना बेहद जरुरी था। इसी यात्राक्रम को ध्यान में रख वाहन उपलब्ध करवाने वालों से जानकारी हासिल की और दो दिनों के लिए अपनी आवश्यकताएं बता घूमने की जिम्मेदारी एक को सौंप दी। 
पलटन बाजार 
वही भीड़-भाड़ वही अफरा-तफरी 

पलटन बाजार, 1820 में अंग्रेजों को देहरादून में जब अपनी छावनी स्थापित करने की जरुरत महसूस हुई तो उन्होंने  ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को यहां ला तैनात किया। अब जब लोग आ बसे तो उनकी रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति के लिए दुकानों की भी आवश्यकता पड़ी। इस तरह एक बाजार अस्तित्व में आया, जहां सेना, जिसे पलटन कहते थे, के जवान ही अधिकतर खरीदारी किया करते थे, इसलिए उस बाजार का नाम पलटन बाजार पड़ा जो आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध है। यह यहां का सर्वाधिक पुराना और व्यस्त बाजार है। स्थाई निवासियों तथा पर्यटकों सबकी खरीदारी करने के लिए पहली पसंद तो है ही इसके साथ ही युवाओं के लिए यह मौज और समय बिताने की जगह की रूप में भी जाना जाता है। आज इस बाजार में फल, सब्जियां, सभी प्रकार के कपड़े, तैयार वस्त्र, जूते और घर में प्रतिदिन काम आने वाली प्रत्येक वस्तु सहज उपलब्ध हैं।
घंटाघर :- यह देहरादून की सबसे व्यस्त राजपुर रोड के मुहाने पर स्थित है और यहाँ की प्रमुख व्यवसायिक गतिविधियों का केन्द्र है। ईंटों और पत्थरों से निर्मित इस षट्कोणीय ईमारत का निर्माण अंग्रेजों ने करवाया था। जिसके शीर्ष के हर मुख पर छः घड़ियां लगी हुई हैं। इसके हर पहलू में एक दरवाजा बना हुआ है जिसके अंदर की सीढ़ियां ऊपर तक जाती हैं जहां अर्द्ध वृताकार खिड़कियां बनी हुई हैं। देहरादून का यह घंटाघर नगर की सबसे सौन्दर्यपूर्ण संरचना तो है ही इसका षट्कोणनुमा ढाँचा एशिया में भी अपने प्रकार का विरला ही है।
इधर से निश्चिन्त हो होटल लौटे ही थे कि क्षमा जी का फोन आ गया और जैसा पहले बता चुका हूँ उनका आग्रह टाला नहीं जा सका। दूसरे दिन सुबह कुछ तामझाम के बाद होटल की बुकिंग निरस्त कर, गाडी वहीं बुला, सामान को उनके घर छोड़ते हुए देहरादून से परिचित होने निकल पड़े।

@दूसरा दिन - देहरादून के दर्शनीय स्थल 

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

लेडिकेनी ! यह कैसा नाम है मिठाई का !

लेडिकेनि ! कुछ अजीब सा नाम नहीं लगता, वह भी जब यह किसी मिठाई का हो ! लेकिन यह सच है कि पश्चिम बंगाल में इस नाम की एक मशहूर मिठाई पाई जाती है जो काफी लोकप्रिय भी है। छेने और मैदे के मिश्रण को तल कर फिर चाशनी में सराबोर कर तैयार किए गए इस मिष्टान का नाम, 1856 से 1862 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे, चार्ल्स कैनिंग की पत्नी चार्लोट कैंनिंग के नाम पर रखा गया था.....!

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उन दिनों देश में फिरंगियों के विरुद्ध गंभीर माहौल था। उन्हें दुश्मनी की नज़रों से देखा जाता था ! विद्रोह की संभावना बढ़ती जा रही थी ! ऐसे में भी एक अंग्रेज महिला ने ऐसी ख्याति अर्जित की, इतना स्नेह जुटाया कि उनके नाम पर एक मिठाई का नामकरण कर दिया गया ! ऐसा होने का भी एक बड़ा कारण था ! उन दिनों देश का माहौल अत्यंत खराब और भयप्रद होने के बावजूद लेडी चार्लोट देश भ्रमण कर लोगों से मिलती-जुलती रहीं। जनता के करीब रह उनका हाल-चाल जानने के लिए प्रस्तुत रहीं। इसी कारण अवाम में वे काफी लोकप्रिय हो गयीं, आम आदमी उन्हें अंग्रेज होने के बावजूद पसंद करने और चाहने लगा। वे भी शायद इस देश से प्रेम व लगाव रखने लगी थीं इसीलिए शायद उन्होने इसी धरा में दफ़न होना उचित समझा हो ! उनकी कब्र कोलकाता के नजदीक बैरकपुर में आज भी मौजूद है। उनकी इसी लोकप्रियता के कारण उनकी अभ्यर्थना स्वरुप एक नयी मिठाई की ईजाद कर उसका नाम उनके नाम पर रखा गया।  


मिष्टी प्रेम 



वैसे लेडिकेनि के उद्भव के बारे में तरह-तरह के लोकमत हैं। कोई कहता है कि कलकत्ता के मशहूर हलवाई भीम चंद्र नाग, जिनकी छठी पीढ़ी अभी भी कलकत्ते में अत्यंत सफलता पूर्वक अपना कारोबार चला रही है, द्वारा इसे खासकर लेडी कैंनिग के भारत प्रवास पर इसे बनाया था ! कोई इसे उनके जन्मदिन के उपहार स्वरुप निर्मित किया मानता है ! कोई उनके आगमन पर उनके स्वागत हेतु प्रस्तुत किए गए व्यंजन के रूप में देखता है तो कोई इसका जन्म बरहमपुर में लॉर्ड कैंनिग के आगमन के समय बनाया गया बताता है। कहानी कोई भी हो पर यह सच है कि इसका नाम लेडी कैनिंग को ही समर्पित है। इसी समर्पण की वजह से ही इसे इतनी अधिक ख्याति मिली बजाए इसके स्वाद के ! उस दौरान यह इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि 1861 में उनकी मृत्यु के पश्चात भी इसको सम्मलित किए बगैर, मिष्टी प्रिय सभ्रांत बंगाली परिवारों का कोई भी महाभोज पूरा नहीं हो पाता था। पर समय के साथ धीरे-धीरे इसका नाम लेडी कैनिंग से बदल कर लेडिकेनि होता चला गया !  


बैरकपुर में स्थित ग्रेव 
देखने में और कुछ-कुछ स्वाद में भी यह अपने चचेरे भाई गुलाब जामुन के बहुत करीब है। पर दोनों में एक बुनियादी फर्क है, गुलाबजामुन जहां खोये से बनाया जाता है, वहीं लेडिकेनि के लिए छेने का प्रयोग किया जाता है। बाकि बनाने की विधि और रूप-रंग तक़रीबन समान ही होते हैं। जो भी हो, है तो यह भी एक जिह्वाप्रिय मिष्टान ! तो जब कभी भी मौका मिले, चूकना नहीं चाहिए इसका स्वाद लेने को ! 

शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

आतिशी मायाजाल का करिश्मा

आप सभी मित्रों, परिजनों और "अनदेखे अपनों" को ह्रदय की गहराइयों से इस पावन पर्व की ढेरो व अशेष शुभकामनाएं। परमपिता की असीम कृपा से हम सब का जीवन पथ सदा प्रशस्त व आलोकित रहे ! राग-द्वेष दूर हों, सुख-शांति का वास हो, आने वाला समय भी शुभ और मंगलमय हो !


#हिन्दी_ब्लागिंग 
दीपावली का शुभ दिन पड़ता है अमावस्या की घोर काली रात को। शुरू होती है अंधेरे और उजाले की जंग। अच्छाई की बुराई पर जीत की जद्दो-जहद। निराशा को दूर कर आशा की लौ जलाने रखने की पुरजोर कोशिश। इसमें अपनी छोटी सी जिंदगी को दांव पर लगा अपने महाबली शत्रु से जूझती हैं सूर्यदेव की अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करने वाली रश्मियाँ।  


हम भारतवासियों दृढ का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है, असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है।अंधकार कितना भी गहरा क्यों ना हो, ये छोटे-छोटे रोशनी के सिपाही अपनी सीमित शक्तियों के बावजूद एक मायाजाल रच, विभिन्न रूप धर, चाहे कुछ क्षणों के लिए ही सही अंधकार को मात देने के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगा देते हैं। ताकि समस्त जगत को खुशी और आनंद मिल सके। 

ऐसा होता भी है, इसकी परख निश्छल मन वाले बच्चों के चेहरे पर फैली मुस्कान और हंसी को देख कर अपने-आप हो जाती है। एक बार अपने तनाव, अपनी चिंताओं, अपनी व्यवस्तताओं को दर-किनार कर यदि कोई अपने बचपन को याद कर, उसमें खो कर देखे तो उसे भी इस दैवीय एहसास का अनुभव जरूर होगा। यही है इस पर्व की विशेषता, इसके आतिशी मायाजाल का करिश्मा, जो सबको अपनी गिरफ्त में ले कर उन्हें चिंतामुक्त कर देने की, चाहे कुछ देर के लिए ही सही, क्षमता रखता है।  
एक बार फिर आप सब मित्रों, परिजनों और "अनदेखे अपनों" को ह्रदय की गहराइयों से शुभकामनाएं।  
हम सब के लिए आने वाला समय भी शुभ और मंगलमय हो।    

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...