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शनिवार, 29 अगस्त 2020

इकलौता मंदिर, जहां गणेश जी की नरमुख रूप में पूजा होती है

कुछ दिनों पहले एक ऐसे स्थान का विवरण मिला था जहां गणेश जी के गजमुख लगने से पहले वाले मस्तक की पूजा होती है। जो उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से 14 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर नामक गांव की एक गुफा में प्रतिष्ठित है। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है।मान्‍यता है कि इस गुफा में गणेश जी का असली सिर भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया था ! आज उसी कड़ी में एक ऐसे इकलौते मंदिर का ब्यौरा जहां गौरी पुत्र की पूजा मानव मुख के साथ होती है ! आस्था में तर्क का कोई भी स्थान नहीं होता................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

आस्था में तर्क के लिये कोई स्थान नहीं होता। वर्षाें से, पीढ़ी दर पीढ़ी जो देखा-सुना जाता है, खासकर धर्म के मामले में, उसी पर हमारी आस्था हो जाती है। समय के साथ-साथ यह इतनी गहरी और दृढ हो जाती है कि हमें यदि उसके इतर भी कुछ मिलता है तो हम उसे भी संभव मान इसी में समाहित कर लेते हैं ! जैसे कि वर्षों-वर्ष से यही पढ़ते, सुनते, देखते, विश्वास करते आएं हैं कि गौरी पुत्र गणेश जी गजानन हैं, और यह गजमुख उन्हें बाल्यकाल में ही उनके साथ घटी एक घटना के फलस्वरूप मिला था। उनकी सदा इसी रूप में पूजा भी होती आई है। पर अभी एक अनोखी, विस्मयकारी एवं अनूठी जानकारी ''भास्कर'' से मिली कि सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में एक अनूठा, इकलौता गणेश जी का  एक ऐसा मंदिर भी है, जहां उनकी मानव मुखी प्रतिमा की पूजा-अर्चना होती है। यह जानकारी चौंका जरूर देती है पर किसी  तरह का अविश्वास नहीं करती ! यही आस्था है जिसमें तर्क की कोई भी गुंजाइश नहीं ! गणेशोत्सव के पावन दिनों के अवसर पर  आज उसी को साझा कर रहा हूँ। 

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नरमुखी गणेश 

कुछ दिनों पहले एक ऐसे स्थान का विवरण मिला था, जहां गणेश जी के गजमुख के पहले वाले वास्तविक मस्तक की पूजा होती है। जो उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से 14 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर नामक गांव की एक गुफा में प्रतिष्ठित है। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है। मान्‍यता है कि इस गुफा में गणेश जी का असली सिर भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया था ! आज उसी कड़ी में एक ऐसे मंदिर का ब्यौरा जहां गौरी पुत्र की नर रूप में स्थापित प्रतिमा की पूजा-अर्चना की जाती है। 

पाताल भुवनेश्वर 

पाताल भुवनेश्वर, पूजा स्थल 
देश के सुदूर दक्षिणी इलाके का राज्य तमिलनाडु। इसके तिरुवरुर जिले के कुटनूर नगर से करीब तीन किमी की दुरी पर स्थित है, तिलतर्पण पुरी । यहीं 7वीं सदी में निर्मित एक ऐसा प्राचीन आदि विनायक मंदिर है जिसमें गणेश जी की नरमुख रूप यानी इंसान स्वरुप में माँ पार्वती जी के साथ पूजा होती है। मान्यता है कि माता पार्वती ने अपने उबटन की मैल से जिस बालक की रचना की थी, यह प्रतिमा उसी का पहला रूप है ! ऐसा माना जाता है कि विश्व भर में यह इकलौता मंदिर है जहां विघ्नहर्ता नरमुख रूप में विराजमान हैं।  


पितृपक्ष में यहां लोग अपने पूर्वजों का तिल से तर्पण  करते हैं। ये प्रथा अनादिकाल से चली आ रही है। प्रभु राम ने भी अपने पिता दशरथ का तर्पण यहां किया था। यहां ऐसी कथा प्रचलित है कि जब श्री राम अपने पिता दशरथ का अंतिम संस्कार कर रहे थे तब उनके द्वारा चढ़ाए जा रहे चार पिंड बार-बार खंडित हो बिखरे जा रहे थे और उनमें कीड़े लग रहे थे ! तब श्री राम ने भगवान शिव से प्रार्थना की और उनके कहेनुसार आदि विनायक मंदिर पर आकर अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए भोलेनाथ की पूजा की। तत्पश्चात चावल के वो चार पिंड चार शिवलिंग में बदल गए, जो आज भी आदि विनायक मंदिर के पास मुक्तेश्वर मंदिर में मौजूद हैं। 

आमतौर पर पितृ शांति की पूजा किसी नदी के तट पर की जाती है, लेकिन यहां मंदिर के अंदर ही यह अनुष्ठान होता है। पितृ-पूजा के लिए इसे काशी, रामेश्वरम तथा गया जी के बराबर माना जाता है। हजारों लोग अपने पूर्वजों की मोक्ष की कामना ले कर यहां आते रहते हैं। 

@सभी चित्र अंतर्जाल से -

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने...! कौन थी ये भानुमती ?

भानुमती ! कहीं की ईंट कहीं के रोडे को इकठ्ठा कर अपना कुनबा बना लेने वाली भानुमती ! किसी जादुयी पिटारे की स्वामिनी भानुमति ! दुर्योधन, कर्ण तथा अर्जुन के साथ अनोखे सम्बन्ध बनाने वाली भानुमति ! कौन थी ये महिला, जिसके नाम के मुहावरे उससे ज्यादा प्रसिद्ध हैं ? उसके बारे में विस्तार से जानने के लिए महाभारत काल में ताक-झांक करनी पड़ेगी, जहां उसके बारे में अच्छी-खासी जानकारी उपलब्ध है.......! 

#हिन्दी_ब्लागिंग   
प्राचीन काल में भारत के महाजनपदों में से एक था कंबोज। जिसका क्षेत्र आधुनिक पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान से मिलता था। उस समय कंबोज पर राजा चन्द्रवर्मा का राज था। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम था भानुमती। उसके रूप और गुणों के सामने स्वर्ग की अप्सराएं भी कहीं नहीं ठहरती थीं। उसके विवाह योग्य होने पर राजा चंद्र्वर्मा ने भानुमती के विवाह के लिए स्वयंबर का आयोजन किया। भानुमती ना सिर्फ बहुत रूपवान थी, अत्यंत बुद्धिमती होने के साथ-साथ वह शारीरिक रूप से भी अति बलिष्ठ थी। इन्हीं गुणों की ख्याति सुन उसके स्वयंबर में दुर्योधन, कर्ण, जरासंध, शिशुपाल जैसे पराक्रमी, वीर और ख्यातिप्रद राजा उससे विवाह की अभिलाषा लेकर आये थे।

जब स्वयंबर स्थल पर भानुमती पूरे श्रृंगार के साथ आई तो वहां उपस्थित सभी राजाओं के मुंह खुले के खुले रह गए। ऐसा अप्रितम सौन्दर्य ना किसी ने देखा था ना किसी ने सोचा था। जब दुर्योधन की नज़र भानुमती पर पड़ी तो उसका मन मचल उठा और उसने ठान लिया कि भानुमती से वही विवाह करेगा। परंतु भानुमती को दुर्योधन पसंद नहीं था। इसीलिए वह वरमाला ले उससे आगे बढ़ गयी। यह देख दुर्योधन अत्यंत क्रोधित हो गया और भानुमती को पकड कर जबरन उससे माला अपने गले में डलवा ली। वहां उपस्थित बाकी राजाओं में आक्रोश फ़ैल गया तथा उन्होंने इस बात का विरोध किया तो दुर्योधन ने सभी योद्धाओं को कर्ण से युद्ध करने की चुनौती दे डाली ! कुछ ने युद्ध की चुनौती स्वीकार की भी तो उन्हें कर्ण ने पलक झपकते ही हरा दिया। उसके इस शौर्य से भानुमती भी बहुत प्रभावित हुई। इसी कारण विवाहोपरांत हस्तिनापुर आने पर उसे कर्ण के साथ समय व्यतीत करना बहुत भाता था। 

भानुमती को हस्तिनापुर ले आने के बाद दुर्योधन ने भानुमती के अपहरण को यह कह कर, अप ने आप को सही ठहराया, कि भीष्म पितामह भी अपने सौतेले भाइयों के लिए अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का हरण करके ले आए थे। इस तर्क से भानुमती भी मान गई और दोनों ने विवाह कर लिया। इनके लक्ष्मण तथा लक्ष्मणा नामक एक पुत्र तथा एक पुत्री हुई। कालांतर से लक्ष्मणा ने कृष्ण पुत्र साम्ब से भाग कर विवाह कर लिया और लक्ष्मण युद्ध में अभिमन्यु द्वारा मारा गया। फिर भी  भानुमती ने युद्ध में दुर्योधन की मृत्यु के बाद अर्जुन से विवाह कर लिया था। 

भानुमती ! जिसने दुर्योधन को पति नहीं चुनना चाहा था ! स्वयंबर के समय वह किसी और को वरमाला पहनाना चाहती थी ! पर उसे मजबूरन दुर्योधन से ब्याह रचाना पड़ा ! भले ही बाद में वह राजी हो गयी हो ! स्वयंबर के वक्त हुए युद्ध में वह कर्ण से भी प्रभावित थी ! हस्तिनापुर आने के बाद उसे कर्ण के साथ समय व्यतीत करना पसंद था ! फिर महाभारत युद्ध के पश्चात दुर्योधन की मृत्यु के उपरांत उसने अर्जुन से विवाह कर लिया ! समय, परिस्थियों और मौकापरस्ती के चलते, समयानुसार अपना मतलब सिद्ध करते रहने और दुर्योधन, कर्ण, अर्जुन के साथ अनोखे सम्बन्ध बना बार-बार अपने अलग-अलग कुनबे गढने की वजह से ही शायद यह कहावत चलन में आई - 
''कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा'' !

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

दो बार हुई थी अर्जुन की मृत्यु

यह तो सर्व ज्ञात है कि अपने अंतिम समय में स्वर्ग यात्रा के दौरान पर्वतारोहण के समय, युधिष्ठिर को छोड़ एक-एक कर सभी पांडव भाइयों की मृत्यु होती चली गयी थी। लेकिन महाभारत की उपकथाओं में इस महाकाव्य के प्रमुख पात्र अर्जुन की इसके पहले भी एक बार हुई मृत्यु का एक बहुत अल्पज्ञात जिक्र मिलता है ! आज करवा चौथ के अवसर पर एक पत्नी का अपने पति को बचाने के उपक्रम का विवरण........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हमारी पौराणिक कथाओं में ''अष्टवसु'' का जिक्र आता है। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। एक बार इनमें सबसे छोटे वसु द्वारा वशिष्ठ ऋषि की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लेने के फलस्वरूप आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप मिला पर इनके द्वारा क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने सात वसुओं के शाप की अवधि एक वर्ष कर दी पर सबसे छोटे वसु को जिसने यह कृत्य किया था, उसे महान विद्वान, वीर, ख्यात और दृढ़प्रतिज्ञ होने के साथ-साथ दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने, संतान उत्पन्न न करने तथा स्त्री परित्यागी होने का दंड भी मिला। इसी शाप के अनुसार महाभारत काल में उसका जन्म भीष्म के रूप में हुआ था।   
भीष्म पितामह 
महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर राज-पाठ संभाल रहे थे। तभी एक दिन महर्षि वेदव्यास और श्रीकृष्ण ने पांडव भाइयों को अश्वमेध यज्ञ करने की सलाह दी, जिससे शासन व्यवस्था और मजबूत हो सके। इसी के तहत, शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ कर घोड़ा छोड़ दिया गया, जिसकी रक्षा का भार अर्जुन को सौंपा गया था। जहां कहीं घोड़े को रोका गया वहां के राजाओं को अर्जुन ने परास्त कर अपने राज्य का विस्तार किया। इसी दौरान यह कारवां मणिपुर जा पहुंचा। एक बार पहले नियम भंग करने के प्रायश्चित स्वरुप, घूमते हुए अर्जुन के यहां  आने पर यहां की राजकुमारी चित्रांगदा से उनका विवाह संपन्न हुआ था, जिसके फलस्वरूप उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी जो की अब वहां का राजा था, बभ्रुवाहन ! 
अर्जुन 
 बभ्रुवाहन
जब बभ्रुवाहन को अपने पिता अर्जुन के आने का समाचार मिला तो उनका स्वागत करने के लिए वह नगर के द्वार पर आया। अपने पुत्र को देखकर अर्जुन बहुत खुश हुए पर नियमों से बंधे होने के कारण मजबूरीवश उन्हें कहना पड़ा कि यज्ञ के घोड़े को यहां रोका गया है, जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी है इसलिए तुम्हें मुझसे युद्ध करना पडेगा ! बभ्रुवाहन ने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी ! पर अर्जुन भी अपनी बातों पर अड़े हुए थे !  इसी वाद-विवाद के बीच अर्जुन की एक और पत्नी नागकन्या उलूपी भी वहां आ गई और बभ्रुवाहन को अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया ! अपने पिता के हठ व सौतेली माता उलूपी के कहने पर बभ्रुवाहन युद्ध के लिए तैयार हो गया। पिता पुत्र में भयंकर युद्ध हुआ। अपने पुत्र का पराक्रम देखकर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। दोनों बुरी तरह घायल और थक चुके थे। इसी बीच बभ्रुवाहन का एक तीक्ष्ण बाण सीधा आ अर्जुन को लगा जिसकी चोट से अर्जुन गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गयी ! उधर बभ्रुवाहन भी बेहोश हो धरती पर गिर पड़ा। पति और पुत्र की यह हालत  देख चित्रांगदा पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा ! कुछ देर बाद जब बभ्रुवाहन को होश आया तब वह भी अपने पिता की हालत देख शोकाकुल हो उठा और ऐसे जघन्य कृत के लिए अपने को दोषी मान विलाप करने लगा। 
उलूपी व संजीवनी मणि 
अर्जुन की मृत्यु से दुखी होकर चित्रांगदा और बभ्रुवाहन दोनों ही आमरण उपवास पर बैठ गए। जब नागकन्या उलूपी ने यह देखा तो उसने संजीवनी मणि का आह्वान कर उसको बभ्रुवाहन को देते हुए उसे अर्जुन की छाती  पर रखने को कहा, ऐसा करते ही अर्जुन जीवित हो उठे। तब उलूपी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि महाभारत में भीष्म पितामह की धोखे से किए गए वध के कारण ''वसु'' बहुत नाराज व क्रोधित हो गए थे। जिसके कारण उन्होंने अर्जुन को श्राप देने का संकल्प ले लिया था। जब यह बात मुझे पता चली तो मैंने यह बात अपने पिता को बताई। उन्होंने वसुओं के पास जाकर सब विधि का विधान बता प्रार्थना की। तब वसुओं ने कहा कि मणिपुर का राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है यदि वह बाणों से अपने पिता का वध कर देगा तो अर्जुन को अपने पाप से छुटकारा मिल जाएगा। इसीलिए वसुओं के श्राप से बचाने के लिए ही मुझे अपनी यह मोहिनी माया रचनी पड़ी। तत्पश्चात अर्जुन बभ्रुवाहन को अश्वमेध यज्ञ में आने का निमंत्रण दे पुन: अपनी यात्रा पर आगे चल दिए। 

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

राजस्थान का लोहार्गल धाम, जहां पांडवों के हथियार गले थे

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था, पर पांडव अपने भाई बंधुओं और अन्य स्वजनों की हत्या करने के पाप से अत्यंत व्यथित थे। उन्हें दुःखी तथा पश्चाताप की अग्नि में जलते देख श्री कृष्ण जी ने उन्हें पाप मुक्ति के लिए विभिन्न तीर्थ स्थलों के तीर्थाटन की सलाह दी तथा यह भी बतलाया कि जिस तीर्थ में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। घूमते-घूमते पांडव लोहार्गल आये तथा जैसे ही उन्होंने यहां के सूर्यकुंड़ में स्नान किया उनके सारे हथियार पानी में गल गये। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ-राज की उपाधी से विभूषित किया। फिर शिव जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की

#हिन्दी_ब्लागिंग 

लोहार्गल राजस्थान में शेखावटी इलाके की नवलगढ़ तहसील में, झुंझुनू शहर से तकरीबन 70 कि.मी. और उदयपुरवाटी से करीब दस कि.मी. की दूरी पर आड़ावल पर्वत की घाटी में स्थित है। लोहार्गल का अर्थ है, वह स्थान जहां लोहा गल जाए। पुराणों में भी इस स्थान का जिक्र मिलता है। अरावली पर्वत शाखाओं की सबसे ऊँची 1050 मी. की चोटी की तलहटी में स्थित इस जगह को स्थानीय लोग ''लुहागरजी'' के नाम से भी पुकारते हैं। पहले यहां सिर्फ साधू-संत ही रहा करते थे, पर अब यहां कई परिवार बस गए हैं। जो मुख्यतः अचार के व्यवसाय से जुड़े हैं। मुख्य मार्ग से करीब पांच-छह कि.मी. की चढ़ाई नुमा दूरी पर कुंड के पास तरह-तरह के अचारों से सजी बीसीओं दुकानें स्थित हैं जिनकी अचारी खुशबू से सारा इलाका महकता रहता है। 
लोहार्गल से भगवान परशुराम का भी नाम जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि क्षत्रियों के संहार के पश्चात क्रोध शांत होने पर जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो पश्चाताप स्वरुप उन्होंने यहां यज्ञ किया तथा नरसंहार के पाप से मुक्ति पाई थी। यहां एक विशाल बावड़ी भी है जिसका निर्माण महात्मा चेतनदास जी ने करवाया था। यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। पास ही पहाड़ी पर एक प्राचीन सूर्य मंदिर बना हुआ है। इसके साथ ही वनखण्डी जी का मंदिर है। कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव तथा हनुमान मंदिर तथा पांडव गुफा भी स्थित है। इनके अलावा चार सौ सीढ़ियां चढने पर मालकेतु जी के दर्शन भी किए जा सकते हैं। 

यहां के प्राचीन सूर्य मंदिर के पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई। राजा ने तमाम ज्योतिर्विदों से उसके बारे में जानकारी हासिल की तो पता चला कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया था। अभक्ष्य होने के कारण उसका बाकी शरीर तो हवा और धूप से सूख कर लोहार्गल धाम के पवित्र जलकुंड में गिर गया पर उसका एक हाथ वहीं पेड़ पर अटका रह गया था। इसीलिए पुनर्जन्म में इसे ऐसे हस्त-विहीन शरीर की प्राप्ति हुई। इस व्याधि के परिमार्जन हेतु उन्होंने राजा को उपाय सुझाया कि यदि आप उस हाथ को भी ला कर कुंड के पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा। राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। इस चमत्कार से प्रभावित हो राजा ने यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।
एक यह भी मान्यता है, भगवान विष्णु के चमत्कार से प्राचीन काल में पहाड़ों से एक जल धारा निकली थी जिसका पानी अनवरत बह कर सूर्यकुंड में जाता रहता है। इस प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल के प्रति लोगों में अटूट आस्था है। लोगों का यहां वर्ष भर आना-जाना लगा रहता है। माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है। श्रावण मास में भक्तजन यहां के सूर्यकुंड से जल भर कर कांवड़ उठाते हैं। जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन भी किया जाता है।हज़ारों नर-नारी यहां आ कुंड में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।  

लोहार्गल एक प्राचीन, धार्मिक व ऐतिहासिक स्थल जरूर है, लोगों की इसके प्रति अटूट आस्था भी है, भक्तों का यहां आना-जाना भी लगा रहता है, फिर भी इस क्षेत्र की हालत अत्यंत सोचनीय है। सरकार की ओर से पूर्णतया उपेक्षित इस जगह पर प्राथमिक सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। चारों ओर गंदगी का आलम है। पशु-मवेशी खुले आम घूमते रहते हैं। सड़कों की हालत दयनीय है। नियमित बस सेवा भी उपलब्ध नहीं है। रहने खाने का भी कोई माकूल इंतजाम नहीं है। यदि इस ओर थोड़ा सा भी ध्यान पर्यटन विभाग दे तो यहां देशी-विदेशी पर्यटकों का आना शुरु हो सकता है।

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

एक मंदिर जहां वहीं के राजा का प्रवेश वर्जित है

धीरे-धीरे राजा प्रतापमल्ल को रोज-रोज इतनी दूर मंदिर में आना-जाना अखरने लगा तो उन्होंने नीलकंठ भगवान की एक मूर्ति राजमहल में ही स्थापित करवा ली। इससे भगवान नाराज हो गये और उन्होंने स्वप्न में आ राजा को श्राप दिया कि अब से तुम या तुम्हारा कोई भी उत्तराधिकारी यदि बूढा नीलकंठ हमारे दर्शन करने आएगा तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा ! तब से सैकड़ों सालों के बाद आज भी  राजपरिवार का कोई भी सदस्य वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है.......!

#हिन्दी-ब्लागिंग 

पिछले दिनों हमारे यहां मंदिर  प्रवेश को लेकर काफी गुल-गपाड़ा मचा रहा। जिसमें इसकी-उसके अधिकार की बातें, कोर्ट-कचहरी, धर्म-अधर्म, राजनीती-सियासत सब तरह के रंग सामने आते रहे। ऐसे में एक ऐसे मंदिर की भी बात सामने आई, जहां खुद वहाँ के राजा का भी प्रवेश निषेद्ध है ! जी हाँ ! नेपाल में विष्णु भगवान का एक ऐसा मंदिर है जिसमें वहां के राजा को भी प्रवेश की मनाही है। जिसका कारण राजा खुद ही था !




राजधानी काठमांड़ू से नौ-दस की.मी. की दूरी पर शिवपुरी पहाड़ी के पास बूढ़ा नीलकंठ मंदिर स्थित है। प्रवेश-द्वार के सामने ही विशाल जलकुंड बना  हुआ है। जिसमें शेषनाग के ग्यारह फणों के छत्र वाली शेष शैय्या पर शयन कर रहे भगवान विष्णु की चर्तुभुजी प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा का निर्माण काले पत्थर की एक ही शिला से हुआ है।प्रतिमा की लम्बाई 5 मीटर है एवं जलकुंड की लम्बाई करीब 13 मीटर की है। जिसे बूढा नीलकंठ के नाम से जाना जाता है। मंदिर का नाम नीलकंठ है जो भगवान शिव का एक नाम है। द्वार पर भी श्री कार्तिकेय और गणेश जी की प्रतिमाएं लगी पर यहां मूर्ति भगवान विष्णु जी की है ! तब इसका नाम बूढ़ा नीलकंठ कैसे हो गया ? इसके पीछे जनश्रुति है कि समुद्र-मंथन के समय विषपान करने के पश्चात जब भगवान शिव का कंठ जलने लगा तब उन्होंने विष के प्रभाव शांत करने के लिए जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक स्थान पर आकर त्रिशूल का प्रहार किया जिससे एक झील का निर्माण हुआ। मान्यता है कि बूढा नीलकंठ में वहीं से जल आता है, जिसको गोसाईंकुंड के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि सावन के महीने में विष्णु प्रतिमा के साथ भगवान शिव के विग्रह का प्रतिबिंब भी जल में दिखाई देता है। 

इसकी स्थापना की किंवदन्ती के अनुसार एक किसान खेत की जुताई कर रहा था तभी उसका हल एक पत्थर से टकराया तो वहां से रक्त निकलने लगा। जब उस भूमि को खोदा गया तो बूढ़ा नीलकंठ की यह प्रतिमा प्राप्त हुई, जिसके पश्चात उसे यथास्थान पर स्थापित कर दिया गया। तभी से नेपाल के निवासी बूढ़ा नीलकंठ का अर्चन-पूजन करते आ रहे हैं। पर एक विचित्र बात जो यहां से जुडी हुई है कि राजा, जो खुद भगवान का प्रतिनिधि होता है, उसी का यहां प्रवेश निषेद्ध है ! वैसे इसका जिम्मेवार राजा खुद ही था। 

बात तक़रीबन 17वीं शताब्दी की है। जब नेपाल के तत्कालीन नरेश राजा प्रतापमल्ल रोज भगवान के दर्शन करने हनुमान ढोका स्थित अपने महल से यहां आया करते थे। पर मतिभ्रम के चलते उन्होंने खुद को ही विष्णु का अवतार घोषित कर दिया। धीरे-धीरे उन्हें रोज इतनी दूर आना-जाना अखरने लगा तो उन्होंने नीलकंठ भगवान की एक मूर्ति राजमहल में ही स्थापित करवा ली। इससे भगवान नाराज हो गये और उन्होंने स्वप्न में आ राजा को श्राप दिया कि अब से तुम या तुम्हारा कोई भी उत्तराधिकारी यदि बूढा नीलकंठ हमारे दर्शन करने आएगा तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा। तब से आज तक राजपरिवार का कोई भी सदस्य वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है।

वैसे भगवान विष्णु के इसी स्वरूप की एक और मूर्ती राजधानी के निकट बालाजू उद्यान में भी स्थित है जो असली मूर्ति से कुछ छोटी है। राजपरिवार के सदस्य यहीं प्रभू के दर्शन करने जाते हैं। नवम्बर माह में मुख्य मंदिर के साथ ही देव उठनी एकादशी को यहां भी बड़ा भारी मेला लगता है, दूर-दूर से लोग अपनी मनौतियां ले कर आते हैं। इस मंदिर की भी काफी मान्यता है।

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

नरकासुर वध तथा सोलह हजार बंदी युवतियों की मुक्ति

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को अपना सारथी बना युद्ध में शामिल कर उन्हीं की सहायता से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई तथा बंदी गृह से सोलह हजार युवतियों को मुक्त करवाया। युवतियां मुक्त तो हो गयीं पर सामाजिक विरोधो और मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। वहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रता पूर्वक अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहने लगीं..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग     
आज के ही दिन श्री कृष्ण जी ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से नरकासुर का वध कर उसके बंदीगृह से सोलह हजार युवतियों को मुक्त करवाया था। भागवत पुराण के अनुसार तीनों लोकों में हाहाकार मचाने वाला
सोलह हजार युवतियों की मुक्ति 
भौमासुर भूमि माता का पुत्र था। जिस समय विष्णु जी ने वराह अवतार ले कर भूमि को समुद्र से निकाला था, उसी समय उनके और भूमि देवी के संयोग से एक पुत्र ने जन्म लिया
था। भूमि पुत्र होने के कारण वह भौम कहलाया। पर पिता एक परम देव और धरती जैसी पुण्यात्मा माता होने के बावजूद अपनी क्रूरता के कारण उसका नाम भौमासुर पड़ गया ! पर दिनोदिन उसका व्यवहार पशुओं से भी ज्यादा क्रूर, निर्मम और अधम होता चला गया उसकी इन्हीं करतूतों के कारण उसे नरकासुर कहा जाने लगा।     
नरकासुर 
कहते हैं जब रावण वध हुआ उसी दिन पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ सीता जी का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक राजा जनक ने उसे पाला; बाद में पृथ्वी उसे ले कहते हैं जब रावण वध हुआ उसी दिन पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ सीता जी का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक राजा जनक ने उसे पाला; बाद में पृथ्वी उसे ले गई और विष्णु जी ने उसे प्रागज्योतिषपुर का, गई और विष्णु जी ने उसे प्रागज्योतिषपुर का, जो आज का असम प्रदेश है, राजा बना दिया। नरकासुर ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर के वर प्राप्त कर लिया था कि उसे देव-दानव-असुर-मनुष्य कोई नहीं मार सकेगा। कुछ दिनों तक तो नरकासुर ठीक से राज्य करता रहा, किन्तु समय की लीला तथा वाणासुर के सानिद्ध्य के कारण उसमें सारे अवगुण राक्षसों के भर गए।  
युद्धरत सत्यभामा और श्रीकृष्ण 
नरकासुर ने इंद्र को हराकर उसको स्वर्ग से बाहर निकाल दिया था। उस के अत्याचार से देवतागण तथा धरती पर संत-मुनि-मानव सभी त्राहि-त्राहि कर रहे थे। वह वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर त्रिलोक विजयी हो गया था। जिससे अहंकार से भर महाअत्याचारी बन गया था। चूँकि उसको श्राप मिला हुआ था कि उसका वध एक स्त्री द्वारा होगा, इसलिए उसका अत्याचार उनके प्रति भी बहुत बढ़ गया था। उसने अपने रनिवास में सोलह हजार एक सौ स्त्रियों को बंदी बना कर रखा हुआ था।  
नरकासुर का अंत 
पर जब हर चीज की अति हो गयी तो सुर-नर सब मिल कर श्री कृष्ण जी के पास गए और नरकासुर से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। प्रभू ने उन सब को आश्वसान दिया। चूँकि नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को अपना सारथी बना युद्ध में शामिल कर उन्हीं की सहायता से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई तथा बंदी गृह से सोलह हजार युवतियों को मुक्त करवाया। युवतियां मुक्त तो हो गयीं पर भौमासुर के यहां इतने दिन रहने के कारण सामाजिक विरोधों और मान्यताओं के चलते इन को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया। उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। श्री कृष्ण उन सब को अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। जहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रता पूर्वक अपनी इच्छानुसार, सम्मानपूर्वक रहने लगीं। 

जब नरकासुर के त्रास से जगत को चैन और शान्ति मिली उसी की खुशी में दूसरे दिन अर्थात कार्तिक मास की अमावस्या को लोगों ने अपने घरों में दीए जलाए । तभी से नरक चतुर्दशी तथा दीपावली का त्योहार मनाया जाने लगा।

सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

सबरीमाला अय्यपा मंदिर, कुछ जाने-अनजाने तथ्य

महिषासुर की बहन महिषी ने अपने भाई के वध का देवताओं से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर वर प्राप्ति हेतु ब्रह्मा जी की तपस्या करनी शुरू कर दी। उसकी घोर तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा ने उसे अभेद्य होने और उसकी मृत्यु  शिव और विष्णु की संतान से होने का अजीब और असंभव सा वरदान दे दिया। इस वरदान के मिलते ही महिषि ने पूरे संसार में तबाही मचानी शुरू कर दी थी। क्योंकि वह अपने-आप को अजेय और अमर समझ बैठी थी। परंतु समय की चाल कौन समझ पाया है और यह अटल सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित होती है ...........!

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केरल राज्य में स्थित विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला अय्यपा मंदिर आजकल कुछ अलग कारणों से सुर्ख़ियों में है। इस मंदिर के 10 से 50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश निषेद्ध के नियम को अदालत द्वारा निरस्त कर दिए जाने पर भगवान अय्यपा के भग्तों में गहरा अंसतोष फ़ैल गया है। सबरीमाला का मंदिर अन्य मंदिरों की तरह साल भर नहीं खुला रहता तथा इस मंदिर के अपने कुछ ख़ास तरह के नियमों का पालन सख्ती से किया जाता है। जिनमें इसकी साफ-सफाई पर खास ध्यान दिया जाता है। केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से करीब 175 कीमी दूर पंपा नदी है और वहाँ से चार-पांच किमी की दूरी पर पहाड़ियों और पेरियार टाइगर रिजर्व के घने जंगलों के बीच समुद्रतल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर सबरीमाला  मंदिर स्थित है। जहां भगवान् अय्यपा विराजमान हैं, जिन्हें धर्म सृष्टा और वैष्ण्वों और शैवों के बीच एकता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है ! 






धार्मिक आस्था का प्रतीक सबरीमाला मंदिर के पीछे कई पौराणिक कथाएं और धार्मिक मान्यताएं प्रचलित हैं। अलग-अलग इतिहास कारों के इस मंदिर को लेकर अलग-अलग मत हैं। इतिहासकारों के अनुसार पंडालम के राजा राजशेखर ने अय्यप्पा को पुत्र के रूप में गोद लिया। लेकिन भगवान अय्यप्पा को राजसी माहौल और परिवेश कभी भी पसंद नहीं था ! इसीलिए वे महल छोड़कर केरल की एक पहाड़ी सबरीमाला में जा कर ब्रह्मचारी के रूप में  रहने लगे। क्योंकी वे जंगल के एकांत में ध्यान धारण करना चाहते थे। कालांतर में वही स्थान सबरीमाला मंदिर कहलाने लगा। कुछ लोगों का मत है कि करीब 700-800 साल पहले दक्षिण में शैव और वैष्णवों के बीच वैमनस्य काफी बढ़ गया था। तब उन मतभेदों को दूर करने के लिए श्री अयप्पन की परिकल्पना की गई। दोनों के समन्वय के लिए इस धर्म-तीर्थ को विकसित किया गया। आज भी यह मंदिर समन्वय और सद्भाव का प्रतीक माना जाता है। यहां किसी भी जाति-बिरादरी का और किसी भी धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आ सकता है।


पंपा नदी 
परन्तु सबसे प्रचलित कथा हजारों-हजार साल पहले घटी घटनाओं से संबंध रखती है। जब महिषासुर का देवी दुर्गा द्वारा वध कर दिया गया था। हालांकि माँ दुर्गा ने महिष को अपने साथ ही पूजित होने का वरदान भी दिया था फिर भी उसके परिवार में गहरा दुःख, असंतोष व विरोध घर कर गया था। जिसके फलस्वरूप महिष की बहन महिषी ने अपने भाई के वध का देवताओं से बदला लेने की प्रतिज्ञा कर वर प्राप्ति हेतु ब्रह्मा जी की तपस्या करनी शुरू कर दी। उसकी घोर तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा ने उसे अभेद्य होने और उसकी मृत्यु  शिव और विष्णु की संतान से होने का अजीब और असंभव सा वरदान दे दिया। इस वरदान के मिलते ही महिषि ने पूरे संसार में तबाही मचानी शुरू कर दी थी। क्योंकि वह अपने-आप को अजेय और अमर समझ बैठी थी। परंतु समय की चाल कौन समझ पाया है और यह अटल सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित होती है ! अब वरदान के बावजूद महिषी को मरना तो था ही, सो घटना चक्र कुछ ऐसा चला कि उसी समय सुर-असुरों के प्रयास से समुद्र मंथन हुआ। उसमें निकले अमृत को बांटने के लिए विष्णु जी ने मोहिनी का रूप धारण कर लिया। इसी मोहिनी और भगवान शिव की संतान के रूप में प्रभू अयप्पन का जन्म हुआ।  भगवान शिव और विष्णु अवतार मोहिनी के पुत्र होने के कारण इन्हें “हरिहर” के नाम से भी जाना जाता हैं। कालचक्र के तहत अयप्पन को राजा पंडलम ने गोद लिया था। पर जब राज्याभिषेक की बारी आई तो रानी ने, जो इनको राजा बनता नहीं देखना चाहती थी, अपने झूठे इलाज के लिए अय्यप्पा को शेरनी का दूध लाने जंगल में भेज दिया जहां उनका सामना राक्षसी महिषी से हुआ जिसका उन्होंने वध कर दिया। 



इस पहाड़ी का नाम रामायण काल की शबरी से भी जोड़ कर देखा जाता है जिसने प्रभू राम को बेर खिलाए थे। ऐसी भी मान्यता है कि परशुराम जी ने अयप्पन पूजा के लिए सबरीमाला में मूर्ति स्थापित की थी। आज सबरीमाला मंदिर से कई करोड़ भक्तों की आस्था जुड़ी है। इस मंदिर में पूजा करने के लिए श्रद्धालुओं को हर साल मंदिर के पट खुलने का भी इंतजार रहता है। मंदिर को सुचारू रूप से चलाने का काम त्रावनकोर देवसोम बोर्ड करता है। मंदिर के बाजु में एक सूफी संत वावर की समाधी भी है जिसे आज वावारुनाडा के नाम से याद किया जाता है। इतना प्राचीन होने के बावजूद आज भी यह मंदिर बहुत आकर्षक है और नवनिर्मित जैसा ही दिखता है। करोड़ों श्रद्धालुओं की धार्मिक आस्था से जुड़ा ये मंदिर 18 पहाड़ियाों के बीच बना हुआ है। इस मंदिर में भगवान अयप्पा की पूजा करने  दूर-दूर से सभी जाति और वर्ग के लोग आते हैं। इसके द्वार साल में दो बार 15 नवंबर और 14 जनवरी को ही खुलते हैं। मकर संक्रांति के अवसर पर मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए 18 पवित्र सीढियां चढ़नी होती हैं, यह सीढियां मनुष्य के 18 लक्षणों को दर्शाती हैं। पर भगवान् के दर्शनों से पहले भगतों को कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। जैसाकि उन्हें भोग-विलास से दूर रहते हुए 41 दिनों तक उपवास करना पड़ता है। केवल शाकाहारी भोजन का सेवन करना होता है, शराब, धुम्रपान, नशे वगैरह से दूर रहना होता है। इसके साथ ही  बालो को काटने की भी मनाही होती है। सभी भक्त परंपरा के अनुसार बिना कोई चप्पल-जूता पहने रास्ते में पड़ने वाली पम्पा नदी में स्नान कर काले या नीले वस्त्र धारण कर मस्तक पर विभूति या चन्दन का लेप लगा ‘स्वामी अय्यापो’ मंत्र का जप करते हुए मंदिर में प्रवेश करते हैं।


रहस्य्मय ज्योति 
कहते हैं मंदिर के पास मकर संक्रांति की रात में घने अंधेरे में रह-रह एक ज्योति दिखलाइ पड़ती है ! इसी ज्योति के दर्शन के लिए दुनियाभर से करोड़ों श्रद्धालु हर साल इस अवसर पर यहां उपस्थित रहते हैं।ऐसा भी कहा जाता है कि जब-जब ये रोशनी दिखती है इसके साथ ही एक हल्का सा शोर भी सुनाई पड़ता है। भक्तों का विश्वास है कि यह दिव्य देव ज्योति है और खुद भगवान इसे प्रज्जवलित करते हैं। भक्तों के साथ-साथ मंदिर प्रबंधन से जुड़े लोगों के मुताबिक मकर माह के पहले दिन आकाश में दिखने वाला यह एक खास तारा मकर ज्योति है। अब इसकी सच्चाई तो प्रकृति के गूढ़ रहस्यों में ही छिपी हुई है ! 

आज ऐसी जगह का कुछ लोगों की अक्खड़ता, बेकार के दंभ, तथाकथित समानता और वर्षों पुरानी आस्थ और मान्यताओं के बीच फास कर रह गयी है। दोनों पक्षों को आपसी समझबूझ से इस तरह का हल निकलना चाहिए जिससे करोड़ों लोगों के दिल पर न कोई ठेस पहुंचे ना हीं किसी तरह का मनोमालिन्य रहे।

बुधवार, 19 सितंबर 2018

एक मंत्र, जिसके सिद्ध होने पर हनुमान जी आज भी दर्शन देते हैं

हनुमान जी के चिरंजीवी होने के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए पिदुरु के आदिवासियों की हनु पुस्तिका आजकल " सेतु एशिया" नामक आध्यात्मिक संगठन के पास है। सेतु के संत पिदुरु पर्वत की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका को समझकर इसका आधुनिक भाषाओं में अनुवाद करने की चेष्टा में जुटे हुए हैं। लेकिन इन आदिवासियों की भाषा की कलिष्टता और हनुमान जी की रहस्य्मयी लीलाएं इतनी पेचीदा हैं कि उसको समझने में ही काफी समय लग रहा है। पिछले 6 महीने में केवल 3 अध्यायों का ही अनुवाद हो पाया है........!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
हनुमान जी ! देश के, सबसे लोकप्रिय, प्रसिद्ध, पूजनीय पांच देवताओं में से एक। अकेले ऐसे पात्र, जिनकी मौजूदगी रामायण और महाभारत दोनों ग्रंथों में पाई जाती है। जिनके बारे में यह मान्यता है कि वे अजर-अमर
और चिरंजीवी हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आज भी धरती पर विचरण करते हैं। उनका निवास हिमालय में माना जाता है, जहां से वे अपने भक्तों की पुकार पर उनकी सहायता करने मानव समाज में आते हैं लेकिन किसी को आँखों से दिखाई नहीं देते। लेकिन उन्हीं का दिया हुआ एक ऐसा मंत्र भी है जिसके जाप से हनुमान जी अपने सच्चे भक्त के सामने साक्षात प्रकट हो जाते हैं। इसके पीछे एक लोक मान्यता है 

रामायण में अभिन्न रूप से जुडी लंका की एक आदिवासी जनजाति का यह दावा है कि हनुमान जी की उन पर असीम कृपा है। उनके अनुसार जब प्रभु राम जी ने अपना मानव जीवन पूरा कर समाधि ले गो-लोक प्रस्थान किया तो हनुमान जी ने भी व्यथित हो अयोध्या यह सोच कर छोड़ दी कि जब मेरे प्रभू ही यहां नहीं हैं तो मेरा क्या काम ! उन्होंने जंगलों को अपना आवास बना लिया था। पर मन जब अपने इष्ट के बिना ज्यादा
व्यथित हो जाता था तो वह देशाटन के लिए निकल जाते थे। ऐसे ही एक बार वे भ्रमण करते हुए लंका के जंगलों में भी चले गए थे जहाँ उस समय विभीषण का राज्य था। वहां उन्होंने प्रभु राम के स्मरण में पिदुरु (पिदुरुथालागाला) जो श्री लंका का सबसे ऊँचा पर्वत है, वहां बहुत दिन गुजारे थे। उसी दौरान वहां रहने वाले मातंग आदिवासियों, जो कि लंका की पुरानी जन-जाति वेद्दाह की एक उप-जाति है, ने उनकी खूब सेवा की थी। हनुमान जी भी उनसे बहुत घुल-मिल गए थे। जब वे वहां से लौटने लगे तब वहां के लोग बहुत दुखी हो गए, बोले प्रभू हमें अब कौन राह दिखाएगा ! कौन हमें उबारेगा ! इन लोगों ने हनुमान जी को रोकने की बहुत कोशिश की ! पर रमता जोगी बहता पानी कब एक जगह ठहरता है ! पर उनका प्रेम देख भक्तवत्सल हनुमान जी ने यह मंत्र उनको देते हुए कहा, मैं आपकी सेवा, प्रेम और समर्पण से अति प्रसन्न हूँ। जब भी आप लोगों को मेरी जरुरत हो, इस मंत्र का जाप करना, मै प्रकाश की गति से आपके पास आ जाऊँगा। यह कह कर उन्होंने वह अमोघ मंत्र उनके मुखिया को सौंप दिया। जो इस प्रकार था -

                     "कालतंतु कारेचरन्ति एनर मरिष्णु , निर्मुक्तेर कालेत्वम अमरिष्णु"

मंत्र देने के साथ ही हनुमान जी ने इस मंत्र को सिद्ध करने की दो शर्तें भी रखी थीं। पहली कि जाप करने वाले को अपनी आत्मा का मेरे साथ संबंध होने का बोध होना चाहिए, ऐसा ना होने पर यह मंत्र काम नहीं करेगा। 
दूसरी जब इस मंत्र का जाप किया जाए तो 980 मीटर की दूरी तक कोई ऐसा इंसान नहीं होना चाहिए जो पहली शर्त पूरी न कर पा रहा हो। यानी इस मंत्र का जाप या तो बिल्कुल अकेले में हो या फिर वहां सिर्फ वही लोग हों जिनकी आत्मा को मेरे साथ संबंध होने का बोध हो।  

मंत्र तो मिल गया पर मुखिया के मन में उसे पाने के बाद एक चिंता उठी, जिसके निवारण हेतु उसने प्रभू से पूछा, हे प्रभु; हम इस मंत्र को तो यथाशक्ति गुप्त रखेंगे; लेकिन फिर भी अगर किसी को इस मंत्र का पता चल गया और वह इस मंत्र का दुरुपयोग करने लगा ! तो क्या होगा ? हनुमान जी ने उसकी दुविधा दूर करते हुए कहा, आप उसकी चिंता न करें ! अगर कोई ऐसा व्यक्ति इस मंत्र का जाप करेगा, जिसको अपनी आत्मा के मेरे साथ संबंध का बोध नहीं होगा तो यह मंत्र काम नहीं करेगा। 
पर मुखिया की दुविधा अभी भी जारी थी, उसने फिर पूछा, भगवन ! आपने हमें तो आत्मा का ज्ञान दे दिया है जिससे हम तो अपनी आत्मा के आपके साथ संबंध से परिचित हैं। लेकिन हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा ? उनके पास तो ना तो आत्मा का ज्ञान होगा नहीं उन्हें अपनी आत्मा के आपके साथ संबंध का बोध होगा ! तब उनका उद्धार कैसे होगा ? तब हनुमान जी ने उन्हें यह वचन दिया कि मै आपके कुटुंब के साथ समय बिताने हर 41 साल बाद यहां आता रहूँगा और आकर आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी आत्म ज्ञान देता रहूंगा; जिससे समय के अंत तक आपके कुनबे के लोग यह मंत्र जाप करके कभी भी मेरे साक्षात दर्शन कर सकेंगे।

उस आदिवसी जन-जाति के वंशज अभी भी श्री लंका के जंगलों में रहते हैं। उन्होंने अपने आप को सभ्य जगत से दूर ही रखा हुआ है। किसी को भी कुछ महीनों पहले तक उन पर की हनुमान कृपा का जरा सा भी आभास नहीं था, जब तक कि कुछ अन्वेषकों ने उनकी अनोखी और कुछ असामान्य गतिविधियों को देख नहीं लिया। खोज-खबर लेने के पश्चात पता चला कि यह कर्म-काण्ड वह "चरण पूजा" है जिसे हर 41 साल बाद प्रभू हनुमान की अगवानी के लिए किया जाता है। उन्होंने बताया कि 2014 में हनुमान जी उनके साथ थे, जिन्हें सिर्फ वही लोग देख सकते थे। उनके साथ कुछ दिन रहने और नई पीढ़ी को "आत्म-ज्ञान" देने के पश्चात 27 मई 2014 को भगवान वापस  चले गए। अब उनका आगमन 41 वर्षों के पश्चात 2055 में होगा। पर यदि     बहुत ही आवश्यक हुआ तो उस दैवी मंत्र के जाप से उनका आह्वान बीच में भी किया जा सकता है। इसी के साथ बिरादरी के मुखिया, बाबा मातंग, ने यह भी बताया कि हनुमान जी के आगमन, उनके यहां निवास, उनके प्रवचन, उनके कहे गए हरेक शब्द, उनके द्वारा किए गए कार्यों का, एक-एक मिनट का पूरा ब्यौरा, हम अपनी हनु पुस्तिका (पंजी या लॉग बुक) में दर्ज करते हैं।  2014 के प्रवास के दौरान हनुमान जी द्वारा जंगल वासियों के साथ की गई सभी लीलाओं का विवरण भी इसी पुस्तिका में नोट किया गया है।

आजकल यह पंजी, लॉग बुक, सेतु एशिया नामक आध्यात्मिक संगठन के पास है। सेतु के संत पिदुरु पर्वत
की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका को समझकर इसका आधुनिक भाषाओं में अनुवाद करने की चेष्टा में जुटे हुए हैं, ताकि हनुमान जी के चिरंजीवी होने के रहस्य का पर्दा उठ सके। लेकिन इन आदिवासियों की भाषा की कलिष्टता और हनुमान जी की रहस्य्मयी लीलाएं इतनी पेचीदा हैं कि उसको समझने में ही काफी समय लग रहा है। पिछले 6 महीने में केवल 3 अध्यायों का ही अनुवाद हो पाया है। जब भी इस पुस्तिका में का कोई नया अध्याय अनुवादित होता है तो सेतु संगठन का कोलम्बो ऑफिस उसका औपचारीक घोषणा करता है। अभी तक जिन अध्यायों के विवरण प्राप्त हुए हैं वे इस प्रकार हैं -
अध्याय 1 : चिरंजीवी हनुमान जी का आगमन : इस अध्याय में इस घटना का विवरण है कि पिछले साल एक रात हनुमान जी कैसे पिदुरु पर्वत के शिखर पर इन जंगल वासियों को दिखाई दिए। हनुमान जी ने उसके बाद एक बच्चे के पिछले जन्म की कहानी सुनाई, जो दो माताओं के गर्भ से पैदा हुआ था। 
अध्याय 2 : हनुमान जी के साथ शहद की खोज : इस अध्याय में इस बात का विवरण है कि अगले दिन हनुमान जी जंगल वासियों के साथ शहद खोजने निकले और वहां पर क्या घटनाएं घटित हुईं। 
अध्याय 3 : काल के जाल में चिरंजीवी हनुमान : यह सबसे रोचक अध्याय है। हनुमान जी द्वारा दिए गए  ऊपर दिए गए मंत्र का अर्थ इसी अध्याय में समाहित है। उदाहरण के तौर पर जब हम मनुष्य समय के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में घडी का विचार आता है; लेकिन जब भगवान समय के बारे में सोचते हैं तो उन्हें समय के धागों (तंतुओं ) का विचार आता है। इस मंत्र में “काल तंतु कारे” का अर्थ समय के धागों का जाल है।

आज विश्व भर के हनुमान भक्तों को बेसब्री से नए अध्याय की जानकारी का इंतजा रहता है, क्योंकि हर

ऐसी जानकारी उन्हें इस मंत्र की पहली शर्त पूरी करने के करीब ले जाती है; जिसे पूरी करने के बाद कोई भी भक्त इस दैवी मंत्र के जाप से हनुमान जी को अपने पास पा उनके वास्तविक रूप के दर्शन कर उनकी असीम कृपा का भागी बन सकता है। पर क्या खुद को इस लायक बना पाना इतना आसान है ? मार्ग तो सैंकड़ों वर्ष पहले तुलसीदास जी भी बता गए थे -
संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन-क्रम-बचन ध्यान जो लावै।
यानी संकट पड़ने पर जिस वीर हनुमान के नाम का लोग मन, कर्म और वचन से जाप करते हैं, ध्यान लगाते हैं , उन्हें  हर संकट से मुक्ति मिल जाती है। पर कितने लोग मन-कर्म और वचन से निष्ठावान हो पाए। फिर भी यदि उपरोक्त सारी खोज फलीभूत हो जाती है तो यह हम सब के लिए गौरव का विषय तो होगा ही हमारी पौराणिकता की सच्चाई इसको कोरी कल्पना कहने-मानने वालों के लिए एक सबक होगी। 

*संदर्भ -  SPEAKINGTREE

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