दिनों-दिन बढ़ती आबादी का बोझ महानगरों से निकल अब छोटे शहरों को भी अपने चंगुल में लेने लगा है। पहाड़ की गोद में बसा सुंदर प्यारा सा शहर देहरादून भी इसकी चपेट में आ चुका है। आबादी के साथ ही बढ़ते निर्माण, धुंआ उगलते बेलगाम वाहन, बेतरतीब यातायात, घटती हरियाली, उड़ती धूल यहां भी लोगों को मास्क लगाने को मजबूर कर रहे हैं ............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
लाखामंडल :- यहां जाने की इच्छा एक लंबे अरसे के बाद इस बार नवम्बर में जा कर पूरी हुई। जब किसी तरह आठ से बारह नवम्बर का समय दायित्वों-परिस्थितियों से समझौता कर निकाला गया। पूरा खाका और ताना-बाना फिट कर आठ की सुबह देहरादून शताब्दी की सीट पर जा जमे। साथ में श्रीमती जी और बड़े बेटे चेतन का साथ भी था। देहरादून के होटल में चार दिनों की बुकिंग की जा चुकी थी। पर पहले दिन ही जब मित्र दीक्षित जी को हमारे वहां होने का पता चला तो उन दोनों द्वारा आग्रह युक्त इतना स्नेहिल दवाब पड़ा कि लाख झिझक और संकोच के बावजूद अगले दिन शहर से दूर साफ़-सुथरे वातावरण में उनके बड़े से, 5BHK एपार्टमेंट की चाबी लेने को बाध्य हो गए। पर शर्त यह रही कि हमारा सिर्फ और सिर्फ रहना ही होगा। उनका अपना दूसरा फ़्लैट भी उसी परिसर में बगल में ही था।
#हिन्दी_ब्लागिंग
लाखामंडल :- यहां जाने की इच्छा एक लंबे अरसे के बाद इस बार नवम्बर में जा कर पूरी हुई। जब किसी तरह आठ से बारह नवम्बर का समय दायित्वों-परिस्थितियों से समझौता कर निकाला गया। पूरा खाका और ताना-बाना फिट कर आठ की सुबह देहरादून शताब्दी की सीट पर जा जमे। साथ में श्रीमती जी और बड़े बेटे चेतन का साथ भी था। देहरादून के होटल में चार दिनों की बुकिंग की जा चुकी थी। पर पहले दिन ही जब मित्र दीक्षित जी को हमारे वहां होने का पता चला तो उन दोनों द्वारा आग्रह युक्त इतना स्नेहिल दवाब पड़ा कि लाख झिझक और संकोच के बावजूद अगले दिन शहर से दूर साफ़-सुथरे वातावरण में उनके बड़े से, 5BHK एपार्टमेंट की चाबी लेने को बाध्य हो गए। पर शर्त यह रही कि हमारा सिर्फ और सिर्फ रहना ही होगा। उनका अपना दूसरा फ़्लैट भी उसी परिसर में बगल में ही था।
पहला दिन :- होटल स्टेशन के पास ही था। आठ की दोपहर बाद का समय भीड़-भाड़ वाले पलटन बाजार की गश्त, घडी मीनार की छाया में हलकी-फुलकी उदर पूजा करते और अगले दिनों का कार्यक्रम तय करने तथा टैक्सी वगैरह के इंतजाम में ही निकल गया। आज की रेल यात्रा की थकान को देखते हुए यह तय रहा कि दूसरे दिन यानि नौ को देहरादून का कम थकाने वाला भ्रमण कर दस को लाखामंडल की ओर निकला जाए, क्योंकि वहां की करीब सवा सौ कि.मी. की दूरी तक आने-जाने में आठ घंटे तथा वहां तक़रीबन दो घंटे यानी कुल दस-ग्यारह घंटों के लिए तारो-ताजा होना बेहद जरुरी था। इसी यात्राक्रम को ध्यान में रख वाहन उपलब्ध करवाने वालों से जानकारी हासिल की और दो दिनों के लिए अपनी आवश्यकताएं बता घूमने की जिम्मेदारी एक को सौंप दी।
पलटन बाजार, 1820 में अंग्रेजों को देहरादून में जब अपनी छावनी स्थापित करने की जरुरत महसूस हुई तो उन्होंने ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी को यहां ला तैनात किया। अब जब लोग आ बसे तो उनकी रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति के लिए दुकानों की भी आवश्यकता पड़ी। इस तरह एक बाजार अस्तित्व में आया, जहां सेना, जिसे पलटन कहते थे, के जवान ही अधिकतर खरीदारी किया करते थे, इसलिए उस बाजार का नाम पलटन बाजार पड़ा जो आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध है। यह यहां का सर्वाधिक पुराना और व्यस्त बाजार है। स्थाई निवासियों तथा पर्यटकों सबकी खरीदारी करने के लिए पहली पसंद तो है ही इसके साथ ही युवाओं के लिए यह मौज और समय बिताने की जगह की रूप में भी जाना जाता है। आज इस बाजार में फल, सब्जियां, सभी प्रकार के कपड़े, तैयार वस्त्र, जूते और घर में प्रतिदिन काम आने वाली प्रत्येक वस्तु सहज उपलब्ध हैं।
घंटाघर :- यह देहरादून की सबसे व्यस्त राजपुर रोड के मुहाने पर स्थित है और यहाँ की प्रमुख व्यवसायिक गतिविधियों का केन्द्र है। ईंटों और पत्थरों से निर्मित इस षट्कोणीय ईमारत का निर्माण अंग्रेजों ने करवाया था। जिसके शीर्ष के हर मुख पर छः घड़ियां लगी हुई हैं। इसके हर पहलू में एक दरवाजा बना हुआ है जिसके अंदर की सीढ़ियां ऊपर तक जाती हैं जहां अर्द्ध वृताकार खिड़कियां बनी हुई हैं। देहरादून का यह घंटाघर नगर की सबसे सौन्दर्यपूर्ण संरचना तो है ही इसका षट्कोणनुमा ढाँचा एशिया में भी अपने प्रकार का विरला ही है।
इधर से निश्चिन्त हो होटल लौटे ही थे कि क्षमा जी का फोन आ गया और जैसा पहले बता चुका हूँ उनका आग्रह टाला नहीं जा सका। दूसरे दिन सुबह कुछ तामझाम के बाद होटल की बुकिंग निरस्त कर, गाडी वहीं बुला, सामान को उनके घर छोड़ते हुए देहरादून से परिचित होने निकल पड़े।
@दूसरा दिन - देहरादून के दर्शनीय स्थल
पलटन बाजार |
वही भीड़-भाड़ वही अफरा-तफरी |
इधर से निश्चिन्त हो होटल लौटे ही थे कि क्षमा जी का फोन आ गया और जैसा पहले बता चुका हूँ उनका आग्रह टाला नहीं जा सका। दूसरे दिन सुबह कुछ तामझाम के बाद होटल की बुकिंग निरस्त कर, गाडी वहीं बुला, सामान को उनके घर छोड़ते हुए देहरादून से परिचित होने निकल पड़े।
@दूसरा दिन - देहरादून के दर्शनीय स्थल
3 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-11-2019 ) को "नौनिहाल कहाँ खो रहे हैं" (चर्चा अंक- 3520) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये जाये।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
-अनीता लागुरी 'अनु'
पुराने शहर अपनी अव्यवस्थित बसावट के कारण भी अव्यवस्थित हो जाते हैं
अनीता जी, आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार
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