मंगलवार, 30 जून 2009

ये महिलाएं ( - :

मां, बेटा और बहू तीन जनों का छोटा सा परिवार। पर सास बहू में रोज जूतम पैजार। दोनों यही समझतीं कि लड़का उसे ही ज्यादा चाहता है। एक दिन शाम को लड़का घर आया तो दोनो सास बहू उसके सामने आ खड़ी हुईं। मां ने बेटे से पूछा कि आज एक बात साफ कर दे, तू किसकी ज्यादा फिकर करता है ? मेरी या अपनी बीवी की ? मान ले हम दोनों नदी में ड़ूबने लगें तो तू किसे पहले बचायेगा?लड़का बेचारा पेशोपेश में। एक तरफ कूंआ दूसरी तरफ खाई। समझ नहीं पा रहा था कि क्या जवाब दे। उसके उतरे चेहरे को देख उसकी बीवी को दया आगयी। वह बोली, तुम तो अपनी मां को बचा लेना। मुझे बचाने वाले बहुत मिल जायेंगे।
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शादी के 25-30 साल बाद। करवा चौथ की सुबह रसोई की खट-पट से पति की नींद में बाधा पड़ी तो वह चिल्लाया, मुंह अंधेरे यह क्या कर रही हो ?बीवी वहीं से गुर्राई, तेरा स्यापा ही करने में लगी हूं।
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एक बूढी माई ने एक सोने का कंगन बनवा कर अपनी वर्षों की हसरत पूरी की। अब उसकी इच्छा थी कि उस जेवर की लोग प्रशंसा करें। वह दिन भर इधर उधर घूमती रही। लोगों को आकर्षित करने के उसने सारे उपाय कर लिये पर दैवयोग से किसी का भी ध्यान कंगन की ओर नहीं गया। वह रुआंसी तो हो ही गयी साथ ही साथ गुस्से से भी भर गयी। गुस्से में उसने अपनी झोंपड़ी में आग लगा दी। और हाथ उठा जोर-जोर से चिल्लाने लगी, लोगो दौड़ो, बचाओ। इसी बीच एक लड़के की नज़र उसके चमकते कंगन पर पड़ी। उसने पूछा, क्यों नानी नया गहना बनवाया है क्या ?वृद्धा यह सुनते ही फट पड़ी, अरे नासपीटे सबेरे ही इसे देख लेता तो मेरा घर तो बच जाता।

रविवार, 28 जून 2009

उनके लिए जो शादी शुदा हैं या शादी करने जा रहे हैं.

नरेश और सीमा पति-पत्नी। दस साल हो गये शादी को। एक आठ साल का बच्चा विवेक। बस यही छोटा सा परिवार। नरेश का अच्छा खासा, जमा-जमाया व्यवसाय था। हर सुख उपलब्ध था। घर-बार, गाड़ी, समर्पित, पत्नी सुंदर सा मेधावी बच्चा। पर उसका मन कहीं और सकून की तलाश में भटकता रहता था। इसी भटकन को थाम लिया था रंजना ने। यह संबंध इतने प्रगाढ हो गये कि इनकी मदहोशी में नरेश को अपने परिवार से अलग होने का निर्णय लेना पड़ा।
एक शाम घर लौटने के बाद खाने की टेबल पर बिना किसी लाग लपेट के उसने सीमा से कह दिया कि उसे तलाक चाहिये। उसे लगा था कि उसकी इस बात पर सीमा आसमान सर पर उठा लेगी, रोएगी, चिल्लाएगी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ उल्टे उसने नम्रता से सिर्फ इतना पूछा, क्यूं ? इसका कोई जवाब ना देकर नरेश अपने कमरे में चला गया। वह रात दोनों पर भारी गुजरी सीमा की रोते हुए और नरेश की तनाव में।
दूसरे दिन शाम को जान बूझ कर नरेश देर से घर आया और सीमा के सामने तलाक नामा रख अपने कमरे में चला गया। कागज़ में घर, गाड़ी तथा व्यवसाय में तीस प्रतिशत का हिस्सा सीमा के नाम करने की बात लिखी गयी थी। सीमा ने कागज़ पढ़ा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। अगली सुबह नरेश दफ्तर जाने लगा तभी कमरे में सीमा आयी उसके हाथ में एक लिफाफा था जो उसने नरेश को थमा दिया। उसमें लिखा था कि उसको नरेश की धन संपत्ति कुछ नहीं चाहिये। पर तलाक के लिये उसकी दो शर्तें हैं, पहली कि यह तलाक विवेक के आसन्न इम्तिहानों को देखते हुए एक महिने बाद लिया जाय। इस बीच उनका व्यवहार बिल्कुल सामान्य रहेगा। दुसरे नरेश रोज उसे उसी तरह कमरे में ले जाएगा जैसे उसे पहली रात ले कर गया था।
नरेश को इसमें कोई आपत्ती नहीं थी। उसने जब यह दोनों शर्तें रंजना को बतायीं तो वह जोर से हस पड़ी और बोली, वह बेवकूफ औरत समझती है कि क्या वह ऐसे अपनी शादी बचा लेगी ?
पहली रात जब नरेश सीमा को अपनी बाहों में उठा कमरे की ओर बढा तो नन्हा विवेक उनके पीछे तालियां बजा-बजा कर खूश हो बोलने लगा कि देखो पापा ने कैसे मेरी तरह मम्मी को उठाया हुआ है। सीमा आंखें बंद किये सिर्फ इतना बोली कि इसे हमारे अलगाव का पता नहीं लगना चाहिये। नरेश ने अपना सर सहमति में हिला दिया। इसी बीच उसका ध्यान सीमा के चेहरे की तरफ गया जहां उम्र ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था बालों में भी चांदी के तार नज़र आने लगे थे।
इसी तरह एक दिन सीमा को उठा कर ले जाते हुए उसे लगा कि जिस औरत ने उसकी सुख-सुविधा के लिये अपने दिन रात एक कर दिये थे उसकी ओर उसने कभी रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया है। सीमा के प्रति उसे फिर जुडाव सा महसूस होने लगा। यह बात उसने रंजना से नहीं बतायी।
महीना खत्म होने में कुछ ही दिन रह गये थे। नरेश को सीमा की हर बात अब बारीकी से नज़र आने लगी थी। आज रात को जब वह सीमा को उठाए कमरे की ओर बढ रहा था तो उसके ध्यान में आया कि उसके कपड़े नाप के ना हो कर ढीले से हैं। गौर करने पर उसे सीमा काफी दुबली सी नज़र आयी। नरेश को लगा कि इस औरत को वह पिछले सालों की बनिस्पत अब ज्यादा समझने लगा है। उसे ग्यारह सालों के अपने दुख-सुख के लम्हे याद आने लगे। वह कठिन परिस्थितियां जब वह हार कर हताश हो जाता था तब इसी औरत के संबल, साहस, हौसले से वह उबर पाया है। उसी औरत की सहनशीलता, समझदारी से आज यह मुकाम हासिल हुआ है। इस बीच कभी भी उसका ध्यान दिन प्रति दिन क्षीण होती उसकी काया की तरफ नहीं गया। उसके लिये समर्पित उस औरत का एक पल भी वह ध्यान नहीं रख पाया। आज उसकी बाहों में सिमटी उस औरत ने कभी भी तो कोई शिकायत नहीं की। आज की रात अंतिम रात थी जब वह सीमा को उठाये कमरे की ओर जा रहा था। रोज की तरह सीमा अपनी आंखें बंद किये निश्चल पड़ी थी।
सबेरा होते ही इसके पहले कि मन बदल जाये नरेश घर से निकल गया। सीधा रंजना के पास जा बोला कि मैं  सीमा को तलाक नहीं दे सकता। जिसने मेरे लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया हो मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। इतना सुनते ही रंजना आपे से बाहर हो गयी उसने नरेश को एक जोर का धक्का दे कर कहा कि क्या तुम पागल हो गये हो ? नरेश ने कहा, हां, और वहां से निकल गया।
दूसरे दिन सीमा के सिरहाने एक कागज पड़ा था जिस पर लिखा था, मैं अपनी मृत्यु प्रयंत तुम्हें संभाले रहुंगा।
हमारी छोटी सी जिंदगी में यह एक दूसरे के प्रति जुड़ाव, एक दूसरे की खुशियों की हिफाजत, एक दूसरे का ख्याल ही जिन्दगी जीने में सहायक होता है ना कि घर, गाड़ी या भारी-भरकम बैंक बैंलेंस। तो अपनी व्यस्तता में से कुछ समय अपने साथी के लिये जरूर निकालें। अपने सुखी तथा लम्बे विवाहित जीवन के लिये। इसे अपने साथियों के साथ भी बांटें। हो सकता है कि इससे आप को कोई फर्क ना पड़े पर यह भी हो सकता है कि इससे किसी का परिवार टूटने से बच जाये।

शनिवार, 27 जून 2009

बेचारे नारद जी ने तो भला ही चाहा था, पर...........

सर्दियों की एक सुबह एक गिद्ध एक पहाड़ की चोटी पर बैठा धूप का आनंद ले रहा था। उसी समय उधर से यमराज का गुजरना हुआ। गिद्ध को वहां बैठा देख यमराज की भृकुटी में बल पड़ गये पर वे बिना कुछ कहे अपने रास्ते चले गये। पर उनकी वक्र दृष्टि से गिद्ध का अंतरमन तक हिल गया। मारे डर के उसके कंपकपी छूटने लगी। तभी उधर कहीं से घूमते-घूमते नारदमुनि भी आ पहुंचे। गिद्ध की दशा देख उन्होंने उससे पूछा, क्यों गिद्धराज क्या बात है ? बहुत घबड़ाये से लग रहे हो। इस पर गिद्ध ने उन्हें पूरी बात बता दी कि इधर से यमराज निकले तो मेरी ओर उन्होंने घूर कर देखा। तभी से मैं परेशान हूं। पता नहीं मैंने कौन सी भूल कर दी है। तनिक सोच कर नारद जी ने गिद्ध से कहा कि एक काम करो। यहां से सौ योजन दूर मंदार नामक पर्वत है। उसमें एक गुफा है। तुम उसी में जा कर छिप जाओ। वहां कोई आता-जाता नहीं है। तब तक मैं यमराज जी से बात करता हूं। इतना कह नारद जी गिद्ध को भेज खुद नारायण-नारायण जपते यमराज के दरबार में जा पहुंचे। यमराज ने उनका स्वागत कर पूछा कि महाराज इधर कैसे आना हुआ ? नारद जी बोले आज सुबह आपने अपनी कोप दृष्टि एक निरीह गिद्ध पर डाली थी जिससे वह बहुत सहमा हुआ था। उसने कौन सी भूल कर दी है यही पूछने आया हूं। यह सुन यमराज बोले, अरे वह! कुछ नहीं। मैंने उससे ना कुछ पूछा ना कहा। मैं तो उसे वहां बैठा देख यह सोच रहा था कि यह यहां क्या कर रहा है। इसकी मौत तो आज सौ योजन दूर मंदार पर्वत की गुफा में लिखी है।

शुक्रवार, 26 जून 2009

एक झंडा जिसे सलामी नहीं मिलती

दुनिया के हर देश में अपने झंड़े के प्रति विशेष लगाव होता है। यह छोटा सा कपड़े का टुकड़ा आत्मसम्मान, आत्म गौरव का प्रतीक होता है। इसको चढाने, उतारने के नियमों का कड़ाई के साथ पालन किया जाता है। पर एक जगह एक झंड़ा ऐसा भी है जो सदा टंगा रहता है, जिसे कभी चढाया नहीं जाता ना उतारा जाता है ना कभी उसे सलामी मिलती है। वह झंड़ा अमेरिका का है और उसे नील आर्मस्ट्रांग ने अपने अभियान के दौरान चांद पर लगाया था।
1969 से 1972 के बीच 12 अंतरिक्ष यात्रियों ने मिल कर करीब 170 घंटे चांद पर बिताये हैं। इस दौरान उन्होंने वहां करीब 100 कि.मी. चहलकदमी की है। वे चांद से लगभग 400 के.जी. मिट्टी तथा चट्टानों के टुकड़े तथा करीब 30000 फोटोग्राफ अपने साथ धरती पर लाने में सफल रहे हैं।
अपोलो 17 का अभियान चांद पर अमेरिका का अंतिम प्रयास था। उसके यात्री अपने पीछे एक धातु के टुकड़े पर खुदा संदेश छोड़ कर आये थे जिस पर खुदा हुआ था कि, दिसम्बर 1972 एडी मे मनुष्य ने अपना पहला चांद की खोज का अभियान पूरा किया। हमारा आशय था कि मनुष्य जाति का शांति संदेश चारों ओर फैले।
नील आर्मस्ट्रांग पहला इंसान था धरती के बाहर किसी आकाशीय पिंड पर अपना पैर रखने वाला। और उस समय उसके कहे शब्द दुनिया जानती है। पर चांद पर किसी मनुष्य के अबतक के अंतिम कदम और शब्द कमाण्डर सरमन के थे जो उन्होंने 11 दिसम्बर 1972 को कहे थे - "America's challenge of today has forged man's destiny of tomorrow"

गुरुवार, 25 जून 2009

ब्लाग जगत लौंडे-लफाड़ियों तथा चाटुकारों का जमावडा है - बकलम बेनामी।

कभी-कभी कोई बात, कोई खबर मन को भा जाती है तो इच्छा जोर मारने लगती है कि उस बात को औरों तक भी पहुंचाया जाय। पर इस जोरा-जोरी में यह शाश्वत सत्य दब जाता है कि सब चीजें सब को अच्छी नहीं लग सकतीं। एक-दो दिन पहले दो-तीन चुटकुले अच्छे लगे तो मुस्कुराहट बिखेरने के लिये उन्हें पोस्ट कर दिया। नेट पर उस दिन आना ना हो सका। दूसरे दिन देखा तो वहां एक बेनाम व्यक्ति के विरुद्ध अविनाश जी मेरी तरफ से मोर्चा संभाले हुए हैं। अपने ही बीच के किसी ‘यार’ को चुटकुलों पर आपत्ती थी और उस भाई ने बेनामी की नकाब पहन अपनी नाराजगी इन शब्दों मे जाहिर की थी कि “आपका नाम अखबार में आया है और आप यहां चुटकुले सुना रहे हैं।” मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि अखबार में ब्लाग या नाम का जिक्र होने के बाद किसी को चुटकुले सुनाने क्यूं बंद कर देने चाहिये। क्या अखबार में छपाऊ होने के पश्चात आदमी को हरदम टेंशनाया हुआ बोर टाइप का मनहूस चेहरे वाला बुद्धिजीवी दिखते हुए ऐसे भारी-भरकम विषयों पर ही अपनी कलम चलानी चाहिये जो ना खुद को समझ आयें न दूसरे को। अखबारों में तो कयी बार ब्लाग का जिक्र हुआ है पर पहले तो किसी ने मुझे सुधारने की पहल नहीं की। वैसे भी मैंने कौन सा नवरात्रों में मदिरापान कर लिया या वकील बन कानून का उल्लंघन कर दिया जो किसी को नागवार गुजरा। और कर दिया तो कर दिया। खैर,
इधर अविनाश जी ढाल बने खड़े थे उधर वह महाशय अपना तरकश खाली करते-करते कटुता की सीमा पार कर कह गये कि “ब्लाग जगत लौंड़े-लफाड़ियों तथा चाटुकारों का जमावड़ा है” इस पर जहां अविनाश जी ने उन महाशय जी को उनकी उम्र का अंदाज लगवा दिया वहीं मुझे उनकी सेहत को मद्देनजर रख उन्हें चेताना पड़ा कि महाशय जब आप को यहां की आबो-हवा रास नहीं आती हमारा हंसना खुश होना आपको नहीं सुहाता तो क्यूं बार-बार इधर ताका-झांकी करने आ जाते हैं ? अरे भाई उस जगह जाना ही क्यूं जहां जाते ही रक्त चाप बढ कर सेहत के लिये खतरे की घंटी बजाना शुरु कर देता हो।
हो सकता है, कयी बार किसी विषय पर सहमत ना होने के कारण मन करता हो कि अपनी बात भी रखी जाय, पर झिझक के कारण कि अगले को शायद बुरा लगेगा, ऐसा कर पाना संभव न लगता हो तो लोग नकाब का उपयोग कर लेते हों। ठीक है अपनी राय रखने को सब स्वतंत्र हैं पर मेरी एक ही गुजारिश है कि कृपया शालीनता के साथ अपनी बात रखें। अपने गुस्से के कारण शब्दों में कटुता ना आने दें। ऐसे में तो वैमनस्य ही बढेगा।
एक बार फिर अविनाश वाचस्पति जी का आभारी हूं जिन्होंने मेरी और ब्लाग परिवार की तरफ से शालीनता को ना छोड़ते हुए मोर्चा संभाले रखा। जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि बहुत बार ऐसी परिस्थितियां आने पर हम खुद विवादाग्रस्त होने के ड़र से सच्चाई का साथ ना दे किनारे खड़े हो जाते हैं।

बुधवार, 24 जून 2009

वृक्ष सिखाता जीवन-दर्शन

वर्षों पहले एक छोटे से बीज ने धरती में पनाह ली। धरा ने भी उसे अपनी ममतामयी गोद में समेट लिया। उपयुक्त माहौल पाकर बीज ने अपनी जड़ें जमीन में फैला कर अपनी पकड़ मजबूत कर एक दिन अपना सर जमीन के बाहर निकाला। उसके सामने विशाल संसार अपनी हजारों अच्छाईयों और बुराईयों के साथ पसरा पड़ा था। उस छोटे से कोमल, नाजुक, हरे पौधे ने चारों ओर नज़र घुमा कर देखा फिर सर उठा कर आसमान की उंचाईयों की तरफ अपनी नज़र फिराई और मन ही मन उस उंचाई को नापने का दृढ निश्चय कर लिया।

समय बीतता गया। धरती के देश आपस में लड़ते-भिड़ते रहे। उनकी आपसी दुश्मनी से वातावरण विषाक्त होता रहा। एक दूसरे को नीचा दिखाने में हजारों लाखों जाने जाती रहीं। पर पौधे ने अपना सफर जारी रखा। विज्ञान तरक्की की राह दिखाता रहा। इंसान अंतरिक्ष की सीमायें लांघने लगा। पौधा भी धीरे धीरे जमीन में अपनी पकड़ और अच्छी तरह जमाते हुए संसार के अच्छे-बुरे बदलाव देखते हुए अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता रहा।
पौधा शुरुआती खतरों से बच कर बड़ा होता गया। अब उसकी छाया में पशु आ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। पक्षियों ने उसकी ड़ालियों की सुरक्षा में अपने नीड़ों को स्थान दे दिया था। कभी-कभी थके हारे स्त्री-पुरुष भी उसकी छांव में गर्मी से राहत पाने आ बैठते थे और सर उठा कर उसकी विशालता उसकी उपादेयता को मुग्ध भाव से देख प्रकृति के शुक्रगुजार हो जाते थे। कभी-कभी इस वृक्ष को देख उन्हें प्रेरणा भी मिलती थी। ऐसा होता भी क्यूं ना?
यह पेड़ ही तो था जो वक्त के अनगिनत थपेड़े खा कर भी अपना सर ऊंचा किये खड़ा था। तूफानों के सामने बहुत बार उसे झुकना जरूर पड़ा पर मुसीबत जाते ही वह दुगनी उम्मीद से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहा। उसके पैर अपनी जमीन में गहरे तक उतरे रहे पर उसने सदा अपना सर रोशनी और ऊंचाईयों की तरफ बनाये रखा। अति विषम परिस्थितियों में भी उसके अस्तित्व पर शायद इसीलिये आंच नहीं आयी, क्योंकि उसका जन्म ही हुआ था दूसरों की भलाई के लिये, दूसरों को जीवन प्रदान करने के लिये, दूसरों को आश्रय देने के लिये, दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये। जिसका जीवन ही औरों की भलाई के लिये बना हो उसकी रक्षा करने के लिये तो कायनात भी अपनी पूरी ताकत लगा देती है।

मंगलवार, 23 जून 2009

एक बार फिर बेचारे संता की खिंचाई (-:

संता डाक्टर के पास इलाज के लिये गया। कफी जांच पड़ताल के बाद डाक्टर बोला कि मैं फिलहाल आपकी बिमारी का कारण नहीं समझ पा रहा हूं लगता है यह शराब का नतीजा है। संता उठते हुए बोला, कोई बात नहीं डाक्टर साहब मैं बाद में जब आप का नशा उतर जायेगा तब आ जाऊंगा।
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संता रात में सड़क किनारे लैंप-पोस्ट के नीचे कुछ खोज रहा था। तभी उनका पड़ोसी उधर से निकला। वहां संता को देख उसने पूछा, संता साहब क्या ढूंढ रहे हो ?संता, मेरा पांच का सिक्का गिर गया है।पड़ोसी ने पूछा, कहां गिरा था ?संता ने एक तरफ हाथ से इशारा कर कहा, उधर।अरे जब गिरा उधर है तो आप यहां क्यों खोज रहे हैं ?संता, यार उधर अंधेरा है।
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संता के बचपन का एक किस्सा :-
संता और उसके दो दोस्त जंगल में घूमते-घूमते भटक कर रास्ता भूल गये। रात होने वाली हो गयी। डर के मारे तीनों की हालत पतली होती जा रही थी। तभी उनमें से एक ने अपने इष्ट को याद किया। आकाशवानी हुई बोलो क्या चाहते हो? बच्चे ने कहा प्रभू मन घबड़ा रहा है, मुझे घर पहुंचा दीजिये। पलक झपकते ही वह वहां से गायब हो घर पहुंच गया। ऐसा देख दूसरे ने भी अपने आराध्य को याद किया। उसके साथ भी वैसा ही हुआ, वह भी घर पहुंच गया। अब जंगल में संता अकेला। अंधेरा घिर आया था। ड़र के मारे इसके हाथ-पैर फूल रहे थे। पर थोड़ी हिम्मत कर इसने भी अपने इष्ट को याद किया। आकाशवाणी हुई, बोल बालक क्या चाहता है? संता बोला, प्रभू अकेले अंधेरे में बहुत ड़र लग रहा है। मेरे दोनों साथियों को मेरे पास ला दो। अगले ही क्षण दोनों (: (: (:

सोमवार, 22 जून 2009

इसका कोई जवाब है क्या ?

कोरिया की कोयम नदी के किनारे एक उंचा टीला है। जिसे नाक्वाहा नाम से जाना जाता है। इस पर हर साल इकहत्तर पौधे उगते हैं और उन पर इकहत्तर ही फूल खिलते हैं और सारे के सारे फूल एक साथ ही नदी में गिर जाते हैं। आज तक इसका रहस्य या कोई भी वैज्ञानिक कारण किसी की समझ में नहीं आ पाया है। पर इतिहास इसका कुछ-कुछ खुलासा करता है। उसके अनुसार सन ६६० में चीन ने यहाँ के राजा को हमला कर बंदी बना लिया था। युद्ध के बाद जब राजा और उसकी इकहत्तर रानियों को गिरफ्तार कर चीन ले जाया जा रहा था तो उन सब ने इसी टीले से नदी में छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली थी। यहाँ के निवासियों का विश्वास है की ये इकहत्तर फूल उन्हीं रानियों के प्रतीक हैं।

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संता, बंता से चींटी और हाथी के बच्चे में कौन बड़ा होता है ?

बंता, नैचुरली हाथी का बच्चा।

संता, रहा न खोते का खोता। अरे पागल जो पहले पैदा हुआ होगा वही बड़ा होगा। (-:

रविवार, 21 जून 2009

ये कैसे डाक्टर हैं भाई ?

डाक्टरी के पेशे को सदा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है। पर कभी-कभी कोई ऐसी खबर आ जाती है जो मन में आक्रोश उत्पन्न कर देती है। बात गुजरात के जामनगर की है। वहां के गुरु गोविंद सिंह अस्पताल में एक गर्भवती महिला अपने चेक-अप के लिये आयी थी। परिक्षण के दौरान उसके एच.आई.वी. पाजिटिव होने का पता चलते ही महिला रोग प्रभारी डा. नलिनीबहन तथा एक अन्य डा. दिप्तीबहन ने उसका उपचार करने से मना ही नहीं किया बल्कि उसके माथे पर एच.आई.वी. होने की पट्टी भी चिपका दी। इतने पर भी उन्हें शायद संतोष नहीं मिला इसके बाद उस निरीह महिला को अस्पताल का चक्कर लगाने को भी मजबूर किया गया।

अस्पताल प्रबंधन के इस रवैये का पता चलते ही महिला संगठनों के विरोध पर संबन्धित लोगों पर कार्यवाहि तो की गयी पर अस्पताल के अधिक्षक अरुण व्यास की लीपापोती पर नज़र डालें जिनका मामले की सफाई पर कहना था कि 'ऐसा इस लिये किया गया जिससे डाक्टरों को पता चल जाये कि उक्त महिला इस रोग से पीडित है।' अब उनसे कौन पूछेगा कि क्या अन्य रोग से ग्रसित रोगियों की पहचान कैसे की जाती है?

मैं यहां बात रोग के प्रति दृष्टिकोण की करना चाहता हूं। इस रोग के फैलने में सहायक कारणों मे से एक असंयमित देह संबंध है। पर लोग अन्य कारणों को भूल इस कारण को ही ज्यादा याद रखते हैं और इस रोग से ग्रस्त रोगी को सहानुभूति मिलने के बजाय दोषी ज्यादा समझा जाता है। बार-बार प्रकाशित-प्रचारित होने के बावजूद इसे संक्रामक रोग समझने कि प्रवृत्ति खत्म नहीं हो पा रही है। जब सेवा और इलाज करने वाले डाक्टरों का ऐसा रवैया है तो आम इंसान से कहां तक और कैसी उम्मीद की जा सकती है।

शनिवार, 20 जून 2009

एक पुरस्कार, जिसे वर्षों से अपने लिए जाने का इन्तजार है.

श्रीलंका की एक संस्था 'श्रीलंका रेशनलिस्ट एसोसिएशन' के संस्थापक डा. अब्राहम टी. कोवूर, जो एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक और मनोचिकित्सक थे, ने 1963 में एक लाख रुपये का इनाम उस व्यक्ति को देने की बात कही थी जो यह सिद्ध कर सके कि दुनिया में चमत्कार नाम की भी कोई चीज होती है। यह भी एक चमत्कार ही है कि इस बात के संसार भर में अखबारों द्वारा प्रकाशित, प्रचारित होने के बावजूद आज तक कोई इंसान इस राशि पर अपना हक नहीं जमा सका है। डा. कोवूर ने करीब पचास साल तक इन तथाकथित चमत्कारों का अध्ययन कर के अपने तजुर्बे से यह निष्कर्ष निकाला था कि इनमें से कुछ असत्य पर आधारित हैं, कुछ पर तर्क ही नहीं किया जा सकता और कुछके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक तथ्य है जिसकी जानकारी आम इंसान को न होने की वजह से वह इसे चमत्कार मान बैठता है।
एक लाख की राशि अपने ले जाने वाले के इंतजार में है। कोशिश करेंगे ?

मंगलवार, 16 जून 2009

क्या बोतलबंद पानी बेचनेवाली कंपनियां पीने के पानी की कमी बनाए रखना चाहती हैं ?

पानी को लेकर आज चारों ओर लोगों को जागरुक बनाने की मुहीम चलाई जा रही है। इसी संदर्भ में रोज-रोज डरावनी तस्वीरें पेश कर इसके खत्म होने का डर दिखाया जा रहा है। ठीक है, पानी की किल्लत भयावह रूप ले चुकी है। भूजल खिसकते-खिसकते पाताल जा पहुंचा है। पांच-पांच नदियों वाला प्रदेश पंजाब भी इसकी कमी शिद्दत से महसूस कर रहा है। पर यह कोई अचानक आई विपदा नहीं है। हमारी आबादी जब बेहिसाब बढी है तो उसके रहने, खाने, पीने की जरूरतें भी तो साथ आनी ही थीं। अरब से ऊपर की आबादी को आप बिना भोजन-पानी के तो रख नहीं सकते थे। उनके रहने खाने के लिये कुछ तो करना ही था जिसके लिये कुछ न कुछ बलिदान करना ही पड़ना था। सो संसाधनों की कमी लाजिमी थी पर हमें उपलब्ध संसाधनों की कमी का रोना ना रो, उन्हें बढाने की जी तोड़ कोशिश करनी चाहिये, समाज को जागरूक करने के साथ-साथ।
पानी की बात करें तो पृथ्वी पर पीने के पानी की जरूर कमी है, पर पानी का भंड़ार असीमित है। थल को जल ने चारों ओर से घेर रखा है। जरूरत है उसी पानी को पीने के योग्य बनाने की। जब टायलेट का दुषित जल साफ कर दोबारा काम में लाया जा सकता है तो इस अथाह राशी को क्यों नहीं। ऐसा नहीं है कि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया पर इस विधि के मंहगी होने के कारण इस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया शायद। पर जब आप इस विधि पर होने वाले खर्च और बोतल बंद पानी पर लुटाये गये पैसों की तुलना करेंगे तो चौंक उठेंगे। कितनी अजीब बात है कि नल से मिलने वाले पानी से बोतलबंद पानी करीब 1500 गुना मंहगा होता है। जिसके शुद्ध होने पर भी संदेह है। संसार में अरबों रुपये का बोतल का पानी बिकता है। जिसे रखने के लिये करोड़ों बोतलों की जरूरत पड़ती है। जिनके बनाने के दौरान लाखों टन जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। एक करोड़ से ज्यादा बोतलें रोज कूड़े में तब्दील हो जाती हैं। यकीन मानिए अरबों रुपये खर्च होते हैं इस बोतलबंद पानी को बनाने तथा हम तक पहुंचाने में। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो समुद्र के पानी को पीने योग्य बनाने में होने वाला खर्च भविष्य को देखते हुए जरा सी भी फिजुलखर्ची नहीं होगी। यह भी तो हो सकता है कि पानी को दूध से भी मंहगा बेचने वाली कंपनियां इस राह में रोड़ा अटकाती हों।
कुछ दिनों पहले कहीं पढा था कि मद्रास में वैज्ञानिकों ने समुद्र के पानी को पीने लायक बनाने में सफलता पा ली है वह भी एक रुपये प्रति लीटर के खर्च पर (खेद है मैं उस खबर को संभाल कर रख नहीं पाया)। पर कयी रेगिस्तानों से घिरे देशों में इस तरह का पानी काम में लाया जाता है।
मेरा तात्पर्य यह है कि मुसीबत तो अपना डरावना चेहरा लिये सामने खड़ी है। उससे मुकाबला करने का आवाहन होना चाहिये नकि उससे लोगों को भयभीत करने का। दुनिया में यदि दसियों हजार लोग विनाश लीला पर तुले हैं तो उनकी बजाय उन सैंकड़ों लोगों के परिश्रम को सामने लाने की मुहिम छेड़ी जानी चाहिये जो पृथ्वी तथा पृथ्वीवासियों को बचाने के लिये दिन-रात एक किये हुए हैं।

रविवार, 14 जून 2009

क्या जुड़वाओं में ऐसा संभव है ?

एक खबर ने वर्षों पहले बचपन में देखी एक स्टंट फिल्म की धुंधली सी याद ताजा कर दी। उसमें नायक का दोहरा रोल था। एक को चोट लगती थी तो दुसरे को भी तकलीफ होती थी। एक को दर्द होता था तो दुसरा भी बेचैन हो उठता था। यह खबर भी कुछ वैसी ही है। मध्य-प्रदेश के विदिशा शहर में रहने वाली दो जुड़वां बहनों में अजीबो-गरीब तारतम्य है। एक का नाम चांदनी है और दूसरी का रोशनी। पांचवीं कक्षा में एक साथ पढने वाली दोनों बहनों की पसंद-नापसंद, खान-पान, कपड़े वगैरह की रुचि एक जैसी ही हैं। पर सबसे ज्यादा चौंकाने की बात यह है कि अगर एक के शरीर में दर्द होता है तो दूसरी बहन भी उसे महसूस करती है। एक को जुकाम होता है तो दूसरी की नाक भी बहने लगती है। एक को बुखार आता है तो दूसरी का शरीर भी तपने लगता है। एक को ड़ांट पड़ती है तो दूसरी भी उदास हो जाती है। उनकी मां के अनुसार दो-तीन घटनाएं ऐसी हुई हैं कि यदि उनके सामने ना हुई होतीं तो वह भी विश्वास नहीं करतीं। उन्होंने बताया कि एक बार चांदनी अपने रिश्तेदार के यहां गयी हुई थी वहां उसे उल्टियां होने लगीं तो घर पर रोशनी को भी उबकाई आने लगीं थी। फिर एक बार साइकिल से गिरने पर रोशनी के पैर में मोच आ गयी तो उसी समय चांदनी के भी उसी पैर में दर्द शुरु हो गया। सबसे आश्चर्यजनक बात तो तब हुई जब साईकिल से गिरने पर चांदनी के आगे का दांत टूट गया तो उसी दिन रोशनी को भी ठोड़ी पर उसी जगह चोट लग गयी।
वैसे भी दोनों बहनों में इतनी समानता है कि दोनों को पहचानना बहुत मुश्किल है। रिश्तेदारों की बात जाने दें, जिनसे रोज मिलना नहीं होता है, परन्तु उन्हें रोज पढानेवाली शिक्षिकाएं भी भ्रम में पड़ जाती हैं। बचपन से उनका इलाज करने वाले डा. माहेश्वरी भी बताते हैं कि जब भी इलाज करवाना होता है तो दोनों साथ ही आती हैं। वे बताते हैं कि मैं इन्हें बचपन से देखता आ रहा हूं, दोनों को एक जैसी ही बिमारी या तकलीफ होती है। यह पूछने पर कि दोनों के शरीर में इतना ताल-मेल क्यूं और कैसे है, वे भी इसे विचित्र संयोग कह कर चुप हो जाते हैं। मेडीकल सांईस के अनुसार जुड़वां बच्चों का स्वभाव, बिमारियां, बनावट एक जैसी हो सकती हैं, पर एक को चोट लगने पर दूसरे को भी चोट लगना, वह भी उसी अंग और जगह पर, समझ से परे की बात है।
केरल का एक गांव, कोड़िन्ही, जो अपने 250 से भी ज्यादा जुड़वों के कारण जगत प्रसिद्ध है, जिसका जिक्र कुछ दिनों पहले मैंने अपनी एक पोस्ट किया था, वहां भी ऐसी कोई बात कभी नहीं सुनी गयी कभी। वैसे आज के युग में जब नाम व शोहरत की चाहत में मां-बाप अपने नौनीहालों से कहीं भी कुछ भी ऐंड़-बैंड करवाने से गुरेज नहीं करते तो चोट वाली बातें क्या शक पैदा नहीं करतीं ?

शुक्रवार, 12 जून 2009

क्या बात है !!! है न अजीबोगरीब (-:

हम दिन भर में करीब आधा लीटर पानी का वाष्पीकरण कर देते हैं, अपनी सांस लेने की क्रिया से। पानी बचाओ अभियान वाले कहीं यह न कहने लगें कि भाई सांसें कम लो। (-:

नीली व्हेल की एक साधारण फूंक से करीब 2000 गुब्बारे फुलाए जा सकते हैं।

ज्वालामुखी का लावा 50कीमी तक ऊपर उछल जाता है।

दुनिया के सारे ऊर्जा के स्रोत, कोयला, लकड़ी, तेल, गैस इत्यादि मिल कर भी कुछ दिनों तक ही सूर्य के बराबर ऊर्जा दे सकते हैं।

हमारी चमड़ी का वजन करीब सवा तीन केजी होता है।

पर हमारी आर्टरी, कैपिलरी और वेन को फैलाया जाए तो पूरी पृथ्वी को चार बार लपेटा जा सकता है।

हमारे शरीर की सबसे छोटी हड्डी कान के अंदर होती है जो बमुश्किल चावल के दाने जितनी होती है।

गुरुवार, 11 जून 2009

सहवाग और धोनी को लेकर मीडिया ने भ्रम फैलाया

आज कल मीड़िया में सहवाग और धोनी को लेकर तनातनी चल रही है। एक गुट दिल्ली के जाट के पक्ष में खड़ा है तो दूसरा झारखंड़ी ठाकुर के। खेल के गलियारे को भी जात-पात के अखाड़े में बदल कर रख दिया है मतलब परस्तों ने। पहला गुट सहवाग पर अवसरवादी होने का आरोप लगा बता रहा है कि उसने अपने कंधे की चोट, जो उसे पिछले आईपीएल में डेक्कन के खिलाफ खेलते हुए लगी थी, जान-बूझ कर छिपाई, क्योंकि उसके (सहवाग के) ख्याल में भारत के 20-20 के विश्व कप में जीतने की अच्छी संभावना है और उसमें मिलने वाली भारी-भरकम रकम का हिस्सा वह खोना नहीं चाहता। इसीलिये सिर्फ एक दो मैचों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के बाद वह अपनी चोट का हवाला दे बाहर बैठा रहना चाहता था। इसीलिये वह अपने परिवार को भी साथ ले आया था जिससे खाली समय में तफरीह की जा सके।
दूसरा खेमा धोनी को निशाना बना सहवाग का पक्ष ले लिखे जा रहा है। उसके अनुसार धोनी की निरंकुशता जग जाहिर है। वह अपने ऊपर किसी भी सीनियर को सहन नहीं कर पा रहा तथा एक-एक कर उसने सब से पार पा लिया है। अकेला बचा सहवाग (तेंदुलकर भी तकरीबन टेस्ट में ही सिमट कर रह गया है)जो भारत का अकेला त्रिशतकवीर है, अपने खेल के बूते पर धोनी के लिये खतरा बना हुआ है। उसका बल्ला जब बोलता है तो धोनी हाशीए पर चला जाता है और अपनी यह हेठी इस ठाकुर को पच नहीं पाती है। मीडिया के इस पक्ष के अनुसार दोनों के बीच कुछ भी ठीक नहीं है। इस बात को नकारने के लिये धोनी को मजबूरन प्रेस को बुलाना पड़ा पर वहां भी वह अपने अहं को छिपा नहीं पाया और आधी-अधूरी कांफ्रेंस को बीच में छोड़ उठ कर चला गया।
अब आप ही बतायें कि आप किसका कहा सच मानेंगें। इस बिकाऊ युग में।

मंगलवार, 9 जून 2009

आस पर दुनिया कायम है.

नासिक के कुंभ के मेले में जो भगदड़ मची थी, उसी में अपनी इस कहानी के पात्र दो गधे दोस्त बिछड़ गये थे। उनमें से एक किसी गांव में पहुंच गया और वहां एक कुम्हार के पास रहने लगा। दूसरा भटकते-भटकते शहर चला गया। वहां एक नट ने उसे आश्रय दिया। वर्षों बीत गये ऐसे ही एक दिन गांव का गधा घूमते हुए बाई चांस शहर जा पहुंचा। वहां उसने एक नट को तमाशा दिखाते देखा तो वह भी भीड़ में घुस गया। तभी उसकी नज़र अपने बिछड़े दोस्त पर पड़ी जो सूख कर कांटा हो गया था। दोनों एक-दूसरे को पहचान कर गले मिले, फिर गांव वाले ने अपने दोस्त की हालत देख पूछा कि यह क्या हालत बना रखी है, कुछ लेते क्यों नहीं, यदि यहां खाना-वाना नहीं मिलता है तो मेरे साथ गांव चलो। मेरी ओर देखो तुमसे बड़ा ही होउंगा पर कितना स्मार्ट लगता हूं। तुम तो जैसे बुढा गये हो। यह सब सुन शहर वाला गधा बोला नहीं दोस्त मैं कहीं नहीं जाऊंगा यहां मेरी जिंदगी संवरने का चांस है। गांव वाले ने कहा, क्या खाक चांस है, जब जिंदगी ही नहीं रहेगी तो क्या संवारोगे? वैसे, बाइ द वे, क्या उम्मीद लगाये बैठे हो ? शहर वाले ने बतलाना शुरु किया कि वह देखो उन दो बल्लीयों पर तनी रस्सी पर जो कन्या चल रही है, वह इस नट की लड़की है। नट रोज खेल शुरु करने के पहले उससे कहता है कि खेल में गड़बड़ी नहीं होनी चाहिये। यदि तू रस्सी से गिर पड़ी, तो याद रख, मैं तेरी शादी इसी गधे से कर दूंगा।
और बस भाई ! मैं इसी आस में यहां पड़ा हूं कि कभी तो किसी दिन---------------

सोमवार, 8 जून 2009

जब मेरे ताऊजी और पिताजी निजाम की जेल गए. २सरा भाग :

वह दिन भी आ गया जब हमें रिहा कर दिया गया। हम सब ऐसे जोश में थे जैसे अंग्रेजों को हमने देश के बाहर खदेड़ दिया हो। लौटते समय हमारा जगह-जगह स्वागत-सत्कार होता रहा। हम भी अपने को किसी हीरो जैसा समझ रहे थे। हावड़ा स्टेशन पर पुलिस की सख्ती के बावजूद सैकड़ों लोग हमारी अगवानी के लिये मौजूद थे। हमें फूल-मालाओं से लाद दिया गया। पूरा स्टेशन नारों से गूंज रहा था और माँ हमें अपने गले से चिपटाए अनवरत आसूं बहाये जा रहीं थीं...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

मेरे पिताजी का पिछले साल स्वर्गवास हो गया था। उन्हीं की बरसी में ताऊजी का रायपुर घर आना हुआ था। तभी उन्होंने मन में कहीं दबी-छुपी वर्षों पुरानी यादों को हम सबके सामने उजागर किया था। हालांकि ताऊजी अब बानवें साल में हैं फिर भी 70-75 साल पुरानी बातें ऐसे सुना रहे थे जैसे अभी कल ही घटी हों !   
उन्होंने बताया कि :- उस समय का माहौल ही कुछ अजीब होता था। अंग्रेजों के विरुद्ध देश के लिये कुछ भी करने को लोग तैयार बैठे रहते थे। ऐसे ही संस्कार बच्चों में भी ड़ाले जाते थे। जोर-जुल्म से कोई भी ड़रता नहीं था। उसी रौ में हम भी हैदराबाद चल दिए थे। लगता था, जाते ही निजाम को सबक सिखा देंगें ! शुभ (मेरे पिताजी का नाम) थोडा नाजुक और चुप रहने वाला लड़का था और मैं (खुद ताऊजी) जरा रफ-टफ तरह का। इसलिये मैं तो कहीं भी कैसे भी निभा लेता था, पर छोटे की चिंता हो जाती थी, जो सिर्फ मेरे कहने पर मेरे साथ चला आया था। पर उसने भी गजब का साहस दिखाया कभी किसी भी कठिनाई में उदास या परेशान नहीं हुआ। 

जेल के दूसरे दिन किसी तरह कुछ आटे का जुगाड़ कर "लोहार खाने" की भट्ठी पर मैने कुछ आड़ी-टेढ़ी रोटियां सेकीं, जिनसे बहुत राहत मिली। एक-दो दिन बाद तिकड़मी दिमाग ने एक राह सुझाई। जेल में व्रत-त्योहार आदि पर अलग से राशन देने का प्रावधान था। उस दिन एकादशी का दिन था। मैने व्रत का बहाना बनाया, जिससे जेल वालों ने मुझे  अलग राशन दे दिया और कहा अपना बनाओ और खाओ। 

इसी बीच सबको सजा के दौरान काम तय कर दिया गया ! हम बच्चों को खेत में फसलों की देख-रेख का हल्का काम सौंपा गया। हमें मां की सीख याद थी कि अंग्रेजों की हर बात का विरोध करना है ! सो हमने फसल संभालने की जगह सारी खड़ी फसलें उखाड़ दीं। इसका दंड तो मिलना ही था, हमें अलग-अलग कोठरियों में बंद कर दिया गया। ज्यादा छोटा होने की वजह से शुभ को मेरे साथ ही रखा गया था। इस सबके बाद फिर हमें कुर्सी तथा गलीचा बुनाई में हाथ बटाने का काम दिया गया ! यहां भी हम बखिया उधेड़ने से बाज नहीं आए ! फिर उसी अकेली कोठरी में, जिसमें शायद जीरो वॉट की रोशनी ही होती थी, बंद कर दिए गए ! 

नाबालिग होने की वजह से हमें शारीरिक प्रताड़ना नहीं दी जाती थी पर डराया-धमकाया खूब जाता था। हम भी विरोध का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। खाना, जिसमें थोड़ा सुधार हो गया था, हमें जमीन पर बैठ कर ही खाना पड़ता था। एक दिन एक पहरेदार जूते पहन कर हमारी खाने की जगह में आ गया फिर क्या था, खाना बंद नारे शुरु ! किसी तरह हमें शांत कर भोजन करवाया गया। धीरे-धीरे समय निकलता चला गया। जेल वगैरह का कोई खौफ हमें नहीं था, उल्टे तरह-तरह की शरारतों में मजा आता था। ऐसे ही एक दिन कब्ज और पेट दुखने का नाटक किया तो हमे हास्पिटल में दाखिल कर दिया गया। हास्पिटल क्या था, तीन सीलन भरे कमरे थे। एक में एक टेबल-कुरसी तथा दो आल्मारियों में दवाऐं वगैरह होती थीं तथा दूसरे दोनों कमरों में दो–दो लोहे के पलंग जैसे कुछ थे। वहां कीड़े-मकौड़ों की भरमार थी। पर जगह बदलने से हम खुश थे। पर यह खुशी दिन की रोशनी तक ही सीमित रही। रात मे मेरे पैर पर कुछ रेंगने का आभास हुआ देखा तो बिच्छू था, फिर तो लालटेन जला कर रात भर बिच्छू ही मारते रहे !

ऐसे ही काम करते, शैतानी करते, सजा भुगतते कैसे 6 महीने बीत गए पता ही नहीं चला। वह तो संचार का उस समय कोई साधन नहीं था नहीं तो हम अपने और दोस्तों को भी बुला लेते। बचपन की समझ से इन्हीं सब चीजों में आनंन्द खोजते समय कट गया और वह दिन भी आ गया जब हमें रिहा कर दिया गया। हम सब ऐसे जोश में थे जैसे अंग्रेजों को हमने देश के बाहर खदेड़ दिया हो। लौटते समय हमारा जगह-जगह स्वागत-सत्कार होता रहा। हम भी अपने को किसी हीरो जैसा समझ रहे थे। हावड़ा स्टेशन पर पुलिस की सख्ती के बावजूद सैकड़ों लोग हमारी अगवानी के लिये मौजूद थे। हमें फूल-मालाओं से लाद दिया गया। पूरा स्टेशन नारों से गूंज रहा था और माँ हमें अपने गले से चिपटाए अनवरत आसूं बहाये जा रहीं थीं।"

ताऊजी पुरानी यादों में पूरी तरह से खो गए थे, लगता था जैसे माँ, हमारी दादीजी, अदृश्य रूप से वहां खड़ी हो उनके सर को सहला रही हों ! गहरी खामोशी पसरी हुई थी ! हम सब मौन साधे ताऊजी को देख रहे थे! जिनकी पलकों की कोर पर नमी आ गई थी और आज वर्षों बाद यह संस्मरण लिखते हुए मेरी आंखें भी बार-बार भीगती जा रही हैं, भीगती जा रही हैं..........!

रविवार, 7 जून 2009

जब मेरे पिताजी और ताऊजी निजाम की जेल गए

हमारे कपड़े उतरवा कर जेल की पोशाक पहनने को दी गई। हाजरी लगी। तब जाकर खाने की घंटी बजी।  पर खाना क्या था, बाजरे की मोटी रोटी जिसमें आटे से ज्यादा मिट्टी थी जो चबाते ही नहीं बन पा रही थी और वैसी ही पनीली दाल जो दाल कम नमकीन पानी ज्यादा थी। एक भी कौर निगला नहीं जा सका। जेल में ऐसा खाना मिलता है, यह सुना जरूर था, उस दिन प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल गया। तब घर की बहुत याद आई थी............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

1934-35 का समय था। घर-घर में अंग्रेजों तथा उनके समर्थकों के विरुद्ध जनमानस में आक्रोश सुलगता रहता था। उन्हीं समर्थकों में एक था हैदराबाद का निजाम। उसकी देश विरोधी हरकतों के कारण आर्यसमाज ने उसके विरोध में आंदोलन चला रखा था, जिसके कारण देश भर से स्वयंसेवकों के जत्थे के जत्थे हैदराबाद विरोध प्रदर्शन के लिये जाते रहते थे।

मेरे दादाजी का कलकत्ते (अब का कोलकाता) में अपना व्यवसाय था। दादीजी वहां आर्यसमाज की एक प्रमुख कार्यकर्ता थीं। सरकार विरोधी कार्यक्रमों के कारण उनकी धर-पकड़ होती रहती थी। एक बार अलीपुर जेल में झंड़ोतोलन और वंदन के कारण उन्हें लंबी सजा भी मिली थी जिसके दौरान उनकी आंखों पर पड़े दुष्प्रभाव के कारण उन्हें अपनी नेत्र ज्योति से वंचित होना पड़ा था। इसी परिवार के साथ मेरे पिताजी के चचेरे भाई भी रहा करते थे। जो पिताजी से दो साल बड़े, करीब सोलह साल के थे, दोनों में खूब पटती थी। वह भी दादीजी को माँ ही कह कर पुकारा करते थे। पर दोनों बच्चों को तकरीबन रोज ही दादीजी के उलाहने सुनने को मिलते थे कि सारा देश आजादी की लड़ाई में जुटा हुआ है और तुम्हें अपने खेल-तमाशे से ही फुर्सत नहीं है, नालायक कहीं के। तो एक दिन बड़े भाई ने छोटे को उकसा, बहला, फुसला कर हैदराबाद 'घूमने' के लिये राजी कर माँ को अपना फैसला सुना दिया.....!

अब आगे की सारी बातें मेरे ताऊजी की जुबानी, ....
"मेरी बात सुन माँ बड़ी खुश हुईं, हालांकी बाबा कुछ चिंतित थे, पर फिर उन्होंने हमारी जिद देख अनमने मन से इजाजत दे दी। उस समय का माहौल ही अलग हुआ करता था। हम दोनों को नए कपड़े दिलाए गए और पार्टी के जिम्मेदार कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया गया। हावड़ा स्टेशन से मद्रास मेल में हम नारे लगाते हुए रवाना हो गए । दूसरे दिन विजयवाड़ा उतर खूब तेल वगैरह लगा कृष्णा नदी में नहा-धो कर, ब्रेड आदि खा, आगे चले, पर खम्मम में हम सब को गिरफ्तार कर एक मैदान में बंद कर दिया गया। किसी तरह रात काटी। दूसरे दिन हमें जज के सामने पेश किया गया, जिसने सबको वापस भेजने का हुक्म सुना दिया। पर हम वापस जाने के लिये तो गए नहीं थे, सो विरोध प्रदर्शन करते हुए वहीं सब लेट गए ! नारेबाजी होने लगी ! तमाम कोशिशों के बावजूद हमने हटने और वापस जाने से इंकार कर दिया। जज आग-बबूला हो गया, नाफर्मानदारी की सजा मिली, 6 महिने की कैद--बामुश्कत सजा सुन सारे कार्यकर्ता ऐसे खुश हो गए, जैसे कहीं का राज मिल गया हो। हमें वारांगल जेल भेजा जाना था, जो कुछ दूर थी। हम सब ने पैदल जाने से इंकार कर दिया। फिर वही खींचतान ! पर हार कर उन्हें सवारी का इंतजाम करना ही पड़ा। इसी में सारा दिन निकल गया। किसी तरह शाम को हम भूखे-प्यासे जेल पहुंचे। पर हम बच्चों को भी भूख-प्यास नहीं सता रही थी उल्टे लग रहा था जैसे कोई किला फतह करने निकले हों। वहां पहुंचते ही हमारे कपड़े उतरवा कर जेल की पोशाक पहनने को दी गई। हाजरी लगी। तब जाकर खाने की घंटी बजी।  पर खाना क्या था, बाजरे की मोटी रोटी जिसमें आटे से ज्यादा मिट्टी थी जो चबाते ही नहीं बन पा रही थी और वैसी ही पनीली दाल जो दाल कम नमकीन पानी ज्यादा थी। एक भी कौर निगला नहीं जा सका। जेल में ऐसा खाना मिलता है, यह सुना जरूर था, उस दिन प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल गया। तब घर की बहुत याद आई थी...!!

शनिवार, 6 जून 2009

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नहीं-नहीं, जैसा आप समझ रहे हैं वैसा कुछ नहीं है।
यह तो पिन-कोड नम्बर है, गुजरात के एक छोटे से कस्बे का।
जिसका नाम है "शारादाग्राम" ।
है न भारत की एक 'मेंटेद फिगार्ड जगह'।

गुरुवार, 4 जून 2009

सिरफिरों की सिरफिरी हरकत यानी खाली दिमाग ब्लडी मारी का घर

अपने देश में सालों से लोग ऐसे ही संदेश पोस्ट कार्डों पर लिख-लिख कर अपने डर तथा अंध विश्वास को दूसरों पर थोप कर राहत महसूस किया करते थे। कौन कहता है की हमारे देश में ही ऐसी बातें पनपती हैं। आज यह पोस्ट मिली, कहीं बाहर से आयी है। मजे के लिए ही लिखी गयी हो सकती है पर मजे-मजे में ही या फिर #### लोग आगे नहीं धकेलेंगे।। आपके विचानार्थ सामने रख रहा हूँ। पढें और मजा लें। हाँ, ई-मेल मत करने लग जाईयेगा।

THIS EMAIL HAS BEEN CURSED ONCE OPENED YOU MUST SEND IT
You are now cursed. You must
send this on or you will be killedtonight at 12:00pm, by Bloody Mary. This is no joke.
So don't think you can quickly get out of it and delete it now because you can't. Bloody Mary will come to you if you do not send this on.
She will slit your throat and your wrists and pull your eyeballs out with fork.
And then hang your dead corpse in your bedroom cupboard or put you under your bed. What's your parents going to do when they find you dead?
Won't be funny then, will it? Don't think this is a fake and it's all put on to scare
you because your wrong, so very wrong.Want to hear of some of the sad, sad people who lost their lives or havebeen seriously hurt by this email?
CASE ONE - Annalise Richmond She got this emial. Rubbish she thought. Shedeleted it. And now, Annalise is dead.
CASE TWO- LouiseWhitefield She sent this to only 4 people and when she wokeup in the morning her wrists had deep lacerations on each. Luckily there was no pain felt, though she is scarred for life.
CASE THREE - Thomas Crowley He sent this to 5 people. Big mistake,The night
Thomas was lying in his bed watching T.V not watching the clock.
'12:01pm'
The TV misteriously flickered off and Thomas's bedroom lamp flashed on and off several times.
It went pitch black, Thomas looked to the left of him and
there she was, Bloody Mary standing in white rags. Blood everywhere with a knife in herhand then dissapeared, That night Thomas will always remember as it was the biggest fright ofhis life.
Warning... NEVER look in a mirror and repeat 'Bloody Mary.Bloody Mary Bloody Mary.... I KILLED YOUR SON' Is it the end for you tonight!
YOU ARE NOW CURSED We strongly advise you to send this email on.
It isseriously NO JOKE. We don't want to see another life wasted.
ITS YOUR CHOICE... WANNA DIE TONIGHT? If you send this email to...NO PEOPLE - Your going to die.
1-5 PEOPLE - Your going to either get hurt or get the biggest fright ofyourlife.
5-15 PEOPLE - You will bring your family bad luck and someone close to youwill die.15 - 25 OR MORE PEOPLE - You are safe from Bloody Mary

सोमवार, 1 जून 2009

गरीब देश के अमीर सेवकों के बारे में आज एक मेल मिला उसे वैसे ही पोस्ट कर रहा हूँ.

To, All Indian. Salary & Govt. Concessions for a Member of Parliament (MP)
Monthly Salary : 12,000
Expense for Constitution per month :10,000
Office expenditure per month :14,000
Traveling concession (Rs. 8 per km) : 48,000( eg.For a visit from kerala to Delhi & return: 6000 km)
Daily DA TA during parliament meets :500/day
Charge for 1 class (A/C) in train: Free (For any number of times) (All over India )
Charge for Business Class in flights : Free for 40 trips / year (With wife or P.A.)
Rent for MP hostel at Delhi : Free
Electricity costs at home : Free up to 50,000 units
Local phone call charge : Free up to 1 ,70,000 calls.
TOTAL expense for a MP [having no qualification] per year : 32,00,000 [i.e . 2.66 lakh/month]
TOTAL expense for 5 years : 1,60,00,000
For 534 MPs, the expense for 5 years : 8,54,40,00,000 (nearly 855 crores)
AND THE PRIME MINISTER IS ASKING THE HIGHLY QUALIFIED, OUT PERFORMING CEOs TO CUT DOWN THEIR SALARIES......
This is how all our tax money is been swallowed and price hike on our regular commodities......... And this is the present condition of our country:

855 crores could make their life livable !! Think of the great democracy we have.............. PLEASE FORWARD THIS MESSAGE TO ALL REAL CITIZENS OF INDIA ... but,STILL Proud to be INDIAN
I know hitting a delete button is easier.......bt.........try 2 press fwd button 2 make people aware of it!


Regards Indian Citizens

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...