शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

आज भी चल रही है 'एक 'घोड़ा ट्रेन''

यह गाडी इतनी सुविधाजनक और लोकप्रिय हो गयी कि हर कोई इसकी सवारी करने लगा। इसलिए एक की बजाए दो गाड़ियां चलने लगीं। आमने-सामने आ जाने पर पड़ने वाली मुश्किल का आसान सा हल निकाल लिया गया। जब बीच रास्ते में दो गाड़ियां मिलतीं तो ''मुसाफिर'' ट्रालियों को बदल लेते ! गाड़ीवान भी अपने-अपने घोड़ों का रुख दूसरी तरफ कर विपरीत दिशा में अग्रसर हो जाते ...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग
वर्तमान समय में घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले वाहन "इक्का, तांगा या बग्गी" बीते दिनों की बात हो चुके हैं। यदि गाहे-बगाहे कहीं दीखते भी हैं तो मनोरंजन, तफरीह या शादी-ब्याह में ! लेकिन यह जान कर आश्चर्य होगा कि हमारे पड़ोसी मुल्क यानी पाकिस्तान में अभी भी लाहौर से करीब सौ की.मी. दूर, घोड़े की सहायता से एक परिवहन सेवा चलाई जा रही है। इस ''सुविधा'' को हॉर्स ट्रेन या घोडा रेल के नाम से जाना जाता है। जो रेल की तर्ज पर पटरियों पर तकरीबन तीन की.मी. तक चल, लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचाती है। इस घोडा-रेल की शुरुआत करीब 100 साल पहले जाने-माने व्यवसायी सर गंगाराम ने की थी | आजकल इसका वीडियो सोशल मीडिया पर काफी देखा और पसंद किया जा रहा है। इसका प्रसारण पाकिस्तान टी.वी. पर अनेकों बार हो चुका है, जिसके फलस्वरूप बाहर से इसे देखने आने वालों का तांता गंगापुर में लगा ही रहता है।
https://youtu.be/9uMhbzNUdlU


राय बहादुर सर गंगाराम  एक प्रसिद्ध इंजिनियर उद्यमी, और साहित्यकार थे।  अपने कपडे के व्यवसाय से लाहौर शहर को हर क्षेत्र में व्यापक सहयोग देने, उसे संवारने, उसे समृद्ध बनाने के अपने उपक्रम के कारण उन्हें ''आधुनिक लाहौर के पिता'' का उपनाम दिया गया था।  दिल्ली में भी अस्पतालों की कमी को देखते हुए 1951 में उनकी याद में एक सर्व-सुविधा युक्त अस्पताल बनाया गया, जिसे गंगाराम हॉस्पिटल के नाम से जाना जाता है। 
  
वे एक बेहतरीन इंजिनियर तो थे ही ! जब उन्होंने अपने क्षेत्र में लोगों को आवागमन की असुविधाओं से जूझते देखा तो उनके दिमाग में एक अनोखी और अद्वितीय परिवहन योजना ने जन्म लिया। वह थी, आज भी चल रही अनोखी घोड़ा ट्रेन सुविधा ! जिला लीलपुर (अब फैसलाबाद) की तहसील जारनवाला में, अपने गांव गंगापुर से बुकियाना रेलवे स्टेशन (लाहौर-जारनवाला रेलवे लाइन पर) तक उन्होंने दो फिट चौड़े रास्ते पर लकड़ी के तख्ते बिछवा कर उस पटरियां लगवा दीं। फिर एक ठेले जैसी ट्रॉली में, पटरी पर चल सकने लायक चक्के फिट कर उसे ट्रैक पर रखवा दिया ! इंजिन की जगह घोड़े का इस्तेमाल किया गया और इस तरह शुरू हो गयी दुनिया की अजीबोगरीब, इकलौती घोडा रेल। पटरियों पर चलने के कारण घोड़े को कम जोर लगाना पड़ता था और सड़क के तांगे वगैरह की बनिस्पत इस ठेले पर एक बार में ज्यादा लोग सफर कर सकते थे। घोड़े को ठोकर इत्यादि से बचाने के लिए तख्तों पर मिटटी डाल उसे अच्छी तरह समतल कर दिया गया था। फिर एक सोसायटी बना इसकी सारी जिम्मेदारी उसे सौंप दी गयी, जो नाम मात्र का शुल्क ले इसकी सेवा लोगों को उपलब्ध करवाने लगी। स्थानीय लोगों में यह अनोखी सवारी के नाम से मशहूर हो गयी।  

यह गाडी इतनी सुविधाजनक और लोकप्रिय हो गयी कि हर कोई इसकी सवारी करने लगा। इसलिए एक की बजाए दो गाड़ियां चलने लगीं। आमने-सामने आ जाने पर पड़ने वाली मुश्किल का आसान सा हल निकाल लिया गया। जब बीच रास्ते में दो गाड़ियां मिलतीं तो ''मुसाफिर'' ट्रालियों को बदल लेते। चालक भी अपने-अपने घोड़ों का रुख दूसरी तरफ कर विपरीत दिशा में अग्रसर हो जाते। आजादी के बाद भी सालों इसका चलना बदस्तूर जारी रहा। पर 1980 के दशक में कुछ कारणों से इसे बंद करना पड़ गया था ! पर चूंकि यह अपनी तरह का एक अनोखा अजूबा था इसलिए 2010 में फैसलाबाद जिला प्राधिकरणों ने सांस्कृतिक विरासत का रूप दे कर इसे फिर से शुरू करवा दिया। भले ही इसके बारे में ज्यादा लोग ना जानते हों पर यह आधुनिक युग का एक अजूबा तो जरूर ही है ! 

बुधवार, 24 जुलाई 2019

नदी का ख्वाब

हमारे यहां तो आस्था, प्रेम, विश्वास की पराकाष्ठा रही है ! प्रेम इतना कि हर जीव-जंतु से अपनत्व बना लिया ! आदर इतना कि पत्थर को भी पूजनीय बना दिया ! ममता इतनी कि नदियों को माँ मान लिया ! जल, वायु, ऋतुओं यहां तक कि राग-रागिनियों तक को एक इंसानी रूप दे दिया गया ! शायद इसलिए कि एक आम आदमी को भी सहूलियत रहे, समझने में, ध्यान लगाने और मन को एकाग्र करने में। उसी आकार वाली बात को लेकर एक कल्पना जगी कि जब इन सब को इंसान का रूप मिला है  तो शायद उसके गुण भी प्राप्त हुए होंगे ! इसी सोच का नतीजा है, नदी का ख्वाब ! 

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अभी रात का धुंधलका पूरी तरह छंटा नहीं था ! वैसे में ही सूखी नदी के प्रवाह क्षेत्र के किनारे खड़े बूढ़े बरगद ने देखा कि रोज एक परित्यक्ता, बीमार, मरियल सी घिसटती, रेंगती, ठिठकती धार जो कभी रास्ते के पत्थरों के अवरोध से रूकती-चलती मजबूरन सी आगे बढ़ती थी, आज जैसे बाधा रहित, उमंग भरी, प्रफुल्लित सी हो, किसी नागिन की तरह तेजी से सरसराती हुई दौड़ी जा रही है ! बरगद से रहा नहीं गया, उसने जोर से पूछा, ''क्यों बहिनी, आज तो बड़ी खुश नज़र आ रही हो !''

''हाँ, दद्दा ! सुबह भोर के तारे के जाने के पहले, मैंने स्वप्न देखा कि मैं पानी से लबालब भरी हुई हूँ ! इस छोर से उस छोर तक सिर्फ मैं ही मैं हूँ ! फिर से जीवन दायिनी नदी बन गयी हूँ ! सारे अवरोध ख़त्म हो चुके हैं और मैं दोनों तटों का हाथ थामे दौड़ी जा रही हूँ, दौड़ी जा रही हूँ ! उसके बाद से ही सब कुछ अच्छा और बदला-बदला सा लग रहा है !

बरगद मुस्कुरा उठा ! उसने अपनी फुनगी ऊपर उठा हवा को सूँघा और समझ गया सावन जो आ गया है !

सोमवार, 22 जुलाई 2019

"जो सुख छज्जू दे चौबारे, वो बल्ख ना बुखारे".......... कौन था यह छज्जू !


''जो सुख छज्जू दे चौबारे, वो बल्ख ना बुखारे।'' यह छज्जू कौन है जिसके चौबारे का जिक्र इस कहावत में किया गया है ! ऐसा ही समझा जाता रहा है कि बात को समझाने के लिए एक काल्पनिक नाम जोड़ दिया गया होगा। जबकि यह कोई काल्पनिक नाम नहीं है ! तक़रीबन साढ़े चार सौ साल पहले लाहौर में एक सज्जन रहा करते थे जिनका नाम छज्जू भगत था। कहीं-कहीं उनका नाम छज्जू भाटिया भी मिलता है। वे सर्राफे के एक नेक, सहृदय, दानशील व परोपकारी व्यापारी थे। उन्होंने ही लाहौर के अनारकली बाज़ार के इलाके में एक खूबसूरत व भव्य चौबारा बनवाया था। जहाँ दिन भर लोगों की महफ़िल जमी रहती थी ! एक दूसरे का दुःख-सुख बंटता था............!


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कोई भी कहावत, मुहावरा या लोकोक्ति यूं ही नहीं बन जाती या लोकप्रिय हो जाती, उसके पीछे जन-साधारण के अनुभव, अनुभूतियों और तजुर्बों या फिर जगह विशेष का पूरा हाथ होता है। कुछ लोग, वस्तुएं, घटनाएं अपने आप में इतने असाधारण होते हैं कि वे खुद एक मिसाल बन किंदवंती बन जाते हैं ! समय के साथ-साथ मूल बातें या चीजें तो काल के गर्त में समा जाती हैं, रह जाती हैं उक्तियां ! पर जब कभी ऐसी ही कहावत का स्रोत सामने आ जाता है या उसकी सच्चाई पता चलती है तो चौंकना, स्वाभाविक रूप से हो जाता है ! आज ऐसी ही एक कहावत की बात ''जो सुख छज्जू दे चौबारे, वो बल्ख ना बुखारे'' !

आज की पीढ़ी को तो शायद चौबारे का अर्थ भी मालुम ना हो, क्योंकि अब चौबारे नहीं होते। फ्लैट होते हैं उनकी बालकनी होती है। कभी-कभार किसी फिल्म में भले ही यह नाम सुनने को मिल जाए पर सच्चाई यही है कि चौबारा अब बीते युग की बात हो गया है ! जो कि कभी घर के एक विशेष स्थान का नाम होता था जो प्रायः घर के मुख्य द्वार या दहलीज़ के ऊपर पहली मंजिल पर बने एक छोटे कमरे को कहा जाता था। इस के एक दरवाज़े अथवा खिड़की का रुख सड़क की तरफ होता था। इस का उपयोग खासकर मनोरंजन इत्यादि के लिए किया जाता था। आज भी छज्जू का चौबारा कुछ-कुछ अच्छी हालत में अपनी कहानी कहता लाहौर में खड़ा है, पर कब तक ! क्योंकि उस पर भी रसूखदारों की गिद्ध दृष्टि पड़ चुकी है ! ये अलग बात है कि अब वैसा सुख या चैन भी वहां मयस्सर नहीं है।

अपने यहां, ख़ास कर उत्तर भारत में एक कहावत पुराने समय से अत्यंत प्रचलित रही है, ''जो सुख छज्जू दे चौबारे, वो बल्ख ना बुखारे।'' जिसका मूल अर्थ यह है कि परदेस में भले ही कितना ऐशो-आराम हो, सुविधाएं हों पर जो सुख -चैन अपने घर में मिलता है वह अन्यत्र नहीं ! कहावत में बल्ख और बुखारे के उल्लेख से ऐसा लगता है जैसे कि ये दो शहर आस-पास ही स्थित हों और युग्म शब्द बन गए हों ! हमारे कोटा-बूंदी, कुल्लू-मनाली, लुधियाना-जालंधर, दमन-दीव की तरह ! पर अपनी पूरी भव्यता और संपन्नता के साथ एक ही सिल्क रूट पर स्थित होने के बावजूद, जहां बल्ख अफगानिस्तान के उत्तरी प्रांत का एक शहर है वहीं बुखारा उज्बेकिस्तान का एक शहर ! अलग-अलग देशों में, एक-दूसरे से सैंकड़ों की.मी. दूर। फिर यह छज्जू कौन है ! जिसके चौबारे का जिक्र कहावत में किया गया है ! क्या सम्बंध है इनका आपस में ! तो ऐसा समझा जाता रहा, कि बात को समझाने के लिए एक काल्पनिक नाम जोड़ लिया गया होगा। जबकि यह कोई काल्पनिक नाम नहीं है।
तक़रीबन साढ़े चार सौ साल पहले लाहौर में एक सज्जन रहा करते थे जिनका नाम छज्जू भगत था। कहीं-कहीं उनका नाम छज्जू भाटिया या छज्जू मल भाटिया भी मिलता है। वे एक नेक, सहृदय, दानशील व परोपकारी सर्राफा व्यापारी थे। जो लोगों की सेवा और प्रभु भक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने ही लाहौर के अनारकली बाज़ार के इलाके में एक खूबसूरत व भव्य चौबारा बनवाया था। जहां दिन भर लोगों की महफ़िल जमी रहती थी, एक दूसरे का दुःख-सुख बंटता था ! हंसी-ठठा होता था। खाने-पीने की कोई चिंता नहीं होती थी, हर चीज का इंतजाम छज्जू भगत की ओर से किया जाता था। वहीं बैठ कर वह स्थानीय लोगों की भरसक-यथासंभव मदद किया करते थे। सारे लोग जैसे किसी अदृश्य प्रेम धागे से बंध गए थे।
उन दिनों बल्ख और बुखारे की ख्याति अपनी खूबसूरती और भव्यता के कारण दुनिया में दूर-दूर तक फैली हुई थी। इसी के चलते छज्जू मल जी के एक मित्र सूरज मल नामक सज्जन का मन वहां घूमने जाने का हुआ। वे एक महीने का कह कर गए भी ! पर लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ जब वे सप्ताह भर में ही लौट आए ! लोगों ने जब इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि, कहीं मन ना लगने के कारण वे बुखारा गए ही नहीं: बल्ख से ही वापस लौट आए ! क्योंकि यहां जैसा, प्यार, अपनत्व, भाईचारा कहीं दिखा ही नहीं ! उन का मन उचाट हो गया और वे बीच में ही यात्रा ख़त्म कर लौट आए। तब उन्होंने यह पंक्ति कही कि ‘वो बल्ख ना बुखारे – जो बात छज्जू के चौबारे’ और तब से यह बात कहावत के रूप में प्रसिद्ध हो गयी।
इन सब बातों की कोई पुष्टि तो नहीं हो पाती पर जो कुछ इधर-उधर पढ़ने को मिलता है उसके अनुसार छज्जू भगत का असली नाम छज्जू भाटिया या छज्जू मल भाटिया था। वे लाहौर के रहने वाले थे। मुगल बादशाह जहांगीर के समय वे सोने का व्यापार किया करते थे। 1640 में उनके निधन के बाद उनके अनुयायियों ने लाहौर के पुरानी अनारकली स्थित डेरे में उनकी समाधि बना दी।


*संदर्भ - दैनिक भास्कर व अंतरजाल

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

लाखामंडल का शिव मंदिर

यह एक दिलचस्प बात है कि यहां के एयर पोर्ट ''जॉली ग्रांट'' का नाम किसी आदमी का नहीं है ! यह उस जगह का नाम है जिस पर एयर पोर्ट बना हुआ है। कभी नेपाली राजाओं का राज गढवाल तक होता था। उसी समय नेपाल के किसी शाह ने ब्रिटिश साम्राज्य को यह जगह जागीर के रूप में उपहार में दे दी थी, तभी से उस ग्रांट के कारण इसका नाम जॉली ग्रांट पड़ा हुआ है ! हालांकि अब इसका नाम अटल जी के नाम पर रख दिया गया है ............!

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सावन का पुनीत महीना ! शिवजी को समर्पित समय ! आज उन्हीं के एक पावन स्थान लाखामंडल की जानकारी। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से करीब 128 की.मी. दूर बाबर-जौंसार इलाके में तक़रीबन सवा सात हजार फिट की ऊंचाई पर टोंस और यमुना नदियों के बीच स्थित है, लाखामंडल गांव जहां शिवजी को समर्पित प्राचीन मंदिरों का समूह है। इस मंदिर का सबसे बड़ा आकर्षण ग्रेफाइट पत्थर का बना शिवलिंग है, जिस पर जल चढाने पर एक अद्भुत चमक चहूँ ओर बिखर जाती है इसके साथ ही उसमें जल अर्पण करने वाले व्यक्ति की छवि भी साफ नजर आने लगती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर दो द्वारपालों की मूर्तियां उकेरी गयी हैं, जिन्हें दानव और मानव के नाम से जाना जाता है। ये ठीक वैसी ही हैं जैसे विष्णु जी के मंदिरों पर जय-विजय की प्रतिमाएं बनी होती हैं। कुछ लोग इन्हें अर्जुन और भीम की मूर्ती भी मानते हैं। लाखामंडल का शिव मंदिर दुनिया का एक ऐसा मंदिर है जिसमें सवा लाख लिंगों की स्थापना की गयी थी। इस क्षेत्र में की गई खुदाई भी इस बात को प्रमाणित करती है, जिसमें विभिन्न आकार और प्रचीन समय के कई शिवलिंग मिले हैं। क्षेत्र में प्रचलित मान्यता के अनुसार शिवलिंग की स्थापना अज्ञातवास के समय धर्मराज युधिष्ठिर ने की थी।

लाखामंडल दो शब्दों के मेल से बना है। लाखा यानी लाख या कई ! मंडल यानी मंदिर या लिंग। यह शक्ति पंथ के प्रमुख पूजास्थलों में से एक है। अद्भुत कलाकारी से सज्जित इस मंदिर के बारे में दृढ मान्यता है कि यहां आने भर से इंसान की सारी मुसीबतें दूर हो उसकी सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। कहते हैं कि पांडवों के अज्ञातवास काल में युधिष्ठिर ने लाखामंडल स्थित लाक्षेश्वर मंदिर के प्रांगण में जिस शिवलिंग की स्थापना की थी, वह आज भी विद्यमान है। इसी लिंग के सामने दो द्वारपालों की मूर्तियां हैं, जो पश्चिम की ओर मुंह करके खड़े हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। मंदिर के अंदर एक चट्टान पर पैरों के निशान मौजूद हैं, जिन्हें देवी पार्वती के पैरों के चिन्ह माना जाता है। मंदिर के अंदर भगवान कार्तिकेय, भगवान गणेश, भगवान विष्णु और हनुमान जी की मूर्तियां भी स्थापित हैं।     
पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार यह वही जगह है जहां महाभारत काल में दुर्योधन ने लाख के महल में पांडवों को मारने का दुष्कर्म रचा गया था। मंदिर के पास ही एक गुफा भी है जो स्थानीय भाषा में ''धुंधी ओढारी'' यानी धुंधली गुफा के नाम से प्रसिद्ध है ! कहते हैं दुर्योधन से बचने के लिए पांडवों ने इसी में से निकल कर अपनी जान बचाई थी। यहां से निकलने के बाद उन्होंने चक्रनगरी में एक माह तक निवास किया था जिसे आज चकराता नाम से जाना जाता है।
लाखामंडल में छोटे-छोटे मंदिरों के समूह हैं। जो समय-समय पर बनते रहे होंगे। एक शोध के अनुसार, जिसका शिलालेख भी उपलब्ध है, सिंहपुर के राजपरिवार की राजकुमारी ईश्वरा ने अपने दिवंगत पति जालंधर नरेश चन्द्रगुप्त के मोक्ष के लिए लाक्षेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। जो समय के साथ बदल कर लाखेश्वर हो गया। जो भी हो उत्तराखंड का आदिकालीन सभ्यताओं से सदा से गहरा नाता रहा है। इसीलिए यहां यत्र-तत्र-सर्वत्र एतिहासिक एवं पौराणिक काल के अवशेष बिखरे पड़े मिलते रहे हैं। यह दर्शनीय शिव मंदिर भी एक ऐसा ही धार्मिक पूजास्थल है जहां जैसे भी हो, मौका बना कर जरूर जाना चाहिए।

चकराता से बस या टैक्सी द्वारा यहां आसानी से जाया जा सकता है। यह मसूरी रोड पर चकराता से करीब 100 की.मी. की दूरी पर स्थित है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन देहरादून और प्लेन की सुविधा के लिए जॉली ग्रांट एयर पोर्ट है। लगे हाथ यह बात भी जानना उचित होगा कि ''जॉली ग्रांट'' किसी आदमी का नाम नहीं है।  यह उस जगह का नाम है जहां उत्तराखंड का एयरपोर्ट स्थित है। कभी नेपाली राजाओं का राज गढवाल तक होता था। उसी समय नेपाल के किसी शाह ने ब्रिटिश साम्राज्य को यह जगह जागीर के रूप में उपहार में दे दी थी। तभी से इसका नाम जॉली ग्रांट पड़ा हुआ है। हालांकि यहां जॉली शब्द के होने की वजह मालूम नहीं पड़ रही है। हो सकता है जिसने यह प्रमाण पत्र हासिल किया हो उस अंग्रेज का नाम जॉली हो या फिर ख़ुशी-ख़ुशी प्रदान की गयी जागीर को जॉली भेंट का नाम दे दिया गया हो ! अब तो इसका नाम बदल कर अटल जी के नाम पर कर दिया गया है।    

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

अंधकार से ही जीवन व ज्ञान उपजा है

अंधकार ! जिसकी बात होते आते या दिखते ही एक नकारात्मक भावना दिलों में छा जाती है ! पर सच्चाई तो यही है कि अँधेरा चाहे कितना भी घना हो, उसके पीछे, उसी परिवेश में, उसी के संरक्षण में सृजन, सृष्टि व विकास का क्रम लगातार, अनवरत रूप से सतत चलता ही रहता है ! तभी तो जीवन का प्रादुर्भाव हुआ ! प्रकाश की उत्पत्ति हुई ! प्रकाश हुआ तभी ज्ञान का भी विकास हो पाया ! ज्ञान बढ़ा तभी समाज, देश, दुनिया की तरक्की हो पायी। इतना सब होने और देने के बावजूद, अकारण ही हम अँधेरे को अमंगल मान बैठे हैं। ये तो हमारा ही संकुचित दृष्टिकोण और अज्ञान हुआ ! कायनात की इस विशाल, रहस्यमयी, चिलमन के पीछे, क्या छिपा है, प्रकृति क्या बुन रही है, प्रभु की कौन सी लीला अवतरित होने वाली है: कौन जानता है........!  

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उजाला और अँधेरा, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलु ! पर उजास को जहां ज्ञान, जीवन, उत्साह, शुचिता और जीवंतता का प्रतीक माना जाता है, वहीं अंधकार को निराशा, हताशा, अज्ञान या अमंगल का पर्याय मान लिया गया है। पर एक सच्चाई यह भी है कि आज भी ब्रह्मांड में इसका अस्तित्व उजाले से कहीं ज्यादा है, चाहे उसका विस्तार अनंत अंतरिक्ष में हो, चाहे सागर की अतल गहराइयों में ! चाहे इंसान के अबूझ मस्तिष्क की बात हो चाहे अगम मन की, सब जगह अंधकार अपने स्थूल रूप में विद्यमान नजर आता है। भले ही इस बात से मुंह फेर लिया जाए पर अंधकार के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। चाहे पौराणिक कथाएं हों, कथा-कहानियां हों या वैज्ञानिक तथ्य सबमें अंधकार की उपस्थिति अनिवार्यत: दिखलाई पड़ती है।

यहां अंधेरे के गुणगान का प्रयास नहीं हो रहा पर कुछ तो होगा इसके रहस्यमय वातावरण में जिसके कारण विष्णु जी को सागर की अतल गहराइयां मुनासिब बैठतीं होंगी ! क्यों ऋषि-मुनि पहाड़ों की अँधेरी गुफाओं में जा कर ही तप करते होंगे ! क्यों प्रकृति ने अंतरिक्ष और सागर की गहराइयों में प्रकाश की व्यवस्था नहीं की ! क्यों आँखें बंद कर अँधेरे की शरण में जा कर ही प्रभु का ध्यान लग पाता है ! क्यों आदमी को अपने जीवन का करीब एक तिहाई नींद के अँधेरे में गुजारना पड़ता है ! कैसे आँखों में रौशनी ना होने, जगत के प्रकाश की चकाचौंध से अनजान रहने के बावजूद भी सूरदास, मिल्टन, के सी डे, हेलेन केलर, जैसे सैंकड़ों लोग अंधेपन के अंधेरे के सानिध्य रह कर भी अपने आप को जगत्प्रसिद्ध कर पाए !


ज्ञान की बात करें तो प्रकाश की उपयोगिता को तो किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता। अंधकार से निकलने के पश्चात ही ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति हुयी। दुनिया ने तरक्की की। एक-दूसरे को जाना-पहचाना। तरह-तरह की ईजादें हुईं। ज्ञान-विज्ञान से इंसान और यह संसार नई-नई ऊंचाइयों तक पहुंचे। लोगों के जीवन में खुशहाली आई। पर जब सृजन की बात आती है, नव निर्माण की बात आती है, सृष्टि की बात आती है तो अंधकार की भूमिका अहम हो जाती है। जीवन की बात करें तो सारे जीव-जंतु, पशु-पक्षी, जानवर-इंसान सभी तो माँ के गर्भ के अंदर अंधकार में पल कर ही जीवन पाते हैं। यहां तक कि पेड़-पौधे, वृक्ष-लताएं इन सभी को सूरज का प्रकाश देखने के पहले धरा की अंधेरी कोख में ही रह कर अपनी जड़ें मजबूत करनी पड़ती हैं। जितनी कीमती और दुर्लभ धातुएं हैं उनका काया पलट धरती की गहराइयों की अंधेरी कोख में ही संभव है ! जीवनदाई जल अपने निर्मल रूप में धरा की अंधेरी गोद से ही निकल चराचर की प्यास शांत कर पाता है। सूर्यास्त के पश्चात, आसमान में कालिमा छाने के बाद ही कायनात की अद्भुत कारीगिरी, चाँद और सितारों के रूप में सामने आ पाती है ! जन्म लेने के बाद भी जीवन की ऊंचाइयों के सपने देखने के लिए इंसान अपनी आँखों की डिबिया बंद करने के पश्चात ही उस अँधेरी दुनिया के तिलिस्म में प्रवेश कर पाता है ! प्रकृति का सबसे बड़ा अजूबा हमारा शरीर हमें चलायमान रखने के लिए अपने सारे क्रिया-कलाप शरीर के अंदर के अँधेरे में ही पूरा करता है ! घने जंगलों के अंधकार में, धरती की गहरी-अंधी-घुप्प गुफाओं में, सागर की अगम्य-घनी-रौशनी विहीन गहराइयों में भी असंख्य जीव अपना जीवन चक्र बिना किसी बाधा या परेशानी के पूरा करते हैं ! सोचिए यदि कजरारे बादल नभ में छा, सुरमई अंधेरा फैला कर मधु-रस की वर्षा ना करते तो क्या धरा पर जीवन की कल्पना संभव हो पाती ! और तो और आज दुनिया का सबसे बड़ा, लोकप्रिय और सर्वव्यापी मनोरंजन का साधन सिनेमा,  हॉल में अंधेरा किए बिना देख पाना कहां संभव है, भले ही इसमें उजाले का भी कुछ हाथ हो ! 


* ऋग्वेद - सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं, अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था। छिपा था क्या कहां, किसने देखा था उस पल तो अगम, अटल जल भी कहां था। था तो हिरण्य गर्भसृष्टि से पहले विद्यमान, वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान।............ यानी तम का साम्राज्य !

शिव पुराण - सृष्टि के पहले ब्रह्मा और विष्णु जी में कौन बड़ा और पूजनीय की बात को ले छिड़े विवाद के हल स्वरुप शिव जी उन दोनों के बीच एक विशाल अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए। घोर अंधकार और भयानक विस्फोट के साथ उपजे उस प्रकाश स्तंभ के ओर-छोर का पता करने हेतु हंस रूप धारण कर ब्रह्मा ऊपर तथा वराह रूपी विष्णु जी नीचे की ओर चल पड़े।...........  यानी चहूँ ओर अंधेरा !

* जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत् कहा गया है। सत् अर्थात अविनाशी परमात्मा।.........सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा !

* वैज्ञानिकों में एक अवधारणा यह भी हैं कि शुरुआत में ब्रह्मांड की सारी आकाश गंगाएं, आकाशीय पिंड, सभी कण और सभी पदार्थ  एक ही साथ, एक ही जगह, एक ही बिंदु पर स्थित थे ! यह बिंदु अत्यंत छोटा होते हुए भी अत्यधिक घनत्व और अत्यंत गर्म था। यह विवरण ''ब्लैक हॉल'' की याद दिलाता है जिससे प्रकाश भी बाहर नहीं आ पाता।................यानी गहन अंधकार !

ब्रह्मांड विज्ञान के वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट (Big Bang) से हुआ है और उसके पश्चात उसका लगातार विस्तार हो रहा है। उसके पहले क्या था ! कैसा था ! इसका तो अभी सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा रहा है।............ यहां भी अभी अन्धकार की थ्योरी ही काम कर रही है !
  
इन सारे तथ्यों से एक बात निकल कर सामने आती है कि पहले जो कुछ भी था वह निपट तम का ही एक हिस्सा था ! फिर एक भयंकर उथल-पुथल के फलस्वरूप हुए महाविस्फ़ोटों के कारण ब्रह्मांड का निर्माण हुआ, जिसके फलस्वरूप अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न हुई और उससे इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्युट्रान तथा फोटॉन जैसे कण अस्तित्व में आए। इन्हीं में से का एक कण फोटॉन प्रकाश और रौशनी का कारक है। फोटान वो कण हैं जिनसे रौशनी बनती है; यानी ब्रह्मांड निर्माण के पहले सिर्फ अंधकार का ही साम्राज्य था ! अभी भी कायनात की इस विशाल, रहस्यमयी चिलमन के पीछे क्या छिपा है, प्रकृति क्या बुन रही है, प्रभु की कौन सी लीला अवतरित होने वाली है: कौन जानता है !  



इन सब से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि अंधकार चाहे कितना भी घना हो, उसके पीछे, उसी परिवेश में, उसी के संरक्षण में सृजन, सृष्टि व विकास का क्रम तो लगातार, अनवरत रूप से सतत चलता ही रहता है ! तभी तो जीवन का प्रादुर्भाव हुआ ! प्रकाश की उत्पत्ति हुई ! प्रकाश हुआ तभी ज्ञान का भी विकास हो पाया ! ज्ञान बढ़ा तभी समाज, देश, दुनिया की तरक्की हो पायी। इतना सब होने और देने के बावजूद अकारण ही हम इसे अमंगल मान बैठे हैं। ये तो हमारा ही संकुचित दृष्टिकोण और अज्ञान हुआ ! 

सोमवार, 8 जुलाई 2019

''आशा व बाला'' का एक और रूप, वोडाफोन के नए अवतार में

विज्ञापनों में दादा-दादी बने ये दोनों पति-पत्नी कोई मामूली कलाकार नहीं हैं। वोडाफोन के विज्ञापन के आशा और बाला के रूप में प्रसिद्ध हुए, 73साल की शांता धनंजयन और 78साल के वी.पी. धनंजयन दोनों पति-पत्नी, दिग्गज नृत्य कलाकार हैं, जो चेन्नई के अड्यान में 1968 से भरतनाट्यम सिखाने के लिए भारत कलांजलि स्कूल चला रहे हैं। जिसके लिए उन्हें 2009 में पद्मभूषण से सम्मानित किया जा चुका है।  #वोडाफोन वाले बधाई के पात्र हैं जो फूहड़ता के इस  युग में भी इतने साफ़-सुथरे , दिल को छूने वाले, सार्थक, पारिवारिक विज्ञापनों की रचना करने का हौसला रखते हैं ............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दिन-ब-दिन फूहड, छिछोरे और स्तरहीन होते जाते, बकवास इश्तिहारों के बीच कुछ ऐसे विज्ञापन भी देखने को मिल जाते हैं, जो दिल को छू लेते हैं। इनमें वोडाफोन एक आदर्श उदाहरण है। जो बिना किसी ''स्टार'' की बैसाखी के भी अपने विज्ञापनों को, दर्शकों के दिलो-दिमाग में पैवस्त कर, लोकप्रिय बनाने में माहिर हैं। सच कहा जाए तो इनके ''बुजुर्ग दम्पति या पग या जुजु सेना'' अपनी मासूमियत, भोलेपन और सरलता के कारण कई-कई सुपर स्टारों पर भारी पड़ते हैं।


गोवा भ्रमण  
टी.वी. दर्शक और खेल प्रेमी, वोडाफोन के करीब दो साल पहले 2017 में हुई IPL क्रिकेट स्पर्द्धा के खेलों के बीच आने वाले उन विज्ञापनों को भूले नहीं होंगे, जिनमें एक प्यारे, भोले-भाले, साठ पार के बुजुर्ग दम्पति, ''बाला और आशा'' के गोवा भ्रमण को केंद्र बना एक बहुत सुंदर विज्ञापन श्रृंखला रची गयी थी। आनन-फानन में, बिना किसी शोर-शराबे के दोनों ने लोगों के मनों को जीत उनके घर के सदस्य के रूप में जगह बना ली थी ! विज्ञापनों में दादा-दादी बने ये दोनों पति-पत्नी कोई मामूली कलाकार नहीं हैं। वोडाफोन के विज्ञापन के आशा और बाला के रूप में प्रसिद्ध हुए, 73 साल की शांता धनंजयन और 78 साल के वी.पी. धनंजयन दोनों दिग्गज नृत्य कलाकार हैं जो चेन्नई के अड्यान में 1968 से भरतनाट्यम सिखाने के लिए भारत कलांजलि स्कूल चला रहे हैं। जिसके लिए उन्हें 2009 में पद्मभूषण से सम्मानित किया जा चुका है। यह उनकी जिजीविषा ही है, जो अपने गोवा वाले विज्ञापन के लिए धनंजयन जी ने अठहत्तर पार की उम्र में पहली बार धोती के बदले पैंट-टी शर्ट पहनी, स्कूटर चलाना सीखा तथा युवाओं की तरह के हाव-भाव, करतब करते हुए विश्वसनीयता व सहजता से इंटरनेट का उपयोग कर जीवन का आनंद लेते  दिखे थे।  



अब फिर एक बार दोनों वोडाफोन की एक नयी विज्ञापन श्रृंखला ''The Future is exciting. Ready ?''  के साथ फिर एक बार परदे पर अवतरित हुए हैं। इस बार विदेश भ्रमण में रोमिंग की खासियतें, फोन पर डॉक्टर की सलाह या अपने खुद के किचन के व्यवसाय में वोड़ाफोन की सहूलियतों का उपयोग करते-बताते नजर आएंगे। फिलहाल अभी तो आशा जी की रसोई में सहयोगी बने बालाजी की अपनी पत्नी के साथ मासूमियत भरी प्यारी सी नोकझोंक देखते ही बनती है। इस बार भी यह बात तय है कि निर्मल हास्य का पुट लिए इस विज्ञापन श्रृंखला में भी दोनों पति-पत्नी अपने सहज, सरल, स्वाभाविक अभिनय से अपना पिछ्ला जादू जगाने में जरूर सफल होंगे ! 


नए अवतार में 
#वोडाफोन और उनकी पूरी टीम बधाई की पात्र है, जो उन्होंने फूहड़ता के इस युग में भी इतने साफ़-सुथरे, दिल को छूने वाले, सार्थक, पारिवारिक विज्ञापनों की रचना करने का हौसला दिखाया। इनसे उन विज्ञापन निर्माताओं और कंपनियों को सबक लेना चाहिए जो आए दिन बड़े नामों की लोकप्रियता, ओछे दृश्यों या अतिश्योक्ति भरे फिल्मांकन से दर्शकों को लुभाने की फूहड़ कोशिश में वक्त और पैसा दोनों बर्बाद करते रहते हैं ! पर होता अक्सर उनकी सोच का उल्टा है ! ज्यादातर ऐसे विज्ञापन दर्शकों को "बोर" करने लगते है। हजार की जगह लाखों फूँके हुए रुपये भी कोई जादू नहीं जगा पाते। काश, वे वोडाफोन से कुछ सबक ले पाते ! 

गुरुवार, 4 जुलाई 2019

कहै घाघ सुन भड्डरी,..... कौन थे ये दोनों

''घाघ'' जहां खेती, नीति एवं स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों के लिए विख्यात हैं, वहीं ''भड्डरी'' की रचनाएं वर्षा, ज्योतिष और आचार-विचार से विशेष रूप से संबद्ध हैं।घाघ के समान ही लोकजीवन से संबंधित कहावतों में कही गई भड्डरी की भविष्यवाणियां भी बहुत प्रसिद्ध हैं। दोनों समकालीन तो हैं साथ ही यह समानता भी है कि घाघ की तरह भड्डरी का जीवन वृतांत भी निर्विवाद नहीं है। अनेकानेक किंवदंतियां दोनों के साथ जुडी हुई हैं। पर साथ ही यह भी सच है कि जितनी ख्याति जनकवि घाघ को मिली उतनी प्रसिद्धि भड्डरी को नहीं मिल पाई !आज की वर्तमान पीढ़ी इनके बारे में शायद ज्यादा न जानती हो, फिर भी बरसात द्वारे पर है, इसलिए समीचीन होगा, उससे जुड़े इन दोनों विलक्षण और अद्भुत व्यक्तित्वों के बारे कुछ जानना ...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग      
हमारा देश सदियों से कृषि प्रधान रहा है और भरपूर फसल के लिए अति आवश्यक है अच्छी वर्षा ! इसीलिए हर किसान के लिए इस बात का ज्ञान होना बहुत जरुरी होता है कि वर्षा कब होगी, होगी कि नहीं या कितनी मात्रा में होगी ! पुराने जमाने में नाहीं विज्ञान ने इतनी तरक्की की थी और नाहीं ही कोई मौसम विभाग हुआ करता था ,जो बरसात की सटीक जानकारी दे सके ! तो सब कुछ पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे अनुभव पर ही निर्भर हुआ करता था। हालांकि हमारे ऋषियों-मुनियों ने यह सब बातें विस्तार से सदियों पूर्व लिपिबद्ध कर दी थीं पर वह सब संस्कृत में होने की वजह से अधिकांश लोगों के लिए अगम्य सी ही थीं ! इसी समस्या के निदान के लिए लोकभाषा में कहावतों के रूप में सूक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ और इन्हीं कहावतों, भविष्यवाणियां के आधार पर वर्षों-वर्ष से हमारे किसान अपनी खेती एवं सामाजिक समस्याओं का निदान करते चले आए हैं। इन भविष्यवाणियों के जनक के रूप में करीब चार सौ सालों से निर्विवाद रूप से ''घाघ'' और 'भड्डरी'' का नाम लिया जाता रहा है। घाघ जहां खेती, नीति एवं स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों के लिए विख्यात हैं, वहीं भड्डरी की रचनाएं वर्षा, ज्योतिष और आचार-विचार के लिए प्रख्यात हैं। 

घाघ और भड्डरी के विषय में अनेक किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। पर दोनों के बारे में बहुत विस्तृत रूप से जानकारी उपलब्ध नहीं है ! चूँकि इनकी कहावतें एक ही शैली की होती हैं, इसलिए अनेक लोगों का विश्वास है कि ये दो अलग-अलग इंसान ना होकर एक ही आदमी के नाम हैं ! यहां तक कि कुछ लोग तो इनके दोहों की शुरुआत, ''कहै घाघ सुनु भड्डरी'' को देख इन्हें पति-पत्नी तक मानते हैं। कुछ लोगों के अनुसार उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र-बिहार, बंगाल एवं असम प्रदेश में ''डाक'' नामक कवि की भी घाघ जैसी ही कृषि सम्बन्धी कहावतें मिलती हैं जिसके आधार पर उन विद्वानों का अनुमान है कि डाक और घाघ भी एक ही थे। 

घाघ के बारे में मान्यता है कि बचपन से ही वे कृषि विषयक समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी थी कि दूर-दूर से लोग अपनी खेती सम्बन्धी समस्याओं को लेकर इनके पास आया करते थे। चाहे बैल खरीदना हो या खेत जोतना, बीज बोना हो अथवा फसल काटना, घाघ के पास उनकी हर मुश्किल का समाधान हुआ करता था। इस सब के बावजूद इनके बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि घाघ नाम है या उपनाम इसमें भी मतभेद हैं ! पर पं. राम नरेश त्रिपाठी जी ने अपनी खोजों के आधार पर इनका नाम देवकली दुबे माना है। उनका जन्म, निर्विवाद रूप से तो नहीं फिर भी सोलहवीं शताब्दी में अकबर बादशाह के जमाने में उत्तर-प्रदेश के कन्नौज शहर के पास के एक गांव चौधरी सराय में हुआ माना जाता है। इस बात को इससे भी पुष्टि मिलती है कि, इनकी प्रतिभा से प्रभावित और प्रसन्न हो अकबर ने इन्हें प्रचुर धन, जमीन और चौधरी की उपाधि प्रदान की थी, जिस पर इन्होंने कन्नौज से कुछ ही दूरी पर सराय घाघ नामक गांव की स्थापना की थी। जिसका अस्तित्व आज भी है। इनकी सातवीं-आठवीं पीढ़ी के कुछ परिवार आज भी वहां रहते हैं। जो भी हो घाघ अपने कृषि संबंधी ज्ञान के लिए उत्तर तथा मध्य भारत के सबसे बड़े विद्वान, पर्यावरणविद, खगोल ज्ञानी, कृषि गुरु और दार्शनिक कवि माने जाते हैं। जिनकी सरल, सुगम्य स्थानीय भाषा आज भी सीधे-सादे, अशिक्षित किसानों का मार्गदर्शन कर रही है। 

सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।


गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।


वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा। 

भड्डरी कौन थे, किस प्रांत के थे, किस भाषा में उन्होने कहावतों का सृजन किया, यह आज भी विद्वानों में चर्चा का विषय है। भड्डरी के जन्म के सम्बन्ध में ग्रामीण अंचलों में अनेक किंवदंतियां चलन में हैं। कुछ उन्हें राजस्थान से जोड़ते हैं तो कुछ काशी से। और चूँकि घाघ की कविताओं में उनका अक्सर जिक्र आया है तो उनका काशी निवासी होना ज्यादा तर्क-सम्मत लगता है। ऐसी मान्यता है कि इनमें दैवीय प्रतिभा थी जिससे वे सटीक भविष्यवाणी किया करते थे। 

शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।

तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
:
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।। 

जो भी हो पर इतना तो सत्य जरूर है कि घाघ और भड्डरी दोनों में दैवी प्रतिभा थी। उनकी जितनी भी कहावतें हैं, सभी प्रायः खरी उतरती हैं। घाघ जहां खेती, नीति एवं स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों के लिए विख्यात हैं, वहीं भड्डरी की रचनाएं वर्षा, ज्योतिष और आचार-विचार से विशेष रूप से संबद्ध हैं। आज भी देश के सुदूर गांवों-कस्बों में किसानों को इनकी कहावतें कंठस्थ हैं और खेती-खलिहानी में पथ-प्रदर्शक का काम करते हुए खादों के विभिन्न रूपों, गहरी जोत, मेंड़ बाँधने, फसलों के बोने के समय, बीज की मात्रा, दालों की खेती के महत्व इत्यादि हर मसले पर सहायक होती हैं। हालाँकि घाघ का लिखा हुआ  कुछ भी उपलब्ध नहीं है पर उनका दृढ अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है। 

उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।
:
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो सँग रहा।
:
खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै। 

दोनों में यह समानता भी है कि घाघ की तरह भड्डरी का जीवन वृतांत भी निर्विवाद नहीं है। दोनों  समकालीन थे।घाघ के समान ही लोकजीवन से संबंधित कहावतों में कही गई भड्डरी की भविष्यवाणियां भी बहुत प्रसिद्ध हैं। पर जितनी ख्याति जनकवि घाघ को मिली उतनी प्रसिद्धि भड्डरी को नहीं मिली।  

सोम सुक्र सुरगुरु दिवस, पौष अमावस होय।

घर घर बजे बधावनो, दुखी न दीखै कोय।।
:
सावन पहिले पाख में, दसमी रोहिनी होय।

महंग नाज अरु स्वल्प जल, विरला विलसै कोय।।

जो भी हो दोनों ही व्यक्ति अत्यंत कुशल, बुद्धिमान, नीतिमान तथा भविष्य का ज्ञान रखने वाले थे। आज के समय में यदि कोई इंसान नीतिनिपुण, चालाक व गहरी सूझबूझ वाला हो तो उस ''घाघ'' कहकर बुलाया जाने लगता है ! इसीसे उसकी व्यक्तित्व की गहराई का अंदाजा लग जाता है।

मंगलवार, 2 जुलाई 2019

बूँदों की सरगम पर राग पावस

नन्ही-नन्हीं बूँदों के अलौकिक संगीत के बीच सतरंगी पुष्पों से श्रृंगार किए, धानी चुनरी ओढ़े, दूब के मखमली गलीचे पर जब प्रकृति, इंद्रधनुषी किरणों के साथ हौले से पग धरती है तो नभ के अमृत-रस से सराबोर हुए पृथ्वी के कण-कण का मन-मयूर नाचने-गाने को बाध्य सा हो जाता है। बसंत यदि ऋतु-राज है तो वर्षा ऋतु-साम्राज्ञी है......!


#हिन्दी_ब्लागिंग  

इस बार देश में पड़ी भीषण, झुलसा देने वाली भयंकर गर्मी ने अपने रौद्र रूप से सारे इलाकों को त्रस्त कर रख दिया था ! दिनकर के प्रकोप से सारी धरा व्याकुल हो उठी ! जल संकट गहराने लगा, जीव-जंतु, पशु-पक्षी, मनुष्य-पादप सब निर्जीव से हो गए, तब जा कर प्रकृति ने फिर करवट बदली है ! कुछ देर से ही सही सकून देने वाली पावस ऋतु के कदमों में बंधी पायल की सुमधुर रिम-झिम ध्वनि सुनाई पड़ने लगी है। धीरे-धीरे सारा देश इस मधुर ध्वनि के आगोश में खो जाने वाला है। इस बार कुछ देर से ही सही पर आकाश से बरसने वाली इस अमृत रूपी बरसात से जल्द ही सिर्फ हमारा देश ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्ला देश भी तृप्त और खुशहाल होने वाले हैं। जून से सितंबर तक होने वाली इस बरसात को जो हवाएं, हिंद और अरब महासागर से उठ, अपने देश को दक्षिण-पश्चिम दिशा से घेर, जमीन की तरफ पानी लेकर आती हैं उन्हीं हवाओं को "मानसून" के नाम से जाना जाता है। मानसून नाम अरबी भाषा के ''मावसिम'' शब्द से आया है।


इन दिनों की राह तो जैसे सारी कायनात देख रही होती है ! मौसम का यह खुशनुमा बदलाव समस्त चराचर को अभिभूत कर रख देता है। आकाश में जहां सिर्फ आग उगलते सूर्य का राज होता था वहीं अब जल से भरे कारे-कजरारे मेघों का आधिपत्य हो जाता है। उनसे झरती नन्ही-नन्हीं बूँदों के अलौकिक संगीत के बीच जब सतरंगी पुष्पों से श्रृंगार किए, धानी चुनरी ओढ़े, दूब के मखमली गलीचे पर जब प्रकृति, इंद्रधनुषी किरणों के साथ हौले से पग धरती है तो नभ के अमृत-रस से सराबोर हुए पृथ्वी के कण-कण का मन-मयूर नाचने-गाने को बाध्य सा हो जाता है। बसंत यदि ऋतु-राज है तो वर्षा ऋतु-साम्राज्ञी है। प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों से लेकर आज तक शायद ही कोई कवि या रचनाकार हुआ होगा जो इसके प्रेम-पाश से बच सका हो। 



भारत में इसका आगाज तक़रीबन एक जून से हो जाता है, पर इसकी आहट मई के अंतिम हफ्ते से ही सुनाई देने लग जाती है। हमारा मौसम विभाग देश भर के विभिन्न भागों से तापमान, हवा के रुख, बर्फ़बारी, वायुमंडल के दवाब इत्यादि आंकड़ों को ध्यान में रख कई तथ्यों का अध्ययन कर आने वाले मौसम की भविष्यवाणी करता है। पर आंकड़ों में जरा सी चूक आकलन में काफी हेर-फेर ला देती है ! फिर भी इस विभाग की उपयोगिता और उसकी कर्मठता पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। सवाल तो खड़े होने चाहिए हम पर ! जिनकी  गलतियों का खामियाजा भुगत कर पर्यावरण दूषित हो रहा है, ''ग्लोबल वार्मिंग'' बढ़ रही है ! यह डर की बात तो है ही और ऐसा लग भी रहा है कि मानसून, जो सदियों से भारत पर सहृदय, दयाल और मेहरबान रहता आया है वह आने वाले वक्त में अपना समय और दिशा बदल सकता है। उससे हमारे विशाल देश को कितनी समस्याओं का सामना करना पडेगा उसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है ! ऐसा हो न हो कि प्रकृति का यह अनुपम, अनमोल तोहफा, राग पावस और बूँदों की सरगम की मधुर ध्वनि किसी कंप्यूटर की डिस्क में ही सिमट कर रह जाए !

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