बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

एक रेलवे स्टेशन, जो ग्रामीणों के चंदे से चलता है

स्टेशन को बंद करने से होने वाली असुविधा को देखते हुए जालसू गांव के रिटायर्ड फौजियों और ग्रामीणों ने इस फैसले के विरुद्ध धरना व विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया तो रेलवे को इनकी बात माननी पड़ी और ग्यारहवें दिन फिर स्टेशन को शुरू तो  कर दिया पर वहां के लोगों के सामने एक शर्त भी रख दी कि यहां टिकट वितरण के लिए रेलवे का कोई कर्मचारी नहीं होगा और ग्रामीणों को ही इसे संभालना और हर महीने 1500 यानी प्रतिदिन 50 टिकट की बिक्री का भी प्रबंध करना होगा.................!

#हिन्दी_ब्लागिंग  

हमारे देश में जहां रेल में बिना टिकट यात्रा करने वालों और उनसे जुर्माना वसूला जाना एक आम बात है ! रेलवे की सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचाने वालों की भी कोई कमी नहीं है ! वहीं बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि हमारे ही देश में एक ऐसा रेलवे स्टेशन भी है, जिसके अस्तित्व को बचाए रखने के लिए वहां के ग्रामीण हर महीने चंदा जुटा कर 1500 रूपए का टिकट खरीदते हैं, जिससे कि रेलवे उस स्टेशन को बंद ना कर दे !

राजस्थान के बीकानेर और जोधपुर के बीच बसा है नागौर शहर। इसी शहर के डेगाना जिले का एक गांव जालसू ! शुरू से ही यह गांव फौजियों का रहा है ! इसके हर घर से एक व्यक्ति फौज में हैं। उनकी सुविधा के लिए सरकार ने 1976 में गांव को स्टेशन की सौगात दी। नाम दिया जालसू नानक हाल्ट। तब जोधपुर रेलवे विभाग ने वहां एक कुटिया बना कर ट्रेनों का ठहराव शुरू कर दिया। हालांकि इसे स्टेशन का दर्जा तो मिल गया था, परन्तु वर्षों तक फिर उसको और कोई ख़ास सुविधा नहीं मिली ! तब ग्रामीणों ने खुद ही, खुद की सहायता करने की ठानी और पंचायत मद से एक हॉल और बरामदे का निर्माण करवाया, साथ ही चंदा जुटाकर एक प्याऊ और फूलों का बगीचा भी तैयार करवा डाला ! वर्तमान में गांव के 160 से ज्यादा  जवान सेना, बीएसएफ, नेवी, एयरफोर्स और सीआरपीएफ में हैं। जबकि 200 से ज्यादा रिटायर्ड फौजी हैं।

पर ना ही रेलवे के निजीकरण को ले कर विलाप करने वाले मतलबपरस्त, ना हीं मानवाधिकार का रोना रोने वाले मौकापरस्त और ना हीं सबको समानाधिकार देने को मुद्दा बनाने वाले सुविधा भोगी कोई भी तो इधर ध्यान नहीं दे रहा ! शायद उनके वोटों को ढोने वाली रेल गाडी इस स्टेशन तक नहीं आती  

2005 में अचानक जोधपुर रीजन में कम आमदनी वाले स्टेशनों को बंद करने का फैसला किया गया ! जालसू का नाम भी उस सूचि में था, सो उसे भी बंद कर दिया गया ! स्टेशन को बंद करने से होने वाली असुविधा को देखते हुए जालसू गांव के रिटायर्ड फौजियों और ग्रामीणों ने इस फैसले के विरुद्ध धरना व विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया तो रेलवे को इनकी बात माननी पड़ी और ग्यारहवें दिन फिर स्टेशन को शुरू तो  कर दिया पर वहां के लोगों के सामने एक शर्त भी रख दी कि यहां टिकट वितरण के लिए रेलवे का कोई कर्मचारी नहीं होगा और ग्रामीणों को ही इसे संभालना और हर महीने 1500 यानी प्रतिदिन 50 टिकट की बिक्री का भी प्रबंध करना होगा।  

सरहद पर लोहा लेने वाले यहां के जांबाज लोगों ने यह शर्त भी मंजूर कर ली। अब सवाल था पूंजी का ! पंचायत जुटी और उसके अनुसार सभी से चंदा ले इस समस्या को हल करने का निर्णय लिया गया ! सबने अपने मान-सम्मान और सुविधा बनाए रखने के लिए हर तरह का सहयोग किया ! देखते-देखते डेढ़ लाख रूपए एकत्रित हो गए। इस राशि को गांव में ब्याज पर दिया जाने लगा, जिससे हर महीने तीन हजार रूपए ब्याज रूप में मिलने लगे। उसी रकम से 1500 टिकटों की खरीदी होने लगी और उसी से बुकिंग संभालने वाले ग्रामीण को भी 15% मानदेय भुगतान किया जाने लगा। इस तरह यह देश का इकलौता रेलवे स्टेशन बन गया है जहां कोई रेलवे अधिकारी या कर्मचारी नहीं है, इसके बावजूद भी यहां 10 से ज्यादा ट्रेनें रुकती हैं। गांव के लोग ही टिकट काटते हैं और हर माह करीब 1500 टिकट खरीदते भी हैं। 

जालसू गांव के लोगों की अपने हक के लिए लड़ाई, कर्मठता, उनकी दृढ़ता के लिए तो जो भी कहा जाए कम है ! पर रेलवे वालों को क्या कहा जाए ! क्या जवानों से ज्यादा अहमियत कमाई की होनी चाहिए ! क्या लकीर के फकीर उन अफसरों को उन 160 जवानों का जरा भी ध्यान नहीं आया, जिनके अपने घर आने-जाने के जरिए पर वे मुश्किलात खड़ी करने जा रहे थे ! रेलवे में कार्यरत रहते हुए उन्हें जापानी रेल सेवा के उस निर्णय की भी खबर जरूर होगी जिसके तहत उसने जापान के एक छोटे से आइलैंड ''होकाइडो'' के दुर्गम और दूरस्थ गांव ''क्यूशिराताकी'' की स्कूल जाने वाली सिर्फ एक बालिका के लिए तब तक ट्रेन सेवा जारी रखी जब तक उसने स्कूल पास नहीं कर लिया। यहां तो देश के लिए मर-मिटने वाले सैंकड़ों जवानों की बात थी !

ऐसा भी नहीं है कि ग्रामीणों के योगदान और सहयोग से चलने वाले इस स्टेशन की बात ऊपर तक ना पहुंची हो ! इस बात का पता रेलवे को तो है ही, पीएमओ तक इसकी खबर है ! पर ना ही रेलवे के निजीकरण को ले कर विलाप करने वाले मतलबपरस्त, ना हीं मानवाधिकार का रोना रोने वाले मौकापरस्त और ना हीं सबको समानाधिकार देने को मुद्दा बनाने वाले सुविधा भोगी कोई भी तो इधर ध्यान नहीं दे रहा ! शायद उनके वोटों को ढोने वाली रेल गाडी इस स्टेशन तक नहीं आती। 

शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

एक गाँव, अफसरों वाला

यह तो सिर्फ एक गाँव की बात है ! पर कटु सत्य तो यह है कि हमारे देश के हर क्षेत्र में तरह-तरह के अनगिनत गौरव स्थल मौजूद हैं, जिन पर देशवासियों को नाज हो सकता है। पर उनमें से अधिकतर की जानकारी हमें नहीं है या देने की जरुरत ही नहीं समझी जाती ! शुरू से ही ऐसा रहा है ! लिखने-बताने वालों ने अपने पूर्वाग्रहों के चलते या फिर किसी दवाबवश, वही लिखा या बताया जितना उनसे कहा गया ! आज जब जागरूकता और सहूलियतें बढ़ी, तो ऐसी-ऐसी धरोहरें सामने आने लगीं कि हम किंकर्त्वयविमूढ़ रह गए...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

आम धारणा है कि शहरों में पले युवा, सुविधासम्पन्न होने के कारण, गाँव-देहात के अपने समवयस्कों से ज्यादा होनहार, होशियारऔर समझदार होते हैं। हालांकि यह बात बहुतेरी बार झुठलाई जा चुकी है पर सोच का क्या किया जा सकता है ! हमारे संचार माध्यमों, मुद्रित, श्रव्य या दृश्य-श्रव्य कोई भी हो, उनको सनसनीखेज ख़बरों से ही फुरसत नहीं मिलती जो ऐसी गलत धारणाओं को झुठलाती सच्चाइयों को सारे देशवासियों के सामने लाएं  ! 

इसी सोच को दरकिनार करती हमारे देश में एक ऐसी जगह है जिसका सानी शायद ही कोई और स्थान हो ! एक ऐसा गाँव जिसके हर दूसरे घर का होनहार युवा आईएएस, आईपीएस या अन्य किसी उच्च सरकारी पद पर आसीन है। इस गाँव की हवा-पानी-माटी में ही ऐसी कोई बात है जिसने एक के बाद एक सैकड़ों युवाओं को देश के उच्च पदों तक पहुंचाया। तभी तो इस का नाम अफसरों वाला गाँव के रूप में ख्यात हो गया। 

इंटरमीडिएट कॉलेज, जिसका परीक्षा परिणाम हर वर्ष 90 प्रतिशत रहता है, से उत्तीर्ण अनगिनत प्रतिभावान छात्र आज पुलिस, प्रशासनिक तथा चिकित्सा क्षेत्र में कार्यरत हैं। कुछ दिनों पहले ही गाँव से एक साथ 11 लड़कों का चयन सब इंस्पेक्टर के पद पर हुआ था

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद डिवीज़न के प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय से लगभग 24 किमी दूर दो नदियों, सई और लोनी, के बीच बसे इस गाँव का नाम बहुचरा है। दिखने में मोटे तौर पर यह भी प्रदेश के दूसरे गाँवों जैसा ही एक आम सा गाँव है, पर जो बात इसे दूसरों से अलग करती है वह है यहां की उपज ! यहां खेती तो नाम मात्र की होती है, पर होनहार बच्चों के लिए इस गाँव की जमीन खूब उपजाऊ है। 

यहां के लोग बताते हैं कि ''1919 में हमारे गाँव से 25 जवान ब्रिटिश सरकार की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने गए थे। उनके लौटने पर जब सरकार की तरफ से उन्हें इनाम देने की बात आई तो उन्होंने इनाम के बदले गाँव में एक स्कूल खोलने की दरख्वास्त कर दी ! उनकी बात मान ली गई और इस तरह गाँव को एक स्कूल मिल गया। पर लोगों को पढ़ाई में ज्यादा रूचि नहीं थी ! लोग बच्चों को पढ़ने भेजने से कतराते थे। पर हमारे पूर्वजों को शिक्षा की महत्ता मालुम थी सो गाँव में ये नियम बनाया गया कि पांच साल का होते ही बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना पडेगा ! नहीं तो  भारी जुर्माना देना होगा ! उसी कारण आज यहां की साक्षारता दर, प्रदेश की 67.68% के मुकाबले तकरीबन 82% है। पर उसी जबरदस्ती के कारण विद्यालय का नाम जबरिया अनिवार्य प्राथमिक विद्यालय भी पड़ गया। 

जबरिया अनिवार्य प्राथमिक विद्यालय  
वर्ष 1969 से स्थापित महात्मा गांधी इंटरमीडिएट कॉलेज, जिसका परीक्षा परिणाम हर वर्ष 90 प्रतिशत रहता है, से उत्तीर्ण अनगिनत प्रतिभावान छात्र आज पुलिस, प्रशासनिक तथा चिकित्सा क्षेत्र में कार्यरत हैं।कुछ दिनों पहले ही गाँव से एक साथ 11 लड़कों का चयन सब इंस्पेक्टर के पद पर हुआ था। इसके पहले भी कई इंस्पेक्टर इस गाँव से चयनित हो चुके हैं तथा कई पुरुस्कारों से नवाजे जा चुके हैं।

यह तो सिर्फ एक गांव की बात है ! पर कटु सत्य तो यह है कि हमारे देश के हर क्षेत्र में तरह-तरह के अनगिनत गौरव स्थल मौजूद हैं, जिन पर देशवासियों को नाज हो सकता है। पर उनमें से अधिकतर की जानकारी हमें नहीं है या देने की जरुरत ही नहीं समझी जाती ! शुरू से ही ऐसा रहा है ! लिखने-बताने वालों ने अपने पूर्वाग्रहों चलते या फिर किसी दवाब वश वही लिखा या बताया जितना उनसे कहा गया ! आज जब जागरूकता और सहूलियतें बढ़ी तो ऐसी-ऐसी धरोहरें सामने आने लगीं कि हम खुद ही किंकर्त्वयविमूढ़ रह गए। 

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

भारत रत्न !...ताकि अहमियत बनी रहे

जिस तरह किसी भी रत्न को दाग, जाल, रेखा या किसी भी अशुद्धि से परे जा कर ही अनमोल माना जाता है, नहीं तो उसका मोल कम हो जाता है, ठीक उसी तरह चयनित होने जा रहे भारत रत्न का भी हर तरह की कसौटी पर खरा उतरना लाजिमी होना चाहिए ! पर आज के माहौल में, राजनीतिक तुष्टिकरण में, जाति -बिरादरी में साख की खातिर, हैसियत जताने के लिए, अपने अहम् की तुष्टि के लिए या अपनी महत्वकाक्षों के चलते, कोई भी अपनी पसंद के किसी के नाम को भी इस सम्मान हेतु प्रस्तावित करता नजर आने लगा है............!

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भारत रत्नभारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है। इस सम्मान की स्थापना 2 जनवरी 1954 में की गई थी। इसके लिए चयनित व्यक्ति विशेष का चयन ज्यादातर सर्वमान्य रहा, पर कुछेक बार अनुत्तरित प्रश्न भी खड़े हुए, इसकी चयनित शख्सियत को ले कर ! इधर भी एक चलन कुछ ज्यादा ही देखने में आने लगा है, कोई भी अपनी जाति-बिरादरी, धर्म-पंथ के नेता के लिए इसकी मांग उठाने लग पड़ा है ! यदि इसकी रेवड़ी बंटने लगी तो फिर भविष्य में इसकी महत्ता का सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है !  

रत्न, प्रकृति प्रदत्त एक मूल्यवान निधि है। यह आकर्षक, चिरस्थायीव, दुर्लभ तथा अपने गुणों की खातिर अनमोल बन जाता है। जब कुछ तत्व जटिल परिस्थियों में, विपरीत वातावरण में, विभिन्न रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा आपस में मिलते हैं तब जा कर इसका निर्माण होता है। इसीलिए इसमें कई अद्भुत गुणों का समावेश भी हो जाता है। इन पर ऋतुओं के परिवर्तन, मौसम का प्रभाव या प्रकृति की भीषण उथल-पुथल का कभी असर नहीं पड़ता। 

इन्हीं  सब गुणों को देखते हुए सर्वोच्च नागरिक सम्मान के नामकरण के लिए इसके स्वप्नकारों के दिमाग में ''रत्न'' नाम आया होगा। यानी एक ऐसा इंसान जो देश से जुड़ा हुआ हो ! जो मन-कर्म-वचन से देश और देशवासियों के उत्थान के लिए समर्पित हो ! समय के थपेड़े, विपरीत परिस्थियां, जटिल समस्याएं भी उसे विचलित या पथ-भ्रष्ट ना कर पाती हों ! संयम, विनम्रता, समर्पण, लगन, जिजीविषा, परोपकारिता, निरपेक्षिता जैसे गुण उसमें चिरस्थाई हों। जैसे  रत्न आभूषणों के रूप में शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, साथ ही अपनी दैवीय शक्ति के प्रभाव के कारण रोगों का निवारण भी करते हैं; उसी तरह इस सम्मान को पाने वाले के गुण भी देश की शोभा में इजाफा करने वाले और उसकी कर्मठता, अवाम के हालात को सुधारने और उसकी मुश्किलों का हल निकालने में सक्षम होनी चाहिए । एक ऐसा इंसान जिसकी मिसाल दी सके ! जो सर्वोपरि हो, अपने समय में ! 

इसके समकक्ष एक और अलंकरण बना दिया जाए और उसका नाम भारत भूषण रख दिया जाए ! अब भूषण यानी गहने वगैरह को टिकाऊ बनाने के लिए उसमें कुछ खोट मिलाने की छूट और मान्यता तो है ही 

जिस तरह किसी भी रत्न को दाग, जाल, रेखा या किसी भी अशुद्धि से परे जा कर ही अनमोल माना जाता है, नहीं तो उसका मोल कम हो जाता है, ठीक उसी तरह चयनित होने जा रहे भारत रत्न का भी हर तरह की कसौटी पर खरा उतरना लाजिमी होना चाहिए ! पर आज के माहौल में, राजनीतिक तुष्टिकरण में, जाति-बिरादरी में साख की खातिर, हैसियत जताने के लिए, अपने अहम् की तुष्टि के लिए या अपनी महत्वकाक्षों के चलते, कोई भी अपनी पसंद के किसी के नाम को भी इस सम्मान हेतु प्रस्तावित करता नजर आने लगा है। 

अब ना तो पहले जैसे लोग रहे ना हीं ऊसूल ! ऐसे में याद आती है, भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री श्री अबुल कलाम आज़ाद की ! जब उनको भारत रत्न देने की बात आई तो उन्होंने खुद जोर देकर मना कर दिया, क्योंकि वे खुद इसकी चयन समिति के सदस्य थे ! हालांकि बाद में मरणोंपरांत 1992 में उन्हें इस सम्मान से नवाजा गया ! आज तो खुद ही अपना नाम प्रस्तावित करवाया जाने लगा है ! आज जरुरत है पद्म पुरुस्कारों जैसी अवनति से इसे बचाए रखने की। 

वैसे इसकी मर्यादा को बचाए रखने के लिए एक विकल्प निकाला जा सकता है ! इसके समकक्ष एक और अलंकरण बना दिया जाए और उसका नाम भारत भूषण रख दिया जाए ! अब भूषण यानी गहने वगैरह को टिकाऊ बनाने के लिए उसमें कुछ खोट मिलाने की छूट और मान्यता तो है ही ! इससे देने-लेने में आने वाली हर तरह की मुश्किल और किसी धर्म संकट से बचने से छुटकारा पाया जा सकेगा ! तू भी खुश, मैं भी खुश ! 

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

''ट्राम रेस्त्रां'', कोलकाता का

इस परिवहन सेवा के साथ कोलकाता वासियों  का एक ऐसा अटूट भावनात्मक संबंध कायम हो गया, एक ऐसा रिश्ता बन गया कि इस पर लोग चढ़ें ना चढ़ें पर इसके बिना वे अपने शहर की कल्पना भी नहीं कर सकते ! इसीलिए उसे बचाने, उसे लोकप्रिय बनाने व दीर्घजीवी बनाने हेतु एक प्रयोग के तहत एक ट्राम को रंग-रोगन और चित्रकारी से सजा कर उसका एक नया  अवतार गढा गया ! ट्यूरिस्टों की जरूरतों को मद्दे नजर रख उसे पूरी तरह वातानुकूलित कर बायो टॉयलेट तथा म्यूजिक सिस्टम से युक्त कर उसे एक आधुनिक रेस्त्रां का रूप दे दिया गया................!

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हमारा बंगाल ! पहले ऐसा कहा जाता था कि बंगाल जो आज सोचता है, वो पूरा भारत कल सोचता है ! वह राज्य जो देश में सर्वाधिक उपलब्धियों में पहला स्थान रखता है ! पहला महानगर, पहला अखबार, पहला विश्वविद्यालय, पहला नोबेल, पहला ऑस्कर, पहली मेट्रो, पहला प्लैनेटेरियम, पहला फ्लोटिंग मार्किट, पहली अंडरवाटर ट्रेन ! पहला ! पहला !! पहला !!! इसी गौरवमयी परंपरा में यहां के निवासियों ने एक और अनोखी पहल की है ! वह है कोलकाता का ''ट्राम रेस्त्रां'' !   


ट्राम ! अश्व चालित से विद्युत सरीसृप का रूप धर, अभी भी अस्तित्व में बने रहते हुए यह करीब डेढ़ सौ वर्षों से देश में घटित हुए विभिन्न घटनाक्रमों की चश्मदीद गवाह है ! इसीलिए 1902 में शुरू हुई इस परिवहन सेवा के साथ यहां के निवासियों का एक ऐसा अटूट भावनात्मक संबंध कायम हो गया, एक ऐसा रिश्ता बन गया कि इस पर लोग चढ़ें ना चढ़ें पर इसके बिना वे अपने शहर की कल्पना भी नहीं कर सकते ! भले ही इसे अपनी पटरियों पर धीमी गति और यातायात में बाधा आने के कारण बहुतेरी बार आलोचना का शिकार भी होना पड़ता रहा हो, पर स्थानीय निवासियों के प्रेम और उनकी  भावनाओं के कारण कलकत्ता में इसके वजूद को बरकरार रखा गया ! हालांकि इसके परिवहन पथ को बहुत सिमित कर दिया गया ! जहां साठ-सत्तर के दशक में ट्राम 52 रूटों पर चल करीब 70-75 की. मी. का दायरा पूरा करती थी वह अब पांच रूटों के 17-18 की मी के दायरे में सिमट कर रह गई है।  परंतु ''हेरिटेज'' में शामिल इस वाहन को बचाने, इसकी लोकप्रियता को बढ़ाने और कुछ कमाई का साधन जुटाने के लिए CTC (Calcutta Tramways Company) और इसके चाहने वालों ने एक प्रयोग के तहत, इसे चलित रेस्त्रां में बदलने की सोची ! 
 

इसी प्रयोग के तहत एक ट्राम को रंग-रोगन और चित्रकारी से सजा कर एक नया रूप दिया गया ! ट्यूरिस्टों की जरूरतों को मद्दे नजर रख उसे पूरी तरह वातानुकूलित कर बायो टॉयलेट तथा म्यूजिक सिस्टम से युक्त किया गया। इस पर करीब दस लाख रुपयों का खर्च आया।  खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में कोई बाधा ना खड़ी हो, इसलिए खाद्य पदार्थ बनाने वाली कई ब्रांडेड कंपनियों को साथ लिया गया। CTC ने विक्टोरिया ग्रुप को इसका जिम्मा देते हुए उनसे दस साल का अनुबंध किया, जिसके तहत ग्रुप, CTC को हर महीने डेढ़ लाख से कुछ ज्यादा राशि का भुगतान करता है। इस ट्राम रेस्त्रां में एस्पलेनेड से खिदिरपुर जाने-आने की डेढ़ घंटे की यात्रा में 799/- और 999/- की दर पर निरामिष और आमिष दोनों तरह का भोजन उपलब्ध कराया जाता है। जिसमें कई तरह के भिन्न-भिन्न पेय, स्टार्टर, मुख्य भोजन और डेजर्ट वगैरह शामिल होते हैं।

ऐसी पहली सेवा 14 अक्टूबर 2018 में एस्प्लेनेड के ऐतिहासिक शहीद मीनार से खिदिरपुर तक के लिए शुरू की गई ! यही वह रूट है जिस पर 27 मार्च 1902 में पहली विद्युत चलित ट्राम चलाई गई थी। उसी मार्ग पर जहां पुराने महानगर का एकमात्र हरित स्थल ''मैदान'', जो वर्षों-वर्ष से यहां के वाशिंदों को प्राणवायु प्रदान करता आ रहा है, के बीचो-बीच चलती, अद्भुत इमारत विक्टोरिया मेमोरियल के दर्शन कराती, रेस कोर्स के बगल से गुजरती हुई अपने गंतव्य, खिदिरपुर की ओर बढ़ती इस नई, अनोखी सवारी को ''विक्टोरिया ऑन व्हील 18'' नाम दिया गया है। फिलहाल इसके चार ट्रिप निश्चित किए गए हैं, दो सुबह लंच के समय और दो शाम डिनर के वक्त ! इस चलित रेस्त्रां में 27 मेहमानों के स्वागत की व्यवस्था है। इसके लिए 24 घंटे पहले आरक्षण करवाना जरुरी है।यात्रा के दौरान इस पर कोई भी आधिकारिक यात्री कहीं से भी चढ़-उतर सकता है।

महलों के शहर कोलकाता को, विभिन्न खाद्यों के विविध स्वादों के रसास्वादन के साथ, धीरे-धीरे चलते हुए देखने, समझने, यादों  समेटने का, कुछ अलग सा, अवर्चनीय सुख तो यात्रा कर के ही प्राप्त किया जा सकता है। सो इस कोरोना संकट से उबर कर जब भी अगली बार कोलकाता जाना हो तो एक दिन के कुछ घंटे अपनी चहेती ट्राम के काया-कल्पित रूप को समर्पित जरूर हों।     

रविवार, 4 अक्टूबर 2020

मच्छर, वाल्मीकि भी जिसे नजरंदाज नहीं कर पाए

इसी आताताई से बचने की  खातिर ऋषि-मुनि ज्यादातर पहाड़ों में या गुफाओं में जा कर, विघ्न-बाधा रहित हो, तपस्या करना पसंद करते थे ! इस मच्छारासुर से बचने के लिए ही श्री विष्णु ने सागर में और भोले नाथ ने हिमगिरि को निवास बनाया ! लक्ष्मण जी ने यूं ही चौदह साल जाग कर नहीं बिताए, वे चाहते थे कि प्रभु राम इससे राहत पा आराम से रात में सो सकें ! श्री राम ने भी रीछ-वानरों की सेना इसीलिए बनाई, क्योंकि उन पर मसक का असर न के बराबर होता है। यदि मानवों की सेना होती, तो तटीय प्रदेश के नमी युक्त वातावरण में इसके प्रकोप से ही कई सैनिक परलोक गमन कर जाते ! फिर रावण की तो मौंजा ही मौंजा हो जातीं ................!

#हिन्दी_ब्लागिंग   

अभी-अभी आए कोरोना का आतंक तो है, जो शायद कुछ समय पश्चात् काबू में भी आ जाएगा ! पर क्या उसकी तुलना हमारे पीढ़ी दर पीढ़ी के हमसाया रहे मच्छर के साथ हो सकती है ! तुलना तो दूर वह तो इसके पासंग भी नहीं है ! कहां कोरोना, वंश-हीन, आकार हीन, मृत्यु हीन, दिशा हीन, असामाजिक, निर्मम वायरस ! भले ही उसके आतंक से दुनिया भर में तहलका मचा हुआ है ! अत्यंत दुःख की बात है कि इसकी वजह से लाखों लोग काल के गाल में समा चुके हैं ! फ़िलहाल जिसका प्रकोप थमता भी नहीं दिखता ! पर आशा है और लगता है कि इस पर जल्द ही काबू पा लिया जाएगा।

उधर हमारा मच्छर, अदना सा, नश्वर, वंश युक्त, साकार, सामाजिक, क्षुद्र कीट ! पर जिसका अस्तित्व प्राचीन काल से ही इस धरा पर बना हुआ है ! जिसको रामायण की रचना के दौरान महर्षि वाल्मीकि भी नजरंदाज नहीं कर पाए, ''मसक समान रूप कपि धरी, लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी !'' जो लाखों सालों से मानव का सहगामी रहते हुए भी उसके खून का प्यासा है ! जिसके कारण हर साल तकरीबन दस लाख लोगों की मौत हो जाती है ! जिसका आंकड़ा दुनिया के इतिहास में हुए युद्धों में हताहत लोगों से भी कई गुना ज्यादा है ! उस पर कभी भी काबू नहीं पाया जा सका है, और ना हीं आशा है ! तो डरना किससे है ? कौन ज्यादा खतरनाक है ? कौन ज्यादा मारक है ?  

वैसे इनकी नई पीढ़ी को पहले की बनिस्पत रक्त की आपूर्ति बहुतायाद में और वह भी कम खतरे के साथ होने लगी है। जिसका सारा श्रेय हमारी रहम दिल, परोपकारी, सूक्ष्म वस्त्र धारी ललनाओं को जाता है, जिन्होंने बारहों महीने अपने वस्त्रों में कटौती कर इन मासूम जीवों की जरूरत को पूरा करने का संकल्प ले रखा है

दुनिया भर में मच्छरों की करीब 3500 से ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं ! जिनमें मादा की उम्र दो महीने और नर की 15 दिनों की ही होती है। मादा एक बार में तीन सौ, पर जीवन भर में सिर्फ पांच सौ अंडे ही दे सकती है। इन में सिर्फ 6% प्रजातियों की मादाएं ही इंसानों का खून चूसती हैं, वह भी ज्यादाकर समलिंगियों का, यहां भी ''नारि न मोहे नारि के रूपा", चरितार्थ होता है ! खून भी कितना, सिर्फ .01 से .1ml ! नर मच्छर इस खून-खराबे से अलग ही रहता है ! बाकी प्रजातियों की ज्यादातर नस्लें शाकाहारी होती हैं, जो पौधों, फूलों और वनस्पतियों के रस से ही अपना गुजारा कर लेती हैं ! इनमें भी करीब सौ ही ऐसी प्रजातियां हैं, जिनसे बिमारी फैलती है ! वह तो भला हो कायनात का जिसने इनको कुछ हद तक काबू कर नकेल कस दी, वर्ना यदि सारे मच्छर-मच्छरियाँ रक्त-पिपासू हो जाते तो इंसान इस धरा से कब का गो-वेंट-गॉन हो गया होता ! 

अब यह सब देख-सुन कर जब पुरानी कथाओं, किस्से-कहानियों पर ध्यान जाता है, तो मच्छर की उपस्थिति और भी प्रामाणिक और पौराणिक हो जाती है। अब जा कर यह समझ में आता है कि इसी आताताई से बचने की  खातिर ऋषि-मुनि ज्यादातर पहाड़ों में या गुफाओं में जा कर, विघ्न-बाधा रहित हो, तपस्या करना पसंद करते थे ! वन में रहने वाले तपस्व्वी, गुरूकुल के आचार्य भी हवन, यज्ञ कर इसे दूर रखने की चेष्टा करते रहते थे ! राजाओं-महाराजाओं पर चंवर क्यों डुलाए जाते थे ! आज भी अदालतों में चोबदार मुस्तैद रहते हैं कि इसके कारण जज साहब का ध्यान न्याय से ना भटक जाए ! इसका आतंक ही ऐसा है !  इसी "मसकासुर" से बचने के लिए ही श्री विष्णु ने सागर और भोले नाथ ने हिमगिरि को निवास बनाया ! लक्ष्मण जी ने यूं ही चौदह साल जाग कर नहीं बिताए, वे चाहते थे कि प्रभु राम इससे राहत पा आराम से रात में सो सकें ! श्री राम ने भी रीछ-वानरों की सेना इसीलिए बनाई, क्योंकि उन पर मसक का असर न के बराबर होता है। यदि मानवों की सेना होती, तो तटीय प्रदेश के नमी युक्त वातावरण में इसके प्रकोप से ही कई सैनिक परलोक गमन कर जाते ! रावण की तो मौंजा ही हो जातीं !

इस छुद्र कोटि के निम्न जीव से तो विश्विजेता का ख्वाबधारी सिकंदर तक नहीं बच पाया, तो बाकियों की क्या बिसात है ! चाँद-मंगल को फतह कर लेने वाला इंसान, इस बिना रीढ़ वाले जीव के सामने विवश इसलिए है, क्योंकि समय के साथ इसने अपनी आदतें बदली हैं ! यह दिनों-दिन समझदार और हाई-टेक होता चला गया है ! प्रमाण की क्या जरुरत है आप खुद ही देख लीजिए ! अब यह पहले की तरह ज्यादा गुंजार नहीं करता। कान के पास आने से परहेज करने लगा है ! जींस में बदलाव ला अपना आकार भी कुछ छोटा कर लिया है। उड़ने की शैली भी कुछ बदल कर सुरक्षात्मक हो गयी है। रक्त रूपी आहार भी कम लेने लगा है। इन सब परिवर्तनों का फायदा इस प्रजाति को मिलने भी लगा है। पहले गले तक रक्त पी, खुमार में आ आस-पास ही पड़ा रहता था, चाहे बिस्तर पर या फिर तकिए पर या फिर पास की दिवार पर और देखते-देखते हाथ के एक ही प्रहार से वहीं हार पहनने लायक रह जाता था। पर अब बदलाव के कारण यह जरुरत के अनुसार भोग लगा.. यह-जा ! वह-जा ! वैसे इनकी  नई पीढ़ी को पहले की बनिस्पत रक्त की आपूर्ति बहुतायाद में और वह भी कम खतरे के साथ होने लगी है। जिसका सारा श्रेय हमारी रहम दिल, परोपकारी, सूक्ष्म वस्त्र धारी ललनाओं को जाता है, जिन्होंने बारहों महीने अपने वस्त्रों में कटौती कर इन मासूम जीवों की जरूरत को पूरा करने का संकल्प ले रखा है।

एक-डेढ़ मिलीग्राम के इस दंतविहीन कीड़े ने वर्षों से हमारे नाक में दम कर रखा है। करोड़ों-अरबों रूपए इसको नष्ट करने के उपायों पर खर्च करने के बावजूद इसकी आबादी कम नहीं हो पा रही है। जितना पैसा दुनिया भर की सरकारें इस कीट से छुटकारा पाने पर खर्च करती हैं; वह यदि बच जाए तो दुनिया में कोई इंसान भूखा नंगा नहीं रह जाएगा। इससे बचने का उपाय यही है कि खुद जागरूक रह कर अपनी सुरक्षा आप ही की जाए। क्योंकि ये महाशय "देखन में छोटे हैं पर घाव करें गंभीर"।  

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

जब द्रौपदी चीर हरण के कारण कलाकारों पर मुकदमा दायर हुआ

लगता तो ऐसा ही है कि सब कुछ लकीर के फ़क़ीर की तरह ही चलता है, विवेक का बिलकुल सहारा नहीं लिया जाता ! क्योंकि यदि ऐसा होता तो क्या हजारों साल पुराने ग्रंथ, जिसकी कथा निर्विवाद रूप से सर्वोपरि है, में वर्णित किसी घटना को मंचित करने वालों को दोषी करार दिया जाता ? वैसे भी यदि किसी कानून की रक्षा हेतु यह कदम उठाया गया था तो महर्षि वेदव्यास और गणेश जी को भी समन जारी कर देना था ...........................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग       

आम धारणा है, और बहुत हद तक सच भी है कि किसी भी क्षेत्र में सर्वोच्च पद पर पहुँचने वाला व्यक्ति बहुत ही ज्ञानी, लायक, बुद्धिमान, विवेकी और उस ख़ास पद के लिए योग्य होता है ! परन्तु आश्चर्य और खेद की बात है कि हर क्षेत्र में अपवाद स्वरुप कुछ ऐसे महानुभाव भी मिल ही जाते हैं जो अपनी ''करनियों'' से उनके उस ख़ास पद पर होने और पहुंचने पर उनकी लियाकत पर ही शक उत्पन्न कर देते हैं ! ऐसे लोग, चाहे राजनीती हो, खेल हो, न्याय-व्यवस्था हो, प्रशासन हो, शिक्षा या अभिनय का क्षेत्र हो सभी जगह अपनी पहुँच बनाए मिल जाएंगे ! जैसे संचार क्रांति हुई है तबसे ऐसे लोगों के कारनामे और भी सामने आने लगे हैं !

अभी कुछ दिनों पहले कपिल शर्मा के एक शो में बी.आर.चोपड़ा द्वारा निर्मित महाभारत में काम कर चुके कुछ कलाकार आए थे। जिन्होंने धारावाहिक बनने के दौरान हुए दिलचस्प वाकयों का जिक्र किया था। उन्हीं किस्सों के बीच पुनीत इस्सर ने एक अजीबोगरीब घटना का खुलासा किया कि कैसे महाभारत कथा में वर्णित द्रौपदी चीर हरण को फिल्माने के कारण बनारस के कोर्ट द्वारा सीरियल के कुछ कलाकारों के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी कर दिया गया था !

उनके अनुसार, करीब 30 साल पहले एक बार जब वह ड्राइव कर रहे थे। अचानक एक पुलिस की वैन आई और उनसे गाड़ी रोकने को कहा। पुनीत ने बताया कि उन्हें पहले लगा कि उन्होंने गलती से सिग्नल तोड़ दिया है। लेकिन पुलिस ने उन्हें बताया कि उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया गया है। उन्हें बताया गया कि पुनीत इस्सर, जिन्होंने दुर्योधन की भूमिका निभाई थी, गूफी पेंटल, जो शकुनि मामा बने थे, परामर्शदाता कवि व गीतकार नरेंद्र शर्मा, पटकथा लेखक राही मासूम रजा तथा निर्माता बी आर चोपड़ा के खिलाफ चीरहरण सीन की वजह से केस दर्ज हुआ है। यह सुन सभी शॉक्ड हो गए थे। 

क्या उस सनकी आदमी को सजा नहीं मिलनी चाहिए थी जिसने सिर्फ अपनी खब्त के कारण बेवजह लोगों को परेशान किया ? क्या कोर्ट में बेबुनियाद, काल्पनिक, सच्चाई से कोसों दूर के मामलों पर मुकदमा दायर किया जा सकता है ? क्या किसी भी मुकदमे को बिना देखे-सुने, जांचे-परखे, बिना उसकी अहमियत जाने दाखिल कर लिया जाता है 

पुनीत ने आगे बताया कि बीआर चोपड़ा ने फिर वकील हायर किया ! दौड़-धूप की गई ! किसी तरह मामला निपटा दिया गया ! लेकिन फिर 28 साल बाद, उसी केस पर, दोबारा उन्हीं लोगों को फिर समन भेजा गया ! इस बीच काफी समय बीत चुका था ! बी. आर. चोपड़ा, रवि चोपड़ा, नरेंद्र शर्मा, राही मासूम रजा अब हमारे बीच नहीं रहे थे ! फिर भी जवाब तो देना ही था ! इसलिए पुनीत तथा गूफी पेंटल जी ने फिर एक वकील को मामला सौंपा ! केस के लिए जब वे बनारस गए तो जिस आदमी की शिकायत पर केस हुआ था, उसने कहा कि उसे हमारे साथ सिर्फ फोटो खिंचवानी थी इसलिए उसने ऐसा किया ! इस पर इन लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी यह पुनीत ने नहीं बताया। उन्होंने इस बात का खुलासा भी नहीं किया कि यह मुकदमा किसी आम आदमी ने किया था कि सीधे किसी वकील ने ! जिसने भी किया हो उस पर अदालत द्वारा कार्रवाई तो होनी ही चाहिए थी ! 

पर सवाल यह उठता है कि क्या उस सनकी आदमी को सजा नहीं मिलनी चाहिए थी जिसने सिर्फ अपनी खब्त के कारण बेवजह लोगों को परेशान किया ? क्या कोर्ट में बेबुनियाद, काल्पनिक, सच्चाई से कोसों दूर के मामलों पर मुकदमा दायर किया जा सकता है ? क्या किसी भी मुकदमे को बिना देखे-सुने, जांचे-परखे, बिना उसकी अहमियत जाने दाखिल कर लिया जाता है ? लगता तो ऐसा ही है कि सब कुछ लकीर के फ़क़ीर की तरह ही चलता है, विवेक का बिलकुल सहारा नहीं लिया जाता ! क्योंकि यदि ऐसा होता तो क्या हजारों साल पुराने ग्रंथ, जिसकी कथा निर्विवाद रूप से सर्वोपरि है, में वर्णित किसी घटना को मंचित करने वालों को दोषी करार दिया जाता ? वैसे भी यदि किसी कानून की रक्षा हेतु यह कदम उठाया गया था तो महर्षि वेदव्यास और गणेश जी को भी समन जारी कर देना था ! पढ़ने-सुनने में बात भले ही मजाकिया लगे, पर इसका असर या प्रभाव सोचनीय और दूरगामी है।  

हमारे कोर्ट-कचहरियों में जो लाखों केस, सालों-साल से यूं ही धूल खाते, फैसले की उम्मीद में पड़े हैं, उनमें हजारों-हजार मामले ऐसे ही बेतुके, बेबुनियाद, बेमतलब के भी दर्ज हैं ! आए दिन इस पर संज्ञान जरूर लिया जाना चाहिए ! इस क्षेत्र के विद्वान, गुणी, जानकार लोगों के साथ-साथ सरकार के विधि मंत्रालय को भी इस पर कदम उठाने चाहिए, जिससे सनकी, गैर-जिम्मेदार, अविवेकी वकीलों और उनके अहम पर भी अंकुश लग सके और न्याय प्रणाली मखौल बन कर ना रह जाए।  

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