बुधवार, 8 सितंबर 2010

माने या ना माने पर यह सच ! ! !

विश्वास क्या है और अंधविश्वास क्या है इसके झमेले में नहीं पड़ें तो अच्छा। अरे भाई जिसकी जैसी मर्जी उसे वैसे जीने दो। बड़े-बड़े संत, महात्मा, अवतार आ-आ कर चले गये। समझाते-समझाते सदियां बीत गयीं पर क्या सोच बदली? पर आज भी किसी के विश्वास को अंधविश्वास बता या किसी को दकियानूसी कहने का प्रचलन खत्म नहीं हो पाया है। दोनो पक्ष जुटे हुए हैं एक दूसरे की ऐसी की तैसी करने में। हमें क्या लगे रहो। आज एक ऐसी घटना का जिक्र कर रहा हूं जिसके प्रत्यक्षदर्शियों से तो मुलाकात नहीं हो सकी पर सुने हुए को सुनाने वाले बहुत मिले। अब यह आप पर है कि इस सारी घटना को आप सच माने या फिर तार्किकता के तराजू पर तौलते रहें।

बात किसी पिछड़े प्रदेश की ना हो कर बंगाल की है। उत्तर 24परगना के कांकीनाड़ा, दक्षिण वाला काकीनाड़ा नहीं, कस्बे में विभूति नाम का एक आदमी रहा करता था। परिवार के नाम पर सिर्फ दो ही प्राणी थे, विभूति और उसकी पत्नी तारा। विभूति सम्पन्न था। भगवान की दया से किसी चीज की कमी नहीं थी, सिवाय औलाद के। बहुतेरे इलाज, टोने-टोटके, झाड़-फूंक के बावजूद घर में बच्चे की किलकारी नहीं गूंज पाई थी। उम्र के साथ-साथ दोनों की हताशा भी बढती जाती थी। यही दिन थे त्योहारों का समय शुरु होने वाला था कि एक दिन शक्तिपीठ से घूमते-घूमते एक सन्यासी कांकीनाड़ा आ पहुंचे। दैवयोग से उनका ठहरना भी विभूति के यहां ही हुआ। सारी दिनचर्या स्वाभाविक, सरल तरीके से होने के बावजूद साधू महाराज ने दम्पत्ति की उदासी को भांप लिया। कुरेदने पर विभूति के सब्र का बांध टूट गया और उसने अपने दुख को साधू के सामने खोल कर रख दिया। उन्होंने कुछ सोचा फिर ध्यान लगाया और कुछ देर बाद बोले, तुम्हारे दुख का निवारण हो सकता है पर तुम्हें थोड़ा प्रयास करना होगा। विभूति तो कुछ भी करने को तैया था। उसने हां की तो साधू ने बताया कि बंगाल-बिहार की सीमा पर रेल की हावड़ा दिल्ली मेन लाइन पर झाझा नामक एक जगह है। उसके रेल्वे स्टेशन से लगी हुई एक भगवा रंग लिए हुए लाल रंग की पहाड़ी है। उस की चोटी पर मनोकामना देवी का मंदिर है। उस मंदिर में तुम्हें अखंड़ ज्योति जलानी होगी। तुम जाकर दीपक जला किसी को उसका ध्यान रखने का भार सौंप कर आ सकते हो। प्रभू ने चाहा तो तुम्हारी इच्छा जरूर पूरी होगी। इतना कह साधू महाराज अपनी यात्रा पर आगे बढ गये। विभूति को कहां चैन था दूसरे दिन ही वह अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गया और दीपक जला उसकी देखभाल का जिम्मा पुजारी को सौंप कर वापस आ गया। भगवान की अद्भुत माया, सालों से विरान उसके घर में अगले साल ही पुत्र रत्न का जन्म हो गया।

समय बीतता गया। तीन साल कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। अचानक एक दिन वही सन्यासी बाबा फिर विभूति के घर आ पहुंचे। तारा ने खुशी-खुशी उनका स्वागत किया। सारा घर बच्चों की किलकारियों से गूंज रहा था। तारा भी बहुत खुश नजर आ रही थी। साधू महाराज ने चारों ओर नजर दौड़ाई पर विभूति कहीं नजर नहीं आ रहा था। उन्होंने तारा से उसके बारे में पूछा तो उसने कुछ झिझकते हुए कहा, महाराज आपके आशिर्वाद से पहले साल हमें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। फिर दूसरे साल जुड़वां बच्चों ने जन्म लिया। तीसरे साल जब एक साथ तीन बच्चे हमारी गोद में आये तो हम दोनों को कुछ चिंता और घबड़ाहट हो गयी। इसीलिए विभूति उस जलती ज्योति को ठंड़ा करने गये हैं।

6 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

पढ़ ली है और कसौटी पर बाद में तौलूँगा ... बढ़िया सर

anshumala ने कहा…

sach hai ya jhuth pata nahi par kahani majedar hai achchha huaa ki wo diye ko bujhane chale gaye

राज भाटिय़ा ने कहा…

अरे यह आदमी पागल था, नस बंदी करवा लेता ना:) कहानी सच हो या झुठ हमे भरपुर मजा आया जी

ASHOK BAJAJ ने कहा…

प्रशंसनीय पोस्ट !

पोला की बधाई .

arvind ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

मजेदार कहानी

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