कभी बेंगलूर, कभी दिल्ली, कभी हवाई जहाज, कभी बस, कभी रेल !
वही वहशत, वही दरिंदगी, वही हैवानियत, वही बेगुनाहों की लाशें, वही मौत का नंगा नाच। वही आंकड़ों का जमा -खर्च । वही नेताओं के रटे-रटाए जुमले। वही दी जाने वाली धन राशि का ऐलान।
वही वहशत, वही दरिंदगी, वही हैवानियत, वही बेगुनाहों की लाशें, वही मौत का नंगा नाच। वही आंकड़ों का जमा -खर्च । वही नेताओं के रटे-रटाए जुमले। वही दी जाने वाली धन राशि का ऐलान।
जो मरे और जो सैकडों की तादाद मे घायल हुये, क्या कसूर था उनका। कभी पलट कर कोई उनकी सुध नहीं लेता। कोई नहीं पूछता कि किस खता की सजा उन्हें दी गयी। हां अपनी दुकान चमकाने बरसाती मेढकों की तरह कुछ जाने कुछ अनजाने चेहरे जरूर इर्द-गिर् मंड़राने लग जाते हैं कैमरों के सामने। जिन्होने यह सब किया वे तो जो हैं वो तो दुनिया जानती है। पर दुनिया जो शायद नहीं जानती वो यह है कि हम संवेदनहीन हो गये हैं। कोई व्याधि हमें नहीं व्याप्ति। हमारा विरोध सिर्फ़ चैनल बदल-बदल कर और ज्यादा रोमांचक दृश्य देखने तथा मुंह से अफ़सोसजनक शब्द निकालने तक ही रह गया है। हम सब दो मिनट देख अफसोस के दो शब्द बोल, सरकार के सिर जिम्मेदारी मढ किसी और चैनल की तरफ बढ जाते हैं।
क्योंकि संवेदना खत्म हो चुकी है हमारे दिलों में !!
5 टिप्पणियां:
संवेदनाओ ने दम तोड़ दिया है ज़नाब!
no, not at all
संवेदना थी ही नहीं , सहमत आपसे !
सही कह रहे हैं....अपनों के लिए नहीं बचीं ...गैरों की क्या बात करें ..
संवेदना नही मरी जी, अब हमारी संवेदना नाम, ओर पैसो के लिये जीवत है, हां हम मै इंसानियत वाली संवेदना,ओर एक इंसान मर चुका है,आप की बात से सहमत है जी
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