गुरुवार, 27 मई 2010

मेरे नीचे शेरों का शाह सोया हुआ है.

मैं शेरशाह सूरी का मकबरा हूं।

वही शेरशाह जिसके बचपन का नाम फरीद था पर जिसने युवावस्था में ही एक आदम खोर शेर को मार यह नाम हासिल किया था। वैसे भी वह शेरों का शेर था।   यह वही   शेरशाह था जिसने मुगल सल्तनत को झकझोर
कर रख दिया था। यह वही शेरशाह था जिसके ड़र के मारे हुमायूं को फारस भागना पड़ा था। सिर्फ पांच साल के शासन काल में ही उसने ऐसा कुछ कर दिया कि चाह कर भी इतिहासकार उसे नजरंदाज नहीं कर पाते हैं। पर मेरा यह मानना है कि उसे इतिहास के पन्नों में वह जगह नहीं मिली जिसका वह हकदार था।

अपने छोटे से शासन काल में उसने हिंदू-मुस्लिमों में कभी भेदभाव नहीं बरता। उसकी नजर में सच्चे मुसलमान का अर्थ था जिसमें ईमान कूट-कूट कर भरा हो। यही कारण था कि हुमायूं को हराने वाला कट्टर शत्रु होते हुए भी अकबर ने उसके सुझाए मार्ग पर  चल  कर  ही   भारत  में  मुगल साम्राज्य की नींव 
पुख्ता की. शेरशाह सदा अपने प्रजा जनों के हित में सोचा करता था।         तभी तो संभवत दुनिया में पहली बार करीब ढाई हजार मील लंबी सड़क का निर्माण उसके शासन काल में हुआ। सिर्फ सड़क ही नहीं बनाई उसके रख-रखाव का भी पुख्ता इंतजाम करवाया। सड़क के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाए, प्याऊ बनवाए तथा विश्राम के लिए सरायों का भी इंतजाम किया।

अब मैं अपने बारे में बताता हूं। मैं बिहार के सासाराम शहर के पश्चिमी भाग में एक झील के मध्य में स्थित हूं। मेरा निर्माण शेरशाह की मृत्यु के तीन महीने बाद उसके पुत्र इस्लाम शाह ने करवाया था। पर कहते हैं कि मेरा नक्शा खुद अपने जीवनकाल में शेरशाह ने तैयार कर लिया था। उसका प्रमाण भी है इस झील का निर्माण जो हिंदुओं के मंदिरों की परिकल्पना है और भवन मुस्लिम स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। शेरशाह वीर तो था ही कलाप्रेमी भी था। इसकी गवाह हैं मेरी बड़ी-बड़ी खिड़कियों में बनी नक्काशीदार जालियां जो विबिन्न आकारों और रूपों में बनाई गयी हैं। कभी पधार कर देखें कि उन्होंने मेरी शोभा में कैसे चार चांद लगा रखे हैं। मेरे अंदर शेरशाह की कब्र के अलावा चौबीस और कब्रें भी हैं जो उसके मित्रों और अधिकारियों की हैं। सभी पर कुरान की आयतें खुदी हुई हैं।

मेरा गोलाकार स्तूप, जो पांच सौ सालों से प्रकृति की मार झेलते हुए भी सर उठाए खड़ा है, ढाई सौ फुट चौड़ा और डेढ़ सौ फुट ऊंचा है। झील से मकबरे तक आने के लिए एक पुल बना हुआ है जिस पर पैर रखते ही आपके और मेरे बीच की दूरी खत्म हो जाती है। मकबरे में ऊपर जाने के लिए सीढियां बनी हुई हैं। मेरे आसपास का दृष्य भी बहुत मनमोहक है, हरियाली की भरमार है। मेरी देखरेख करने के लिए जो रक्षक है वही यहां सदा एक शमा जलाए रखता है और समय-समय पर नमाज अता करता है। वैसे आजकल मेरी पूरी जिम्मेदारी भारत सरकार ने संभाल रखी है।

कभी भी बिहार आने का मौका मिले तो शेरों के शाह को याद करने और उसकी निशानी के तौर पर मुझे देखने जरूर आईयेगा।

खुदा हाफिज।

5 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर जानकारी, हम ने स्कूल मै शेरा शाह सुरी के बारे पढा था.
धन्यवाद

माधव( Madhav) ने कहा…

i am from Ara but never got the chance to visit the said tomb, the Govt too has not make people aware about the said megastructure

माधव( Madhav) ने कहा…

पर अब जब भी मौका मिला , जरुर जाउंगा

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट, रोचक तरीके से जानकारी देने का धन्यवाद।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया जानकारी।आभार।

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