शुक्रवार, 7 मई 2010

गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर अभी जिंदा हैं, दैनिक भास्कर के अनुसार।

छोड़ो यार सब चलता है, क्या जरा सी बात का बतंगड़ बनाना, गल्तियां हो जाती हैं, जैसी नजर से देखें तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। पर यदि एक इतने बड़े अखबार को, जो अपने क्षेत्र में अग्रणी होने का दम भरता हो, मद्दे नजर रख देखें तो यह "ब्लंड़र" है।

आज शुक्रवार 7 तारीख के दैनिक भास्कर के पेज 8 पर अभिव्यक्ति शिर्षक के अंतर्गत स्व। श्री रवींद्रनाथ टैगोर का एक लेख छापा गया है जिसमें लेखक के परिचय में लिखा गया है :-

"लेखक नोबेल विजेता, भारतीय कवि, लेखक और चित्रकार हैं।"

भास्कर अपने जन्म से ही हमारे घर का सदस्य बन गया था। सारे परिवार को इसकी आदत पड़ गयी है। बहुतेरी बार तरह-तरह की स्कीमें ले कर और भी अखबारों ने दस्तकें दीं पर अपनी अच्छाईयों- बुराईयों, तिकड़मों, घोर व्यवसायिकता के रहते भी यह परिवार का अंग बना रहा है। पर कभी-कभी बहुत कोफ्त होती है जब लगता है कि इसे चलाने वालों का नजरिया सिर्फ लाभ और लाभ का है, लगता ही नहीं कि गल्तियों को सुधारने की कोशिश की जा रही है। वाक्यों में गल्तियां, व्याकरण में गल्तियां, कालम का कहीं भी आधी अधूरी बात कह खत्म हो जाना ( इसी अंक के खेल पृष्ठ में अंग्रेजों ने लांघी…...... देख लें), जबर्दस्ती ठूंसे गये अंग्रेजी शब्द चिड़चिड़ाहट तो पैदा कर देते हैं पर जैसे घर के बच्चे की उद्ड़ंता को नजरंदाज कर दिया जाता है वैसे ही आगे ठीक हो जाएगा सोच चुप बैठे रहते हैं।

पर रोज-रोज यदि ऐसा ही चलता रहा तो कभी ना कभी तो इसका खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

3 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

अद्भुत......... ईनाम लायक खबर.....

राज भाटिय़ा ने कहा…

शर्मा जी आप ने सही लिखा,, जब तक हम इन अखवार वालो को इन की ्गलतियो की तरफ़ ध्यान नही दिलायेगे यह मन मारी करते रहे गे.
धन्यवाद

anu ने कहा…

good info..I also enjoy reading the blog
http://rituondnet.blogspot.com/

विशिष्ट पोस्ट

ठेका, चाय की दुकान का

यह शै ऐसी है कि इसकी दुकान का नाम दूसरी आम दुकानों की तरह तो रखा नहीं जा सकता, इसलिए बड़े-बड़े अक्षरों में  ठेका देसी या अंग्रेजी शराब लिख उसक...