"गुरू ने अपनी सात फिट की म्यान से तीन फिट की तलवार निकाल शिष्य की गरदन पर रख दी "
पूराने समय में शिष्य आश्रमों में रह कर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। गुरू भी अपनी समस्त विद्यायें अपने होनहार विद्यार्थियों को सौंप उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर होने का पथप्रदर्शित कर संतोष का अनुभव करते थे। समय के साथ-साथ गुरू शिष्य के रिश्ते भी बदलते गये। कुछ 'होनहार' अपने को गुरू से भी ज्यादा अक्लमंद समझने लग गये। ऐसे ही एक शिष्य की यह कहानी है।
एक मठ में एक बहुत ही योग्य गुरूजी पूरे तन-मन से अपने शिष्यों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दिया करते थे। उनके यहां से शिक्षा प्राप्त युवकों को अनेक राज्यों में अच्छे पद प्राप्त हो जाते थे। उन्हीं के यहां सोमदत्त नाम का युवक शिक्षा ग्रहण किया करता था। वह काफी होनहार तथा मेधावी युवक था। गुरूजी भी उस पर विशेष ध्यान दिया करते थे। अपने लगाव के चलते उन्होंने उसे सर्वगुण संम्पन्न बना दिया। अब वह किसी भी तरह अपने गुरू से कम नहीं था। धीरे-धीरे उसमें घमंड ने स्थान बना लिया। उसे लगने लगा कि उम्र की ढलान पर खड़े गुरू से वह कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है। लोग नाहक ही गुरू को सम्मान देते हैं। इसी द्वेष के मारे उसने अपने गुरू को द्वंद युद्ध की चुन्नौती दे दी। गुरूजी ने इस चुन्नौती को स्वीकार कर एक महीने बाद का दिन निश्चित कर दिया।
सोमदत्त ने अपने गुरू को ललकार तो दिया था पर उसके मन के किसी कोने में यह डर था कि शायद गुरू ने उसे सारे दांव ना सिखाये हों, इसीलिये वह छिप कर एक दिन अपने गुरू को अभ्यास करते देखने आया। उसने पाया कि उसके गुरू सात फुट की तलवार से अभ्यास कर रहे हैं। यह देख उसने भी वापस आ सात फुट की तलवार से अभ्यास करना शुरू कर दिया। निश्चित दिन अपार जन समुह के बीच दोनो योद्धा अपने अस्त्रों के साथ मैदान में उतरे। दोनों के हाथों में सात-सात फुट की म्यानें थीं। डंके पर चोट पड़ते ही सोमदत्त ने अपनी सात फुटी तलवार निकालने की कोशिश की, पर तब तक गुरूजी ने अपनी सात फुट की म्यान से तीन फुट की तलवार निकाल सोमदत्त की गरदन पर टिका दी। गुरूजी की जयजयकार होने लगी। सोमदत्त शर्मिंदगी से जैसे भूमी में गड़ा जा रहा था।
पूराने समय में शिष्य आश्रमों में रह कर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। गुरू भी अपनी समस्त विद्यायें अपने होनहार विद्यार्थियों को सौंप उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर होने का पथप्रदर्शित कर संतोष का अनुभव करते थे। समय के साथ-साथ गुरू शिष्य के रिश्ते भी बदलते गये। कुछ 'होनहार' अपने को गुरू से भी ज्यादा अक्लमंद समझने लग गये। ऐसे ही एक शिष्य की यह कहानी है।
एक मठ में एक बहुत ही योग्य गुरूजी पूरे तन-मन से अपने शिष्यों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दिया करते थे। उनके यहां से शिक्षा प्राप्त युवकों को अनेक राज्यों में अच्छे पद प्राप्त हो जाते थे। उन्हीं के यहां सोमदत्त नाम का युवक शिक्षा ग्रहण किया करता था। वह काफी होनहार तथा मेधावी युवक था। गुरूजी भी उस पर विशेष ध्यान दिया करते थे। अपने लगाव के चलते उन्होंने उसे सर्वगुण संम्पन्न बना दिया। अब वह किसी भी तरह अपने गुरू से कम नहीं था। धीरे-धीरे उसमें घमंड ने स्थान बना लिया। उसे लगने लगा कि उम्र की ढलान पर खड़े गुरू से वह कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है। लोग नाहक ही गुरू को सम्मान देते हैं। इसी द्वेष के मारे उसने अपने गुरू को द्वंद युद्ध की चुन्नौती दे दी। गुरूजी ने इस चुन्नौती को स्वीकार कर एक महीने बाद का दिन निश्चित कर दिया।
सोमदत्त ने अपने गुरू को ललकार तो दिया था पर उसके मन के किसी कोने में यह डर था कि शायद गुरू ने उसे सारे दांव ना सिखाये हों, इसीलिये वह छिप कर एक दिन अपने गुरू को अभ्यास करते देखने आया। उसने पाया कि उसके गुरू सात फुट की तलवार से अभ्यास कर रहे हैं। यह देख उसने भी वापस आ सात फुट की तलवार से अभ्यास करना शुरू कर दिया। निश्चित दिन अपार जन समुह के बीच दोनो योद्धा अपने अस्त्रों के साथ मैदान में उतरे। दोनों के हाथों में सात-सात फुट की म्यानें थीं। डंके पर चोट पड़ते ही सोमदत्त ने अपनी सात फुटी तलवार निकालने की कोशिश की, पर तब तक गुरूजी ने अपनी सात फुट की म्यान से तीन फुट की तलवार निकाल सोमदत्त की गरदन पर टिका दी। गुरूजी की जयजयकार होने लगी। सोमदत्त शर्मिंदगी से जैसे भूमी में गड़ा जा रहा था।
10 टिप्पणियां:
प्रेरक कथा. गुरु तो गुरु ही रहेंगे!
सब गुर सिखाने वाला गुरू मूर्ख होता है- बिल्ली भी अपना एक गुर शेर को नहीं सिखाती और अपनी जान बचाने के लिए पेड़ पर चढ जाती है:)
बढ़िया और प्रेरक प्रसंग।
बधाई!
बहुत प्रेरक.
रामराम.
अरे वाह, क्या खूब गुरू थे.
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गुरु को मालूम रहता है की सोमदत्त जैसे लोग होते ही हैं. आप भी बड़े गुरु हैं. छुटपुट देते रहते हैं.
प्रेरक कथा...
shikshak hoon isliye badaa majaa aayaa, yah kahaanii padh kar.
tab tak chela chini nahi bana tha.
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