बुधवार, 22 जुलाई 2009

नक्सलबाड़ी, जहाँ से उठे आन्दोलन ने देश को हिला दिया, वहीं के लोग अब इस बारे में अंजान हैं.

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक दुर्गम क्षेत्र में बसा है, सशस्त्र क्रांति का उद्घोष करने वाला कस्बा "नक्सलबाड़ी"। यहीं से 1967 में जमिंदारों और उनके अत्याचारों के विरुद्ध एक आंदोलन शुरु हुआ था, जो आगे चल कर नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा। इसी से संबंध रखने वाले लोगों को नक्सलाइट का नाम मिला। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे, चारु मजुमदार, कनु सान्याल और जंगल संथाल। इन्होंने किसानों और मजदूरों को संगठित कर हथियार बंद दस्तों का रूप दिया। फिर शुरु हुआ जमिंदारी ज्यादतियों के विरुद्ध खूनी संघर्ष। किसानों ने जमीने हथियानी शुरु कर दीं। गलत तरीकों से बनाये गये रिकार्ड़ जला दिये गये। अन्यायी जमिंदारों को मौत के घाट उतार दिया गया। पहले तो सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पर एक दिन अचानक जब पेईचिंग रेडिओ ने इस आंदोलन का समर्थन कर दिया तो सरकार नींद से जागी। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नक्सलबाड़ी से नक्सलाईट शब्द का इजाद हो चुका था। कम्युनिस्ट देशों के नेता यहां के युवकों के आदर्श बन चुके थे। यहां का बच्चा-बच्चा लेनिन, स्टालिन और माओत्सेतुंग जैसे नेताओं को जानने लग गया था। इस बात का सबूत हैं नक्सलबाड़ी से लगे गांव 'बंगोईजोत' के खाली मैदान में लगी, लेनिन, स्टालिन, माओ और चारु मजुमदार की मुर्तियां। इसके आगे का इतिहास सभी जानते हैं।
आज नक्सलबाड़ी के ज्यादातर लोगों को इस इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है। देश के अन्य भागों में फैल चुके इस तथाकथित आंदोलन का नक्सलबाड़ी से अब कोई संबंध नहीं रह गया है। यहां का मुख्य धंधा अब तस्करी हो चला है। जो पड़ोसी देश नेपाल से निर्बाध रूप से चल रहा है। सरकार द्वारा उपेक्षित इस क्षेत्र में बेकारी, बेरोजगारी से त्रस्त युवकों के लिये तस्करी ही रोजी-रोटी कमाने का एक जरिया रह गया है। एक आकलन के अनुसार रोज करीब एक करोड़ रुपये का सामान अवैध रूप से यहां पहुंचता है।
सरकार चाहे कितना भी विकास का दावा कर ले पर आज भी इस क्षेत्र के बहुतेरे गांवों में ना सड़क पहुंच पायी है नहीं बिजली। दिन भर में इसके तीन ईंची ऊंचे स्टेशन पर सिर्फ एक रेल गाड़ी आती है। जो यात्रियों को कम तस्करी का सामान ज्यादा ढोती है। ऐसी परिस्थितियों में कोई करे भी तो क्या ? तो यहां जिसे जैसा सूझ रहा है वैसे ही अपनी जिंदगी की गाड़ी को खींचने में लगा हुआ है। पेट की आग के सामने कोई आदर्श या उपदेश नहीं टिक पाता।

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"सरकार चाहे कितना भी विकास का दावा कर ले पर आज भी इस क्षेत्र के बहुतेरे गांवों में ना सड़क पहुंच पायी है नहीं बिजली। दिन भर में इसके तीन ईंची ऊंचे स्टेशन पर सिर्फ एक रेल गाड़ी आती है। जो यात्रियों को कम तस्करी का सामान ज्यादा ढोती है। ऐसी परिस्थितियों में कोई करे भी तो क्या ? तो यहां जिसे जैसा सूझ रहा है वैसे ही अपनी जिंदगी की गाड़ी को खींचने में लगा हुआ है। पेट की आग के सामने कोई आदर्श या उपदेश नहीं टिक पाता।"

अत्यन्त शोचनीच।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

किस जगह का आम आदमी किसी तथाकथित राजनीतिक आंदोलन से जुडा है? यह तो नेता लोगों का करम है जो हवा देते हैं:)

शरद कोकास ने कहा…

इतिहास से जुडी यह जानकारी देने के लिये धन्यवाद

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

अब तो एक ही वाद है, सत्तावाद जैसे भी मिले सत्ता मिले.

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

अच्छी याद दिलाई आपने उस दौर की १९६७ से १९७१ यानि सिद्धार्थ शंकर रे के चीफ़ मिनिस्टर बनने तक का दौर मेरा स्कूल से कालेज पहुंचने का रहा. उस दौर की भयानक यादें अभी भी ताजा हैं. अशोककुमार नाईट का मैं चश्मदीद हूं और उस समय क्या माहोल था? और उसी माहोल के चलते हमने कलकता छोडा था.

अब सवाल यह है कि उस समय के खतरनाक हालात पर सरकार ने काबू पा लिया था. यह उस सरकार की दृढ इच्छाशक्ति का परिणाम था. तो क्या अब इस समस्या पर काबू नही पाया जा सकता? क्या ये सरकारॊं की ढुल्मुल नीती का परिणाम नही है?

रामराम.

Unknown ने कहा…

कृपया मुझे भी पढ़े व अच्छा लगे तो follow करे मेरा blog है ।। againindian.blogspot.com

Unknown ने कहा…

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