आज कल नदियों के घाटों की महत्ता ना के बराबर रह गयी है। दिन त्यौहार छोड़ लोग वहां जाने से कतराने लगे हैं। ऐसे समय में भी एक घाट ऐसा है जो अपनी शरण में आने वाले को दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की बख्शता है। वह घाट है राजनीति का। यहां बहने वाला जल रूपी 'कनक' अपने आश्रित की पीढियां तारने की क्षमता रखता है वह भी इसी जन्म में। बस एक बार यहां आना ही बहुत है।
यहां किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है। कोई कैसा भी अनपढ गंवार हो, चोर-डकैत हो, किसी भी समुदाय का हो यहां कोई फर्क नहीं किया जाता। एक बार यहां डुबकी लगाते ही वह आम आदमी से ऊपर उठ जाता है। उसे अपनी महत्ता समझ आ जाती है। गीता का अर्थ वह सही मायनों में पा लेता है कि ना कोई भाई है ना बहन, ना मां है ना बाप, ना सगा है ना सम्बन्धी। सब माया है।
जिंदगी भर धर्म की ऐसी की तैसी करने वाला भी धर्म निरपेक्षता का परचम लहराने लगता है। पचासों लोगों को यमपुरी का रास्ता दिखाने वाला भी मानवाधिकारों का पोषक बन जाता है। कभी दो जून की रोटी का जुगाड़ ना कर सकने वाला भी यहां ड़ुबकी लगा इंसान का भोजन तो क्या दुनिया भर के सारे अखाद्य पदार्थों को हजम करने की क्षमता हासिल कर लेता है। इस घाट की यह विषेशता है कि यहां पूर्ण मनोयोग से अपने तन मन को ड़ुबो देने वाला अपने से बुजुर्गों को भी अपनी चरण वंदना करने के लिये मजबूर कर सकता है। यहां आने वाले किशोर व किशोरियां बाबा और अम्मा का संबोधन पा अपने अग्रजों के कान कतरने की क्षमता पा जाते हैं। इसके अलावा इस घाट की सबसे बड़ी विषेशता यह है कि यहां डूब कर पानी पीने वाला चाहे कितना बड़ा भ्रष्टाचारी हो, उसकी आत्मा पवित्र और निर्मल हो जाती है। उसे संसार का कोई दुख, कष्ट, विद्वेष नहीं व्यापता। उसे अलौकिक शक्तियां उपलब्ध हो जाती हैं। यदि द्वेष वश किसी बुद्धिहीन दुनियादार के कारण उसे कारागार के अंदर जाना भी पड़े तो इस घाट की महत्ता से वहां भी उसे पंचतारा सुविधायें उपलब्ध हो जाती हैं। यही नहीं वहां से निकलते ही उसका 'ओरा' यानि आभा मंडल और भी ज्योतिर्मय हो उठता है। एक कहावत है कि जिसने चंबल नदी का पानी पी लिया वह बागी हो जाता है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है पर यह बात तो सोलह आना, राई-रत्ती सच है कि जिसने इस राजनीति के घाट पर डुबकी लगा ली उसके लिये इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता है। हां यह अलग बात है कि पहले तो यहां आना और फिर ड़ुबकी लगाना सबके वश की बात नहीं है। उसके लिये भी एक खास तरह के जिगरे की जरुरत होती है। शुक्र है भगवान का जो ऐसा जिगरा सब को नहीं देता।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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9 टिप्पणियां:
राजनीति का घाट होता ही ऐसा है।
जिसकी उपेक्षा की ही नही जा सकती।
यहाँ न्हाने-धोने की सब अपेक्षा रखते हैं।
बढ़िया व्यंग्य।
जय हो!!
इस घाट तक पहुंचते भी वही पुण्यवान हैं जिन्होने घाट-घाट का पानी पिया होता है।
एकदम सटीक!!
एकदम सटीक |
बिलकुल ठीक कह रहे हैं.
एक दम सही कह रहे है आप,
इसीलिये समझदारों ने कहा है कि सब घाटों को टटोलते रहना चाहिये.
रामराम.
बिलकुल सटीक आलेख है मगर अब तो स्थिति ऐसी हो चली है कि सब घट की ओरे भाग रहे हैं और एक दूसरे को चम्बल मे धका दे कर घाट पर अपनी जगह बनानए लगे हैं---लगता है कि अब ये घाट के किनारे टूट कर चंबल मे बहने लगे हैं अब ईँट उठाओ तो नेता निकलता है अब तो इस घाट पर जाने वाले इन्सान नहीं मुर्दा लोग हैं
बहुत भीड़ हो गयी है अब इस घाट पर
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