अभी कुछ दिनों पहले ही एक खान-पान के एक संस्मरण को ब्लॉग पर उतारा था, अब उसी से संबंधित एक और वाकए ने ऊपरी माला ऐसा हथियाया है कि खाली करने को ही तैयार नहीं है ! हालांकि लगभग एक ही जैसे विषय पर दो रचनाएं किसी को ऊबा भी सकती हैं, पर मेरी मजबूरी है कि उसको मूर्त रूप नहीं दिया तो पता नहीं कब तक ऐसे ही दिमाग में चिपका रहेगा ! तो आज स्वांत: सुखाय के साथ-साथ रायपुर के आत्मीय जनों की खातिर ही सही........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
कभी-कभी यादों के झरोखों से अपना अतीत दिखने लग जाता है और फिर वह दिमाग में उतर जम कर बैठ जाता है ! अभी कुछ दिनों पहले ही एक खान-पान के एक संस्मरण को ब्लॉग पर उतारा था, अब उसी से संबंधित एक और वाकए ने ऊपरी माला ऐसा हथियाया है कि खाली करने को ही तैयार नहीं है ! हालांकि लगभग एक ही जैसे विषय पर दो रचनाएं किसी को ऊबा भी सकती हैं, पर मेरी मजबूरी है कि उसको मूर्त रूप नहीं दिया तो पता नहीं कब तक ऐसे ही दिमाग में चिपका रहेगा ! तो आज स्वांत: सुखाय के साथ-साथ रायपुर के आत्मीय जनों की खातिर ही सही !
बात तब की है जब ग्रहों के षड्यंत्र के चलते अस्सी के दशक में हमारा सारा परिवार, तब के मध्य प्रदेश के रायपुर शहर में जा बसा था ! मेरी बुआ जी का सालों से वहां स्थाई निवास था ! देश के विभिन्न शहरों में बसे हमारे परिवारों में से दो उस समय एक जगह हुए थे ! एक नवंबर 2000 में उसी रायपुर को छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी बना दिया गया ! उन दिनों रायपुर एक सुस्त, कस्बाई शहर हुआ करता था ! दुकानें, बाजार दोपहर को बंद हो जाते थे और फिर शाम को चार बजे के आस-पास खुला करते थे ! बड़े शहरों की तरह भीड़-भड़क्का, आपा-धापी कुछ नहीं ! अपनी मंथर गति से चलता हुआ एक शांत, उनींदा सा, तालाबों का नगर ! पर राजधानी बनने के बाद पूरी तरह से इसका कायापलट हो चुका है ! चंडीगढ़, भुनेश्वर की तरह पूरी तरह व्यवस्थित नया रायपुर देश के कई शहरों के लिए मॉडल सिद्ध हो सकता है ! कई मायनों में तो दिल्ली तक को भी मात दे रहा है यह शहर !
उस समय मालवीय रोड़ मुख्य बाजार हुआ करता था ! छोटी-बड़ी जरुरत की वस्तुएं वहां उपलब्ध रहती थीं। उसी को केंद्र बना बाकी के छोटे-छोटे बाजार, दफ्तर, डाकघर, कुछ सिनेमा घर, बैंक, वगैरह उसके आस-पास ही स्थित थे ! वही इलाका सिटी कहलाता था ! वहां के आराम तलब लोगों की मनोदशा यह थी कि यदि कोई भला आदमी अपना काम निपटा, सिर्फ दो-एक किमी दूर अपने घर वापस आ जाता था और कहीं बाई चांस, कभी-कभार, भूले-भटके, शहर संबंधित किसी चीज की जरुरत पड़ जाती थी तो जाने उस पर आफत आन पड़ती थी ! अरे ! फिर सिटी जाना पड़ेगा...!'' दिल्ली-कलकत्ता से हम जैसे वहां पहुंचे लोगों को, जिनका पहले रोज करीब पचास से ऊपर का सफर हो जाता था, यह सुन बड़ा अजीब सा महसूस किया करते थे !
तो बात हो रही थी हमारे विस्थापन की ! हमारा ठिकाना बना था, न्यू शांति नगर ! तो एक बार ठंड के दिनों में ऐसे ही विभिन्न खाद्य पदार्थों की रायपुर में उपलब्धि पर चर्चा में मकई का आटा भी आ फंसा ! उन दिनों किराने की सबसे नामी दूकान घनश्याम प्रोविजन स्टोर हुआ करती थी, जो मोती बाग के पास चौराहे पर, मालवीय रोड़ से फर्लांग भर दूर स्थित थी। बताया गया कि और कहीं मिले ना मिले वहाँ जरूर मिल जाएगा!मैंने अपना स्कूटर उठाया और पहुँच गए घनश्याम किराना भंडार ! दस मिनट भी तो नहीं लगते थे !
वह विलक्षण वस्तु वहाँ तो ना मिली, पर एक नई जानकारी का इजाफा जरूर हुआ ! घनश्याम जी ने कहा कि सर आज तो यह मेरे पास नहीं है, पर अगली बार जब आप आओगे तो यह आटा यहां जरूर मिलेगा ! मैंने जिज्ञासावश पूछ कि ऐसा क्यों ? उन्होंने कहा कि अभी तक इसकी डिमांड नहीं आई थी। अब आपने चाहा है तो मैं जरूर रखूँगा क्योंकि मेरा उसूल है कि ग्राहक कभी भी बिना सामान लिए वापस नहीं जाना चाहिए ! तभी मुझे समझ आया कि सिंधी समाज व्यापार में इतना आगे क्यों है ! उन्होंने ही मुझे बताया कि बांसटाल में कृष्णा आटा चक्की पर यह आपको मिल जाएगा, पर अगली बार आप मुझसे ही लें ! प्रसंगवश बता दूँ कि दो-तीन साल में ही उनकी दूकान से मौसम पर चार से पांच बोरी मक्के का आटा बिकना शुरू हो गया था ! हम जब भी मिलते थे तो इस बात का जिक्र वे वहाँ उपस्थित सभी लोगों से किया करते थे कि शर्मा जी के कारण ये चीज मैंने रखनी शुरू की है ! इसीलिए मुझे तनिक गुमान सा है कि रायपुर में इस व्यंजन को लोकप्रिय बनाने में मेरा भी कुछ योगदान तो जरूर है !
मकई के आटे के साथ वहाँ सरसों के साग की उपलब्धि की बात भी कर ली जाए ! तो लगे हाथ बता दूँ कि छत्तीसगढ़ में इस तरह के पत्तेदार साग को भाजी कहते हैं, जैसे पालक भाजी, मेथी भाजी, चना भाजी इत्यादि ! वहाँ के सबसे बड़े सब्जी बाजार, जिसे शास्त्री मार्किट (अंग्रजी भाषा के शब्द छत्तीसगढ़ी में बिलकुल दूध में पानी की तरह घुल-मिल गए हैं) में भी यह ''महोदया'' कभी-कभार ही मिलती थीं ! पर शंकर नगर के पास टाटीबंध के इलाके में सुबह लगने वाले बाजार में, जहां छोटे खेतिहर अपना उत्पाद खुद ही ले कर आते थे, इनकी उपलब्धि बनी रहती थी !
सरसों के पत्ते |
दो किलो !
........इतना क्या करोगे ?''
खाएंगे''
इत्ता सारा ?''
तब तक माजरा हमें समझ में आ गया था, सो बात खत्म करने के लिए कह दिया कि -
अम्मा ! भोज है, बहुत सारे लोग आएँगे''
सब्जी वाली अम्मा को पता नहीं हमारी बात पर कितना यकीन हुआ पर उन्होंने उस छोटी सी बजरिया में अपने साथियों को फरमान भेज दिया ! जिसके पास जितनी सरसों भाजी थी, सब लेकर हमारे इर्द-गिर्द जमा हो गए ! पर सब मिला कर भी दो किलो नहीं बन पाया था ! कुछ विक्रेता, बहती गंगा देख, अपनी रकम-रकम की भाजियां हम पर थोपने का अवसर तलाशने लगे थे ! पर साग बिकने से ज्यादा उन सबको, उसे लेने वाले अजूबों को देखने की उत्सुकता थी ! हम एक तरह से तमाशाइयों से घिर गए थे, इसीलिए बिना मोल-भाव किए, साग की जितनी कीमत मांगी गई, दे कर, हम तुरंत वहाँ से निकल लिए !
आज के समय, जब देश-दुनिया की हर चीज हर जगह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, तो वह घटना कुछ अजीब सी लगती है ! कभी तो आश्चर्य भी होता है कि क्या सचमुच वैसा हुआ था ! पर जब भी वो वाकया याद आता है बरबस हंसी फूट पड़ती है !