बुधवार, 28 अगस्त 2024

जब क्लास ले ली सब्जी वाली अम्मा ने ! किस्सा-ए-रायपुर

अभी कुछ दिनों पहले ही एक खान-पान के एक संस्मरण को ब्लॉग पर उतारा था, अब उसी से संबंधित एक और वाकए ने ऊपरी माला ऐसा हथियाया है कि खाली करने को ही तैयार नहीं है ! हालांकि लगभग एक ही जैसे विषय पर दो रचनाएं किसी को ऊबा भी सकती हैं, पर मेरी मजबूरी है कि उसको मूर्त रूप नहीं दिया तो पता नहीं कब तक ऐसे ही दिमाग में चिपका रहेगा ! तो आज स्वांत: सुखाय के साथ-साथ रायपुर के आत्मीय जनों की खातिर ही सही........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कभी-कभी यादों के झरोखों से अपना अतीत दिखने लग जाता है और फिर वह दिमाग में उतर जम कर बैठ जाता है ! अभी कुछ दिनों पहले ही एक खान-पान के एक संस्मरण को ब्लॉग पर उतारा था, अब उसी से संबंधित एक और वाकए ने ऊपरी माला ऐसा हथियाया है कि खाली करने को ही तैयार नहीं है ! हालांकि लगभग एक ही जैसे विषय पर दो रचनाएं किसी को ऊबा भी सकती हैं, पर मेरी मजबूरी है कि उसको मूर्त रूप नहीं दिया तो पता नहीं कब तक ऐसे ही दिमाग में चिपका रहेगा ! तो आज स्वांत: सुखाय के साथ-साथ रायपुर के आत्मीय जनों की खातिर ही सही !    

बात तब की है जब ग्रहों के षड्यंत्र के चलते अस्सी के दशक में हमारा सारा परिवार, तब के मध्य प्रदेश के रायपुर शहर में जा बसा था ! मेरी बुआ जी का सालों से वहां स्थाई निवास था ! देश के विभिन्न शहरों में बसे हमारे परिवारों में से दो उस समय एक जगह हुए थे ! एक नवंबर 2000 में उसी रायपुर को छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी बना दिया गया ! उन दिनों रायपुर एक सुस्त, कस्बाई शहर हुआ करता था ! दुकानें, बाजार दोपहर को बंद हो जाते थे और फिर शाम को चार बजे के आस-पास खुला करते थे ! बड़े शहरों की तरह भीड़-भड़क्का, आपा-धापी कुछ नहीं ! अपनी मंथर गति से चलता हुआ एक शांत, उनींदा सा, तालाबों का नगर ! पर राजधानी बनने के बाद पूरी तरह से इसका कायापलट हो चुका है ! चंडीगढ़, भुनेश्वर की तरह पूरी तरह व्यवस्थित नया रायपुर देश के कई शहरों के लिए मॉडल सिद्ध हो सकता है ! कई मायनों में तो दिल्ली तक को भी मात दे रहा है यह शहर !

उस समय मालवीय रोड़ मुख्य बाजार हुआ करता था ! छोटी-बड़ी जरुरत की वस्तुएं वहां उपलब्ध रहती थीं। उसी को केंद्र बना बाकी के छोटे-छोटे बाजार, दफ्तर, डाकघर, कुछ सिनेमा घर, बैंक, वगैरह उसके आस-पास ही स्थित थे ! वही इलाका सिटी कहलाता था ! वहां के आराम तलब लोगों की मनोदशा यह थी कि यदि कोई भला आदमी अपना काम निपटा, सिर्फ दो-एक किमी दूर अपने घर वापस आ जाता था और कहीं बाई चांस, कभी-कभार, भूले-भटके, शहर संबंधित किसी चीज की जरुरत पड़ जाती थी तो जाने उस पर आफत आन पड़ती थी ! अरे ! फिर सिटी जाना पड़ेगा...!'' दिल्ली-कलकत्ता से हम जैसे वहां पहुंचे लोगों को, जिनका पहले रोज करीब पचास से ऊपर का सफर हो जाता था, यह सुन बड़ा अजीब सा महसूस किया करते थे ! 

तो बात हो रही थी हमारे विस्थापन की ! हमारा ठिकाना बना था, न्यू शांति नगर ! तो एक बार ठंड के दिनों में ऐसे ही विभिन्न खाद्य पदार्थों की रायपुर में उपलब्धि पर चर्चा में मकई का आटा भी आ फंसा ! उन दिनों किराने की सबसे नामी दूकान घनश्याम प्रोविजन स्टोर हुआ करती थी, जो मोती बाग के पास चौराहे पर, मालवीय रोड़ से फर्लांग भर दूर स्थित थी। बताया गया कि और कहीं मिले ना मिले वहाँ जरूर मिल जाएगा!मैंने अपना स्कूटर उठाया और पहुँच गए घनश्याम किराना भंडार ! दस मिनट भी तो नहीं लगते थे ! 

वह विलक्षण वस्तु वहाँ तो ना मिली, पर एक नई जानकारी का इजाफा जरूर हुआ ! घनश्याम जी ने कहा कि सर आज तो यह मेरे पास नहीं है, पर अगली बार जब आप आओगे तो यह आटा यहां जरूर मिलेगा ! मैंने जिज्ञासावश पूछ कि ऐसा क्यों ? उन्होंने कहा कि अभी तक इसकी डिमांड नहीं आई थी। अब आपने चाहा है तो मैं जरूर रखूँगा क्योंकि मेरा उसूल है कि ग्राहक कभी भी बिना सामान लिए वापस नहीं जाना चाहिए ! तभी मुझे समझ आया कि सिंधी समाज व्यापार में इतना आगे क्यों है ! उन्होंने ही मुझे बताया कि बांसटाल में कृष्णा आटा चक्की पर यह आपको मिल जाएगा, पर अगली बार आप मुझसे ही लें ! प्रसंगवश बता दूँ कि दो-तीन साल में ही उनकी दूकान से मौसम पर चार से पांच बोरी मक्के का आटा बिकना शुरू हो गया था ! हम जब भी मिलते थे तो इस बात का जिक्र वे वहाँ उपस्थित सभी लोगों से किया करते थे कि शर्मा जी के कारण ये चीज मैंने रखनी शुरू की है ! इसीलिए मुझे तनिक गुमान सा है कि रायपुर में इस व्यंजन को लोकप्रिय बनाने में मेरा भी कुछ योगदान तो जरूर है !  

मकई के आटे के साथ वहाँ सरसों के साग की उपलब्धि की बात भी कर ली जाए ! तो लगे हाथ बता दूँ कि छत्तीसगढ़ में इस तरह के पत्तेदार साग को भाजी कहते हैं, जैसे पालक भाजी, मेथी भाजी, चना भाजी इत्यादि ! वहाँ के सबसे बड़े सब्जी बाजार, जिसे शास्त्री मार्किट (अंग्रजी भाषा के शब्द छत्तीसगढ़ी में बिलकुल दूध में पानी की तरह घुल-मिल गए हैं) में भी यह ''महोदया'' कभी-कभार ही मिलती थीं ! पर शंकर नगर के पास टाटीबंध के इलाके में सुबह लगने वाले बाजार में, जहां छोटे खेतिहर अपना उत्पाद खुद ही ले कर आते थे, इनकी उपलब्धि बनी रहती थी ! 

सरसों के पत्ते 
तो एक दिन अपने सहोदर के साथ पहुँच गए टाटीबंध ! तरह-तरह की हरी भाजियों को सजाए एक सब्जी विक्रेता महिला से पूछा कि सरसों भाजी है ? तो उसने छोटी बच्चियों की चोटियों की तरह की पांच गुच्छियां हमें पकड़ा दीं ! हमने कहा, अम्मा ! हमें दो किलो चाहिए ! यह सुनते ही उस महिला ने मुंह बाए, आश्चर्यचकित हो हमें ऐसे देखा जैसे हम किसी दूसरे ग्रह से उतरे हों ! छत्तीसगढ़ी भाषा में हमारी क्लास लग गई -

कितना चाहिए ?''

दो किलो !

........इतना क्या करोगे ?''                 

खाएंगे''

इत्ता सारा ?''

तब तक माजरा हमें समझ में आ गया था, सो बात खत्म करने के लिए कह दिया कि -

अम्मा ! भोज है, बहुत सारे लोग आएँगे''  

सब्जी वाली अम्मा को पता नहीं हमारी बात पर कितना यकीन हुआ पर उन्होंने उस छोटी सी बजरिया में अपने साथियों को फरमान भेज दिया ! जिसके पास जितनी सरसों भाजी थी, सब लेकर हमारे इर्द-गिर्द जमा हो गए ! पर सब मिला कर भी दो किलो नहीं बन पाया था ! कुछ विक्रेता, बहती गंगा देख, अपनी रकम-रकम की भाजियां हम पर थोपने का अवसर तलाशने लगे थे ! पर साग बिकने से ज्यादा उन सबको, उसे लेने वाले अजूबों को देखने की उत्सुकता थी ! हम एक तरह से तमाशाइयों से घिर गए थे, इसीलिए बिना मोल-भाव किए, साग की जितनी कीमत मांगी गई, दे कर, हम तुरंत वहाँ से निकल लिए ! 

आज के समय, जब देश-दुनिया की हर चीज हर जगह पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, तो वह घटना कुछ अजीब सी लगती है ! कभी तो आश्चर्य भी होता है कि क्या सचमुच वैसा हुआ था ! पर जब भी वो वाकया याद आता है बरबस हंसी फूट पड़ती है !

सोमवार, 12 अगस्त 2024

सरसों का साग, मक्के की रोटी के लिए तब कई पापड़ बेलने पड़ते थे

सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते !  सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं !  एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! कुछ ही देर में यह अड़ोस-पड़ोस के हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती.............! 

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आज बाजार ने हमें जितनी सहूलियतें प्रदान कर दी हैं उनके बारे में 20-25 साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था और इधर आज की पीढ़ी उस समय की होने वाली खरीद-फरोख्त का अंदाज भी नहीं लगा सकती है ! आज तो किसी भी चीज की इच्छा जाहिर कीजिए कुछ ही देर में वह दरवाजे पर हाजिर दिखेगी, पर पहले ऐसा नहीं होता था, तब अपनी इच्छित वस्तु को ढूंढ कर उस तक पहुंचना होता था ! पर उसका भी अपना एक अलग मजा और तसल्ली होती थी ! कभी-कभी वे दिन याद आ जाते हैं ! 

सरसों के पत्ते 
ऐसी ही एक स्मृति को आपके साथ साझा कर रहा हूँ ! बात है सत्तर के दशक की ! पिताजी कोलकाता, तब के कलकत्ता, से करीब 35 किमी दूर, नॉर्थ 24 परगना के एक उपनगर, भाटपारा में स्थित रिलांयस जूट मिल  (इस रिलांयस का उस रिलांयस से कोई भी संबंध कभी नहीं रहा) में कार्यरत थे ! वहां देश के हर हिस्से से आए लोग एक परिवार की तरह रहते थे। कोई भेद-भाव नहीं, जैसे सभी एक ही कुटुंब के सदस्य हों ! एक अजब ही माहौल हुआ करता था जो अखंड भारत की छवि प्रस्तुत करता था !
घर 
अपुन का परिवार ठहरा पंजाबी, सो कभी-कभी पंजाबियत जोर मार कर मक्की की रोटी की मांग कर ही देती थी ! पर सहज उपलब्ध ना होने के कारण, उसे पूरा करना तब उतना सरल नहीं था ! सरसों के साग का जुगाड़ कलकत्ते के सुदूर भवानीपुर इलाके के थोक सब्जी बाजार से करना पड़ता था और मक्की के आटे का इंतजाम खासतौर से अपने लिए मक्की के दानों को पिसवा कर किया जाता था ! मक्के का आटा उतना सर्वसुलभ नहीं होता था ! तो जब कभी इन व्यंजनों की इच्छा ज्यादा जोर मारने लगती, जो सिर्फ हमारे ही नहीं वहां के अधिकांश परिवारों की कामना होती थी, तो उसको फलीभूत करने के लिए मेरे मामाजी सामने आते ! जिनके साथ होता बालक रूपी मैं ! 
साग 
इस नेमत को, जिसके रसास्वादन के लिए कई-कई लोग इंतजार में रहते थे, पाने के लिए अच्छा-खासा उद्यम करना पड़ता था ! मिल के रिहाइशी क्षेत्र से रेलवे स्टेशन, जिसका नाम कांकिनाड़ा था (काकीनाडा नहीं), की दूरी करीब एक किमी होगी, जिसे मौके के अनुसार पैदल या रिक्शे से नापा जाता था ! स्टेशन से कलकत्ते का सियालदह स्टेशन करीब 35 किमी था, बीच में उस समय ग्यारह स्टेशन पड़ते थे ! इस दूरी को पार करने में लोकल ट्रेन तकरीबन घंटे भर का समय ले लेती थी। सियालदह के जन सैलाब को पार कर बाहर आ कर शहर के भवानीपुर इलाके के लिए बस ली जाती थी। फिर बस छोड़ सब्जी बाजार तक जाना पड़ता था। जहां से अपनी इच्छित मात्रा मुताबिक सरसों का साग मिल जाना भी एक उपलब्धि ही होती थी ! फिर उसी क्रम में वापसी होती थी फर्क सिर्फ इतना होता था कि बाजार से सियालदह तक का सफर बस की बजाय टैक्सी पूरा करवाती थी और स्टेशन से मिल के अंदर घर तक रिक्शा !
मौजां ई मौजां 
सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते ! सहायकों द्वारा साग के पत्तों की आवभगत रात तक हो जाती ! सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं ! उन दिनों अभी गैस आई नहीं थी सो एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! साग के अनुपात के अनुसार पता नहीं क्या-क्या और कुछ उसमें मिलाया जाता ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! बेसब्री से किया जा रहा इंतजार खत्म होता ! कुछ ही देर में यह हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती ! 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

जो कभी नहीं जाती, उसी को जाति कहते हैं

नहीं भईया जी ! आप गलत सोच लिए ! माँ कसम ! हमहूँ ऐसा करना नहीं चाहते थे ! सच तो ई है कि चाह कर भी अइसा नहीं कर पाते ! हमारा आत्मा हमें करने ही नहीं देता ! पर थोड़ा समय के लिए मन डगमगा गया था ! का है ना कि हमसे अपने पिताजी और माँ का हालत देखा नहीं जाता ! इस उमर में भी दिन-रात खटते हैं ! फिर भी ना खाना ढंग का मिलता है ना हीं रहना ! हमहूँ इधर कुछ ज्यादा नहीं कर पा रहे ! उनको कुछ हो गया तो हम अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे ! ऐ ही वास्ते मन बेचैन रहता है ! ऊही से थोड़ा भटक गए थे...........!

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आज बहुत दिनों बाद बिनोद आया था ! देखने से स्वस्यचित्त नजर आ रहा था ! पर हाव-भाव से कुछ ऐसा भी महसूस हो रहा था कि कुछ कहना चाह रहा है पर झिझक और संकोच उसे रोक रहे थे ! प्रसंगवश बतला दूँ कि बिनोद मूलतः झारखंड का निवासी है। पूरा नाम बिनोद कुमार झा है। स्नातक है। वर्षों से दिल्ली में आजीविका के लिए संघर्ष कर रहा है ! माँ-बाप गुमला, झारखंड, में रहते हैं ! थोड़ी-बहुत गुजारे लायक जमीन है।  बिनोद सात-आठ साल से मेरे संपर्क में है ! सीधा, सरल, नेक, अविवाहित युवक है ! मुझ से अपने हर मसले को साझा करता रहता है ! हमारे बीच एक अनजाना सा रिश्ता पनप गया है।  पर आज करीब आधे घंटे से मेरे पास बैठे रहने के बावजूद खुल नहीं पा रहा था ! मैंने ऐसे ही उसे कुरेदा,

क्या बात है, सब ठीक है ना ?"                       

हाँ भइया, सब वइसा ही चल रहा है''

पर तुम्हें देख, लग तो नहीं रहा !'' मैं मुस्कुराया, वह कुछ झेंप सा गया ! कुछ देर चुप रहा, फिर जैसे उसने अपने संकोच को परे धकेल दिया, बोला,

भइया जी, हम सोच रहे हैं कि अपना जाति बदल लिया जाए, एस टी या एस सी बन जाऊं ?''

मैं जैसे छत से गिरा ! हक्का-बक्का रह गया ! बोल क्या रहा है यह लड़का ! पगला क्या है क्या ?

क्या कह रहे हो ?''

भईया का है ना, उसमें बहुते तरह का फायदा रहता है ! तरह-तरह का सहूलियत मिलता है ! नौकरी भी लग जाता है ! ई, झा-वा में कुच्छो नहीं रखा !'' 

मुझे तो जैसे सांप सूँघ गया हो ! उसको कैसे समझाऊं, जब खुद ही कुछ नहीं समझ पा रहा था ! बिनोद जवाब के लिए मेरा मुंह जोह रहा था ! कुछ तो मुझे बोलना ही था......! किसी तरह कहा,

अरे ! ऐसा थोड़े ही होता है, यह कोई नाम या धर्म थोड़े ही है, जो जब चाहे बदल लिया ! जाति एक ऐसी व्यवस्था है जो हमारे यहां कर्म से नहीं जन्म से निर्धारित होती है। इसलिए कोई इंसान अपनी जाति कभी भी नहीं बदल सकता ! यदि ऐसा हो जाए तो पूरे समाज का ढांचा बिगड़ जाएगा ! अफरा-तफरी मच जाएगी ! वैसे यह गैर कानूनी भी है !''

पर भइया जी, हमारे जान-पहचान के एक नेता टाइप के मनई हैं, उनका राजनीती में बहुत चलता है ! बड़का-बड़का लोग से जान-पहचान है ! ऊ कह रहे थे, एक रास्ता है ! उससे सब मैनेज हो जाएगा ! थोड़ा खर्चा और समय लगेगा ! हम सोचे पहले भइया जी से पूछ लें, इसीलिए सलाह लेने आए थे !'' 

देखो, बिनोद ! मैं इतना जानता हूँ कि यह काम पूरी तरह से गैर कानूनी है ! पर इसके किसी लूप होल से यदि कोई ऐसा कर भी लेता है तो वह भी हर दृष्टि से गलत ही होगा ! इसलिए मेरी यही सलाह है कि ऐसे किसी पचड़े में मत पड़ना ! समय और पैसा दोनों बर्बाद कर दोगे ! जो भी तुम्हें ऐसा हो जाने का आश्वासन दे रहा है, वह गलत कर रहा है ! हमारे देश में किसी भी जाति में पैदा हुआ व्यक्ति कितनी ही कोशिश कर ले, अपने रहने की जगह बदल ले, नाम बदल ले या धर्म ही बदल ले, वह अपनी जाति से पीछा नहीं छुड़वा सकता।''

पर भईया जी, यदि कोई अपना धर्म बदल ले, तब तो उसका जाति खत्म ना हो जाता है ?'' 

क्या कहना चाहते हो ?''    

यही कि यदि हम धर्म बदल लें तो हमारा जाति ऑटोमेटेक्लि खत्म हो जाएगा और फिर हम अपना धर्म में वापस आ जाएं तो ?''

मैं समझ गया कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए इसको किसी ने पूरी पट्टी पढ़ा दी है ! अपना हित साधने के लिए इसे मोहरा बना रहा है ! इसलिए इस मामले की गंभीरता को देखते हुए उसको कहा, 

देखो बिनोद, किसी के बहकावे में मत आ जाना ! यह सब इतना सरल नहीं है ! हर धर्म में उसके कुछ अपने नियम और विभाग होते हैं ! वह एक अलग और गहन विषय है ! पर तुम इतना समझ लो कि यदि कोई इस तरह का उल्टा-सीधा रास्ता अख्तियार करता है, तो भी अपनी मन-मर्जी नहीं कर सकता ! यदि ऐसा कर वह किसी जाति विशेष को अपनाता है, तो पहले यह देखा जाएगा कि उस जाति के लोग उसे स्वीकार करते भी हैं कि नहीं ! दूसरा इस तरह जाति बदलने वाले को पहले खुद को उसी जाति का होने का प्रमाण भी देना पड़ता है ! ऐसे बहुत से केस हो चुके हैं और किसी को भी कानूनी तौर पर सफलता नहीं मिली है ! मैं फिर कहता हूँ कि इस पचड़े में मत पड़ो ! कोई जरुरी नहीं कि यह सब उटपटांग करने के बाद भी भाग्य तुम पर मेहरबान हो ही जाएगा !''

ठिक्के कह रहे हैं आप ! ई सब यदि एतना ही सहज होता तो कोई भी, जब भी चाहता अपनी जाति बदल लिए होता ! तब तो बहुते भसान मच जाता ! पर भईया जी, अपने देश में अइसे बहुते लोग हैं जो सालों से अपना नाम-उपनाम बदल कर मजे से जीवन बिता रहे हैं ! केतना लोग पकड़ा भी गया है ! तिस पर ई भी तो सच्चे है कि रसूखवाला, पइसावाला, ताकतवाला लोग ही ज्यादा गलत काम करता है ! हमको भी हमारे पिताजी मना किए थे ई सब करने से ! बोले थे, बिटवा किसी लालच में आ कर अंधे कूऐं में झलांग मत लगाना ! भगवान जो दिया है, उसमें खुश रहो ! मेहनत करते रहो, उसी से सफलता मिलेगी ! देक्खे रहे हो केतना गरीब-गुरबा का बच्चा लोग अपना मेहनत से कहां का कहां पहुंच गया ! बस, मेहनत से जी मत चुराना !''

फिर भी तुम चल पड़े ?''

नहीं भईया जी ! आप गलत सोच लिए ! माँ कसम ! हमहूँ ऐसा करना नहीं चाहते थे ! सच तो ई है कि चाह कर भी अइसा नहीं कर पाते ! हमारा आत्मा हमें करने ही नहीं देता ! पर थोड़ा समय के लिए मन डगमगा गया था ! का है ना कि हमसे अपने पिताजी और माँ का हालत देखा नहीं जाता ! इस उमर में भी दिन-रात खटते हैं ! फिर भी ना खाना ढंग का मिलता है ना हीं रहना ! हमहूँ तो इधर कुछ ज्यादा नहीं कर पा रहे हैं  !उनको कुछ हो गया तो हम अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे !  ऐ ही वास्ते मन बेचैन रहता है ! ऊही से थोड़ा भटक गए थे.....!

बिनोद की आँखें भर आईं थीं ! मैं समझ रहा था, एक बेटे का अपने माता-पिता से लगाव ! उनके प्रति उसका अपना कर्तव्य ! उसका दर्द ! उसकी छटपटाहट ! उसकी मजबूरी ! उसकी हताशा !    

मैंने उसके सर पर हाथ रखा ! वह फफक पड़ा ! कुछ देर बाद अपने को संभाल बोला,

भईया जी, हमको माफ कर दीजिए''

अरे ! किस बात की माफ़ी ? तुमने क्या किया है ? तुम तो खुद ही समझदार हो ! उठो ! मुंह-हाथ धो लो ! फिर एक-एक कप चाय हो जाए, भाभी को बोल दो पकौड़ों के लिए ! 

बाहर बारिश की झमाझम सुखद लगने लगी थी !   

बुधवार, 7 अगस्त 2024

एक हैं रामचेत, सुल्तानपुर वाले

अब बात साइड इफेक्ट की ! इस मुलाकात के बाद रामचेत जी सुर्खियों में आ गए ! आना ही था ! दूकान पर लोग पहुंचने लगे ! दूर-दूर से फोन आने लगे ! अपने गांव-खेड़े में उनकी इज्जत बढ़ गई ! मीडिया उनके इंटरव्यू के लिए समय लेने लगा ! वे खुश हैं, गदगद हैं ! उनके साथ-साथ उस पुरानी चप्पल के भी भाग खुल गए ! देश-परदेस में उसकी फोटो ''वायरल'' हो गई ! खबरें हैं कि उसकी कीमत भी लगने लगी है ! कौन लगा रहा है इसकी जानकारी गोपनीय है ! ज्ञातव्य है कि कुछ सालों पहले ऐसे ही किसी पेंटिंग की भी दो करोड़ की  बोली लगी थी ! किसी को फुरसत नहीं है कि पूछे कि साहब उत्तर प्रदेश की उस गरीब महिला कलावती का आजकल क्या हाल है, जिसका पहली बार आपने मनरेगा मजदूर बन, मिटटी का टोकरा उठा कर आपने फोटुएं खिंचवाईं थी...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

पिछले कई दिनों से राहुल गांधी के तरह-तरह के अवतार देश के सामने लाए जा रहे हैं ! कभी खेत में किसानों के साथ, कभी रेलवे कुलियों के साथ, कभी किसी मेकेनिक के साथ, कभी बढ़ई के साथ, कभी रेलवे के स्टाफ के साथ और कभी किसी जूते गांठने वाले की गुमटी पर ! विरोधियों द्वारा इसका काफी मजाक बनाया गया ! काफी ट्रोलिंग हुई ! उनके व्यक्तित्व पर भी सवाल उछाले गए ! पर शायद इन ड्रामों के सीधे-सरल आमजन पर पड़ने वाले प्रभाव पर किसी ने ध्यान नहीं दिया ! जो सुलतानपुर एपिसोड के बाद अचानक सामने आया है ! जिसमें रामचेत ने अपने पूरे गांव के साथ उनको वोट देने की बात की है ! इससे तो यही लगता है कि बहुत सावधानी से डूब कर पानी पिया जा रहा है ! यानी ऐड़ा बन कर नहीं, ऐड़ा बना कर पेड़ा खाया जा रहा है !     
हुनर 
पिछले दिनों 26 जुलाई को अपने एक केस के सिलसिले में यू.पी. के सुल्तानपुर के कोर्ट में पेशी के बाद लौटते समय राहुल गांधी का काफिला अचानक कूरेभार क्षेत्र के विधायक नगर के मुख्य मार्ग पर स्थित राम चेत मोची की छोटी सी गुमटीनुमा जूतों की दुकान पर रुकता है ! राहुल जी अपने दल-बल के साथ गाड़ी से उतर कर दुकान में विराजमान हो जाते हैं ! वहीं रामचेत जी से बातचीत होती है ! एक पुरानी चप्पल उठा, उसकी गठाई तथा एक जूते में सोल चिपकाया जाता है ! काफिला करीब आधा घंटा वहां गुजार, मदद का वादा कर आगे रवाना हो जाता है ! वादे के अनुसार रामचेत जी को एक मशीन भी भेजी जाती है, हालांकि बिजली ना होने की वजह से फिलहाल वह काम नहीं कर रही ! रामचेत जी भी रिटर्न गिफ्ट के रूप में अपने हाथ से बनाए दो जूते उन्हें भिजवाते हैं ! अच्छा रहा सब कुछ ! बहुत अच्छा ! 
रामचेत जी 
अब बात साइड इफेक्ट की ! इस मुलाकात के बाद रामचेत जी सुर्खियों में आ गए ! आना ही था ! दूकान पर लोग पहुंचने लगे ! फोन आने लगे ! अपने गांव-खेड़े में उनकी इज्जत बढ़ गई ! मीडिया उनके इंटरव्यू के लिए समय लेने लगा ! वे गदगद हैं ! इनके साथ-साथ उस चप्पल के भी भाग खुल गए ! देश-परदेस में उसकी फोटो ''वायरल'' हो गई ! खबरें हैं कि उसकी कीमत भी लगने लगी है ! कौन लगा रहा है, इसकी जानकारी गोपनीय है ! ज्ञातव्य है कि कुछ सालों पहले ऐसे ही किसी पेंटिंग की भी दो करोड़ की बोली लगाई गई थी ! पर अभी तो 40-45 साल से तंगहाली और गुरबत की अवस्था में रहने वाले, इस घटना से उस स्थिति में कोई खास बदलाव ना आने के बावजूद, रामचेत जी अभी इस लाइम-लाइट का मजा ले रहे हैं !
सिलाई मशीन 
इसमें सियासत क्या हुई ! एक लोकल चैनल के साक्षात्कार में जब रामचेत जी से राहुल जी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन्हें पहली बार देखा है। पोस्टरों में चेहरा देखा होने की वजह से पहचान गए ! उनके अनुसार वे बहुत ही नेकदिल, दयालु और सज्जन इंसान हैं ! वे अपने वादे के भी पक्के हैं ! मैं छोटी जाति का हूँ (उन्होंने अपनी जाति भी बताई ) आजतक किसी छोट-मोटे नेता तक ने कभी मेरी दूकान की तरफ रुख नहीं किया पर आज देश का इतना बड़ा नेता आ कर मेरे पास बैठा ! मेरे से बात की ! मेरा हाल-चाल जाना ! यह उनकी महानता है ! उनका बड़प्पन है ! मैं धन्य हो गया ! 
लखटकिया चप्पल 
जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा गया कि आप वोट किसको देंगे तो बिना एक क्षण लगाए, सीधे-सरल रामचेत जी ने राहुल गांधी का ही नाम तो लिया ही, विश्वास के साथ यह भी कहा कि मैं तो क्या सारा गांव उन्हीं को वोट देगा। देश का नेता ऐसा ही मिलनसार, भलामानुष, गरीबों का ध्यान रखने वाला होना चाहिए ! यही बात गौर करने वाली है कि राहुल का कहीं भी रुकना, किसी से भी मिलना, उसके काम में दिलचस्पी दिखाना, उससे बात करना, क्या यह सब स्वतःस्फूर्त है या सब कुछ किसी स्क्रिप्ट के तहत, एक दीर्घ कालीन योजना को ध्यान में रख कर किया जा रहा है ? खोजबीन तो यही बताती है कि यह सब एक सोची समझी रणनीति के तहत, सर्वे कर, पूरी स्क्रिप्ट बना, उचित कलाकार को चुन, पहले से पूरी बिसात बिछा कर घटना को अंजाम दिया जाता है ! 
असर क्या है ? समाज के उन गरीब मजदूर, मेकेनिक, कारपेंटर, कुली, मोची, जिनसे कोई ढंग से बात भी नहीं करता उनके मन पर इन सब बातों से बड़ा गहरा असर पड़ता है ! ऐसे अत्यंत पिछड़े, समाज के अंतिम छोर पर खड़े इंसान को जब ऐसी हमदर्दी, ऐसा सम्मान, ऐसी इज्जत मिलती है, जिसकी उसने सपने में भी कल्पना ना की हो, जब अचानक वह अपने आप का कद अपने लोगों में बढ़ा पाता है तो निहाल हो, गर्व सा महसूस करने लगता है और इस बात को चारों ओर ज्यादा से ज्यादा प्रचारित-प्रसारित  करने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता ! वह सबको बताता है कि देखो इतना बड़ा आदमी, देश का नेता, कितना रहम दिल है, जो हमारी खोज-खबर ले रहा है ! हमारा इतना ख्याल रख रहा है ! जहां देश के बड़े-बड़े लोग नहीं जा सकते वहां हमें ले जा कर बैठाता है ! हमारा सुख-दुःख पूछता है ! यदि यह सत्ता में आ गया तो सारे गरीबों का कल्याण  हो जाएगा ! उसकी यह बात वह काम कर जाती है जो किसी नेता की दस-बीस हजार की सभा में दिया गया भाषण भी नहीं कर पाता ! 
फोटो सेशन 
उसको इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि सामने वाला किस लिए ऐसा कर रहा है ! उसका आचरण क्या है ! वो जो कर रहा है वह नाटक है या सच्चाई ! उसे सिर्फ इतना पता होता है कि उस इंसान के कारण उसकी जिंदगी में एक सुखद बदलाव आया है और मैं उसी का साथ दूँगा ! अपने परिवार की चिंता से ग्रस्त जिंदगी के थपेड़ों से जूझते ऐसे लोगों को फुर्सत ही कहां मिलती है कि वे आस-पास घटित हो रहे वाकयों पर ध्यान दे सकें ? नहीं तो इनमें से कोई तो पूछता कि साहब उत्तर प्रदेश की उस गरीब महिला कलावती का क्या हाल है, जिसका पहली बार मनरेगा मजदूर बन, मिटटी का टोकरा उठा कर आपने फोटुएं खिंचवाईं थीं ? 

गरीबों के मनोविज्ञान को, लोगों की इसी कमजोर रग को, राहुल जी की सलाहकार समिति ने समझ, अपना चक्रव्यूह उसी के अनुसार रच डाला है ! बाकी का काम तो उनके साथ चलते निर्देशकों, स्क्रिप्ट लेखकों और कैमरों ने पूरा कर ही दिया है ! एक बात और कि इस तरह के सारे नाटकों का श्रेय उनके निदेशक को जाता है, कलाकार रूपी राहुल जी तो पूरी तरह, सपूर्णतया निर्देशक के नायक हैं, जो उसने कहा अक्षरशः वैसा ही निभा दिया !   

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

ना वैसे सिंहासन रहे नाहीं वैसे आरूढ़ होने वाले

शायद यह उस प्राचीन सिंहासन की पुतलियों का ही श्राप हो, जिससे गलत तरीके से उसे हासिल कर उस पर बैठते ही बैठने वाले पर कोई आसुरी शक्ति हावी हो जाती है ! जिससे वह सच को छोड़ झूठ का पक्ष लेने लगता है ! सच्चाई सामने होते हुए भी वह अपनी आँखें बंद कर झूठ को सही ठहराने लगता है ! अपने हित, अपने पद, अपने भविष्य, अपने परिवार, अपनी सुरक्षा को मद्देनजर रख कर वह अपना फैसला गढ़ने लगता लगता है ! भले ही इसके लिए उसकी चारों ओर से लानत-मलानत हो रही हो..............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

किसी समय राजाओं के सिंहासन, न्यायाधीश की कुर्सी या पंचायतों के आसन की बहुत गरिमा होती थी। उस पर बैठने वाले का व्यवहार पानी में तेल की बूंद के समान रहा करता था। उसके लिए न्याय सर्वोपरी होता था। उस स्थान को पाने के लिए उसके योग्य बनना पड़ता था। समय बदला, उसके साथ ही हर चीज में बदलाव आया। पुराने किस्से-कहानियों में वर्णित घटनाएं कपोलकल्पित सी लगने लगीं। प्राचीन ग्रंथों को छोड़ दें तो 70-80 साल पहले की कथाओं को भी पढने से लोग आश्चर्यचकित होते हैं कि कहीं ऐसा भी हो सकता था ?
सिंहासन 
हमारे साहित्य ग्रंथों में राजा विक्रमादित्य का जितना बखान उनकी वीरता, न्याय प्रियता, उनके ज्ञान, चारित्रिक विशेषता, गुण ग्राहकता के लिए हुआ है, वह शायद ही किसी और सम्राट या नायक के लिए हुआ हो। कहते हैं कि उनके पराक्रम, शौर्य, न्यायप्रियता, कला-मर्मज्ञता तथा दानशीलता से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें एक दिव्य रत्नजड़ित स्वर्णिम सिंहासन उपहार में दिया था ! इसमें 32 पुत्तलिकाएं यानी पुतलियां लगी हुई थीं ! उसी पर बैठ कर वे न्याय किया करते थे। उस आसन के उपर तक पहुंचने के लिए बत्तीस सीढियां चढ़नी पड़ती थीं। हर सीढ़ी की रखवाली एक-एक पुतली करती थी, जिससे कोई अयोग्य उस पर आसनारूढ ना हो जाए !  
न्याय का हथौड़ा 
विक्रम ने राज-पाट छोड़ते वक्त उस सिंहासन को भूमि में गड़वा दिया था कि कहीं इसका दुरूपयोग ना हो ! कालांतर में जब राजा भोज ने शासन संभाला और उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे जमीन से निकलवा, उस पर बैठ कर राज करने का निश्चय किया। शुभ मुहुर्त में जब उन्होंने उस पर पहला कदम रखा, तब उस पायदान की रक्षक पुतली ने उन्हें राजा विक्रम से जुड़ी एक कथा सुनाई और पूछा कि राजन, क्या आप अपने को इस सिंहासन के योग्य पाते हैं ? राजा भोज ने विचार कर कहा, नहीं ! फिर उन्होंने उस लायक बनने के लिए साधना की, अपने को उस योग्य बनाया। इस तरह उन्होंने बत्तीस पुतलियों को संतुष्ट कर अपने आप को उस सिंहासन के लायक बना, उस को ग्रहण किया, यह नहीं कि अपने रसूख का दुरूपयोग कर जबरन उसे हासिल कर लिया हो ! 
सर्वोच्च 
यह तो पुरानी बात हो गई। पर हमारे समय के दिग्गज कथाकारों की कहानियों के पंचपरमेश्वर या और भी धर्माधिकारियों के किस्से मशहूर हैं, जो अपनी बुद्धिमत्ता, कुशाग्रता तथा लियाकत से यह सम्मान पाते थे ! इन गरिमामय आसनों पर बैठने के पश्चात, किसी भी प्रकार का भेदभाव, दवाब या पक्षपात ना कर न्याय और सिर्फ न्याय किया करते थे, चाहे उनके सामने कोई भी वादी-प्रतिवादी खड़ा हो ! इसीलिए लोगों को उन पर अटूट विश्वास होता था और वे आदर के पात्र बने रहते थे ! 
न्यायस्थल 
पर अब समय बहुत कुछ बदल चुका है ! दुनिया के हर क्षेत्र की तरह न्याय का यह पावन स्थल भी बुराइयों से अछूता नहीं रह गया है ! कुछ लोगों द्वारा इसे हासिल करने के लिए साम-दाम-दंड़-भेद हर तरह की नीति अपनाई जाने लगी है। योग्यता या काबिलियत ठगी सी रह जाती हैं, इस प्रकार के उपक्रमों को देख कर ! इसी कारण लोगों का विश्वास भी ऐसी प्रणाली से तिरोहित होने लगा है ! लोग हर फैसले को शक की निगाह से देखने लगे हैं !
कोर्ट रूम 
शायद यह उस प्राचीन सिंहासन की पुतलियों का ही श्राप हो, जिससे गलत तरीके से उसे हासिल कर उस पर बैठते ही बैठने वाले पर कोई आसुरी शक्ति हावी हो जाती है ! जिससे वह सच को छोड़ झूठ का पक्ष लेने लगता है ! सच्चाई सामने होते हुए भी वह अपनी आँखें बंद कर झूठ को सही ठहराने लगता है ! अपने हित, अपने पद, अपने भविष्य, अपने परिवार, अपनी सुरक्षा को मद्देनजर रख कर वह अपना फैसला गढ़ने लगता लगता है ! अपनी गलत बातों का विरोध करने वाला उसे अपना कट्टर दुश्मन लगने लगता है। उस आसन पर बैठ सत्ता हासिल होते ही वह अपने आप को खुदा समझने लगता है !
विश्वास 
पर संतोष की बात है कि ऐसे लोग मुठ्ठी भर के ही हैं ! ऐसा भी नहीं है कि यह क्षेत्र पूरी तरह से निराशा का पर्याय बन गया हो ! अभी भी अधिकांश कर्मठ लोग बिना किसी भय, लोभ, दवाब के अपने काम को सही ढंग से अंजाम देते आ रहे हैं ! जबकि उनको सदा जान-माल का खतरा बना रहता है ! पर उनका विवेक, उनका अंतर्मन, उनका आत्म विश्वास, उनकी निष्ठा उन्हें पथभ्रष्ट नहीं होने देती, भले ही उनके सामने कितना भी दुर्दांत अपराधी क्यों ना खड़ा हो ! इसीलिए सेवानिवृति के पश्चात भी उनकी गरिमा, उनका सम्मान, उनकी प्रतिष्ठा बनी रहती है ! पर वही बात है कि ओछे लोगों की हरकत आजकल ज्यादा प्रचार पाती है और कर्तव्यनिष्ट लोग गुमनामी की धुंध में अलक्षित से रह जाते हैं ! 

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