शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2023

अनियमितता, एक अनिश्चितताओं से भरे खेल की

क्रिकेट की एक और दिलचस्प खासियत यह है कि इसकी पिच, जिस पर इसे खेला जाता है, उसकी लंबाई और चौड़ाई (22 गज x 10 फिट) तो तय होती है, पर मैदान का आयाम, जो कहीं गोल होता है तो कहीं अंडाकार यानी ओवल शेप में, तो कहीं अनियमित आकार लिए हुए, उसका कोई निश्चित माप नहीं होता ! हॉकी, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन जैसे दूसरे खेलों के मैदानों के आकार या माप जिस तरह तय रहते हैं, वैसा क्रिकेट में नहीं होता ! इस अनिश्चितताओं से भरे खेल में यह एक ऐसी अनियमितता है, जिस पर शायद ही कभी बात होती हो...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग      

इन दिनों एक दिवसीय क्रिकेट की एक बड़ी या कह सकते हैं महा-प्रतियोगिता चल रही है ! अब क्रिकेट का माहौल है तो जाहिर है, उसकी बातें चहुं-ओर होनी ही हैं ! हमारे देश के लोग तो वैसे भी इस खेल के कुछ अतिरिक्त ही दिवाने हैं ! भारत में क्रिकेट को इसके प्रशंसकों द्वारा एक धर्म ही बना दिया गया है, जहां क्रिकेटरों को भगवान की तरह माना जाने लगा है ! ऐसी प्रतियोगिताओं में हजारों-हजार लोग स्टेडियम में हो-हल्ला मचाने तो पहुंचते ही हैं, उनसे कहीं ज्यादा लोग घर में बैठ अपना रक्तचाप और दिल की धड़कनों को अनियमित बनवाते रहते हैं ! ऐसे ही दीवाने अब्दुल्लों के भरोसे टीवी पर इसका सीधा प्रसारण करने वाले अतिरिक्त कमाई की खातिर अपनी दुकान, खेल शुरू होने के दो घंटे पहले ही खोल कर बैठ जाते हैं ! मजे की बात यह है कि उस दुकान पर कुछ ऐसे लोग भी ज्ञान बेचने का मौका पा जाते हैं जिन्होंने अपने समय में हाई स्कूल की परीक्षा भी पास नहीं की होती ! कुछ सदा के फिस्सडी यहां विशेषज्ञ बने नजर आते हैं ! इस खेल की महानता है कि यह अपने से जुड़े किसी भी बंदे को निराश नहीं करता कुछ ना कुछ उपलब्ध करवा ही देता है !  

बात की बात में बात कहां तक चली गई ! बात हो रही थी खेल की ! तो यह खेल अपनी अनिश्चितताओं के लिए प्रसिद्ध है ! यही विशेषता इसे अन्य खेलों से कुछ अलग भी बनाती है ! यह एक मात्र खेल है, जहां अपनी एक भूल को भी सुधारने का कोई और मौका नहीं मिलता, खास कर बैटर को ! आउट....तो.....आउट ! दुनिया के हर खेल में, खेल के दौरान खिलाडियों को अपनी गलती या कहिए गलतियां सुधारने के और भी अवसर मिल जाते हैं पर इस क्रूर खेल में एक गलती हो गई तो बस, सब खल्लास.......! कई बार तो वह एक गलती खिलाड़ी के जीवन भर के कैरियर को ही बर्बाद कर बैठती है ! पर यही क्रूरता इस खेल को और भी लोकप्रिय बनाती चलती है ! ___________________________________________________________________________

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आपकी आँखें हमारे लिए अनमोल हैं 
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क्रिकेट की एक और दिलचस्प खासियत यह है कि इसकी पिच, जिस पर इसे खेला जाता है, उसकी लंबाई और चौड़ाई (22 गजx10 फिट) तो तय होती है, पर मैदान का आकार, जो कहीं गोल होता है तो कहीं अंडाकार यानी ओवल शेप में, तो कहीं अनियमित आकार लिए हुए, उसका कोई निश्चित माप नहीं होता ! हॉकी, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन जैसे दूसरे खेलों के मैदानों के आकार-आयाम जिस तरह तय रहते हैं, वैसा क्रिकेट में नहीं होता ! इस अनिश्चितताओं से भरे खेल में यह एक ऐसी अनियमितता है, जिस पर शायद ही कभी बात होती हो ! हाँ, बाउंड्री 65 मीटर से कम और 90 मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा पुरुषों के क्रिकेट के लिए मैदान का व्यास आमतौर पर 450 फीट (137 मीटर) से 500 फीट (150 मीटर) के बीच और महिला क्रिकेट के लिए 360 फीट (110 मीटर) से 420 फीट (130 मीटर) के बीच होता है।  

वैसे आजकल यह खेल भी पैसा कमाने के अहम जरिए का रूप लेता जा रहा है ! दर्शकों को आकर्षित और रोमांचित करने की तरकीबें खोजी जाने लगी हैं ! भद्र पुरुषों का खेल कहलवाने वाले क्रिकेट का मूल स्वभाव बदलवाया जा रहा है ! इस खेल का बैटिंग वाला पक्ष वो हिस्सा है जो इस खेल को रफ्तार देता है, यही चीज दर्शकों और क्रिकेट प्रेमियों को ज्यादा पसंद भी है ! इसी कारण इस खेल में बैटर का दबदबा बढ़ता चला जा रहा है और बॉलर धीरे-धीरे गौण होते जा रहे हैं ! आज बैटर को ध्यान में रख नियम-कानून बनते हैं ! बैटिंग के लिहाज से पिचें तैयार करवाई जाने लगी हैं ! नियम बनाने वालों का सारा ध्यान खेल के तीनों रूपों में ज्यादा से ज्यादा रन बनवाने और चौके-छक्के लगवाने में ही रहता है ! चलो, बैटर को अपनी गलती सुधारने का मौका भी तो नहीं मिलता है, ऐसी रियायत ही सही ! इससे रोमांच तो बढ़ा ही है ! ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग तमाशा देखने उमड़े भी पड़ रहे हैं ! 

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विडंबना है कि मैदान भले ही छोटा हो, पर दर्शक दीर्घाएं और-और बड़ी होने लगी हैं ! जिससे असीमित लोगों को समेटा जा सके ! टिकटों की कीमतें आकाश छूने लगी हैं ! पैसा बरस रहा है ! खेल व्यवसाय बन गया है  ! खिलाड़ी मशीन ! उन पर अब सर्दी-गर्मी-बरसात-धूप-लू, अँधेरे-उजाले किसी भी व्याधि का कोई असर नहीं पड़ता ! इधर खेल अपनी भावना को ले कर अचंभित सा कहीं दुबका पड़ा है !   

सोमवार, 23 अक्टूबर 2023

रेल वाली चादर

सदा  वाचाल रहने वाली श्रीमती शर्मा चुपचाप बैठीं सारी बातें निर्विकार रूप से सुन रही थीं ! शर्मा जी सोच में डूब गए थे ! कैसे हैं लोग ! रेल की कमियां गिना-गिना कर ना थकने वाले, ऐसी गिरी हुई हरकत करते समय कभी खुद का आंकलन क्यों नहीं करते ! कभी अपने आप पर ग्लानि नहीं होती ! कभी उनके  दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती  कि किसी सिमित तनख्वाह पाने वाले गरीब पर उनके इन कारनामों का क्या असर पड़ेगा ! क्या कभी घर आए किसी मेहमान के सामने ऐसा सामान सामने आ जाने से उन्हें शर्म नहीं आएगी ?............पर दूसरे ही दिन शर्मा जी झटका खा गए ..........😦

#हिन्दी_ब्लागिंग 

"अरे भाई सुनना...!" पास से गुजरते हुए कोच सहायक को शर्मा जी ने टोका !

"जी ! बोलिए....!

"क्या नाम है आपका ?

"राजेंद्र....!   

"अरे भाई राजेंद्र, देखो यह बेड शीट कुछ ठीक नहीं है, सीलि सी है .......!

"कोई बात नहीं, अभी बदल देता हूँ !

दिल्ली-मुंबई राजधानी का 3rd AC कोच ! शर्मा जी सपत्नीक, एक समारोह में उपस्थिति दर्ज करवा वापस मुंबई अपने घर लौट रहे थे ! गाड़ी को दिल्ली से रवाना हुए 15-20 मिनट हो चुके थे ! कोच सहायक द्वारा पानी, बेडिंग जैसी जरुरत की चीजें उपलब्ध करवाई जा रही थीं ! तभी यह वार्तालाप हुआ !  

सुबह बोरिवली में कोच तकरीबन खाली हो चुका था ! राजेंद्र चादर-कंबल इत्यादि संभाल रहा था ! काम करते-करते पास आ गया था, तभी शर्मा जी ने पूछा "कभी हैंड टॉवल वगैरह कम तो नहीं पड़ जाते ?

एक क्षण को जैसे उसकी दुखती रग को छू दिया गया हो ! चेहरे पर बेबसी सी छा गयी ! फिर बेहद शांत स्वर में राजेंद्र का दुःख सामने आ गया ! बोला, "अब क्या बताएं साहब .... ! यह तो रोज का किस्सा हो गया है ! आप छोटे टॉवल की बात करते हैं, चादर की छोड़िए, यहां तो लोग कंबल तक उठा कर ले जाते हैं !

"कंबल ........?? शर्मा जी चौंके ! "इतनी बड़ी चीज कैसे.....? पता नहीं चलता किसी को ? यह तो सरासर चोरी है !

"अब आप खुद ही देख लीजिए ! सारे कोच में चादरें कंबल बिखरे पड़े हैं ! जाते वक्त कोई तहियाना तो दूर, समेट कर भी नहीं जाता ! अब ऐसे ढेर में कहां क्या कम है, कैसे पता चल सकता है ! फिर भी कभी अंदाजा लग भी जाता है, पर किसी पर इल्जाम नहीं लगा सकते ! सारे यात्री हमारे लिए सम्माननीय होते हैं ! किसी का सामान तो खोल कर नहीं देख सकते ना ! उस पर यदि हमारा शक गलत हो जाए तो हमारी तो नौकरी ही चली जाएगी, सो चुपचाप जो भी होता है, दंड भरते रहते हैं ! 

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आपकी आँखें हमारे लिए बहुमूल्य हैं 
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एक चुप्पी सी पसर गई थी डिब्बे में ! सिर्फ पटरियों की धीमी खटर-पटर की ध्वनि महसूस हो रही थी ! सदा वाचाल रहने वाली श्रीमती शर्मा चुपचाप बैठीं सारी बातें निर्विकार रूप से सुन रही थीं ! शर्मा जी सोच में डूब गए थे ! कैसे हैं लोग ! रेल की कमियां गिना-गिना कर ना थकने वाले, ऐसी गिरी हुई हरकत करते समय कभी खुद का आंकलन क्यों नहीं करते ! कभी अपने आप पर ग्लानि नहीं होती ! कभी उनके  दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती कि किसी सिमित तनख्वाह पाने वाले गरीब पर उनके इन कारनामों का क्या असर पड़ेगा ! क्या कभी घर आए किसी मेहमान के सामने ऐसा सामान सामने आ जाने से उन्हें शर्म नहीं आएगी ? 

शर्मा जी को लगा कि हमारे जींस में ही, बिना छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, आम-खास का भेद किए मुफ्तखोरी पैबस्त हो चुकी है ! नहीं तो क्यों आदरणीयों की सेवानिवृति के बाद उनके घर से सरकारी सामान वापस लाना पड़ता है ! क्यों माननीयों लोगों के सरकारी निवास छोड़ने पर उनके घरों की टाइलें-टोंटियां नदारद हो जाती हैं ! क्यों सड़कों-पार्कों-चौराहों से सजावटी सामान गायब हो जाता है........! 

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आपका प्रचार हम करेंगे 
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शर्मा जी की सोच शायद थमती नहीं यदि गाड़ी के थमने के संकेत नहीं मिलने लगते ! स्टेशन आने वाला था ! शर्मा दंपति ने सामान समेटा, उतरने की तैयारी होने लगी !  

दूसरे दिन घर पर यात्रा के दौरान काम आए कपड़े धुल कर सूख रहे थे ! तभी शर्मा जी झटका खा गए ! उन्हीं कपड़ों में भारतीय रेल की एक चादर और दो हैंड टॉवल भी लटके हुए अपनी सीलन दूर करने में लगे हुए थे ! 

रविवार, 22 अक्टूबर 2023

''अंकल, कन्या खिलाओगे'' ?

कन्या भोज के दिन फिर आ गए हैं पर कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, कन्या भोज के दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस-पडोस की अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध नहीं छिड़ता ! नहीं तो पहले सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती थी । फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी तक आई क्यूं नहीं ? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! एक पुरानी रचना जो आज भी सामयिक और प्रासंगिक है.................

(एक पुरानी पर सामयिक रचना )

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सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बजी।  द्वार खोल कर देखा तो पांच से दस  साल की चार - पांच  बच्चियां  लाल रंग के कपड़े  पहने  खड़ी थीं।   छूटते ही  उनमें सबसे  बड़ी  लड़की ने  सपाट आवाज  में सवाल  दागा,   ''अंकल, 
कन्या खिलाओगे'' ?   
मुझे  कुछ सूझा नहीं,  अप्रत्याशित   सा था यह सब। अष्टमी के दिन कन्या पूजन होता है। पर वह सब परिचित चेहरे होते हैं, और आज वैसे भी षष्ठी है। फिर सोचा शायद गृह मंत्रालय  ने कोई अपना विधेयक पास कर दिया हो इसलिये इन्हें बुलाया हो। अंदर पूछा,   तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं है !  मैं फिर  कन्याओं  की ओर  मुखातिब   हुआ और बोला,  ''बेटाआज नहीं,  हमारे  यहां अष्टमी  को पूजा  की जाती है''। "अच्छा कितने बजे" ? फिर सवाल उछला, जो  सुनिश्चित  कर  लेना  चाहता था,  उस दिन के निमंत्रण को।  मुझसे कुछ कहते नहीं बना, कह दिया,  ''बाद में बताऐंगे''।  तब   तक बगल वाले घर की घंटी बज चुकी थी।
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आपकी आँखें हमारे लिए सर्वपरि हैं 
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मैं सोच रहा था कि बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने या नेता आदि ही नहीं आम जनता भी चतुर होने लग गयी है। सिर्फ दिमाग होना चाहिये। दुह लो, मौका देखते ही, जहां भी जरा सी गुंजाईश हो। बच ना पाए कोई। जाहिर है कि ये छोटी-छोटी बच्चियां इतनी चतुर सुजान नहीं हो सकतीं। यह सारा खेल इनके माँ, बाप, परिजनों द्वारा रचा गया है।
जोकि दिन भर टी.वी. पर जमाने भर के बच्चों को उल्टी-सीधी हरकतें करते और पैसा कमाते देख, हीन भावना से ग्रसित होते रहते हैं। अपने नौनिहालों को देख कुढते रहते हैं कि लोगों के कुत्ते-बिल्लियाँ भी छोटे पर्दे पर पहुँच कमाई करने लग गए हैं, दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हमारे बच्चे घर बैठे सिर्फ रोटियां तोड़े जा रहे हैं। फिर ऐसे ही किसी कुटिल दिमाग में इन दिनों  बच्चों को घर-घर जीमते देख यह योजना आयी होगी और उसने इसका कापी-राइट कोई और करवाए, इसके पहले ही, दिन देखा ना कुछ और बच्चियों को नहलाया, धुलाया, साफ सुथरे कपड़े पहनवाए, एक वाक्य रटवाया, "अंकल/आंटी, कन्या खिलवाओगे ? और इसे अमल में ला दिया।
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प्रचारित होना कुछ ज्यादा मुश्किल नहीं है 
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ऐसे लोगों को पता है कि इन दिनों लोगों की धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। फिर  बच्ची स्वरुपा देवी को
अपने दरवाजे पर देख भला  कौन मना करेगा। सब ठीक रहा तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं इन तीन दिनों तक बच्चों और हो सकता है कि पूरे घर के खाने का इंतजाम हो जाए। ऊपर से बर्तन, कपड़ा और नगदी अलग से। इसमें कोई  दिक्कत   भी नहीं आती,  क्योंकि इधर वैसे ही आस्तिक गृहणियां चिंतित रहती हैं, कन्याओं की आपूर्ती को लेकर।   जरा सी देर हुई या अघाई कन्या ने खाने से इंकार किया और हो गया अपशकुन ! इसलिए होड़ लग जाती है पहले अपने घर कन्या बुलाने की !

अब फिर कन्या भोज के दिन आ गए हैं पर पिछले कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, अब इन दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस - पडोस की  अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध
नहीं छिड़ता ! नहीं तो  सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती है। फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे
दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी  तक आई क्यूं नहीं? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है।इधर काम पर जाने वाले हाथ में लोटा, जग लिए खड़े हैं कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार कर काम पर जाएं। देर हो रही है, पर आफिस के बॉस से तो निपटा जा सकता है, वैसे आज के दिन तो वह भी लोटा लिए खड़ा होगा कन्याओं के इन्जार में,  घर के इस बॉस से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो।                                           

आज इन "चतुर-सुजान" लोगों ने कितना आसान कर दिया है  सब कुछ।  पूरे देश को राह दिखाई है, घर पहुंच सेवा प्रदान कर।

"जय माता दी"

गुरुवार, 19 अक्टूबर 2023

आँखों पर पट्टी बांधे बैठी कुर्सियां

सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बंधी होने से कभी भी न्याय नहीं हो पाता है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी शायद ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! आज भी सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं.................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

स्कूल में, चाहे वह विज्ञान हो, भूगोल हो, गणित हो, पढ़ाए गए विषयों की सत्यता सदा एक सी बनी रहती है ! यह नहीं होता कि स्कूल में पढ़ाया गया हो कि पृथ्वी गोल है और कॉलेज में आ कर वह चपटी हो जाए ! यदि स्कूल में बताया गया है कि पानी, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से बनता है तो यह सच्चाई सदा ही बनी रहती है ! दो और दो चार ही होता है ! मनुष्य सामाजिक प्राणी ही बना रहता है, जैसा बताया गया था ! गुरु जी की कुर्सी पर बैठा इंसान विद्वान होता है ! कोई ऐरा-गैरा आ कर उसकी परीक्षा नहीं ले सकता ! ऐसा भी नहीं कि वह कुछ बोले और हेड मास्टर उसकी बात काट दे और उधर प्रिंसिपल हेडमास्टर को गलत करार कर उसकी बात बार-बार पलटता  रहे !

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नेत्र शल्य चिकित्सा का विश्वसनीय केंद्र 
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पर एक विधा ऐसी भी है जिसमें कुछ भी स्थाई नहीं है ! एक कुछ कहता है तो दूसरा उसको गलत सिद्ध कर जाता है तो तीसरा आ कर दूसरे की बात पलट जाता है ! निचले स्थान की कुर्सी को उच्चासीन हेय सिद्ध कर देता है तो इस उच्च को सर्वोच्च सत्ता वाला धरातल पर ला पटकता है ! पता नहीं....! किताबें तो सबने एक जैसी ही पढ़ी होती हैं ! पर हर कोई उनको अपनी मर्जी के अनुसार परभाषित करने लगता है ! यदि उसमें लिखा इतना जटिल है कि अधिकांश को वह समझ ही नहीं आता तो उसे सरल क्यों नहीं बनाया जाता ?  क्यों नहीं उसके ''लूप होल्स'' को सील कर दिया जाता ? उस जटिलता का खामियाजा भुगतना पड़ता है आम, मजलूम जनता को ! आज हालत ऐसे हैं कि बोलने वाला सुनने वाले पर हावी हो गया है ! यह ''सुना'' जाता है कि ''कौन'' बोल रहा है ना कि क्या बोला जा रहा है ! होता भी तो ऐसा ही आया है, जनता ने देखा भी है, दसियों ऐसे उदाहरण हैं जब भारी-भरकम लोग अपनी बात मनवा कर चल देते हैं ! अब तो तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी !

इस विधा के प्रतीक को रोमन देवी जस्टीशिया के रूप में जाना जाता है। जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई है और एक हाथ में तराजू और दूसरे में तलवार है। कहते हैं पहले मूर्ति की आँखों पर पट्टी नहीं होती थी पर 16वीं शताब्दी में उसके सामने होने वाले अन्याय के प्रति उसे अंधा दिखाने के उद्देश्य के तहत, कुछ लोगों ने मूर्ति की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी ! पर फिर न्यायालय की गरिमा को ध्यान में रखते हुए इसे न्याय की निष्पक्षता के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर दिया गया ! पर सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बांध कभी भी कोई न्याय नहीं कर पाया है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि की हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं !

चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?

इस विधा के मूल मंत्र को प्रचारित करते समय बार-बार कहा जाता है कि भले ही सौ दोषी छूट जाएं पर निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए ! पर विडंबना यह है कि अधिकांश मामलों में इसका उलट होता है ! पीड़ित अपनी आत्मा पर बोझ लिए मर-मर कर जीता है और अपराधी अपने रसूख, अपने धनबल, अपने बाहुबल और इस विधा की संकरी गलियों का सहारा ले, दुःखित को और दुखी करता, उसकी छाती पर मूंग दलता हुआ स्वच्छंद मंडराता रहता है ! लचर कानून और न्याय व्यवस्था हमेशा से ही आम नागरिक की परेशानी का सबब रही है ! आज भी सीधा-साधा गरब-गुरबा डरता है न्याय की गुहार लगाने को ! जब्त कर जाता है अपने ऊपर हुए अन्याय को ! यदि कोई हिम्मत करता है तो उसकी हालत "रागदरबारी के लंगड़" जैसी हो कर रह जाती है ! ज्यादातर आम नागरिकों को  काले कोट उन काली शक्तियों की तरह भयभीत करते हैं, जिनके चंगुल में एक बार फंस गए तो मौत ही मुक्ति दिला पाती है ! दूसरी तरफ इन्हीं खामियों का फायदा उठा अपराधी अक्सर कानून के शिकंजे से बच निकलते हैं ! 

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यदि कुर्सी की आँखें खुली हों यानी वह कभी-कभी खुद भी संज्ञान लेने की जहमत उठा ले, तो सामने वाले की भाव-भंगिमा, चाल-ढाल, उसकी कुटिलता का आभास पा वस्तुस्थिति समझने में आसानी हो सकती है ! तब देखा तो जा सकेगा कि कोई बिमारी का बहाना बना जेल से छूट, घर पर तीमारदारी करवाने के बजाए पर्यटन पर कैसे निकल जाता है ! बीमार है पर खेल-कूद में सक्रीय भाग लेने लगता है ! देखा तो जा सकेगा कि करोड़ों के हेर-फेर में किसी के पास कुछ नहीं मिलता पर उसके बगल की खेती कैसे लहलहाने लगी है ! कानों को साक्ष्य ना भी सूझें पर आँखें तो देख पाएंगी कि कैसे डेढ़-डेढ़ दर्जन बच्चों की लाशें नालों में सड़ती हुई मिल रही हैं ! वे खुद तो जा कर मिटटी में दफ़न या नाले में नहीं कूदी होंगी ! कोई तो होगा जिसने ऐसी हैवानियत की होगी और वह ''कोई'' सिर्फ सुनी-सुनाई पर कैसे रिहा हो गया......! 

यह भी बिलकुल सच है कि आँखों पर पट्टी होने के बावजूद कई कुर्सियां बिना किसी दवाब में आए, अपनी जान तक की परवाह किए बगैर अपने कर्तव्य को अंजाम देती रहती हैं और उन्हीं के कारण आज भी इस व्यवस्था की साख कायम है ! यह भी सही है कि इस विधा में सिर्फ आँख की पट्टी का ही दोष नहीं है ! इसमें कुछ कुर्सियों पर उनका अहम, विचारधारा, परवरिश, दृष्टिकोण यह सब हावी हो जाता है जिससे अपने को श्रेष्ठ समझ एक अलग सोच बना ली जाती है ! पश्चिम की उच्श्रृखंलता, कुत्सित विचार, उनके मानदंड उन्हें सही लगने लगते हैं ! ऐसी कुर्सियां भूल जाती हैं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था अलग है ! हमारे समाज की रीढ़ हमारे परिवार हैं ! परिवारों की एकजुटता हमारे संस्कार हैं, जिनमे विवाह का एक विशेष स्थान है ! माँ-बाप की अहमियत है बच्चों के लिए, उनकी परवरिश के लिए ! सिर्फ सुविधाएं जुटा देने से ही कर्तव्य की इति नहीं हो जाती ! खून के रिश्ते परिवारों को एक मजबूती देते हैं ! संस्कार हैं तो परिवार हैं, परिवार हैं तो समाज है और समाज है तभी देश भी है ! 

आजकल कुछ ऐसी ही बंद आँखों वाली कुर्सियां अप्राकृतिक संबंधों की पैरोकार बन जिस तरह वैवाहिक संस्कारों पर चोट करने की कोशिश में हैं उससे वे भविष्य के समाज के कैसे विनाश का आह्वान कर रही हैं, इसका शायद उन्हें गुमान भी नहीं है ! चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?   

सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

अथ रसगुल्ला कथा

रसगुल्ले की प्रसिद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस मिठाई पर अपना हक़ जताने के लिए दो प्रांतों, बंगाल और ओडिसा में सालों कानूनी जंग चलती रही। ओड़िसा का कहना था कि इसकी पैदाइश उनके यहां हुई थी और वर्षों से उसका भोग जगन्नाथ जी को लगता आ रहा है। 2017 में सरकार द्वारा बनाई गई कमिटी ने ''बांग्लार रोशोगोल्ले'' को Geographical Indications (GI) Tag  प्रदान कर दिया है। उस दिन बंगाल में ऐसी ख़ुशी मनाई गयी जैसे कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो। इस मिठाई की प्रसिद्धि का यह आलम था कि इसके आविष्कारक नविनचंद्र दास की जीवनी पर एक फिल्म भी बन चुकी है..........!


#हिन्दी_ब्लागिंग  

"नोवीन दा !  किछू नोतून कोरो, डेली एकई धरनेर मिष्टी आर भालो लागे ना."    

"हें, चेष्टा कोच्छि (कोरछि), दैखो की होय."   
 
1866, कलकत्ता के बाग बाजार इलाके की एक मिठाई की दुकान। शाम का समय, रोज की तरह ही दुकान पर युवकों की अड्डेबाजी जमी हुई थी। मिठाईयों के दोनो के साथ तरह-तरह की चर्चाएं, विचार-विमर्श चल रहा था। तभी किसी युवक ने दुकान के मालिक से यह फर्माइश कर डाली कि नवीन दा, कोई नयी चीज बनाओ। (नोवीन दा ! किछू नोतून कोरो)।  नवीन बोले, कोशिश कर रहा हूं। और सच में वे कोशिश कर भी रहे थे कुछ नया बनाने की जिसमें उनका भरसक साथ दे रही थीं उनकी पत्नी, खिरोदमोनी । उसी कुछ नया के बनाने के चक्कर में एक दिन उनके हाथ से छेने का एक टुकड़ा चीनी की गरम चाशनी में गिर पड़ा। उसे निकाल कर जब नवीन ने चखा तो उछल पड़े, यह तो एक नरम और स्वादिष्ट मिठाई बन गयी थी। उन्होंने इसे और नरम बनाने के लिए छेने में "कुछ" मिलाया, अब जो चीज सामने आई, उसका स्वाद अद्भुत था ! खुशी के मारे नवीन को इस मिठाई का कोई नाम नहीं सूझ रहा था तो उन्होंने इसे रशोगोल्ला यानि रस का गोला कहना शुरु कर दिया। इस तरह रसगुल्ला जग में अवतरित हुआ।
नवीन चंद्र दास 
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जहां अपनी आँखों से ज्यादा आपकी आँखों का ख्याल रखा जाता है 
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कलकत्ता वासियों ने जब इस नयी चीज का स्वाद चखा तो जैसे सारा शहर ही पगला उठा। बेहिसाब रसगुल्लों की खपत रोज होने लग गई। इसकी लोकप्रियता ने सारी मिठाईयों की बोलती बंद करवा दी। हर मिठाई की दुकान में रसगुल्लों का होना अनिवार्य हो गया। जगह-जगह नयी-नयी दुकानें खुल गयीं। पर जो खूबी नवीन के रसगुल्लों में थी वह दुसरों के बनाये रस के गोलों में ना थी। इस खूबी की वजह थी वह  "चीज"  जो छेने में मिलाने पर उसको और नरम बना देती थी। जिसका राज नवीन को छोड़ उनके कारिगरों को भी नहीं था।
रस के गोले 
नवीन और उनके बाद उनके वंशजों ने उस राज को अपने परिवार से बाहर नहीं जाने दिया। आज उनका परिवार कोलकाता के ध्नाढ्य परिवारों में से एक है, पर कहते हैं कि रसगुल्लों के बनने से पहले परिवार का एक सदस्य आज भी अंतिम "टच" देने दुकान जरूर आता है। इस गला काट स्पर्द्धा के दिनों में भी इस परिवार ने अपनी मिठाई के स्तर को कभी भी गिरने नहीं दिया है।  

खीरमोहन 
बंगाल के रसगुल्ले जैसा बनाने के लिये देश में हर जगह कोशिशें हुईं, पर उस स्तर तक नहीं पहुंचा जा सका। हार कर अब कुछ शहरों में बंगाली कारिगरों को बुलवा कर बंगाली मिठाईयां बनवाना शुरु हो चुका है। पर अभी भी बंगाल के रसगुल्ले का और वह भी नवीन चंद्र की दुकान के "रोशोगोल्ले" का जवाब नहीं। इसकी प्रसिद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस मिठाई पर अपना हक़ जताने के लिए दो प्रांतों बंगाल और ओडिसा में सालों कानूनी जंग चलती रही। ओडिसा का कहना था कि इसकी पैदाइश उनके यहां हुई थी और वर्षों से उसका भोग जगन्नाथ जी को लगता आ रहा है। पर वहां के ''रसगोले'' का रंग भूरापन लिए होता है और उसे खीरमोहन नाम से जाना जाता रहा है। जो थोड़ा सा कड़ापन लिए होता है। जबकि बंगाल का ''रोशोगुल्ला'' मुलायम, स्पॉन्जी और दूडिया सफ़ेद रंग का होता है। वैसे भी दोनों मिठाइयों के रंग के अलावा उनके स्वाद, चाशनी, प्रकृति और बुनावट में भी काफी फर्क होता है। 
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जो भी हो रसगुल्ले का जन्म तब के ईस्ट इंडिया का ही माना जाता है, जिसे आज बंगाल और ओड़िसा के नाम से जानते हैं। वैसे 2017 में सरकार द्वारा बनाई गई कमिटी ने ''बांग्लार रोशोगोल्ले'' को Geographical Indications (GI) Tag  प्रदान कर दिया है। उस दिन बंगाल में ऐसी ख़ुशी मनाई गयी जैसे कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो। इस मिठाई की प्रसिद्धि का यह आलम था कि इसके आविष्कारक नविनचंद्र दास की जीवनी पर एक फिल्म भी बन चुकी है !  
रसगोल्ला फिल्म का पोस्टर 
उजान गांगुली, जिन्होंने नवीन चंद्र का किरदार निभाया 
यह है इस मिठाई का ''क्रेज़''। हालांकि आजकल बदलते समय के साथ कई लोग इसके नाम का सहारा ले उल्टी-सीधी मिठाइयां, जैसे पान रसगुल्ला, मिर्ची रसगुल्ला, गुलाब रसगुल्ला, चॉकलेट रसगुल्ला जैसे सौ स्वादों वाले रसगुल्ले बनाने का दावा कर नाम और दाम कमाने से नहीं हिचकिचा रहे। यह सही है कि किसी को कुछ बनाने की रोक नहीं है पर किसी की ख्याति को भुनाना भी उचित नहीं होता। देखना है कि बंगाल का, अपनी परंपराओं से लगाव रखने वाला, भद्रलोक किसे सर-माथे पर बिठाए रखता है।   
तो यदि कभी कोलकाता जाना हो तो बड़े नामों के विज्ञापनों के चक्कर में बिना पड़े, बाग बाजार के नवीन बाबू की दुकान का पता कर, इस आलौकिक मिठाई का आनंद जरूर लें।

@लेख के सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से  

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