बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

असाधारणता को सदा अपने हाथ क्यों कटाने पड़ते हैं ?

इंसान की एक सनातन इच्छा है कि वह अमर हो जाए। सशरीर ऐसा होना नामुमकिन होने की वजह से वह अपने नाम को ही ज्यादा से ज्यादा समय तक दुनिया में कायम रखने की जुगत करता रहता आया है। सदियों से राजा, महाराजा, बादशाह, नवाब आदि सक्षम लोग अपने दरबार में कलाकारों तथा कारीगरों को स्थान देते आए हैं। जो अपने हुनर से कुछ ऐसा रचते भी रहे हैं जिससे उनके आश्रयदाता का नाम वर्षों तक लोगों की जुबान पर चढा रहा है। पर कुछ ऐसे बदनसीब कारीगर भी हुए हैं जिनके अद्वितीय कार्य को लोग आज भी अचंभित हो कर देखते हैं पर यह नहीं जानते कि ऐसी अद्भुत रचना करने वाले को इनाम के बदले अमानुषिक दंड़ दिया गया था।

दुनिया की सबसे भव्य, अनूठी, सुंदर इमारत "ताजमहल"। बीस हजार कुशल कारीगरों ने बाईस साल तक अपने खून को पसीने की तरह बहा-बहा कर अपने कला प्रेमी बादशाह के सपने को पूरा करने के लिए इसका निर्माण किया था। हजारों लोग हर साल इसे देखने भारत आते हैं और उनके आश्चर्य से खुले मुख से एक ही शब्द निकलता है "वाह"। पर इसके बदले इसे बनाने वालों को क्या मिला ? कोई सोच भी नहीं सकता कि एक सौंदर्य प्रेमी बादशाह का दिल इतना क्रूर भी हो सकता है। जिसके मन की शंका, कि कहीं ये कारीगर कहीं और जा कर इससे भी खूबसूरत इमारत ना बना ड़ालें जिससे मेरे इस प्रेम प्रतीक को लोग भूल ही जाएं। इस विचार रुपी नाग के सर उठाते ही उसने एक अमानवीय निर्णय लिया और कारीगरों के हाथ कटवा ड़ाले, जिससे उसकी प्रेम निशानी सरताज बनी रह सके।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ।
दक्षिण में एक संगतराश हुआ था, नाम था उसका 'सतपथी'। जादू था उसके हाथों में। उसकी छैनी-हथौड़ी जैसे हथियार कठोर पाषाण पर ऐसे चलते थे जैसे वह मोम का बना हो। कठोर से कठोर पत्थर भी उसके हाथों में आ ऐसा जिवंत हो उठता था जैसे अभी बोलने लग जाएगा। कभी-कभी तो भ्रम हो जाता था कि सामने प्रतिमा है कि जिंदा इंसान। होते-होते उसकी ख्याति राजा तक भी पहुंची। उसका काम देख राजा ने उसे अपने दरबार मे स्थान दे दिया। सतपथी ने भी वहां रह कर राजा के कहेनुसार ऐसे-ऐसे शिल्प गढे कि लोग उन्हें देख खड़े के खड़े रह जाते थे। इसी कलाकारी के कारण राजा की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। पर एक बुरी घड़ी में राजा के दिमाग का कीड़ा भी कुलबुलाया कि यदि सतपथी मुझे छोड़ कहीं और जा बसा तो मुझे कौन याद रखेगा? बस ऐसा ख्याल आते ही उस निष्ठुर ने सतपथी के हाथ कटवा ड़ाले।

ऐसा ही भाग्य ले कर जन्मे थे सालों पहले आज के बांग्ला देश के ढाका शहर के वस्त्र निर्माता। जिनकी रुई के रेशों से बनाई 'मलमल' इतनी बारीक, मुलायम और पारदर्शी होती थी जैसे हवा। रूई के रेशों को ये कारीगर पता नहीं किस जादूई स्पर्श से कपड़े का रूप देते थे जिसे देख लगता था जैसे शबनम बिखरी हुई हो। महीन इतना कि एक अंगुठी से सारा का सारा थान निकल जाता था। कहते हैं कि एक बार बादशाह औरंगजेब की पुत्री इसकी चौदह तहें लपेट कर बादशाह के सामने आ गयी तो वह नाराज हो गया। उसे वह करीब-करीब वस्त्रहीन लगी थी। पर यहां भी क्रूर इतिहास अपने को दोहराने से नहीं रोक पाया। भारत में अंग्रेजों का आगमन अपना व्यवसाय फैलाने के लिए हुआ था। आते ही उन्होंने इस मलमल को अपने यहां के बने वस्त्रों से मीलों आगे पाया। अपने हित की खातिर उन्हें इसके अलावा और कुछ नहीं सूझा कि इन रूई के रेशों में जादू जगाने वालों के हाथ काट दिए जाएं।

खूबसूरती, विलक्षणता, असाधारणता सदा खुशनुमा, लाभप्रद या भाग्यशाली ही नहीं होतीं। इनके भी सौ दुश्मन होते हैं जिनकी ईर्ष्या , जलन और अपने हित इन प्रभू की नेमतों का नाश करने में नहीं सकुचाते। इतिहास गवाह है कि ऐसी प्रतिभाओं को प्राचीन काल से लेकर आज तक भारी कीमत चुकानी पड़ती रही है।

13 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

कारीगरों को अपने हुनर की कीमत चुकानी पड़ी। सनकियों के यहाँ हुनर दिखा कर जान गंवानी पड़ी।

अच्छी जानकारी दी है आपने।

आभार

Patali-The-Village ने कहा…

अच्छी जानकारी दी है आपने। धन्यवाद|

समय ने कहा…

असाधारणता ही इसके मूल में है।

जब तक हाथ असाधारण रचने के लिए, दूसरों पर निर्भर हैं, काटे जाते रहेंगे।

शुक्रिया।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर :)

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर जानकारी जी, धन्यवाद

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

आपने सामंती युग का यथार्थ प्रस्तुत किया है। बधाई स्वीकारें।
कुछ लोग शक्ति के बल पर दूसरों को रौंद कर खुद आगे बढ़ने और संसार में आपना झंडा फहराने में विश्वास करते हैं। मानवीय मूल्यों की वे परवाह नहीं करते हैं। समानता के व्यवहार की वे कीमत नहीं समझते। आदिम युग से यह व्यवस्था समाज में चली आ रही है। शासकों ने इस व्यवस्था का खूब पोषण किया है। यह सनक और जंगलीपन से कम नहीं है। एक तानाशाह को उससे जबरदस्त जब प्रताणित करता है तब वह न्याय और मूल्यों की दुहाई देकर मदद की गुहार लगाता है। देश-विदेश का इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा हैं। शोषण और जंगलीपन के पुराने हथकंडे आज भी अपनाए जाते हैं। लोकतंत्र की स्थापना के बाद से इसमें कुछ कमी आई है। जैसे-जैसे नागरिकों में जागरूकता बढ़ेगी इस वृत्ति पर अंकुश लगेगा। मेहनतकश शिल्पकारों और कारीगरों को मान-सम्मान और जीने का हक मिलेगा। अत: सभ्य समाज के निर्माण हेतु अव्यस्था फैलाने वालों के खिलाफ लामबंद होने की आवश्यकता है।
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"दूसरों से वही व्यवहार करो जो अपने लिए दूसरों से चाहते हो।"
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सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी व्यक्ति

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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@ पहली बात, ताजमहल के सन्दर्भ में संशय है कि वह मुग़ल बादशाह ने बनाया था, अपितु वहाँ स्थापित शिव मंदिर को उसने जबरन बिगाड़ा था. ... इस पर शोध होना और इस सत्य का प्रचार होना बाक़ी है. तब तक शाहजहाँ की झूठी प्रेम कथा का प्रचार बंद होना चाहिए. इससे सबूतों में छेडछाड को बल मिलता है. हमारे साक्ष्य कमज़ोर पड़ते हैं ... मिलोड!

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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"दक्षिण में एक संगतराश हुआ था, नाम था उसका 'सतपथी'।"
दूसरी बात, संगतराशी से प्रतीत होता है कि 'संगमरमर' पत्थर को तराशने वाले ही संग तराशी कहलाते होंगे - ऐसा मेरा अनुमान है.
मैं इस पूरे प्रकरण को नहीं जानता .......... शायद पूरे तथ्य हमारे पास नहीं.
कभी-कभी कलाकार अपनी कला को वासना के वशीभूत होकर कुपथ मार्ग पर ले चलता है. शायद सतपथी 'एम् ऍफ़ हुसैन' की तरह ही नग्नता का प्रचारक बन गया हो.
ऐसे कुपथियों के हाथ काटना कला के साथ न्याय माना जाता हो.
एक राजा केवल स्थापत्य कला की वजह से तो अमर नहीं होता. उसे अपने शासनकाल में भाँति-भाँति के कार्य करने होते हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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तीसरी बात, भारतीय विलक्षण वस्त्र कला के बारे सोच-सोचकर गर्व की अनुभूति तो अवश्य होती रही है.
अपनी मशीनों के उज्ज्वल भविष्य के लिये अंग्रेजों ने हस्कला उद्योगों के हाथ काट दिए.
वैसी विलक्षणता के दर्शन पुनः हो सकते हैं बस "अपना हाथ जगन्नाथ" वाली कहावत पर अंधविश्वास करने वाले पैदा हो जाएँ.

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

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हस्कला को .... हस्तकला पढ़ें

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पी.एस .भाकुनी ने कहा…

अच्छी जानकारी दी है आपने।
आभार.....

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रतुल जी,
संगतराश पत्थर को तराशने वाले को कहते हैं। पत्थर चाहे संगेमरमर हो या कोई भी चट्टानी शिला।
संग का अर्थ पत्थर होता है। संगेमरमर सफेद पत्थर को तथा संगेमूसा काले पत्थर को कहा जाता है।
वैसे फिल्मों में "संगेदिल" का खूब प्रयोग होता आया है। जो कठोर ह्रदय वालों के लिए प्रयोग में लाया जाता रहा है।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ललित जी,
हाथ तो ठीक हैं ले लेंगें पर राम लाल कहां से लाएंगे :-)

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