बच्ची अपने पूरे प्रवास में "फेंटा" ही पीती रही। तरस आता है ऐसे माँ-बाप की सोच पर !!!
गर्मी दरवाजे पर दस्तक देने लग गयी है। कहीं-कहीं तो दरवाजे खुल भी गये हैं। अब जब सर पर आ पड़ी है तो उससे निपटने के तरह-तरह के इंतजामात भी किये जा रहे हैं। टी।वी. ने तो अपको इस मौसम मे तरोताजा रखने के लिये जैसे कमर ही कस ली है। लगता है यह ना होता तो शायद सब गर्मी की भेंट चढ जाता। तन को, मन को दिमाग को ठंड़ा रखने के उपाय हर पांच मिनट बाद आप को समझाए जा रहे हैं। वहीं साथ ही साथ प्यास बुझाने के लिये तरह-तरह के शीतल पेय आपकी सेवा में हाजिर किए जाते जा रहे हैं। हैं। अब कोई बार-बार इसरार करेगा तो आप मना भी तो नहीं कर सकते। खास कर बच्चे तो इनके आकर्षण में फंस ही जाते हैं। फिर माँ-बाप भी पीछे नहीं रहते अपने लाड़लों की इच्छओं को पूरा करने में। शौक पूरा करना अलग बात है पर उसकी आदत पड़ जाना तो खतरे की घंटी है।
अभी कुछ दिनों पहले देश के बाहर से मेरी एक रिश्तेदार आईं थीं। साथ में उनकी 10-12 साल की बिटिया भी थी। बच्ची जितने दिन भी यहां रही वह "फैंटा" नामक शीतल पेय ही पीती रही। उसकी 'मम्मी' को बहुतेरी बार समझाने की कोशीश की कि यह ठीक नहीं है, पर खुद यहां पली, बढी वर्षों यहां का टनों पानी पीने के बाद भी भली, चंगी तंदरुस्त रहने वाली उस महिला को यहां के पानी पर एतबार नहीं था।
यह बताने का मतलब यही था कि हम ही बच्चों में उल्टी-सीधी आदतें ड़ालने के लिए जिम्मेदार हैं। यहां भी मेरी छोटी भाभी के बच्चों के हाथ में कोई भी नया विज्ञापित खाद्य का पैकेट उसका दूसरी बार विज्ञापन आने के पहले आ जाता है। नतीजा भी सामने है, बच्चों की भूख कम हो गयी है, घर का खाना अच्छा नहीं लगता, आए दिन तबियत ढीली रहती है, पर मां का प्यार पैकटों में भर-भर कर आना जारी है। कहीं भी बाहर आना जाना हो तो बच्चों के लिये शीतल पेय की बड़ी बोतल सफर का एक अभिन्न अंग होती है।
सब पढे-लिखे हैं। अच्छा-बुरा समझने की ताकत भगवान ने दी है तो ऐसे किसी भी पेय को हाथ लगाने से पहले सोच तो सकते हैं कि क्या पानी, प्यास बुझाने का इससे बेहतर विकल्प नहीं है? पानी जिसमें ना कोई कैलोरी होती है ना कोई गैस ना मिलावटी रंग। इसके विपरीत कोला में कार्बन डाई आक्साइड, इथीलीन आक्साइड पालीमर चीनी या सैक्रीन के साथ साथ कैफीन भी होती है। सेहत चिंतकों के लिये चिंता बढाने वाली कैलोरी की मात्रा भी 95-100 के लगभग रहती है। ऐसे पेय पीने से कुछ देर के लिये प्यास बुझती सी लगती है क्योंकि इसमें स्थित गैसें पेट पर दवाब ड़ाल ऐसा एहसास दिला देती हैं। कोला में कैफीन की मात्रा भी काफी होती है जो किसी की सेहत के लिये भी ठीक नहीं होती। ऐसे पेय पदार्थों में कोई “Food Value" नहीं होती, उल्टे बच्चों के द्वारा इनका ज्यादा उपयोग करने से उनका हाजमा तो बिगड़ता ही है उनकी भूख भी मर जाती है।कोला के अलावा जो दूसरे पेय पदार्थ टी वी पर आ-आ कर लुभाने की कोशिश करते हैं वे भी पूरी तरह दोष मुक्त नहीं होते। उनमें भी साईट्रिक एसिड़ के साथ-साथ रंगों, गंधों और जायकों का मिश्रण पीने वाले की सेहत से खिलवाड़ करने का पूरा ताम-झाम समेटे रहता है।
सो इन गर्मियों में अपने घरेलू, हानिरहित, पारंपरिक सचमुच ठंडक प्रदान करने वाले पेय का ही इस्तेमाल करें और बच्चों को भी समझा कर असलियत बता कर उसकी आदत ड़लवाएं।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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8 टिप्पणियां:
aapne sahi kaha hai.
हिन्दीकुंज
bahut sahi samayik sandesh hai..
उचित बात कही आपने ।
ऐसा ही है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
बात तो सही है
मगर कोई समझे तो!
sab gyan hote hue bhi puri tarah se in cheezo par pratibandh nahi laga pate.
post bahut acchhi he . badhayi.
kash ki logo ko mtthe ka swad yad rhta
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