गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

जानी-मानी पत्रिकाओं की वादा खिलाफी

बहुत बार किसी खास मौके पर आप किसी पत्रिका या पत्रिकाओं ने कुछ आर्टिकल वगैरह भेज देते होंगे, वे छप भी जाते होंगें। मानदेय मिले या ना मिले इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। पर कुछ स्थापित पत्रिकाएं किसी खास विषय या विषयों पर रचनाएं आमंत्रित करती रहती हैं नियमित रूप से और नीचे बाकायदा कुछ ना कुछ प्रोत्साहित करने के लिये देने का वादा भी रहता है। पर इधर अच्छी खासी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाएं भी वादा खिलाफी करने लग गयीं हैं। मैं तीन जानी-मानी पत्रिकाओं का जिक्र कर रहा हूं।

1, रीडर्स डाईजेस्ट : इस जगत प्रसिद्ध पत्रिका का मैं ग्राहक रहा हूं। इसकी कुछ अच्छी पुस्तकें भी मंगवाई हुई हैं मैंने। अभी पिछले दिनों साल भर का अग्रिम भुगतान कर देने के दो महिने बाद से ही इसकी ओर से पत्र आने शुरु हो गये अगले साल की बुकिंग के लिये। जब तीन-चार बार ऐसे पत्र आये तो मैने उन्हें लिखा कि भाई अभी दूसरा अंक आपने भेजा नहीं और भविष्य की चिंता शुरु हो गयी, ई का ठीक बात है? इसके कुछ दिनों बाद एक पार्सल आया और मेरी गैरहजिरी में घर में बच्चों द्वारा ले लिया गया। मैने उन्हें लिखा कि जब मैने इन किताबों को भेजने को नहीं कहा तो आपने क्यों भेजी। पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। पर कुछ दिनों बाद बिल भेजने शुरू कर दिये। अंत में तंग आकर मैंने उन्हें पैसों के साथ एक पत्र भी ड़ाला जिसमें उनकी इस हरकत को गलत ठहराते हुए अपनी ग्राहकता खत्म करने को कह दिया।अभी कुछ दिनों पहले खबर थी कि योरोप में इस पत्रिका का कारोबार सिमटने की कगार पर है। इस तरह की हरकतों से तो ऐसा ही होगा।

2, दैनिक भास्कर की सहयोगी पत्रिका है "आहा जिंदगी" : इसमें तरह-तरह के लेखन पर तरह-तरह के उपहारों को देने की बात शुरु से ही लिखी जाती रही है। पर इसने मेरे छपे आर्टिकल पर कभी भी कुछ भेजने की जरुरत नही समझी।

3, तीसरी पत्रिका है "कादम्बिनी" : इसनें शुरु में एकाधिबार छपने पर अपना वादा निभाया। पर अभी पांच-छह महिने पहले कुछ छपने पर भी उन्होंने अपना लिखा वादा पूरा करने की आवश्यकता नहीं समझी। एक दो बार याद दिलाने पर उन्होंने भेजा तो कुछ नहीं, हां, वादे वाली लाईन ही हटा दी।

यह सब बातें इन की प्रतिष्ठा को ही ठेस पहुंचाती हैं। पर हो सकता है कि आजकल की गला काट स्पर्धा में इन पर भी खर्च की कटौती की समस्या हो। ठीक है ऐसा है हर कोई पैसा बचाना चाहता है तो भाई लिखो ही मत ना, जैसा "कादम्बिनी" ने किया। "आहा जिंदगी" सीख लेगी?

10 टिप्‍पणियां:

Jandunia ने कहा…

अब जानी-मानी पत्रिकाएं ऐसा कर रही हैं तो फिर सोचिए मीडिया का रूप क्या है। कोई कैसे मीडिया पर भरोसा करे।

Girish Kumar Billore ने कहा…

आज़ की पोस्ट सर्वोत्तम मानी जा सकती है
बधाई

PN Subramanian ने कहा…

सुन्दर. रीडर्स डाईजेस्ट से तो हम भगी तंग आ चुके थे और सदस्यता ख़त्म कर दी.

36solutions ने कहा…

व्‍यावसायिक पत्रिकाओं के पास पर्याप्‍त आथिक संसाधन हैं उसके बाद भी उनके द्वारा मानदेय देने में इस तरह व्‍यवहार किया जाता है तो दुख होता है.

राजकुमार ने कहा…

इनको हराम का माल चाहिए
पैसे देने के नाम पर इनकी माँ मरती है।
बहुत कमीने हैं ये लोग
बंद करो इनको लेख भेजना

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इनका अच्छा चिट्ठा खोला है आपने तो!
बहुत बढ़िया!

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत बढिया. ऐसा ही कर रही हैं पत्रिकायें.

Nishant ने कहा…

रीडर्स डाइजेस्ट के चक्कर में तो मेरा बहुत पैसा खप गया. वे बार-बार किताबें भेजते रहे और पिताजी मेरी गैरहाजिरी में छुडाते रहे. नो डाउट, किताबें अच्छीं थी लेकिन उनपर इतना पैसा खर्च करना आखर गया. सबसे गलत बात यह कि पत्रिका ने हमारी सहमति के बिना भी किताबें भेजना जारी रखा.

RAJNISH PARIHAR ने कहा…

ऐसा ही कर रही हैं पत्रिकायें...अच्छा चिट्ठा खोला है आपने !

कडुवासच ने कहा…

...बेहद प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ...यदि ये ऎसा ही करते रहे तो नुकसान्प्रद है ...कुछ स्थाई समाधान आवश्यक है !!!

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...