बहुत बार किसी खास मौके पर आप किसी पत्रिका या पत्रिकाओं ने कुछ आर्टिकल वगैरह भेज देते होंगे, वे छप भी जाते होंगें। मानदेय मिले या ना मिले इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। पर कुछ स्थापित पत्रिकाएं किसी खास विषय या विषयों पर रचनाएं आमंत्रित करती रहती हैं नियमित रूप से और नीचे बाकायदा कुछ ना कुछ प्रोत्साहित करने के लिये देने का वादा भी रहता है। पर इधर अच्छी खासी लब्धप्रतिष्ठ पत्रिकाएं भी वादा खिलाफी करने लग गयीं हैं। मैं तीन जानी-मानी पत्रिकाओं का जिक्र कर रहा हूं।
1, रीडर्स डाईजेस्ट : इस जगत प्रसिद्ध पत्रिका का मैं ग्राहक रहा हूं। इसकी कुछ अच्छी पुस्तकें भी मंगवाई हुई हैं मैंने। अभी पिछले दिनों साल भर का अग्रिम भुगतान कर देने के दो महिने बाद से ही इसकी ओर से पत्र आने शुरु हो गये अगले साल की बुकिंग के लिये। जब तीन-चार बार ऐसे पत्र आये तो मैने उन्हें लिखा कि भाई अभी दूसरा अंक आपने भेजा नहीं और भविष्य की चिंता शुरु हो गयी, ई का ठीक बात है? इसके कुछ दिनों बाद एक पार्सल आया और मेरी गैरहजिरी में घर में बच्चों द्वारा ले लिया गया। मैने उन्हें लिखा कि जब मैने इन किताबों को भेजने को नहीं कहा तो आपने क्यों भेजी। पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। पर कुछ दिनों बाद बिल भेजने शुरू कर दिये। अंत में तंग आकर मैंने उन्हें पैसों के साथ एक पत्र भी ड़ाला जिसमें उनकी इस हरकत को गलत ठहराते हुए अपनी ग्राहकता खत्म करने को कह दिया।अभी कुछ दिनों पहले खबर थी कि योरोप में इस पत्रिका का कारोबार सिमटने की कगार पर है। इस तरह की हरकतों से तो ऐसा ही होगा।
2, दैनिक भास्कर की सहयोगी पत्रिका है "आहा जिंदगी" : इसमें तरह-तरह के लेखन पर तरह-तरह के उपहारों को देने की बात शुरु से ही लिखी जाती रही है। पर इसने मेरे छपे आर्टिकल पर कभी भी कुछ भेजने की जरुरत नही समझी।
3, तीसरी पत्रिका है "कादम्बिनी" : इसनें शुरु में एकाधिबार छपने पर अपना वादा निभाया। पर अभी पांच-छह महिने पहले कुछ छपने पर भी उन्होंने अपना लिखा वादा पूरा करने की आवश्यकता नहीं समझी। एक दो बार याद दिलाने पर उन्होंने भेजा तो कुछ नहीं, हां, वादे वाली लाईन ही हटा दी।
यह सब बातें इन की प्रतिष्ठा को ही ठेस पहुंचाती हैं। पर हो सकता है कि आजकल की गला काट स्पर्धा में इन पर भी खर्च की कटौती की समस्या हो। ठीक है ऐसा है हर कोई पैसा बचाना चाहता है तो भाई लिखो ही मत ना, जैसा "कादम्बिनी" ने किया। "आहा जिंदगी" सीख लेगी?
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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10 टिप्पणियां:
अब जानी-मानी पत्रिकाएं ऐसा कर रही हैं तो फिर सोचिए मीडिया का रूप क्या है। कोई कैसे मीडिया पर भरोसा करे।
आज़ की पोस्ट सर्वोत्तम मानी जा सकती है
बधाई
सुन्दर. रीडर्स डाईजेस्ट से तो हम भगी तंग आ चुके थे और सदस्यता ख़त्म कर दी.
व्यावसायिक पत्रिकाओं के पास पर्याप्त आथिक संसाधन हैं उसके बाद भी उनके द्वारा मानदेय देने में इस तरह व्यवहार किया जाता है तो दुख होता है.
इनको हराम का माल चाहिए
पैसे देने के नाम पर इनकी माँ मरती है।
बहुत कमीने हैं ये लोग
बंद करो इनको लेख भेजना
इनका अच्छा चिट्ठा खोला है आपने तो!
बहुत बढ़िया!
बहुत बढिया. ऐसा ही कर रही हैं पत्रिकायें.
रीडर्स डाइजेस्ट के चक्कर में तो मेरा बहुत पैसा खप गया. वे बार-बार किताबें भेजते रहे और पिताजी मेरी गैरहाजिरी में छुडाते रहे. नो डाउट, किताबें अच्छीं थी लेकिन उनपर इतना पैसा खर्च करना आखर गया. सबसे गलत बात यह कि पत्रिका ने हमारी सहमति के बिना भी किताबें भेजना जारी रखा.
ऐसा ही कर रही हैं पत्रिकायें...अच्छा चिट्ठा खोला है आपने !
...बेहद प्रसंशनीय अभिव्यक्ति ...यदि ये ऎसा ही करते रहे तो नुकसान्प्रद है ...कुछ स्थाई समाधान आवश्यक है !!!
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