बंबई , रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी। ऐसे में दो भद्र पुरुष बातें करते करते रात के भोजन के लिये पर्क के अपोलो होटल की ओर बढ रहे थे। जब वे होटल के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो द्वारपाल ने उनमें से एक को इंगित करते हुए कहा, महोदय आपके मित्र का स्वागत है, पर मुझे खेद है कि आप अंदर नहीं जा सकते। जिसे मना किया गया था वह थे जमशेदजी टाटा और उन्हें रोकने का कारण था उस होटल में युरोपियन के सिवा और किसी को प्रवेश नहीं देने का प्रावधान। उसी क्षण जमशेदजी ने निर्णय लिया कि वह अपने इसी शहर में एक ऐसा होटल बनायेंगे जो संसार के सर्वश्रेष्ठ होटलों में से एक होगा। जिसमें किसी तरह की रोक-टोक नहीं होगी। जिसमें आम इंसान भी बिना विदेश गये विदेशी भव्यता का अनुभव कर सकेगा। हालांकि उन्हें इस व्यवसाय का कोई अनुभव नहीं था। पर जो ठान लिया सो ठान लिया। उन्होंने अपोलो बंदर के पास जमीन खरीद कर होटल, जिसका नाम उन्होंने ताजमहल रखा था, का निर्माण शुरु करवा दिया। उन्होंने सोच रखा था कि इस इमारत की हर बात अनोखी होगी। अनोखा रंग, अनोखा ढंग, अनोखी साज-सज्जा, अनोखा कला संग्रह। शुरुआत भी हुई 40 फिट की नींव से, जो उस जमाने में हैरत की बात थी। अंतत: 1903 में सत्रह मेहमानों के साथ होटल "ताजमहल" का विधिवत उद्घाटन संम्पन्न हुआ।
जमशेद जी ने अपने इंजीनियरों को हिदायत दे रखी थी कि होटल का शिल्प ऐसा होना चाहिये कि उसके हर कमरे में समुद्री वायु आराम से परवाज कर सके। साथ ही हर कमरे में रहने वाले को समुद्र के बिल्कुल करीब होने का एहसास हो। सचमुच ताज की खिड़की में खड़े होने पर यही एहसास होता है जैसे हाथ बढा कर सागर को छुआ जा सकता हो। हर कमरे से समुद्र अपनी भव्यता के साथ नज़र आता है। जमशेदजी की दूरदर्शिता इसी से जानी जा सकती है कि उन्होंने भविष्य में सागर की ओर होने वाली भीड़-भाड़ को ध्यान में रख ताज का मुख्य द्वार पीछे की ओर बनवाया था। उनके लिये यह पैसा कमाने का जरिया ना होकर देश की धरोहर का ख्याल ज्यादा था। जहां हर देश वासी बेरोकटोक आ सके। वे जब भी विदेश जाते वहां ताज को ही ध्यान में रख खरीदारी करते। उन्होंने पैसे की परवाह किये बगैर ऐसी-ऐसी चीजें वहां से भारत भेजीं जिनका नाम भी यहां ना सुना गया था। जिनमें एक बिजली का जेनेरेटर भी था। उस समय बंबैइ में बिजली की रौशनी वाली यह पहली इमारत थी। इसको बाहर से देखने के लिये ही दूर-दूर से लोग आते थे। इसके बनने और शुरु होने के बाद भी बहुत सारी अड़चनों का सामना जमशेद जी को करना पड़ा था। बहुतेरी बार इसकी आमदनी बिल्कुल ना के बराबर हो गयी थी। और कोई होता तो वह इसे बेचने का फैसला कर चुका होता पर यह जमशेदजी ही थे जो इसे भारत का ताज बनाना चाहते थे इसे बेचने का ख्याल उन्हें सपने में भी नहीं आया। उस समय जब संचार व्यवस्था ना के बराबर थी उन्होंने विदेशों के यात्रा एजेंटों से संपर्क बनाये रखा, फिर एक समय ऐसा आया कि विदेश से आने वाले पर्यटक की लिस्ट में यहां ठहरने का कार्यक्रम वरीयता सूची में होने लगा। आज सौ से ज्यादा उपन्यासों, यात्रा विवरणों आदि में ताज का उल्लेख मिलता है। विश्व की जानी-मानी हस्तियां यहां आकर भारतीय सत्कार का आनंद ले चुकी हैं। सातवें दशक में इसी का एक और नया भाग ‘ताज इंटकांटिनेंटल’ भी बन कर तैयार हो गया था। अब तो ताज की श्रृंखला पूरे देश में फैलती जा रही है।
ये सिर्फ होटल नहीं इंसान की आस्था, स्वाभिमान और देश के गौरव का प्रतीक है। शायद इसीलिये ठीक एक साल पहले.................
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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2 टिप्पणियां:
ांच्छी जानकारी है आभार्
स्वाभिमान जगाती इस पोस्ट के लिए धन्यवाद!
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