वैसे तो हिंदी सारे भारत में बोली समझी जाती है, पर अलग-अलग राज्यों में स्थानीय भाषायें इसे प्रभावित भी करती रहती हैं। यह घालमेल कभी-कभी बड़ी मनोरंजक स्थितियां पैदा कर देता है। आज बांग्ला - हिंदी की बात करने से पहले भाषा के कारण उपजे हास्य को चख लें -
कलकत्ते में हर प्रांत के लोग मिल-जुल कर रहते हैं तथा एक-दूसरे के तीज-त्योहार में शामिल होना आम बात है। ऐसे ही मोहल्ले में मुशायरा हो रहा था कि गोपाल बाबू अड़ गये कि हाम भी गोजल पढेगा। लोगों ने समझाया कि दादा उर्दू आपके बस की बात नहीं है। पर वह गोपाल ही क्या जो मान जाये। अंत में उन्हें दो लाईने दी गयीं कि इसे रट लो। लिखा था "न गिला करुंगा, न शिकवा करुंगा। तू सलामत रहे यही दुआ करुंगा।" गोपाल बाबू खुश। जब उनका नाम पुकारा गया तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से पढना शुरु किया -" ना गीला कोरुंगा ना सूखा कोरुंगा तू साला मत रहे यही दूआ कोरुंगा"।अंदाज ही लगाया जा सकता है मुशायरे के हाल का।
बांग्ला में लड़के को खोका और लड़की को खोकी कहते हैं। खांसी को खोखी कहा जाता है। दफ्तर में बनर्जी बाबू को खांसी दम ना लेने दे रही थी सो उन्होंने अपने पंजाबी boss शर्माजी के पास जाकर कहा - सार, खोखी हुआ है, छुटी चाहिये।शर्माजी बोले - ओये बनर्जी चिंता ना कर अगले साल खोखा भी हो जायेगा।
बंगाली में कहीं-कहीं 'अ' का उच्चारण 'ओ' की तरह होता है, पर यह नियमबद्ध है हर बार ऐसा नहीं होता है। कलकत्ते में सियाल्दह स्टेशन के पास लक्ष्मी बाबू की एक सोने-चांदी की दुकान हुआ करती थी। उस समय आज की तरह ज्वेलर्स लिखने का चलन नहीं था। सभी की सहूलियत के लिये दुकान के दरवाजे के एक तरफ बांग्ला में लिखा हुआ था " लखी बाबुर सोना चांदीर दोकान"। इसी को दरवाजे की दूसरी तरफ हिंदी में लिख दिया गया था "लखी बाबू का सोना चांदी का दोकान" ले भाई एक कान सोने का दूसरा चांदी का, ऐश कर।
इस भाषा में मिठास बहुत है, पूरी तरह रसगुल्ले की चाशनी में पगी हुई होती है। विश्वास नहीं है तो देखिये - शाम के समय बनर्जी बाबू बाग मे बैठे हुए ठंड़ी हवा का आनंद लेने के बाद जब बाहर निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि उनकी जेब काट ली गयी है। वे तुरंत फिर बाग के अंदर गये और वहां के माली से पूछा कि अभी जो यहां मेरे साथ एक भद्र लोक (पुरुष) बैठे थे उन्हें देखा ? माली ने जवाब दिया, नहीं। पर हुआ क्या ? बनर्जी बाबू बोले, अरे देखो न, वह भद्र लोक हमारी पोकेट मार कर भाग गया।गोयाकी पोकेटमार भी भद्र पुरुष होता है।
अब ऐसा है कि इस विषय पर लिखा जाय तो यह हनुमान जी की पूंछ की तरह बढता ही चला जायेगा। सोचा था कि बंगाल की हिंदी के बारे में लिखुंगा पर भटक गया। पर एक गुजारिश भी है कि इस भटकन को खेल भावना से ही लिया जाय। अगली बार रास्ते पर आ दोनों भाषाओं पर चर्चा करने की कोशिश करुंगा। तब तक के लिये नोमोश्कार।
कलकत्ते में हर प्रांत के लोग मिल-जुल कर रहते हैं तथा एक-दूसरे के तीज-त्योहार में शामिल होना आम बात है। ऐसे ही मोहल्ले में मुशायरा हो रहा था कि गोपाल बाबू अड़ गये कि हाम भी गोजल पढेगा। लोगों ने समझाया कि दादा उर्दू आपके बस की बात नहीं है। पर वह गोपाल ही क्या जो मान जाये। अंत में उन्हें दो लाईने दी गयीं कि इसे रट लो। लिखा था "न गिला करुंगा, न शिकवा करुंगा। तू सलामत रहे यही दुआ करुंगा।" गोपाल बाबू खुश। जब उनका नाम पुकारा गया तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से पढना शुरु किया -" ना गीला कोरुंगा ना सूखा कोरुंगा तू साला मत रहे यही दूआ कोरुंगा"।अंदाज ही लगाया जा सकता है मुशायरे के हाल का।
बांग्ला में लड़के को खोका और लड़की को खोकी कहते हैं। खांसी को खोखी कहा जाता है। दफ्तर में बनर्जी बाबू को खांसी दम ना लेने दे रही थी सो उन्होंने अपने पंजाबी boss शर्माजी के पास जाकर कहा - सार, खोखी हुआ है, छुटी चाहिये।शर्माजी बोले - ओये बनर्जी चिंता ना कर अगले साल खोखा भी हो जायेगा।
बंगाली में कहीं-कहीं 'अ' का उच्चारण 'ओ' की तरह होता है, पर यह नियमबद्ध है हर बार ऐसा नहीं होता है। कलकत्ते में सियाल्दह स्टेशन के पास लक्ष्मी बाबू की एक सोने-चांदी की दुकान हुआ करती थी। उस समय आज की तरह ज्वेलर्स लिखने का चलन नहीं था। सभी की सहूलियत के लिये दुकान के दरवाजे के एक तरफ बांग्ला में लिखा हुआ था " लखी बाबुर सोना चांदीर दोकान"। इसी को दरवाजे की दूसरी तरफ हिंदी में लिख दिया गया था "लखी बाबू का सोना चांदी का दोकान" ले भाई एक कान सोने का दूसरा चांदी का, ऐश कर।
इस भाषा में मिठास बहुत है, पूरी तरह रसगुल्ले की चाशनी में पगी हुई होती है। विश्वास नहीं है तो देखिये - शाम के समय बनर्जी बाबू बाग मे बैठे हुए ठंड़ी हवा का आनंद लेने के बाद जब बाहर निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि उनकी जेब काट ली गयी है। वे तुरंत फिर बाग के अंदर गये और वहां के माली से पूछा कि अभी जो यहां मेरे साथ एक भद्र लोक (पुरुष) बैठे थे उन्हें देखा ? माली ने जवाब दिया, नहीं। पर हुआ क्या ? बनर्जी बाबू बोले, अरे देखो न, वह भद्र लोक हमारी पोकेट मार कर भाग गया।गोयाकी पोकेटमार भी भद्र पुरुष होता है।
अब ऐसा है कि इस विषय पर लिखा जाय तो यह हनुमान जी की पूंछ की तरह बढता ही चला जायेगा। सोचा था कि बंगाल की हिंदी के बारे में लिखुंगा पर भटक गया। पर एक गुजारिश भी है कि इस भटकन को खेल भावना से ही लिया जाय। अगली बार रास्ते पर आ दोनों भाषाओं पर चर्चा करने की कोशिश करुंगा। तब तक के लिये नोमोश्कार।
7 टिप्पणियां:
मनोरंजक. बस इतना ही कहेंगे. जब बंगाली या उड़िया लोग गायत्री या अन्य मंत्रों का जाप करते हैं तो बड़ा मजा आता है. ओ की मात्रा लगा दो तो लगता है बंगाली बन जाती है. हम चाहेंगे कि उनकी इस मजबूरी पर कुछ शोध हो
मजेदार लिखा है .. एक चुटकुला और भी है 'सर खोखी आएगी तो खोखेंगे ही'।
मेरी मम्मी ने बहुत कोशिश की हिन्दी सीहने की, क्यों कि पापा मध्यप्रदेश में काम के सिलसिले में पोस्टेड थे। तो मां को बई (हमारे घर एक महिला काम करती थी, बर्तन आदि धो देती थी) से अक्सर ही कहते सुना था- "बई, कौड़ा का ए पीठ भी मांजना और ओ पीठ भी मांजना" मतलब ये की कढ़ाई के दोनो तरफ़ को मांजना(धोना), अंदर भी, बाहर भी।
खूब भालो ! मोजा आ गया !!
हा हा, बहुत मजेदार!!
बहुत प्यारी भाषा है.. मजा आया पढ़ कर.. और मानसी जी का कंमेट भी मजेदार रहा..:)
shri sharma ji aap bagla premee lage.
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