शनिवार, 30 मई 2009

मच्छरों को महिलाएं लुभाती हैं.

मच्छर तथा मलेरिया पर वर्षों से इतना लिखा पढ़ा गया है कि एक अच्छा खासा महाकाव्य बन सकता है। 1953 में इस रोग की रोकथाम के उपायों की शुरुआत की गयी, जिसे 1958 में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप दे दिया गया। पर नतीजा शून्य बटे सन्नाटा ही रहा। सरकारें थकती नहीं नियंत्रण की बात करने में और उधर मच्छर भी डटे हैं रोगियों की संख्या बढ़ाने मेँ। विडम्बना है कि जिस खून को बनाने-बचाने में इंसान चौबिसों घंटे लगा रहता है, उसी खून को मच्छर अपने भार से तीन गुना अधिक एक ही बार में चूस कर पेट भर लेता है। जबकी उसकी उम्र होती है मात्र तीस दिन की।आजकल टीवी के नब्बे प्रतिशत धारावाहिकों में महिलाएं ही महिलाओं की दुश्मन नज़र आती हैं। पहले लगता था कि यह सब आज की दौड़ में बने रहने के हथकंडे हैं। पर ऐसा नहीं है प्रकृति ने ही कुछ ऐसा विधान बनाया हुआ है कि "नारी ना सोहे नारी के रूपा"।मच्छर लाल रंग या रोशनी की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं तथा महिलाएं इन्हें ज्यादा लुभाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं में एक खास हारमोन होता है, जिससे उनके पसीने में एक विशेष गंध पैदा होती है। वही मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती है। और ये तो जग जाहिर है कि सिर्फ़ मादा मच्छर ही रक्त चूसती है। ये आश्चर्य की बात है कि यह नन्हा सा कीड़ा विज्ञान का भी जानकार होता है, तभी तो अपने डंक के साथ एक ऐसा रासायन भी शरीरों में छोड़ता है जिससे रक्त अपने जमने की विशेषता कुछ समय के लिए खो बैठता है। उतनी देर में यह खून चूस, किटाणु छोड़ हवा हो जाता है। जानकर विश्वास नहीं होता कि आज तक जितने लोग युद्धों में मरे, उससे ज्यादा लोगों को इस कीड़े ने मौत के मुंह में पहुंचा दिया है। जितना पैसा दुनिया भर की सरकारें इस से छुटकारा पाने पर खर्च करती हैं वह यदि बच जाए यो दुनिया में कोई भूखा नंगा नहीं रह जाए। इससे बचने का एक ही उपाय है कि बिना किसी का मुंह जोहे, अपनी सुरक्षा आप की जाए। इन सुरक्षा विधियों पर इतना लिखा, पढ़ा, छापा गया है कि उनका दोहराव फिजूल ही होगा।
बस इतना ही समझ लीजिये की ये महाशय 'देखन में छोटे हैं पर घाव करें घंभीर। सो बचाव में ही बचाव है।

शुक्रवार, 29 मई 2009

बायें हाथ से काम करने वालों की मुश्किलें

हमने अपने सगे-सम्बन्धीयों, जाने-पहचाने, अड़ोस-पड़ोस में या मशहूर बहुत सारे लोगों के बारे में पढा, सुना या देखा होगा कि वे लोग अपना ज्यादातर काम अपने बायें हाथ से निपटाते हैं। इसे हमने प्राकृतिक तौर पर ही लिया भी होगा। पर कभी भी इनकी मुश्किलों पर ना तो ध्यान ही दिया और न ही कभी सोचा। यदि आप दाहिने हाथ से काम करने वाले हैं तो एक बहुत छोटा सा काम कर देखिये। एक कैंची लीजिए और अपने बायें हाथ से उससे कुछ भी, कागज, कपड़ा या अपनी मूछें, कतरने की कोशीश कर देखिये क्या होता है। दुनिया में ज्यादातर लोग अपने दायें हाथ से काम करते हैं। इसीलिये उन्हीं को मद्देनजर रख औजार बनाने वाली कंपनियां अपने उत्पाद बनाती हैं। एक मोटे तौर पर दुनिया मे बायें हाथ से काम करने वालों की संख्या करीब 10-11 प्रतिशत है। इसी आबादी को ध्यान में रख आस्ट्रेलिया के एक व्यवसायी ने बायें हाथ से काम करने वालों की मुश्किलों को दूर करने के लिये अपने उत्पाद 'लेफ्ट हैंडेड प्रोडक्टस' के नाम से बनाने शुरु कर दिये। अपना और दूसरों का भला एक साथ।
यह तो विज्ञान ने साबित कर दिया कि दोनों तरह के लोगों में कोई फर्क नहीं होता नहीं तो सदियों से बायें हाथ से काम करने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। यहां तक कि इन्हें भूत-प्रेत की संज्ञा देकर मार डालने तक की कोशीशें भी होती रहती थीं। इसी डर से बहुत से मां-बाप अपने बायें हाथ का उपयोग करने वाले बच्चों को जबरन राइट हैंडेड बनाने की कोशीश किया करते थे। पति अपनी बायें हाथ से काम करने वाली पत्नि को त्यागने में गुरेज नहीं करते थे। मार-पीट, प्रताड़ना तो आम बात थी।
आज भी रूस, जापान, जरमनी और यहां तक की अपने देश भारत में भी कहीं-कहीं बायें हाथ का इस्तेमाल अशुभ माना जाता है।
आपके क्या विचार हैं?

बुधवार, 27 मई 2009

आईए भूत मारें ! ! !

जी हां सही पढा आपने। आप भी किसी अला-बला को भगा-हटा सकते हैं। इसमें जीवट की कम सतर्कता की ज्यादा जरूरत पड़ती है। सावधानी हटी और आप की साख घटी वाला मामला है यहां। इस काम में आपका कद्दावर कद, भारी चेहरा, घनी भौंहें, उलझे-घने-लम्बे बाल काफी सहायक हो सकते हैं। इसके साथ-साथ आपको अपनी आंखें लाल करने की कला भी आनी चाहिये। यदि आपकी आवाज धीर गंभीर हो तो सोने में सुहागा। इसके अलावा "आपके" मंत्रों से सिद्ध कुछ चीजों की जरूरत पड़ती है जो बाज़ार में आसानी से उपलब्ध हैं। यदि आपका कोई विश्वासपात्र दुकानदार हो तो आप का खेल तुरंत जम जायेगा।
तैयारी :- एक ऐसा नारियल लें जिसके रेशे बहुत घने हों। इसके अंदर पानी न हो तो ठीक है। आपने देखा होगा कि नारियल की एक तरफ तीन गोल आकृतियां सी रहती हैं। उनमें से किसी एक को किसी धारदार चाकू से सावधानी से हटा लें। कटे हुए टुकड़े को संभाल कर रख लें। यदि नारियल में पानी हो तो उसे निकाल दें। फिर उस छिद्र से कुछ बाल , काला धागा, कुछ छोटी हड्डियां, जो किसी भी खाद बेचने वाले के यहां से बोन- मील के नाम से मिल जायेंगी, तथा गहरे लाल रंग का पेन्ट या टमाटर सास या फिर आपको जो भी खून के रंग का अच्छ विकल्प लगे, सावधानी से छिद्र के अंदर प्रविष्ट करा उस छिद्र को उस कटे हुए टुकड़े से किसी चिपकाऊ पदार्थ से सील कर दें। इसके बाद नारियल के घने रेशों में ठोस सोडियम के छोटे-छोटे टुकड़े छिपा दें। इसे अपने परिचित दुकानदार के पास रख छोड़ें। यहां आपका आधा काम हो गया। इस काम के लिये यदि एक चोगे नुमा लबादे का इंतजाम हो जाये तब तो मैदान आपके हाथ में होगा इसके बाद सारा कुछ आपकी कलाकारी पर निर्भर करता है।
कार्य प्रणाली :- घटना स्थल पर जाकर ऐसा हाव-भाव प्रदर्शित करें जैसे आप वह सब कुछ देख पा रहे हों जो वहां उपस्थित और लोगों को नज़र नहीं आ रहा है। फिर कुछ ताम-झाम, सु-सटाक कर गंगा जल की मांग करें, ना मिलने पर अपनी झोली से “अभिमंत्रित” जल निकाल कर सारे घर में छिड़काव कर एक आसन पर ध्यान लगा बैठ जायें। "अपने मंत्रों" का जाप करते-करते एक नारियल लाने को कहें, यह सुनिश्चित कर लें कि आप वाला नारियल ही लाया जाए। नारियल आने पर उसे “अपने” मंत्रों से शुद्ध कर एक आसन पर रख धुएं वगैरह का इंतजाम लोबान इत्यादि जला कर करलें। फिर माहौल बना कर नारियल को “अभिमंत्रित” जल से सिंचित करें। जल के संपर्क में आते ही सोडियम आग पकड़ लेगा और लोगों की आंखे खुली की खुली और हाथ जुड़े के जुड़े रह जायेंगे। पर अभी तो चर्मोत्कर्ष बाकी है। अब आप उस नारियल को भीषण उद्घोष के साथ फोड़ें उसके फूटते ही उसके अंदर के द्रव्य बाहर आ आपकी साख न जमा दें तो कहियेगा। अब आप वह सब अल्लम-गल्लम सब को दिखा साधिकार भूत के मरने की घोषणा कर अपना सिक्का जमा सकते हैं। वैधानिक चेतावनी :- (-: भाई मेरे, इस तांत्रिक प्रयोग का प्रयोग ना ही करें तो अच्छा है। अरे सोचो, यदि सच में कुछ हुआ तो # #$#%$#@ (-:
यह भी एक ठगी का तरीका है जिससे भोले-भाले, मासूम, अनपढ लोगों के दिलो-दिमाग में गहरे पैठे अंधविश्वासों तथा कमजोर मानसिकता का फायदा उठा कुछ असामाजिक तत्व अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। वैसे देखें तो अनपढ ही नहीं, पढे-लिखे लोग भी हानी या मन मुताबिक काम ना होने पर इस तरह के टोटकों का सहारा लेने से नहीं चूकते। इसी अंजान भय और अनिश्चितता से ड़रे घबराये हुओं को कुछ शातिर, जरा सी विज्ञान की जानकारी, वाचालता और हाथ की सफाई के सहारे गुमराह कर अपनी रोटी तो सेकते ही हैं उसमें घी लगाने का इंतजाम भी कर लेते हैं। जरूरत है लोगों को जागरुक बनाने तथा ऐसे लोगों की पोल खोलने की। आइये इस भूत को मारें। काम थोड़ा मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं।

मंगलवार, 26 मई 2009

विवाह में वर-वधु सात फेरे क्यों लेते हैं

क्या चीज हैं ये अंक भी। एक-एक अंक अपने 'अंक' में कैसी-कैसी विशेषताएं, कैसे-कैसे रहस्य लिये दुनिया को नचाते रहते हैं। आज अंक "सात" की बात करते हैं।
हमारी संस्कृति में, हमारे जीवन में, हमारे जगत में इस अंक विशेष का एक महत्वपूर्ण स्थान है।
सूर्य के रथ में सात घोड़ों का जिक्र आता है। प्रकाश में सात रंग होते हैं। सुर में सात स्वर, सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि, यानि, षड़ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद होते हैं। सात लोकों, भू, भुव:, स्व:, मह:, जन, तप और सत्य, का वर्णन मिलता है। पाताल भी सात ही गिनाये गये हैं जैसे, अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल। सात द्विपों के साथ-साथ सात समुद्रों का अस्तित्व है। सात ही पदार्थ, गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि, शुभ माने जाते हैं। सात क्रियायें, शौच, मुखशुद्धी, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन तथा निद्रा आवश्यक होती हैं। इन सात जनों, ईश्वर, माता, पिता, गुरु, सूर्य, अग्नि तथा अतिथी का सम्मान करने के साथ-साथ इन सात विकारों का, ईर्ष्या, क्रोध, मोह, द्वेष, लोभ, घृणा तथा कुविचारों का त्याग करना चाहिये। हमारे वेदों में स्नान भी सात ही प्रकार के बताये गये हैं यथा, मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, करुण स्नान और मानसिक स्नान।
शायद इसीलिये हमारे ऋषि-मुनियों ने वैदिक रीति से होने वाले विवाहों में सात फेरों तथा सात वचनों का प्रावधान रखा था। वैदिक नियमों के अनुसार अपने परिजनों की साक्षी में वर-वधु पवित्र अग्नि के सात फेरे लेकर सात वचनों को निभाने का प्रण करते हैं। दोनों मिल कर यह कामना करते हैं कि हमें सदा मरीची, अंगिरा, अत्री, पुलह, केतु, पौलस्त्य,और वशिष्ठ इन सातों ऋषियों का आशिर्वाद मिलता रहे। हमारा प्रेम सात समुंदरों जैसा गहरा हो। निश दिन उसमें सातों सुरों का संगीत गुंजायमान हो। जीवन में सदा सातों रंगों का प्रकाश विद्यमान रहे। और हमारी ख्याति सातों लोकों में फैल जाये।

रविवार, 24 मई 2009

एक मीठी भाषा 'बांग्ला'

वैसे तो हिंदी सारे भारत में बोली समझी जाती है, पर अलग-अलग राज्यों में स्थानीय भाषायें इसे प्रभावित भी करती रहती हैं। यह घालमेल कभी-कभी बड़ी मनोरंजक स्थितियां पैदा कर देता है। आज बांग्ला - हिंदी की बात करने से पहले भाषा के कारण उपजे हास्य को चख लें -
कलकत्ते में हर प्रांत के लोग मिल-जुल कर रहते हैं तथा एक-दूसरे के तीज-त्योहार में शामिल होना आम बात है। ऐसे ही मोहल्ले में मुशायरा हो रहा था कि गोपाल बाबू अड़ गये कि हाम भी गोजल पढेगा। लोगों ने समझाया कि दादा उर्दू आपके बस की बात नहीं है। पर वह गोपाल ही क्या जो मान जाये। अंत में उन्हें दो लाईने दी गयीं कि इसे रट लो। लिखा था "न गिला करुंगा, न शिकवा करुंगा। तू सलामत रहे यही दुआ करुंगा।" गोपाल बाबू खुश। जब उनका नाम पुकारा गया तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से पढना शुरु किया -" ना गीला कोरुंगा ना सूखा कोरुंगा तू साला मत रहे यही दूआ कोरुंगा"।अंदाज ही लगाया जा सकता है मुशायरे के हाल का।
बांग्ला में लड़के को खोका और लड़की को खोकी कहते हैं। खांसी को खोखी कहा जाता है। दफ्तर में बनर्जी बाबू को खांसी दम ना लेने दे रही थी सो उन्होंने अपने पंजाबी boss शर्माजी के पास जाकर कहा - सार, खोखी हुआ है, छुटी चाहिये।शर्माजी बोले - ओये बनर्जी चिंता ना कर अगले साल खोखा भी हो जायेगा।
बंगाली में कहीं-कहीं 'अ' का उच्चारण 'ओ' की तरह होता है, पर यह नियमबद्ध है हर बार ऐसा नहीं होता है। कलकत्ते में सियाल्दह स्टेशन के पास लक्ष्मी बाबू की एक सोने-चांदी की दुकान हुआ करती थी। उस समय आज की तरह ज्वेलर्स लिखने का चलन नहीं था। सभी की सहूलियत के लिये दुकान के दरवाजे के एक तरफ बांग्ला में लिखा हुआ था " लखी बाबुर सोना चांदीर दोकान"। इसी को दरवाजे की दूसरी तरफ हिंदी में लिख दिया गया था "लखी बाबू का सोना चांदी का दोकान" ले भाई एक कान सोने का दूसरा चांदी का, ऐश कर।
इस भाषा में मिठास बहुत है, पूरी तरह रसगुल्ले की चाशनी में पगी हुई होती है। विश्वास नहीं है तो देखिये - शाम के समय बनर्जी बाबू बाग मे बैठे हुए ठंड़ी हवा का आनंद लेने के बाद जब बाहर निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि उनकी जेब काट ली गयी है। वे तुरंत फिर बाग के अंदर गये और वहां के माली से पूछा कि अभी जो यहां मेरे साथ एक भद्र लोक (पुरुष) बैठे थे उन्हें देखा ? माली ने जवाब दिया, नहीं। पर हुआ क्या ? बनर्जी बाबू बोले, अरे देखो न, वह भद्र लोक हमारी पोकेट मार कर भाग गया।गोयाकी पोकेटमार भी भद्र पुरुष होता है।
अब ऐसा है कि इस विषय पर लिखा जाय तो यह हनुमान जी की पूंछ की तरह बढता ही चला जायेगा। सोचा था कि बंगाल की हिंदी के बारे में लिखुंगा पर भटक गया। पर एक गुजारिश भी है कि इस भटकन को खेल भावना से ही लिया जाय। अगली बार रास्ते पर आ दोनों भाषाओं पर चर्चा करने की कोशिश करुंगा। तब तक के लिये नोमोश्कार।

शनिवार, 23 मई 2009

शीर्षक देना जरूरी है, पर क्या शीर्षक दूँ ?

अपने राज भाटिया जी की माताजी की तबीयत बहुत नाजुक है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। आदमी चाहे कितना भी उम्रदराज हो जाये पर सदा अपने सर पर माँ के आंचल की छाया चाहता है। यही एक ऐसा रिश्ता है जिसमें किसी छल-फरेब-लालच का समावेश नहीं रहता। इतनी उम्र होने के बावजूद अभी भी जब बहुत हताश निराश हो जाता हूं तो माँ की गोद में सर रख देता हूं। भले ही वह मेरी परेशानी को दूर न कर पाती हों पर उनके हाथ का स्पर्श मिलते ही मुझमें एक हौसला जाग उठता है।भाटियाजी तो बहुत दूर हैं अपनी माताजी से उनकी मनोदशा को समझा जा सकता है। भगवान करे कि कोई चमत्कार हो और उनकी तबीयत सुधर जाये।

शुक्रवार, 22 मई 2009

क्या हनुमान जी के और भी पांच भाई थे ?

पिछले दिनों हिमाचल यात्रा के दौरान एक आश्चर्य जनक जानकारी मिली। एक जगह कथा के दौरान कथावाचक पंडितजी ने हनुमानजी के पांच छोटे भाईयों का जिक्र किया। जिनके नाम उन्होंने क्रमश: - मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान और धृतिमान बताये। इसके साथ ही यह भी बताया कि वह सब विवाहित थे। पंडित जी की विद्वत्ता पर शक नहीं किया जा सकता था, कथा और भाषा पर उनकी पकड़ अद्भुत थी। पर उनसे अपनी शंका का समाधान करने का अवसर और समय नहीं मिल पाया। हनुमानजी के इन अनुजों का मैंने आज तक कभी भी कहीं भी जिक्र न सुना है न पढा है। ऐसा क्यूं है कि कहीं भी इनके सहयोग का राम कथा में उल्लेख नहीं है। अब सारे ब्लागर भाईयों से ही यह उम्मीद है कि यदि किसी को इस बारे में कुछ जानकारी हो तो उसे हमारे बीच बांटे, जिससे इस शंका का समाधान हो सके। इंतजार रहेगा।

मंगलवार, 19 मई 2009

बंगाल के सुंदरवन में दहशत में इंसानी जिन्दगी

संसार में बंगाल का सुंदरवन ही शायद अकेली जगह है, जहाँ शेर लगातार आदमी का शिकार करते रहतें हैं। वहाँ के लोग किन परस्थितियों में जी रहे हैं इसका रत्ती भर अंदाज भी बाहर की दुनिया को नही है। वातानुकूलित कमरों में बैठ कर बंदरों-भालुओं को बचाने की बातें करने वाले तथाकथित पशु संरक्षकों से गुजारिश है कि कभी समय निकाल कर इंसान की जद्दोजहद की ओर भी ध्यान देने का कष्ट करें। वे पायेंगे कि कहीं-कहीं जानवर ही नहीं आदमी को भी बचाने की जरूरत है कुछ दिन पहले सुंदरवन के एक सुदूर गाँव का निवासी फटिक हालदार मछली पकड़ने अपने दो साथियों के साथ नदी पर गया था। फटिक तो पानी में उतर गया जबकि उसके दोनों साथी, बापी और दिलीप, नाव में उसकी सहायता के लिए रह गए। अभी फटिक ने जाल फेंका ही था कि पीछे से शेर ने उस पर धावा बोल दिया। फटिक तो शेर को देख भी ना पाया, परन्तु उसके दोनों साथी शेर की झलक पाते ही बेहोश हो नाव में गिर पड़े। शेर ने फटिक का कंधा अपने जबड़ों में ले झिन्झोड़ना शुरू कर दिया। पहले तो फटिक होशोहवाश खो बैठा, उसके पैर पानी में कीचड में धसे हुए थे , सर पर शेर सवार था, साथी बेहोश पड़े थे। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। उसे अपने पिता कि याद आयी जो इसी तरह शेर का शिकार हो गया था, उसे अपने बच्चों की याद आयी जो घर पर उसकी राह देख रहे थे। उसने अपने पैरों को मजबूती के साथ कीचड में गड़ाया और शेर के गले को अपनी बाँहों में कस कर पकड़ लिया। पानी में होने के कारण शेर भी फटिक पर काबू नहीं पा रहा था। फटिक के अनुसार उसके कन्धों में शेर के नुकीले दांत भाले की तरह घुसे हुए थे और वह पूरा मांस खींच लेना चाहता था। इसी बीच मैंने अपने घुटनों से उसके पेट पर वार किया और उसके मुहँ पर, चीखते हुए, एक जोरदार प्रहार किया। पता नहीं क्या हुआ भगवान् की दया से शेर मुझे छोड़ कर भाग गया और मैं पानी में गिर पडा पर मैं जानता था कि यदि मैं बेहोश हो गया तो मैं मर जाऊँगा सो मैंने किसी तरह नाव मे चढ़ कर अपने साथियों को होश दिलाया, फिर क्या हुआ मुझे नहीं पता। इसके बाद नाव में चार घंटों के सफर के बाद वे तीनो किसी तरह अपने गाँव पहुंचे । वहाँ से फटिक को एक घंटे की यात्रा के बाद जामत्तल्ला कस्बे की डिस्पेंन्सरी मे पहुंचाया गया जहाँ प्राथमिक चिकित्सा देने के बाद उसे कोलकत्ता भेजा गया। वहाँ डॉक्टरों के अथक प्रयास से फटिक की जान बच पाई । पर फटिक ने अपना पुस्तैनी धधा बंद करने का फैसला कर लिया है। वह नहीं चाहता कि ऐसे किसी हादसे मे उसकी जान चली जाने पर उसके परिवार को भूखा रहना पड़े।

सोमवार, 18 मई 2009

गिरने-गिरने का फर्क

संता :- ओये बन्तया, इक बात बता.
बंता :- पुच्छो जी,
संता :- पांचवी मंजिल और पहली मंजिल से गिरने में क्या फर्क है ?
बंता :- पांचवी मंजिल से गिरते आदमी की आवाज आती है ____ आआआअआआआआआआअ ## धप्प
और पहली मंजिल से गिरे आदमी से आवाज आती है --------- धप्प ## आआआआआआआअ

रविवार, 17 मई 2009

लंगडा आम, ऐसा नाम कैसे पडा

अपनी सुगंध, मिठास तथा स्वाद के कारण आम फ़लों का राजा कहलाता है। तरह-तरह के नाम हैं इसके - हापुस, चौसा, हिमसागर, सिंदुरी, सफ़ेदा, गुलाबखास, दशहरी इत्यादि-इत्यादि, पर बनारस का एक कलमी सब पर भारी पडता है। यह खुद जितना स्वादिष्ट होता है उतना ही अजीब नाम है उसका "लंगडा"। यह आमों का सरताज है। इसका राज फ़ैला हुआ है बनारस के रामनगर के इलाके में। इसका नाम ऐसा क्यों पडा इसकी भी एक कहानी है।
बनारस के राम नगर के शिव मंदिर में एक सरल चित्त पुजारी पूरी श्रद्धा-भक्ती से शिवजी की पूजा अर्चना किया करते थे। एक दिन कहीं से घूमते हुये एक साधू महाराज वहां पहुंचे और कुछ दिन मंदिर मे रुकने की इच्छा प्रगट की। पूजारी ने सहर्ष उनके रुकने की व्यवस्था कर दी। साधू महाराज के पास आम के दो पौधे थे जिन्हें उन्होंने मंदिर के प्रांगण में रोप दिया। उनकी देख-रेख में पौधे बड़े होने लगे और समयानुसार उनमें मंजरी लगी। जिसे साधू महाराज ने शिवजी को अर्पित कर दिया। रमता साधू शायद इसी दिन के इंतजार मे था, उन्होंने पुजारीजी से अपने प्रस्थान की मंशा जाहिर की और जाते-जाते उन्हें हिदायत दी कि इन पौधों की तुम पुत्रवत रक्षा करना। इनके फ़लों को पहले प्रभू को अर्पण कर फ़िर फ़ल के टुकडे कर प्रसाद के रूप में वितरण करना, पर ध्यान रहे किसी को भी साबुत फ़ल, इसकी कलम या टहनी अन्यत्र लगाने को नहीं देनी है। पुजारी से वचन ले साधू महाराज रवाना हो गये। समय के साथ पौधे वृक्ष बने उनमें फ़लों की भरमार होने लगी। जो कोई भी उस फ़ल को चखता वह और पाने के लिये लालायित हो उठता पर पुजारीजी किसी भी दवाब में न आ साधू महाराज के निर्देशानुसार कार्य करते रहे। समय के साथ-साथ फ़लों की शोहरत काशी दरबार तक भी जा पहुंची। एक दिन राजा ने भी प्रसाद चखा और उसके दैवी स्वाद से अभिभूत रह गये। उन्होंने उसी समय दरबार के माली को पुजारी के पास, आम की कलम लाने के आदेश के साथ भेज दिया। पुजारीजी धर्मसंकट मे पड गये। राजादेश को नकारा भी नहीं जा सकता था। सोचने के लिये समय चाहिये था सो उन्होंने दूसरे दिन खुद दरबार में हाजिर होने की आज्ञा मांगी। सारा दिन वह परेशान रहे। रात को उन्हें ऐसा आभास हुआ जैसे खुद शंकर भगवान उन्हें कह रहे हों कि काशी नरेश हमारे ही प्रतिनिधी हैं उनकी इच्छा का सम्मान करो। दूसरे दिन पुजारीजी ने टोकरा भर आम राजा को भेंट किये। वहां उपस्थित सभी लोगों ने उस दिव्य स्वाद का रसपान किया। फिर काशी नरेश की आज्ञानुसार माली ने उन फ़लों की अनेक कलमें लगायीं। जिससे धीरे-धीरे वहां आमों का बाग बन गया। आज वही बाग बनारस हिंदु विश्वविद्यालय को घेरे हुये है।
यह तो हुई आम की उत्पत्ती की कहानी। अब इसके अजीबोगरीब नाम की बात। शिव मंदिर के पुजारीजी के पैरों में तकलीफ़ रहा करती थी। जिससे वह लंगडा कर चला करते थे। इसलिये उन आमों को लंगडे बाबा के आमों के नाम से जाना जाता था। समय के साथ-साथ बाबा शब्द हटता चला गया और आम की यह जाति "लंगडा आम" के नाम से विश्व विख्यात होती चली गयी।

शनिवार, 16 मई 2009

कलयुगी श्रवण कुमार

आज हरिया अपने बेटे डा गोविन्द के साथ शहर जा रहा था। गाँव वाले अचंभित थे, गोविन्द के गाँव आने पर, उसके दो-दो नर्सिंग होम थे शहर में, इतना व्यस्त रहता था वह कि अपनी माँ के देहांत पर भी गाँव नहीं आ सका था। पर खुश भी थे, हरिया को चाहने वाले, यह सोच कर कि बीमार हरिया शहर में अपने बेटे के पास रह कर अपनी जिन्दगी के शेष दिन आराम से गुजार सकेगा।
उधर गोविन्द बाप को देख कर ही समझ गया था कि महीने दो महीने का खेल ही बचा है। उसे बाप की देह के किडनी इत्यादि अंग, बैंक बैलेंस में तब्दील होते नजर आ रहे थे।

मंगलवार, 12 मई 2009

हे भगवान, इतने जुड़वां

याद है ये फिल्में - कानून, राम और श्याम, सीता और गीता, अंगूर, शर्मीली वगैरह-वगैरह। ये वह फिल्में थीं जिनमें एक ही चेहरे के दो-दो इंसान या इंसाननीयां थीं और जिसके कारण पूरी फिल्म में अफरातफरी मची रहती है। और यह तब होता है जब कि कहानी में एक या दो जोड़े होते हैं। सोचिए यदि असली जिंदगी में ऐसे लोगों से पाला पड़ जाये वह भी एक दो नहीं 250 से भी ज्यादा जोड़ों से तो क्या हाल होगा। पर ऐसा है और अपने ही देश में ही है।
केरल के कोड़िन्ही नामक गांव ने दुनिया में शोहरत पायी है अपने यहां जन्मे जुड़वां बच्चों के कारण। यहां की सरकारी सूची में 250 जुड़वां बच्चों के जन्म का विवरण है, पर यहां के निवासियों के अनुसार इनकी संख्या इससे अधिक ही है। पिछले सात के करीब दशकों में यहां करीब 250 जुड़वों का जन्म हो चुका है। पिछले पांच सालों में ही करीब साठ जोड़ी बच्चे जन्म ले चुके हैं। हर साल यह दर बढती ही जा रही है। एक ही जगह इतनी बड़ी संख्या में जुड़वाओं ने अवतरित होकर वैज्ञानिकों को भी हैरानी में डाल रखा है।
हां, इसका कोई रेकार्ड नहीं है कि, कितने रामस्वरुपों ने शैतानी की, फलस्वरुप पकड़े गये।

रविवार, 10 मई 2009

प्रभू, तुम माँ के बराबर नही हो

कहते हैं कि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रह सकता था इसीलिये उसने माँ की रचना की। पर यह उसकी एकमात्र रचना है, जो अपने रचयिता से भी महान हो गयी। क्योंकि :-
प्रभू सर्वव्यापक है। माँ भी है।
वह दया का सागर है। माँ भी है।
वह पालनकर्ता है। माँ भी है।
वह सुखदाता है। माँ भी है।
वह दुखहर्ता है। माँ भी है।
वह हमसाया है। माँ भी है।
वह सबके भोजन का प्रबंध करता है। माँ भी करती है।
परंतु :-माँ अपने शरीर का अंग काट कर रचना करती है।
माँ खुद भूखी रह कर बच्चों के खाने का प्रबंध करती है।
माँ खुद गीले में रह बच्चों को सुख की नींद देती है।
माँ खुद जाग-जाग कर तिमारदारी करती है।
माँ सपने में भी अपने बच्चों को कष्ट देने का नहीं सोच सकती।
मां कभी भी अपने किए का सिला नहीं चाहती।
मां तन-मन-धन से बच्चों के लिये न्योछावर रहती है।
माँ बच्चों पर विपत्ती आने पर अपनी जान की भी परवाह नहीं करती।
सबसे बड़ी बात प्रभू को भी माँ की जरूरत पड़ती है। वह भी समय-समय पर माँ के स्नेह, वात्सल्य, प्रेम, ममता को पाने के लिये अपने आप को रोक नहीं पाता।
और अंत में :- दुनिया में अनगिनत लोग हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं पर एक भी प्राणी ऐसा नहीं मिलेगा जो माँ के वजूद से इंकार कर सके।

गुरुवार, 7 मई 2009

टी. वी. पर यह किस जमाने की शकुन्तला है भाई

कल ऐसे ही रिमोट से टीवी के चैनलों का जायजा ले रहा था। अचानक एक जगह भव्य सेट देख कर थम गया। खोजा तो दिखा कि 'शकुन्तला' नाम का सीरीयल चल रहा है। आगे बढ़ने ही वाला था की परदे पर की कन्या ने साथ के युवक से कहा की आपके सर में दर्द हो रहा है, मैं "बाम" लगा देती हूँ। मुझे लगा की शायद मैंने ग़लत सुना हो, पर यकीन मानिए, वह सतयुगी बाला बार-बार कलयुगी शब्द "बाम" का उपयोग धड़ल्ले से करती रही। कम से कम तीन-चार बार तो उसने कहा ही होगा।
सोच-सोच कर ही डर लगता है कि इतना शक्तिशाली माध्यम कैसे-कैसे हाथों में चला गया है। यह तो एक बानगी है। पता नहीं कैसे-कैसे लोग कैसी-कैसी चीजें कैसे-कैसे रूपों में परोसे जा रहे हैं। लोगों का हाज़मा बिगडे उनकी बला से।

बुधवार, 6 मई 2009

अजीब है पर सच है

1) कागज की एक शीट को, चाहे वह कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, चारों कोने मिला कर, आठ बार से ज्यादा फोल्ड नहीं किया जा सकता। कोशीश कर देखें।
2) FOUR एक ऐसी संख्या है, जिसमें अक्षर और संख्या का मान बराबर है।
3) कबूतर अकेला पक्षी है जो पानी को चूस कर पी सकता है। बाकी के पक्षियों को पानी निगलने के लिये अपनी गर्दन को पीछे झटकना पड़ता है।
4) आदमी अकेला प्राणी है जो पीठ के बल भी सो सकता है।
5) “37” एक ऐसी संख्या है जो खुद किसी और संख्या से विभाजित नहीं होती, पर नीचे वाली अजीबोगरीब संख्यायों को विभाजित कर देती है :- 111, 222, 333, 444, 555, 666, 777, 888, 999।
6) ज़ेबरे पर सफेद धारियां होती हैं ना कि काली।

रविवार, 3 मई 2009

"मंडी", जहाँ महाकाव्य महाभारत की रचना हुई थी.

इस बार अपने देश का अधिकतर भाग गर्मी की चपेट में है। इससे बचने के लिये पहाड़ों पर जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं और प्रकृति की सुंदरता को करीब से देखना चाहते हैं तो अपेक्षाकृत कम जानीजाने वाली जगहों को अपनी छुट्टियों के लिये चुने। वहां मशहूर जगहों की अपेक्षा कम भीड़-भाड़ और ज्यादा सकून मिल पायेगा। ऐसी ही एक जगह है “मंडी”।
यह चण्ड़ीगढ कुल्लू मार्ग पर व्यास नदी के तट पर बसा बेहद खूबसूरत नगर है, जो प्राकृतिक सौंदर्य, एतिहासिक महत्ता और धार्मिक स्थलों के लिये खासा मशहूर है। ऐसा माना जाता है कि महर्षि मांड़व्य ने यहां घोर तपस्या की थी जिस कारण इसे मांडव्य के नाम से जाना जाने लगा। जो कालांतर में मंडी बन गया। यही वह स्थान है जहां महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना की थी।
यहां वर्षों तक सैन वंश का शासन रहा जिन्होंने अपने शासन काल में सैंकड़ों मंदिरों, स्मारकों व किलों का निर्माण करवाया था। यहां अभी भी सौ से ज्यादा मंदिर हैं । जिनमें नीलकंठ महादेव, भूतनाथ, एकादश रुद्र, त्रिलोकी नाथ, अर्ध नारिश्वर, सिद्धकाली, सिद्धभद्रा, महामृत्युंजय आदि प्रमुख हैं।
यहां घूमने-देखने के लिये ढेरों स्थानों में रिवाल्सर,कमरूनाथ, पाराशर झील जैसी अनेकों जगहें हैं जिन्हें देख प्रकृति प्रेमियों का वापस जाने का दिल नहीं करता।
मंडी से 40 कि.मी. दूर पराशर झील के किनारे ऋषि पराशर का एक खूबसूरत पैगोड़ा शैली का बना हुआ मंदिर है। इस में लकडी पर उकेरी गयी आकृतियां इतनी लाजवाब हैं कि देखने वाला खड़ा का खड़ा रह जाता है। इस मंदिर में लक्ष्मी, विष्णू, दुर्गा तथा शिव जी की प्रतिमायें स्थापित हैं।
इसी तरह रिवाल्सर झील जो मंडी से 25कि.मी. की दूरी पर स्थित है, अपनी सुंदरता में अद्वितीय है। यह जगह महर्षि लोमष की तपोभूमी के रूप में जानी जाती है। जो शिव जी के अनन्य भक्त थे।
मंडी से ही 50 कि.मी. की दूरी पर एक और खूबसूरत झील कमरूनाग है। यहां का पहुंच मार्ग इतना सुंदर है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। यहीं कमरुनाथ जी का प्रसिद्ध बेहद प्राचीन मंदिर भी है।
मंडी से ही शिमला जाने के रास्ते में ‘तत्ता पानी’ नाम की एक और दर्शनीय जगह आती है। जो एक अजूबे की तरह है। एक तरफ सतलुज नदि का बर्फ के समान ठंड़ा पानी है तो वहीं नदि के आगोश से निकलता हुआ गर्म जल किसी परी कथा की याद दिला देता है।
तो जब भी, कभी भी, पहाड़ों का रुख करें तो विख्यात जगहों को छोड़ कुछ अनजानी जगहों को तलाशें। यकीन मानिये कभी भी निराशा हाथ नहीं लगेगी।

शुक्रवार, 1 मई 2009

आओ कसाबो, हमारे जले पर नमक छिड़को

आओ हमारे देश में तुम्हारा स्वागत है। आप तो जानते ही हैं कि हम और हमारा देश मेहमानों को देवता स्वरूप समझते हैं। हम खायें ना खायें उन्हें भरपेट भोजन उपलब्ध करवाते हैं। खुद गीले-सुखे में जैसे-तैसे गुजारा कर अतिथी को शैया सुख प्रदान करते हैं। हमारी फितरत है कि आप हमें लतियाते, धकियाते, गलियाते रहें पर हम फिर भी आपको सिर पर बैठाये रखते हैं। हमें सिखाया गया है कि कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल उसके सामने कर दो, कि ले भाई गुस्सा निकाल ले, यह दिल के लिये घातक होता है। पर यदि कहीं आप ज्यादा ही नाराज हो सौ-पचास लोगों का क्रिया करम भी कर देते हैं तो भी हमारे यहां डरने की जरूरत नहीं होती, यहां मानवाधिकारियों की फौज पुरजोर कोशीश करती है कि आप के सलीके से संवारे गये बालों में एक खम भी ना पड़े। जिनकी जान जाती है उनके आत्मियों को भी यह पता है कि यह आपकी करनी नहीं है आप तो सिर्फ माध्यम हो करने वाला तो भगवान है। आत्मा अमर होती है वह चोला बदलती रहती है, इत्यादि-इत्यादि और यह सब हमारी घुट्टी में है। इसलिये बेचारे कुछ दिन रो-गा कर चुप हो जाते हैं। वैसे आप लोग भी कफी समझदार हैं इसीलिए किसी संत्री-मंत्री पर हाथ नहीं डालते क्योंकि वैसे कुछ दिक्कत हो सकती है। आम आदमी की कीमत यहां किसी भुनगे-मकौडे से ज्यादा नहीं है। फिर भी खुदा न खास्ता यदि आप कभी हिरासत में ले भी लिये जाते हैं तो हम वहां भी आपकी खातिर-तवज्जो में कोई कमी नहीं आने देते। आपको बेहतरीन सुविधाओं के साथ-साथ लज़ीज भोजन का स्वाद दिलाया जाता है। आपकी दिनचर्या को खुशगवार बनाने में हम कोई कोर-कसर नहीं छोडते। यहां तक कि नहाने धोने के बाद आपकी पसंद का इत्र-फुलेल भी आपकी खिदमत में प्रस्तुत करने में हिचकिचाते नहीं हैं। आपकी हर फरमाईश को सिर माथे पर रखने के साथ-साथ ही हमारी कोशीश रहती है कि आप सादर और सुरक्षित हमसे विदा लें। फिर वापस आने की तैयारी कर के।
सो आईये, घूमिये-फिरिये, तफरीह करिये, शिकार का शौक फर्माईये और हमारी छती पर मूंग दलिये।
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दुनिया में शायद हमारा ही देश है, जहां खून-खराबा करने वाला भी रोज-रोज अपनी नयी-नयी मांगे मनवाने की जुर्रत कर सकता है। कसाब की हिम्मत देखिए कि जेल में अपनी मांगें ऐसे रख रहा है जैसे उसने हमारे लिए कोई बहादुरी का काम किया हो। बिना किसी शर्म, हया लज्जा के आज वह इत्र मांग रहा है, कल मुजरा देखने की भी फर्माइश कर सकता है। काश कोई तो ऐसा होता कि उसी समय उसके मुंह पर एक झापड़ रसीद करता। किस की शह पर उसमें इतनी हिम्मत आ गयी कि वह अपनी कारस्तानियों के कारण डरने की बजाय हमारे जख्मों पर ही नमक छिड़कने पर तुला हुआ है।

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आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...