#हिन्दी_ब्लागिंग
अभी पौ फटी नहीं थी ! मौसम में ठंड की कुनकुनाहट थी ! रात में सोने में देर हो जाने के कारण अभी भी अर्द्धसुप्तावस्था की हालत बनी हुई थी, ऐसे में दरवाजे पर दस्तक सी सुनाई पड़ी ! सच और भ्रम का पता ही नहीं चल पा रहा था ! दोबारा आहट सी हुई लगा कि कोई है ! इस बार उठ कर द्वार खोला तो एक गौर-वर्ण अजनबी व्यक्ति को सामने खड़ा पाया ! आजकल के परिवेश से उसका पहनावा कुछ अलग था ! धानी धोती पर पीत अंगवस्त्र, कंधे तक झूलते गहरे काले बाल, कानों में कुंडल, गले में तुलसी की माला, सौम्य-तेजस्वी चेहरा, होठों पर आकर्षित कर लेने वाली मुस्कान ! इसके साथ ही जो एक चीज महसूस हुई वह थी एक बेहद हल्की सुवास, हो सकता है वह मेरे प्रांगण में लगे फूलों से ही आ रही हो, पर थी तो सही !
मेरे चेहरे पर प्रश्न सूचक जिज्ञासा देख उसने मुस्कुराते हुए कहा, अंदर आने को नहीं कहिएगा ?"
उनींदी सी हालत ! अजनबी व्यक्ति, सुनसान माहौल !! पर आगंतुक के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऊहापोह की स्थिति में भी मैंने एक तरफ हट कर उसके अंदर आने की जगह बना दी !
बैठक में बैठने के उपरांत मैंने पूछा, आपका परिचय नहीं जान पाया हूँ !"
वह मुस्कुराया और बोला, मैं बसंत !"
बसंत ! कौन बसंत ?" इस चेहरे और नाम का कोई भी परिचित मुझे याद नहीं आ रहा था !
मैंने कहा, माफ कीजिएगा, मैं अभी भी आपको पहचान नहीं पाया हूँ !"
अरे भाई, वही बसंत देव, जिसके आगमन की खुशी में आप सब पंचमी मनाते हैं !"
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था ! क्या कह रहा है सामने बैठा इंसान !! यह कैसे हो सकता है ?
घबराहट मेरे चेहरे पर साफ झलक आई होगी, जिसे देख वह बोला, घबराइए नहीं, मैं जो कह रहा हूँ, वह पूर्णतया सत्य है !"
मेरे मुंह में तो जैसे जबान ही नहीं थी ! लौकिक-परालौकिक, अला-बला जैसी चीजों पर मेरा विश्वास नहीं था ! पर जो सामने था उसे नकार भी नहीं पा रहा था ! सच तो यह था कि मेरी रीढ़ में सिहरन की लहर सी उठने लगी थी ! एक आश्चर्य की बात यह भी थी कि जरा सी आहट पर टूट जाने वाली, श्रीमती जी की कच्ची नींद पर, मेरे उठ कर बाहर आने या हमारे बीच के वार्तालाप की ध्वनि का अभी तक कोई असर तक नहीं हुआ था !
परिस्थिति से उबरने के लिए मैंने आगंतुक से कहा, ठंड है, मैं आपके लिए चाय का इंतजाम करता हूँ !" सोचा था इसी बहाने श्रीमती जी को उठाऊंगा, एक से भले दो !
पर अगले ने साफ मना कर दिया कि मैं कोई भी पेय पदार्थ नहीं लूंगा, आप बैठिए !"
मेरे पास कोई चारा नहीं था। फिर भी कुछ सामान्य सा दिखने की कोशिश करते हुए मैंने पूछा, कैसे आना हुआ ?"बसंत के चेहरे पर स्मित हास्य था, बोला मैं तो हर साल आता हूँ ! आदिकाल से ही जब-जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट होती है, मैं पहुंचता रहा हूँ ! सशरीर ना सही पर अपने आने का सदा प्रमाण देता रहा हूँ । आपने भी जरूर महसूस किया ही होगा कि मेरे आगमन से सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक अंगडाई ले, आलस्य त्याग जागने लगती है! जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है! सर्वत्र माधुर्य और सौंदर्य का बोलबाला हो जाता है ! वृक्ष नये पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते हैं ! सारी प्रकृति ही मस्ती में डूब जाती है ! जीव-जंतु, जड़-चेतन सब में एक नयी चेतना आ जाती है ! हर कोई एक नये जोश से अपने काम में जुटा नज़र आता है ! मौसम की अनुकूलता से मानव जीवन में भी निरोगता आ जाती है ! मन प्रफुल्लित हो जाता है, जिससे चारों ओर प्रेम-प्यार, हास-परिहास, मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का वातावरण बन जाता है ! इस मधुमास या मधुऋतु का, जिसे आपलोग फागुन का महीना कहते हो ! कवि, गीतकार, लेखक आकंठ श्रृंगार रस में डूब कर अपनी रचनाओं में चिरकाल से वर्णन करते आए हैं।" इतना कह वह चुप हो गया। जैसे कुछ कहना चाह कर भी कह ना पा रहा हो।
मैं भी चुपचाप उसका मुंह देख रहा था। उसके मेरे पास आने की वजह अभी भी अज्ञात थी।वह मेरी ओर देखने लगा। अचानक उसकी आँखों में एक वेदना सी झलकने लगी थी। एक निराशा सी तारी होने लगी थी।
उसने एक गहरी सांस ली और कहने लगा, पर अब सब धीरे-धीरे बदलता जा रहा है ! ऋतुएँ अपनी विशेषताएं खोती जा रही हैं, उनका तारतम्य बिगड़ता जा रहा है ! इसी से मनुष्य तो मनुष्य, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं को भी गफलत होने लगी है ! सबकी जैविक घड़ियों में अनचाहे, अनजाने बदलावों के कारण लोगों को लगने लगा है कि अब बसंत का आगमन शहरों में नहीं होता ! गलती उन की भी नहीं है ! बढ़ते प्रदूषण, बिगड़ते पर्यावरण, मनुष्य की प्रकृति से लगातार बढती दूरी की वजह से मैं कब आता हूँ, कब चला जाता हूँ, किसी को पता ही नहीं चलता ! जब कि मैं तो अबाध रूप से सारे जग में संचरण करता हूँ ! यह दूसरी बात है कि मेरी आहट प्रकृति-विहीन माहौल और संगदिलों को सुनाई नहीं पडती। दुनिया में यही देश मुझे सबसे प्यारा इसलिए है क्योंकि इसके हर तीज-त्यौहार को आध्यात्मिकता के साथ प्रेम और भाई-चारे की भावना से जोड़ कर मनाने की परंपरा रही है ! पर आज उस सात्विक उन्मुक्त वातावरण और व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचर और कुठाएं लेती जा रही हैं ! भाईचारे, प्रेम की जगह नफरत और बैर ने ले ली है ! मदनोत्सव तो काम-कुंठाओं से मुक्ति पाने का प्राचीन उत्सव रहा है, इसे मर्यादित रह कर शालीनता के साथ बिना किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाए, बिना किसी को कष्ट या दुख दिए मनाने में ही इसकी सार्थकता रही है ! पर आज सब कुछ उल्टा-पुल्टा, गड्ड-मड्ड होता दिखाई पड़ रहा है ! प्रेम की जगह अश्लीलता, कुत्सित चेष्टाओं ने जगह बना ली है ! लोग मौका खोजने लगे हैं इन तीज-त्योहारों की आड़ लेकर अपनी दमित इच्छाओं, अपने पूर्वाग्रहों को स्थापित करने की !"
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कक्ष में सन्नाटा सा पसर गया ! लगा जैसे गहरी वेदना उसके अंदर घर कर बैठी हो ! कुछ देर के मौन के पश्चात वह मेरी ओर मुखातिब हो बोला, आज मेरा आपके पास आने का यही मकसद था कि यह समझा और समझाया जा सके सभी को कि यही वक्त है, गहन चिंतन का ! लोगों को अपने त्योहारों, उनकी विशेषताओं उनकी उपयोगिताओं के बारे में बताने का, समझाने का ! जिससे इन उत्सवों की गरिमा वापस लौट सके ! ये फकत एक औपचारिकता ना रह जाएं, बल्कि मानव जीवन को सवांरने का उद्देश्य भी पूरा कर सकें !"
कमरे में पूरी तरह निस्तबधता छा गई ! विषय की गंभीरता के कारण मेरी आँखें पता नहीं कब स्वतः ही बंद हो गईं। पता नहीं इसमें कितना वक्त लग गया ! तभी श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी कि रात सोने के पहले तो अपना सामान संभाल लिया करो ! कागज बिखरे पड़े हैं ! कंप्यूटर अभी भी चल रहा है ! फिर कुछ इधर-उधर होता है तो मेरे पर चिल्लाते हो ! हड़बड़ा कर उठा तो देखा आठ बज रहे थे ! सूर्य निकलने के बावजूद धुंध, धुएं, कोहरे के कारण पूरी तरह रौशनी नहीं हो पा रही थी !
मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, कमरे में मेरे सिवा और कोई नहीं था ! ऐसे बहुत वाकये और कहानियां पढ़ी हुई थीं, जिनमें किसी अस्वभाविक अंत को सपने से जोड़ दिया जाता है, पर अभी जो भी घटित हुआ था, वह सब मुझे अच्छी तरह याद था ! मन यह मानने को कतई राजी नहीं था कि मैंने जो देखा, महसूस किया, बातें कीं, वह सब रात के आर्टिकल की तैयारी और थके दिमाग के परिणाम का नतीजा था ! कमरे में फैली वह सुबह वाली हल्की सी सुवास मुझे अभी भी किसी की उपस्थिति महसूस करवा रही थी........!!