बॉक्सिंग डे को मनाने का कोई बहुत ही कठोर नियम नहीं है। कभी-कभी जब 26 दिसम्बर को रविवार पड़ जाता है तो इसे अगले दिन अर्थात 27 दिसम्बर को और यदि बॉक्सिंग दिवस शनिवार को पड़ जाये तो उसके बदले में आने वाले सोमवार को अवकाश दिया जाता है। परन्तु यदि क्रिसमस शनिवार को हो तो क्रिसमस की सुनिश्चित छुट्टी सोमवार 27 दिसम्बर को होती है और बॉक्सिंग दिवस का सुनिश्चित अवकाश मंगलवार 28 दिसम्बर को होता है.......................!
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
शनिवार, 26 दिसंबर 2020
बॉक्सिंग डे, जिसका बॉक्सिंग के खेल से कोई लेना-देना नहीं है
मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
अपनी भाषा को पहले हमें ही सम्मान देना है
विश्व में केवल संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें सिर्फ "एक अक्षर, दो अक्षर या केवल तीन ही अक्षरों" से पूरा वाक्य बनाया जा सकता है। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है.............!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
भाषा अभिव्यक्ति का वह सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम या जरिया है, जिसके द्वारा हम आपस में अपने मनोभावों को, विचारों को व्यक्त करते हैं, एक-दूसरे से जुड़ पाते हैं। यह हमारे समाज के निर्माण, विकास, अस्मिता, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का भी महत्वपूर्ण साधन है। इसके लिये हमारी वाचिक ध्वनियां सहायक होती हैं, जो शब्दों और वाक्यों का समूह बन एक-दूसरे को अपने मन की बात बताती-समझाती हैं। इसके बिना मनुष्य व समाज सर्वथा अपूर्ण हैं !
हमारे शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई
जाहिर है समय, परिवेश, स्थितियों के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न तरह की भाषाओं का उद्भव हुआ। मानव के उत्थान के साथ-साथ उसका आरंभिक ''नाद'' विकास करते हुए संपन्न भाषाओं में बदलता चला गया। इस समय सारे संसार में हजारों (अनुमानत: 6809) प्रकार की भाषाएँ, वर्षों से अपनी-अपनी जरुरत के अनुसार बोली जाती रही हैं। इनमें से कई तो हजारों-हजार साल से अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए हैं। बहुतेरे देशों ने सिर्फ अपनी भाषा का उपयोग करते हुए भी ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन में असाधारण प्रगति की है। उन्हें अपनी वाक्संपदा पर नाज है। थोड़ी-बहुत कमी-त्रुटि तो हर चीज में होती ही है, पर इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी बोलियां हेय हैं, दोयम हैं !
हमारे देश पर सैंकड़ों सालों तक गैरों ने राज किया ! सालों-साल गुलाम रहने का असर हमारे दिलो-दिमाग पर भी पड़ना ही था ! हम अपना सुनहरा अतीत बिसारते चले गए ! हमें शासक और उनके कारिंदों की बातों में ही सच्चाई नजर आने लगी ! इस कुचक्र में कुछ हमारे अपने मतलबपरस्त लोगों का भी योगदान रहा है ! हमार शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी उस प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, जिसमें हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन के सार को लिपिबद्ध कर दिया था, उसे भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई !
हम शुरू से ही सहिष्णु रहे हैं। हमने दुनिया को ही अपना परिवार माना है ! हर अच्छी चीज का स्वागत किया है। दूसरे धर्मों, संस्कृतियों, मान्यताओं को भी अपने में सहर्ष समो लिया है। हमारे इसी विवेक, सहनशीलता, सामंजस्य को कमजोरी मान लिया गया ! अच्छाइयों के साथ बुराइयां भी थोपी जाने लगीं। सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ, जब उन्होंने अंग्रेजी को कुछ ऐसा आभामंडित कर दिया जैसे वह विश्व की सर्वोपरि भाषा हो ! उसके बिना कोई भी उपलब्धि हासिल ना की जा सकती हो ! देश में उसे रोजगार हासिल करने का मुख्य जरिया बना दिया गया। वर्षों-वर्ष यह गलतफहमी पलती रही ! पर फिर समय आ ही गया जब उन्हें बताना जरुरी हो गया कि समृद्ध भाषा कैसी होती है !
उदाहरण स्वरूप अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर होते हैं। जिन्हें दर्शाने के लिए एक बहुत प्रसिद्ध वाक्य गढ़ उसमें वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित किए गए हैं "THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG" पर वाक्य को पूरा करने के लिए O को चार बार और A, E, U तथा R को दो-दो बार सम्मिलित करना पड़ा है। इस तरह इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। भले ही ''टाइप'' करने की सुविधा के लिए ऐसा किया गया हो !
अब संस्कृत का उदहारण लें,
क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:। तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।
जिसका अर्थ है कि, पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करने वाला कौन ? राजा मय ! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।
इस श्लोक में संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन तो हैं ही वे भी पूरे क्रमानुसार। यह खूबसूरती संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को छोड़ अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती !
संस्कृत में श्लोक सुनिए, मंत्र सुनिए, भजन सुनिए ! इसके उच्चारणों में वह शक्ति है जो किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकती है ! एकाकार कर सकती है ! सम्मोहित कर किसी और लोक में पहुंचा सकती है। यही अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें केवल "एक अक्षर" से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है। महाकवि भारवि ने अपने काव्य संग्रह किरातार्जुनीयम् में केवल “न” व्यंजन का प्रयोग कर अद्भुत श्लोक की रचना की है जो थोड़े में ही बहुत कह जाती है -
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥
यानी, जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।
दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः। दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः॥
अर्थात, दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खंडन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।
इसक अलावा सिर्फ दो और तीन अक्षरों से पूरा वाक्य बनाना सिर्फ संस्कृत भाषा में ही संभव है -
कवि माघ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक की रचना कर डाली -
भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे। भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।।
अर्थात, निर्भय हाथी जो कि भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।
देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां। दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।
अर्थात - वह परमात्मा जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव को मारा था।
ऐसे सैंकड़ों उदहारण मिल जाएंगें जो निर्विवाद रूप से संस्कृत को विश्व की सर्वश्रेष्ठ, व्याकरणिक, तर्कसंगत, वैज्ञानिक, त्रुटिहीन भाषा सिद्ध कर सकते हों। इसीलिए जब संस्कृत को सर्वोपरि कहा जाता है तो उसके पीछे इस तरह के अद्भुत साक्ष्य होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है !
@संदर्भ - अंतरजाल
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020
एक मंदिर, जिसके सामने से गुजरते वक्त ट्रेनों की गति धीमी हो जाती है :-
यह शायद देश का एकमात्र मंदिर है, जिसमें हनुमान जी की प्रतिमा के बाएं बाजू पर श्री सिद्धि विनायक गणेशजी भी विराजित हैं। एक ही प्रतिमा में दोनों देवताओं के होने से ये अनूठी प्रतिमा अत्यंत शुभ, पवित्र, कल्याणकारी और फलदायी मानी जाती है............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020
ट्रेन के डिब्बों का रंग फिर लाल होने लगा है
इस चतुर इंसान ने मौका ताड़ा और रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और फिर हो गया, डिब्बों का रंग नीला। उनका तर्क था की लाल रंग क्रोध, उत्तेजना व आवेश का रंग है, इसी कारण रेल एक्सीडेंट होते हैं ! नीला रंग शांति का प्रतीक है इसलिए दुर्घटनाओं का ख़तरा बिल्कुल कम हो जाएगा ! दुर्घटनाएं कितनी कम हुईं ये तो सबने देखा पर करोड़ों अरबों के खेल का खेल पर्दे के पीछे हो गया.................!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
भारत में रेल का परिचय अंग्रेजों द्वारा सन 1853 में बहुत ही मामूली शुरूआत से हुआ जब बंबई से थाणे तक की 34 किमी की दूरी तय कर इतिहास बनाया था ! हालांकि उसके पहले 1837 में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक तथा 1851 में रुड़की में सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई गई थी पर वह सिर्फ माल ढोने के लिए किया गया था। शायद अंग्रेजों को लाल रंग बहुत पसंद था सो रेल गाड़ियों के डिब्बे भी लाल रंग के ही होते थे। वर्षों-वर्ष यही रंग चलता भी रहा !
वैसे कुछ गाड़ियों में हरे, मिले-जुले पीले रंग या कुछ और रंगों में भी होते हैं पर मुख्यता नीले और लाल रंग के डिब्बे ही ज्यादातर उपयोग में आते हैं।
मंगलवार, 8 दिसंबर 2020
किसान कानून के सकारात्मक परिणाम से कुछेक का अस्तित्व ही न मिट जाए
किसान की जिंदगी का हाल उजागर करती 1953 में फिल्म आई ''दो बीघा जमीन !'' उसके बाद भी हमारे देश के ''सुखी-खुशहाल, चिंता-फ़िक्र से मुक्त, उल्लास से नाचते-गाते किसानों'' पर, मदर इंडिया, हीरा-मोती, उपकार, कड़वी हवा, लगान, पीपली लाइव, किसान जैसी अनेक फ़िल्में आईं। पर समय एक सा कहां रहता है ! फिर आ गया 2014 का साल..............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होती हैं ! जो कुछ भी समाज में घट रहा होता है उसे ही पर्दे पर साकार कर दिया जाता है। जागरूक फिल्मकार सदा ही बिना किसी फायदे-नुक्सान-आलोचना-दवाब की परवाह किए बगैर अवाम की ज्वलंत समस्याओं को सामने लाते रहे हैं। स्वतंत्रता मिलने के कुछ ही साल बाद, आजादी का खुमार उतरने पर फिल्मकारों का ध्यान देश-समाज की धुरी रहे किसान पर भी गया ! उसकी जिंदगी का हाल उजागर करती 1953 में फिल्म आई ''दो बीघा जमीन !'' उसके बाद भी हमारे देश के ''सुखी-खुशहाल, चिंता-फ़िक्र से मुक्त, उल्लास से नाचते-गाते किसानों'' पर, मदर इंडिया, हीरा-मोती, उपकार, कड़वी हवा, लगान, पीपली लाइव, किसान जैसी अनेक फ़िल्में बनाई गईं। पर समय एक सा कहां रहता है ! फिर आ गया 2014 का साल ! बस फिर क्या था ! तभी से किसान की जिंदगी दूभर हो गई ! फसल की कीमत ना मिलने पर उसे नष्ट किया जाने लगा ! भूखों मरने की नौबत आ गई ! कइयों ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली। बिचौलिए हावी हो गए ! आढ़तिए उनका हक़ मारने लगे !
सच तो यह है कि देश के सबसे कमजोर, गरीब, कोमल तबके के सदस्य किसान की बदहाली शुरू से ही जस की तस रही है ! सदा उसका शोषण हुआ है ! आजादी के दशकों बाद भी हालत बहुत ज्यादा सुधार हुआ नहीं लगता। ऐसे में यदि बेहतरी की सोच के साथ एक कदम उठा है तो उसका स्वागत होना चाहिए ना कि उसके डगमगाने के डर से, बिना पूरा परिणाम जाने उसे उठने ही नहीं दिया जाए ! जब वर्षों वर्ष बदहाली में गुजरे हैं तो क्यों नहीं एक नई पहल का स्वागत किया जाए। विरोध का कारण साफ़ है वे बिचौलिए-आढ़तिए जो भोले-भाले किसानों की सरलता और अनभिज्ञता का सदियों से फायदा उठाते आए हैं उन्हें अपना विनाश नजर आने लगा है।
यदि आप सचमुच लोगों का भला चाहते हो तो प्रयोग होने दो। सफल रहा तो किसान खुश, देश खुशहाल ! नहीं तो फिर आप तो हैं ही छीछालेदर करने को ! पर कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको इस कानून का सही परिणाम दिखने लगा हो और अपना अस्तित्व मिटते....
वैसे देर से ही सही आम इंसान भी एक बात समझने लगा है कि देश की सबसे पुरानी राजनितिक पार्टी जिसके नेताओं ने आजादी की लड़ाई में आगे आ कर हिस्सा लिया ! अपने समय की सबसे लोकप्रय पार्टी रही ! एक से बढ़ कर एक नेताओं ने उसके झंडे तले रह कर देश की सेवा की ! आज वह सिर्फ मतलब और मौका परस्त लोगों का जमावड़ा बन कर रह गई है ! जो सिर्फ उसके नाम और इतिहास का सहारा लिए किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जुगाड़ में हैं। अवाम भी उसकी नकारात्मक सोच, कड़वी भाषा, सिर्फ विरोध के लिए विरोध वाली शैली से तंग आ चुका है ! किसी को समझ नहीं आता कि उन्हें हर चीज से ''एलर्जी'' क्यों है ! चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सर्जिकल स्ट्राइक हो, राफ़ेल का सौदा हो, राम मंदिर का मुद्दा हो, 370 हो, कोरोना हो, उसकी दवाई हो, अर्थ व्यवस्था हो चाहे यह किसान कानून ! हर जगह उन्हें सिर्फ बुराई ही नजर आती है ! मजे की बात यह भी है कि हर बार उन्हें अपनी बात का गलत होने पर शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी है, पर सुधार कभी और कहीं से आता नहीं दिखता !
उनके प्रवक्ता तो एक से एक महान लोग हैं जो बिना किसी शर्म-लिहाज के भद्द पिटने के बावजूद झूठ को सच बनाने में लगे रहते हैं ! अभी टीवी पर एक महोदय दावा कर रहे थे कि जब भाजपा दो से तीन सौ के पार जा सकती है तो उनके तो अभी सौ लोग हैं, अगले चुनाव में देखिएगा ! पता नहीं इनका अगला अपना पिछड़ा क्यों नहीं देखता ! पर वे यह आकलन करना भूल गए कि दो से तीन शतक तक पहुँचाने की उपलब्धि पनपते हुए हुई है और वे पतझड़ की ओर उन्मुख हैं वह भी ऐसे पेड़ के जिसकी जड़ों में घुन लग चुका है !
जब हर जगह बदलाव की बयार बह रही है तो यहां भी उसे आजमाने में क्या बुराई है ! जबकि पुरानी व्यवस्था का परिणाम सामने है ! यदि आप सचमुच लोगों का भला चाहते हो तो प्रयोग होने दो। सफल रहा तो किसान खुश, देश खुशहाल ! नहीं तो फिर आप तो हैं ही छीछालेदर करने को ! और तब तो आपकी भी पौ बारह होगी ! पर कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको इस कानून का सही परिणाम दिखने लगा हो और अपना अस्तित्व मिटते........लगता तो यही है !!
शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020
सरकार और किसान, जरुरी है विश्वास और भरोसा कायम होना
सरकार भी यही चाहती है कि उगाने वाले को सही मूल्य मिल सके ! उपभोक्ताओं को सही कीमत पर जींस उपलब्ध हो सकें ! बीच के कमाने वालों पर नकेल कसी जा सके ! पर कहीं ना कहीं झोल तो जरूर है, नहीं तो अभी भी तय कीमत से आधी पर से भी कम पर क्यों और कैसे धान बिक रहा है
बुधवार, 2 दिसंबर 2020
जब फिल्म ''मदर इंडिया'', ''दिस लैंड इज माईन'' बनते-बनते रह गई
पर दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार ! उन्हें पता था कि फिल्म नायिका पर केंद्रित है, सारा श्रेय उसे ही मिलने वाला है ! तो भाई ने जगह-जगह कहानी में ज़रा-ज़रा सा बदलाव लाने का सुझाव देना शुरू कर दिया ! फिर इतने से भी काम नहीं बनता दिखा, तो उन्होंने अपने लिए डबल रोल की फरमाइश कर डाली। पहले नायिका का पति और फिर उसका लड़का ! जो सुक्खी लाला से अपनी जमीन हासिल करने के लिए लड़ता और जीतता है। यहां तक कि फिल्म का नाम तक भी सुझा दिया ''दिस लैंड इज माईन''...............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
कई बार ऐसा होता है कि कोई इंसान जो समाज में बहुत लोकप्रिय होता है, अवाम का चहेता या आदर्श होता है ! जिसे लोग चाहते हों, प्यार करते हों ! जिसके बारे में उनकी धारणा सिर्फ भले मानुष की हो, ऐसे आदमी को अपनी छवि बनाए रखने के लिए काफी जतन करने पड़ते हैं। अपनी नकारात्मकता को छुपाने के लिए कई-कई सच्ची-झूठी कहानियां घडनी पड़ती हैं ! ''मिथ'' रचना पड़ता है !
औरत |
एक ऐसा ही मिथ, जो पिछले तिरसठ सालों से सच का रूप धरे था, उसका अब जा कर खुलासा हुआ है ! अब तक यही कहा जाता रहा है कि फिल्म मदर इंडिया में दिलीप कुमार ने बिरजू का रोल करने से इस लिए इंकार कर दिया था क्योंकि वह अपनी अब तक की नायिका रही नर्गिस के बेटे का किरदार नहीं करना चाहते थे। पर सच्चाई इसके विपरीत थी ! उन्हें एक तरह से इस फिल्म से निकाला गया था। पर उनके चाहने वालों पर इस बात का विपरीत असर ना पड़े इसलिए उपरोक्त कहानी गढ़ी गई थी।
जब नर्गिस को पता चला कि दिलीप कुमार उनके बेटे का रोल कर रहे हैं तो उन्होंने इतनी बड़ी उपलब्धि को भी यह कहते हुए साफ़ इंकार कर दिया कि ''मैं पर्दे पर जिनके साथ रोमांस कर चुकी, उनके साथ माँ-बेटे जैसा रिश्ता निभाना मुझे कतई मंजूर नहीं। अगर दिलीप कुमार बिरजू का रोल करते हैं तो मैं इस फिल्म में काम नहीं कर पाऊंगी।''
हुआ यह था कि जब महबूब खान ने अपनी यादगार फिल्म ''औरत'' को दोबारा ''मदर इंडिया'' के नाम से बनाने की सोची, तो कास्टिंग के समय उनके जेहन में बिरजू के रोल के लिए अपने गहरे मित्र दिलीप कुमार का नाम छाया हुआ था। उनको कहानी सुनाई गई ! वे मान भी गए ! पर दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार ! उन्हें पता था कि फिल्म नायिका पर केंद्रित है, सारा श्रेय उसे ही मिलने वाला है ! तो भाई ने जगह-जगह कहानी में ज़रा-ज़रा सा बदलाव लाने का सुझाव देना शुरू कर दिया ! फिर इतने से भी काम नहीं बनता दिखा तो उन्होंने अपने लिए डबल रोल की फरमाइश कर डाली। पहले नायिका का पति और फिर उसका लड़का ! जो सुक्खी लाला से अपनी जमीन हासिल करने के लिए लड़ता और जीतता है। यानी पूरी फिल्म की ! यहां तक कि उन्होंने इस फिल्म का नाम तक भी सुझा दिया ''दिस लैंड इज माईन'' ! महबूब एक सरल ह्रदय इंसान थे, तिस पर दिलीप कुमार के दोस्त, वे इन सब बदलावों के लिए तैयार भी हो गए। उन्हें इस बात का ज़रा सा भी एहसास नहीं हुआ कि उनके दोस्त ने उनकी कहानी की आत्मा को मार, फिल्म को पूर्णतया अपनी बना लिया है और इसकी पूरी तैयारी भी शुरू कर दी है जिसके लिए अपने बाप और बेटे के रोल के लिए स्पेशल विग बनवाने लंदन भी चले गए हैं।
औरत |
पर विधि को कुछ और ही मंजूर था। ''औरत'' के लेखक वजाहत मिर्जा को यह सब बदलाव बेहद नागवार गुजर रहे थे। उनके अनुसार इस तरह तो कहानी की मूल भावना और उद्देश्य ही ख़त्म हो रहे थे। उन्होंने जब इस बात का पुरजोर विरोध किया तो यूनिट के बाकी लोग भी उनके साथ आ खड़े हुए। इधर जब नर्गिस को, जिन्हें ऐसे ही रोल की सदा से तलाश थी जो उनकी फ़िल्मी जिंदगी का मील का पत्थर साबित हो सके, पता चला कि दिलीप कुमार उनके बेटे का रोल कर रहे हैं तो उन्होंने इतनी उपलब्धि को भी यह कहते हुए साफ़ इंकार कर दिया कि ''मैं पर्दे पर जिनके साथ रोमांस कर चुकी, उनके साथ माँ-बेटे जैसा रिश्ता निभाना मुझे कतई मंजूर नहीं। अगर दिलीप कुमार बिरजू का रोल करते हैं तो मैं इस फिल्म में काम नहीं कर पाऊंगी।''
मदर इंडिया |
इन सब के बीच महबूब बुरी तरह उलझ कर रह गए ! एक तरफ जिगरी दोस्त दिलीप कुमार और दूसरी तरफ नर्गिस और उनकी अपनी पूरी टीम ! आखिर फिल्म के हित के लिए उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा। नरगिस को नायिका का रोल सौंपा गया। दिलीप को समझा-बुझा कर और उनकी इज्जत के लिए नर्गिस की बात को उनकी बता, एक मिथ रच कर उन्हें फिल्म से अलग किया गया। सारे बदलाव रद्द कर पुरानी कहानी को बरकरार रखते हुए ''दिस लैंड इज माईन'' को ''मदर इंडिया'' का नाम दे इतिहास रचा गया।
@संदर्भ, आभार - राजकुमार केसवानी, पुस्तक-नर्गिस, बन्नी रूबेन
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