किसान की जिंदगी का हाल उजागर करती 1953 में फिल्म आई ''दो बीघा जमीन !'' उसके बाद भी हमारे देश के ''सुखी-खुशहाल, चिंता-फ़िक्र से मुक्त, उल्लास से नाचते-गाते किसानों'' पर, मदर इंडिया, हीरा-मोती, उपकार, कड़वी हवा, लगान, पीपली लाइव, किसान जैसी अनेक फ़िल्में आईं। पर समय एक सा कहां रहता है ! फिर आ गया 2014 का साल..............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होती हैं ! जो कुछ भी समाज में घट रहा होता है उसे ही पर्दे पर साकार कर दिया जाता है। जागरूक फिल्मकार सदा ही बिना किसी फायदे-नुक्सान-आलोचना-दवाब की परवाह किए बगैर अवाम की ज्वलंत समस्याओं को सामने लाते रहे हैं। स्वतंत्रता मिलने के कुछ ही साल बाद, आजादी का खुमार उतरने पर फिल्मकारों का ध्यान देश-समाज की धुरी रहे किसान पर भी गया ! उसकी जिंदगी का हाल उजागर करती 1953 में फिल्म आई ''दो बीघा जमीन !'' उसके बाद भी हमारे देश के ''सुखी-खुशहाल, चिंता-फ़िक्र से मुक्त, उल्लास से नाचते-गाते किसानों'' पर, मदर इंडिया, हीरा-मोती, उपकार, कड़वी हवा, लगान, पीपली लाइव, किसान जैसी अनेक फ़िल्में बनाई गईं। पर समय एक सा कहां रहता है ! फिर आ गया 2014 का साल ! बस फिर क्या था ! तभी से किसान की जिंदगी दूभर हो गई ! फसल की कीमत ना मिलने पर उसे नष्ट किया जाने लगा ! भूखों मरने की नौबत आ गई ! कइयों ने तंग आ कर आत्महत्या कर ली। बिचौलिए हावी हो गए ! आढ़तिए उनका हक़ मारने लगे !
सच तो यह है कि देश के सबसे कमजोर, गरीब, कोमल तबके के सदस्य किसान की बदहाली शुरू से ही जस की तस रही है ! सदा उसका शोषण हुआ है ! आजादी के दशकों बाद भी हालत बहुत ज्यादा सुधार हुआ नहीं लगता। ऐसे में यदि बेहतरी की सोच के साथ एक कदम उठा है तो उसका स्वागत होना चाहिए ना कि उसके डगमगाने के डर से, बिना पूरा परिणाम जाने उसे उठने ही नहीं दिया जाए ! जब वर्षों वर्ष बदहाली में गुजरे हैं तो क्यों नहीं एक नई पहल का स्वागत किया जाए। विरोध का कारण साफ़ है वे बिचौलिए-आढ़तिए जो भोले-भाले किसानों की सरलता और अनभिज्ञता का सदियों से फायदा उठाते आए हैं उन्हें अपना विनाश नजर आने लगा है।
यदि आप सचमुच लोगों का भला चाहते हो तो प्रयोग होने दो। सफल रहा तो किसान खुश, देश खुशहाल ! नहीं तो फिर आप तो हैं ही छीछालेदर करने को ! पर कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको इस कानून का सही परिणाम दिखने लगा हो और अपना अस्तित्व मिटते....
वैसे देर से ही सही आम इंसान भी एक बात समझने लगा है कि देश की सबसे पुरानी राजनितिक पार्टी जिसके नेताओं ने आजादी की लड़ाई में आगे आ कर हिस्सा लिया ! अपने समय की सबसे लोकप्रय पार्टी रही ! एक से बढ़ कर एक नेताओं ने उसके झंडे तले रह कर देश की सेवा की ! आज वह सिर्फ मतलब और मौका परस्त लोगों का जमावड़ा बन कर रह गई है ! जो सिर्फ उसके नाम और इतिहास का सहारा लिए किसी तरह अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जुगाड़ में हैं। अवाम भी उसकी नकारात्मक सोच, कड़वी भाषा, सिर्फ विरोध के लिए विरोध वाली शैली से तंग आ चुका है ! किसी को समझ नहीं आता कि उन्हें हर चीज से ''एलर्जी'' क्यों है ! चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी हो, सर्जिकल स्ट्राइक हो, राफ़ेल का सौदा हो, राम मंदिर का मुद्दा हो, 370 हो, कोरोना हो, उसकी दवाई हो, अर्थ व्यवस्था हो चाहे यह किसान कानून ! हर जगह उन्हें सिर्फ बुराई ही नजर आती है ! मजे की बात यह भी है कि हर बार उन्हें अपनी बात का गलत होने पर शर्मिंदगी भी उठानी पड़ी है, पर सुधार कभी और कहीं से आता नहीं दिखता !
उनके प्रवक्ता तो एक से एक महान लोग हैं जो बिना किसी शर्म-लिहाज के भद्द पिटने के बावजूद झूठ को सच बनाने में लगे रहते हैं ! अभी टीवी पर एक महोदय दावा कर रहे थे कि जब भाजपा दो से तीन सौ के पार जा सकती है तो उनके तो अभी सौ लोग हैं, अगले चुनाव में देखिएगा ! पता नहीं इनका अगला अपना पिछड़ा क्यों नहीं देखता ! पर वे यह आकलन करना भूल गए कि दो से तीन शतक तक पहुँचाने की उपलब्धि पनपते हुए हुई है और वे पतझड़ की ओर उन्मुख हैं वह भी ऐसे पेड़ के जिसकी जड़ों में घुन लग चुका है !
जब हर जगह बदलाव की बयार बह रही है तो यहां भी उसे आजमाने में क्या बुराई है ! जबकि पुरानी व्यवस्था का परिणाम सामने है ! यदि आप सचमुच लोगों का भला चाहते हो तो प्रयोग होने दो। सफल रहा तो किसान खुश, देश खुशहाल ! नहीं तो फिर आप तो हैं ही छीछालेदर करने को ! और तब तो आपकी भी पौ बारह होगी ! पर कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको इस कानून का सही परिणाम दिखने लगा हो और अपना अस्तित्व मिटते........लगता तो यही है !!
7 टिप्पणियां:
सुशील जी
सदा स्वागत है, आपका
सटीक
मनोज जी
सदा स्वागत है आपका
सबके अपने अपने स्वार्थ हैं। मौजूदा सरकार के भी। वरना हरियाणा के मुख्यमंत्री राजस्थान का बाजरा हरियाणा में बिकने से रोकने का बयान नहीं देते। किसान सबसे कमजोर समूहो में से एक है क्या वो प्रयोग से होता नुकसान झेल पायेगा। आप नोटबन्दी की बात करते हैं लेकिन भूल जाते हैं उससे नुकसान उच्च वर्ग को न के बराबर हुआ था। जीएसटी से छोटे व्यापारी को ज्यादा नुकसान हुआ था। जहाँ तक मैंने न्यूज़ की बहस को देखा है वहाँ पर किसान नेता प्राइवेट खरीदारों के लिए भी msp की माँग कर रहे हैं। शायद पेंच यहीं पर अटका है।
बाकी विपक्ष के विषय में कुछ कहना अर्थपूर्ण नहीं है। मौजूदा सरकार जब विपक्ष में थी तो वह भी ऐसा ही करती थी। कई कानूनों का उन्होंने विरोध किया और फिर उसे ही लागू किया।
पक्ष विपक्ष तो अपने स्वार्थ के लिए कभी भी आपस में सहमत नहीं हुए पर इसका मतलब यह तो नहीं कि सिर्फ विरोध के लिए विरोध किया जाए। हम भी नोटबंदी और जीएसटी का रोना रोने लगते हैं पर दूसरी दसियों बातों को नजरंदाज कर जाते हैं
गरीबों की सुनवाई तो शायद ऊपर वाले के यहां भी नहीं होती
कदम जी
आसमान वाला भी आजकल इधर कम ही देखता है
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