विश्व में केवल संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें सिर्फ "एक अक्षर, दो अक्षर या केवल तीन ही अक्षरों" से पूरा वाक्य बनाया जा सकता है। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है.............!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
भाषा अभिव्यक्ति का वह सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम या जरिया है, जिसके द्वारा हम आपस में अपने मनोभावों को, विचारों को व्यक्त करते हैं, एक-दूसरे से जुड़ पाते हैं। यह हमारे समाज के निर्माण, विकास, अस्मिता, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का भी महत्वपूर्ण साधन है। इसके लिये हमारी वाचिक ध्वनियां सहायक होती हैं, जो शब्दों और वाक्यों का समूह बन एक-दूसरे को अपने मन की बात बताती-समझाती हैं। इसके बिना मनुष्य व समाज सर्वथा अपूर्ण हैं !
हमारे शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई
जाहिर है समय, परिवेश, स्थितियों के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न तरह की भाषाओं का उद्भव हुआ। मानव के उत्थान के साथ-साथ उसका आरंभिक ''नाद'' विकास करते हुए संपन्न भाषाओं में बदलता चला गया। इस समय सारे संसार में हजारों (अनुमानत: 6809) प्रकार की भाषाएँ, वर्षों से अपनी-अपनी जरुरत के अनुसार बोली जाती रही हैं। इनमें से कई तो हजारों-हजार साल से अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए हैं। बहुतेरे देशों ने सिर्फ अपनी भाषा का उपयोग करते हुए भी ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन में असाधारण प्रगति की है। उन्हें अपनी वाक्संपदा पर नाज है। थोड़ी-बहुत कमी-त्रुटि तो हर चीज में होती ही है, पर इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी बोलियां हेय हैं, दोयम हैं !
हमारे देश पर सैंकड़ों सालों तक गैरों ने राज किया ! सालों-साल गुलाम रहने का असर हमारे दिलो-दिमाग पर भी पड़ना ही था ! हम अपना सुनहरा अतीत बिसारते चले गए ! हमें शासक और उनके कारिंदों की बातों में ही सच्चाई नजर आने लगी ! इस कुचक्र में कुछ हमारे अपने मतलबपरस्त लोगों का भी योगदान रहा है ! हमार शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी उस प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, जिसमें हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन के सार को लिपिबद्ध कर दिया था, उसे भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई !
हम शुरू से ही सहिष्णु रहे हैं। हमने दुनिया को ही अपना परिवार माना है ! हर अच्छी चीज का स्वागत किया है। दूसरे धर्मों, संस्कृतियों, मान्यताओं को भी अपने में सहर्ष समो लिया है। हमारे इसी विवेक, सहनशीलता, सामंजस्य को कमजोरी मान लिया गया ! अच्छाइयों के साथ बुराइयां भी थोपी जाने लगीं। सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ, जब उन्होंने अंग्रेजी को कुछ ऐसा आभामंडित कर दिया जैसे वह विश्व की सर्वोपरि भाषा हो ! उसके बिना कोई भी उपलब्धि हासिल ना की जा सकती हो ! देश में उसे रोजगार हासिल करने का मुख्य जरिया बना दिया गया। वर्षों-वर्ष यह गलतफहमी पलती रही ! पर फिर समय आ ही गया जब उन्हें बताना जरुरी हो गया कि समृद्ध भाषा कैसी होती है !
उदाहरण स्वरूप अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर होते हैं। जिन्हें दर्शाने के लिए एक बहुत प्रसिद्ध वाक्य गढ़ उसमें वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित किए गए हैं "THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG" पर वाक्य को पूरा करने के लिए O को चार बार और A, E, U तथा R को दो-दो बार सम्मिलित करना पड़ा है। इस तरह इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। भले ही ''टाइप'' करने की सुविधा के लिए ऐसा किया गया हो !
अब संस्कृत का उदहारण लें,
क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:। तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।
जिसका अर्थ है कि, पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करने वाला कौन ? राजा मय ! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं।
इस श्लोक में संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन तो हैं ही वे भी पूरे क्रमानुसार। यह खूबसूरती संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा को छोड़ अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकती !
संस्कृत में श्लोक सुनिए, मंत्र सुनिए, भजन सुनिए ! इसके उच्चारणों में वह शक्ति है जो किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकती है ! एकाकार कर सकती है ! सम्मोहित कर किसी और लोक में पहुंचा सकती है। यही अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें केवल "एक अक्षर" से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है। महाकवि भारवि ने अपने काव्य संग्रह किरातार्जुनीयम् में केवल “न” व्यंजन का प्रयोग कर अद्भुत श्लोक की रचना की है जो थोड़े में ही बहुत कह जाती है -
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥
यानी, जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है।
दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः। दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः॥
अर्थात, दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खंडन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया।
इसक अलावा सिर्फ दो और तीन अक्षरों से पूरा वाक्य बनाना सिर्फ संस्कृत भाषा में ही संभव है -
कवि माघ ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक की रचना कर डाली -
भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे। भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।।
अर्थात, निर्भय हाथी जो कि भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है।
देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां। दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।
अर्थात - वह परमात्मा जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव को मारा था।
ऐसे सैंकड़ों उदहारण मिल जाएंगें जो निर्विवाद रूप से संस्कृत को विश्व की सर्वश्रेष्ठ, व्याकरणिक, तर्कसंगत, वैज्ञानिक, त्रुटिहीन भाषा सिद्ध कर सकते हों। इसीलिए जब संस्कृत को सर्वोपरि कहा जाता है तो उसके पीछे इस तरह के अद्भुत साक्ष्य होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है !
@संदर्भ - अंतरजाल
33 टिप्पणियां:
वाह
सुशील जी
हार्दिक आभार
संस्कृत को लेकर रोचक जानकारी लेकिन एक बात से असहमति है। क्या संस्कृत कभी भी जन भाषा बन पायी थी?? जब संस्कृत चल रही थी तब भी आम लोगों की भाषा शायद प्राकृत और पालि ही थी। संस्कृत की सबसे बड़ी कमी इसे जन से न जोड़ना रहा है। अभी भी वह अस्तित्व से इसलिए जूझ रही है क्योंकि इसका कोई बाज़ार ही नहीं बना है। मेरे कई मित्र संस्कृत का गुणगान करते नहीं थकते हैं लेकिन वो सिर्फ गुणगान ही करते हैं। वो न तो उसे खुद प्रयोग में लाते हैं और न ही अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को ही प्रयोग में लाने के लिए प्रेरित करते हैं। जबकि कोई यह करे न करे भाषा प्रेमी तो यह कार्य करने स्तर पर करना ही चाहिए।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-12-2020) को "शीतल-शीतल भोर है, शीतल ही है शाम" (चर्चा अंक-3924) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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विकास जी
आपसे पूरी तरह सहनत हूँ कि न इसे जन-जन से जोड़ा गया और नाहीं इसका कोई बाजार बना ! उल्टे इसे कलिष्ट भाषा के रूप में खूब प्रचारित किया गया, जबकि दुनिया की अनेकों भाषाएं इससे बहुत ज्यादा कठिन हैं। सच्चाई तो यही है कि सोची समझी साजिश के तहत इसे ख़त्म करने की कोशिश की गई ! झूठी-सच्ची बातें फैलाई गईं। इसके विपरीत पालि जैसी भाषा क्यों अपनाई गई उसके अपने कारण हैं ! आज की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के चलते जब कोई हिंदी की ही सिफारिश नहीं कर पाता तो संस्कृत की हिमायत में उसे अपनाना तो बहुत दूर की बात हो जाती है। रही इसको चाहने वालों की बात तो उन पर किसी भी तरह का आक्षेप करना सही नहीं होगा ! उनकी मजबूरी है कि वे सिर्फ अपना प्रेम ही जता सकते हैं ! आज के युग में किस उपलब्धि पर वे इसका प्रचार करें ! किस के साथ इसका प्रयोग करें ! किस बिना पर अगली पीढ़ी को उत्साहित करें ! हालांकि कुछ लोग, कुछ समाज, कुछ इलाके इसके प्रति समर्पित हैं पर अपने दायरे से तो वे भी आगे नहीं बढ़ पा रहे ! ये तो तभी हो पाएगा जब बड़े पैमाने पर स्कूलों की छोटी क्लासों से ही इसके लिए यत्न किए जाएं !
शास्त्री जी
सम्मिलित कर मान देने हेतु अनेकानेक धन्यवाद। स्नेह बना रहे
गगन जी, आपने सोदाहरण संस्कृत की खूबी बयान की..जिसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद..!संस्कृत भाषा के लिए,आप जो कार्य कर रहे हैं, वो बहुत ही सराहनीय है, आपको हार्दिक शुभकामनायें..!
जिज्ञासा जी
"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है, आपका
संस्कृत के बारे में बहुत ही रोचक और सविस्तर जानकारी दी है आपने,गगन भाई। इसी तरह को पोस्ट मैं ने हिंदी के लिए लिखी थी https://www.jyotidehliwal.com/2015/02/blog-post_15.html।
बिल्कुल सही लिखा है आपने " अपनी भाषा को पहले हमें ही सम्मान देना है"। आज फिर कुछ नया जानने का अवसर भी मिला.. बाकी संस्कृत से ही तो संस्कृति और सभ्यता की पहचान है हमारी..!
ज्योति जी
जिस दिन हम खुद की कद्र करने लग जाएंगे उस दिन दुनिया भी हमें सम्मान देगी।
शिवम जी
पहले तो अपनों को ही सुधारना होगा, घर समझ गया तो दुनिया भी समझ जाएगी
ज्योति जी
https://www.jyotidehliwal.com/2015/02/blog-post_15.html।
खुल नहीं रहा। एरर बता रहा है
गगन भाई, वो गलती से link address की जगह link text हो गया था। आप इस लिंक को कॉपी करके पोस्ट देख सकते है। या https://www.jyotidehliwal.com/2015/02/blog-post_15.html इस लिंक पर देख सकते है।
आपको लिंक कॉपी करके ही देखना पड़ेगा।
ज्योति जी
काॅपी कर के ही देखा था eror 404 आ रही है
संस्कृत भाषा पर बहुत सुन्दर सार्थक एवं ज्ञानवर्धक पोस्ट..।
सही कहा कि जब देश में हिन्दी के साथ संस्कृत भी छोटी कक्षा से ही अनिवार्य की जायेगी तब ही ये अस्तित्व में आ सकेगी।
सुधा जी
बाजार आधारित संस्कृति में संस्कृत कहां तक पनप पाएगी सोचने की बात है
"जिस दिन हम खुद की कद्र करने लग जाएंगे उस दिन दुनिया भी हमें सम्मान देगी।"बिलकुल सही कहा आपने,ज्ञानवर्धक आलेख ,सादर नमन सर
कामिनी जी
अनेकानेक धन्यवाद
संस्कृत के उत्थान पतन पर ज्ञानवर्धक व्याख्यात्मक जानकारी।
बहुत सुंदर पोस्ट।
कुसुम जी
प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
जी व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किये जा सकते हैं। उदाहरण के लगे मेरी मातृभाषा गढ़वाली है। मेरे अंदर इसका प्रेम बहुत देर में जागा पर अब अपने एक छोटे से ब्लॉग के माध्यम से इसे इंटनरेट पर सुरक्षित कर रहा हूँ। यही चीज संस्कृत के साथ किया जा सकता है। लघु-कथाएं,लेख,अनुवाद इत्यादि अगर अंतर्जाल पर आएंगे तो समसामयिक सामग्री बढ़ेगी। अगर ऐसा होता है भाषा का भी दायरा बढ़ेगा। यह छोटी सी कोशिश हर संस्कृत प्रेमी कर सकता है।
जानकारीपूर्ण प्रभावशाली लेखन, संस्कृत के बिना समस्त भारतीय भाषाएं अधूरी हैं, संस्कृत की जड़ें भारतीय संस्कृति व सभ्यता में इतनी गहरी हैं कि सृष्टि के अंत तक उसका अस्तित्व अक्षुण्ण रहेगा, ये ज़रूर है कि उसकी लोकप्रियता को बढ़ाना स्वाधीन रूप से ज़रूरी है, अर्थपूर्ण प्रबंध - - साधुवाद।
बहुत उम्दा सुझाव है। शायद वर्तमान समय में "क्लिक" कर जाए। वैसे बहुत पहले एक कोशिश भलीभूत नहीं हो पाई थी
शांतनु जी
कई बार बहुत चाहने पर भी इच्छानुकूल फल नहीं मिल पाता
Sahi baat hai, apno se hi jyada khatara hai
हमारी देववाणी सदैव सिरमौर्य होगी । प्रमाणिक आलेख ।
अमृता जी
अनेकानेक धन्यवाद । स्वस्थ व प्रसन्न रहें
Bahut khub apne ye kafi sunder likha hai. Asha krta hun ki bhavishya me bhi aap ese hi ache vichar likhti rahenge
@qih
हार्दिक धन्यवाद
We should respect every language. Nice thoughts.. Motivation Speech
General Knowledge keep sharing this type of Knowledge..
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