शनिवार, 29 अगस्त 2020

इकलौता मंदिर, जहां गणेश जी की नरमुख रूप में पूजा होती है

कुछ दिनों पहले एक ऐसे स्थान का विवरण मिला था जहां गणेश जी के गजमुख लगने से पहले वाले मस्तक की पूजा होती है। जो उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से 14 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर नामक गांव की एक गुफा में प्रतिष्ठित है। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है।मान्‍यता है कि इस गुफा में गणेश जी का असली सिर भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया था ! आज उसी कड़ी में एक ऐसे इकलौते मंदिर का ब्यौरा जहां गौरी पुत्र की पूजा मानव मुख के साथ होती है ! आस्था में तर्क का कोई भी स्थान नहीं होता................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

आस्था में तर्क के लिये कोई स्थान नहीं होता। वर्षाें से, पीढ़ी दर पीढ़ी जो देखा-सुना जाता है, खासकर धर्म के मामले में, उसी पर हमारी आस्था हो जाती है। समय के साथ-साथ यह इतनी गहरी और दृढ हो जाती है कि हमें यदि उसके इतर भी कुछ मिलता है तो हम उसे भी संभव मान इसी में समाहित कर लेते हैं ! जैसे कि वर्षों-वर्ष से यही पढ़ते, सुनते, देखते, विश्वास करते आएं हैं कि गौरी पुत्र गणेश जी गजानन हैं, और यह गजमुख उन्हें बाल्यकाल में ही उनके साथ घटी एक घटना के फलस्वरूप मिला था। उनकी सदा इसी रूप में पूजा भी होती आई है। पर अभी एक अनोखी, विस्मयकारी एवं अनूठी जानकारी ''भास्कर'' से मिली कि सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु राज्य में एक अनूठा, इकलौता गणेश जी का  एक ऐसा मंदिर भी है, जहां उनकी मानव मुखी प्रतिमा की पूजा-अर्चना होती है। यह जानकारी चौंका जरूर देती है पर किसी  तरह का अविश्वास नहीं करती ! यही आस्था है जिसमें तर्क की कोई भी गुंजाइश नहीं ! गणेशोत्सव के पावन दिनों के अवसर पर  आज उसी को साझा कर रहा हूँ। 

nar
नरमुखी गणेश 

कुछ दिनों पहले एक ऐसे स्थान का विवरण मिला था, जहां गणेश जी के गजमुख के पहले वाले वास्तविक मस्तक की पूजा होती है। जो उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से 14 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर नामक गांव की एक गुफा में प्रतिष्ठित है। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है। मान्‍यता है कि इस गुफा में गणेश जी का असली सिर भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया था ! आज उसी कड़ी में एक ऐसे मंदिर का ब्यौरा जहां गौरी पुत्र की नर रूप में स्थापित प्रतिमा की पूजा-अर्चना की जाती है। 

पाताल भुवनेश्वर 

पाताल भुवनेश्वर, पूजा स्थल 
देश के सुदूर दक्षिणी इलाके का राज्य तमिलनाडु। इसके तिरुवरुर जिले के कुटनूर नगर से करीब तीन किमी की दुरी पर स्थित है, तिलतर्पण पुरी । यहीं 7वीं सदी में निर्मित एक ऐसा प्राचीन आदि विनायक मंदिर है जिसमें गणेश जी की नरमुख रूप यानी इंसान स्वरुप में माँ पार्वती जी के साथ पूजा होती है। मान्यता है कि माता पार्वती ने अपने उबटन की मैल से जिस बालक की रचना की थी, यह प्रतिमा उसी का पहला रूप है ! ऐसा माना जाता है कि विश्व भर में यह इकलौता मंदिर है जहां विघ्नहर्ता नरमुख रूप में विराजमान हैं।  


पितृपक्ष में यहां लोग अपने पूर्वजों का तिल से तर्पण  करते हैं। ये प्रथा अनादिकाल से चली आ रही है। प्रभु राम ने भी अपने पिता दशरथ का तर्पण यहां किया था। यहां ऐसी कथा प्रचलित है कि जब श्री राम अपने पिता दशरथ का अंतिम संस्कार कर रहे थे तब उनके द्वारा चढ़ाए जा रहे चार पिंड बार-बार खंडित हो बिखरे जा रहे थे और उनमें कीड़े लग रहे थे ! तब श्री राम ने भगवान शिव से प्रार्थना की और उनके कहेनुसार आदि विनायक मंदिर पर आकर अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए भोलेनाथ की पूजा की। तत्पश्चात चावल के वो चार पिंड चार शिवलिंग में बदल गए, जो आज भी आदि विनायक मंदिर के पास मुक्तेश्वर मंदिर में मौजूद हैं। 

आमतौर पर पितृ शांति की पूजा किसी नदी के तट पर की जाती है, लेकिन यहां मंदिर के अंदर ही यह अनुष्ठान होता है। पितृ-पूजा के लिए इसे काशी, रामेश्वरम तथा गया जी के बराबर माना जाता है। हजारों लोग अपने पूर्वजों की मोक्ष की कामना ले कर यहां आते रहते हैं। 

@सभी चित्र अंतर्जाल से -

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

ढाक ने अपनी रीत बताई, तीन पात ही रहेंगें भाई !

चौथा स्थान फिलहाल खाली है, शायद उसके लिए तैयारी चल रही है। अब पांचवें पायदान पर तकरीबन पचास लोग, गिरने से अपने को बचाने, अपने अस्तित्व को संभालने, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जोर आजमाइश में जुटे हुए हैं। यह जानते हुए भी कि तीन के बाद सब तृण हो जाते हैं ! दुनिया को तीन तक ही कुछ याद रह पाता है, स्वर्ण-रजत-कांस्य ! उसके बाद तू कौन, तो मैं कौन..............!


#हिन्दी_ब्लागिंग 

कोरोना काल में दूरदर्शन के रेट्रो चैनल पर आ रहे पुराने दिलचस्प  की तरह कल कांग्रेस की भी एक नाटिका का पुनर्मंचन हुआ ! जाने-माने कथानक का अंत वैसे तो सबको मालुम ही था, पर कुछ कलाकारों की नई गतिविधियों से कुछ अलग होने का क्षीण सा अनुमान भी लगाया जा रहा था पर ढाक ने अपनी रीत बताई, तीन पात ही रहेंगें भाई ! पद छोड़ने का खतरा तो कभी भी नहीं लिया जा सकता ! खासकर आज के परिवेश में ! क्योंकि क्या ठिकाना कि कल जिस स्वामिभक्त को कुर्सी सौंपी, वही स्वामी ना बन जाए ! अब बार-बार देवकांत बरुआ या मनमोहन सिंह जैसे लोग तो मिलने से रहे ! फिर इसका भी क्या पता कि शिखर से पद छोड़ने का संदेश सिर्फ स्वामिभक्ति के परीक्षार्थ ही जारी किया जाता हो ! पिछले दिनों का पत्र काण्ड इसका ठोस उदाहरण है ! जिसे पार्टी में दिग्गज समझे जाने वाले 23 नेताओं ने अपने को तुर्रम खां समझ, कांग्रेस में सुधार लाने के लिए सोनिया जी को कुछ लिख डाला। राहुल की एक घुड़की ने सभी की हवा निकाल दी ! पतझड़ में वृक्ष से चिपके इन पीले पत्तों की अब घिघ्घी बंधीं हुई है !      

अब वे दिन तो लद गए जब इस पार्टी में एक से बढ़ कर एक नेता हुआ करते थे ! जिन्हें सारा देश जानता-मानता था। अब तो सब कुछ सिमट कर तीन जनों पर आ सिमटा है। सोनिया जी, राहुल तथा प्रियंका ! दल के प्रथम तीन स्थानों पर इन्हीं का बर्चस्व है और होना भी चाहिए, पार्टी के यही तीन सदस्य ऐसे हैं जिनकी देश भर में पहचान है। कहीं भी जाएं देश के हर हिस्से में इनका संगठन अभी भी मौजूद है। कमोबेस इनके समर्थक सभी जगह मिल ही जाएंगें। फिलहाल चौथा स्थान अभी खाली है ! ऐसी हवा है कि शायद उसके लिए तैयारी चल रही है। अब पांचवें पायदान पर तकरीबन पचास लोग, गिरने से अपने को बचाने, अपने अस्तित्व को संभालने, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए एक दूसरे को धकियाते-लतियाते जोर आजमाइश में जुटे हुए हैं। यह जानते हुए भी कि तीन के बाद सब तृण हो जाते हैं ! दुनिया को तीन तक ही कुछ याद रह पाता है, स्वर्ण-रजत-कांस्य ! उसके बाद तू कौन तो मैं कौन !

सच्चाई तो यह है कि जनता भले ही किसी बात से परेशान हो, उसे लगता है कि उस मुसीबत से मोदी ही उबार सकता है और कोई नहीं ! संकट आया है तो मोदी ही कोशिश कर रहा है उससे उबारने की ! क्योंकि अवाम भी आज देख रहा है कि जो काम वर्षों-वर्ष टाले जाते रहे, जिनको पिछली सरकारें विषम, असंभव, नामुमकिन बताती रहीं वे कैसे एक झटके में पूरे हो गए। बड़े-बड़े राष्ट्र जो आए दिन आंखें दिखाने से बाज नहीं आते थे, आज आगे बढ़ कर हाथ मिलाने की कोशिश कर रहे हैं !

वैसे भी अभी जो तीन या तेरह में हैं, उनकी पहचान तभी तक है जब तक सर पर टोपी और पीठ पर हाथ है ! उसके बिना उनके शहर में भी शायद ही कोई उन्हें पहचाने। अधिकतर को पता है कि वे किसी भी चुनाव में कभी भी जीत ही नहीं सकते सिर्फ पार्टी की बदौलत ही उनकी पहचान है। ऐसे जनाधार हीन लोगों का एक ही लक्ष्य सदा रहा है कि गांधी परिवार का कोई सदस्य सर्वोच्च पद पर आसीन रहे। इसीलिए जब भी मीटिंग-मीटिंग का खेल होता है, हर सदस्य के संवाद पहले से तय होते हैं। किसको क्या और कब बोलना है, सब पूर्वनिर्धारित रहता है, और अंत सुखान्त ! इसके अलावा यहां हर कोई अपना अहम्, अपनी अहमियत, अपना गरूर का भार सदा अपने कंधों पर टांगे रहता है जिसका बोझ इनआत्मश्लाघियों को किसी और की हथेली-तले काम करना तो दूर वैसी सोच को भी निकट नहीं फटकने देता ! 

नियति ने राहुल को राजनीती में ला फंसाया है। उनकी मजबूरी है कि लाख चाहते हुए भी वह यहां से अब निकल नहीं सकते ! वे चाहेंगे तो भी लोग अपने स्वार्थवश उन्हें निकलने नहीं देंगे ! इसलिए अब वहां टिके रहने के लिए यह निहायत जरुरी है कि वे अपनी व्यक्तिगत मोदी विरोधी सोच बदलें ! परिपक्व हों ! चाटुकार, चापलूस, छुटभइए घाघ लोगों से छुटकारा पा पढ़े-लिखे, समझदार साथ ही अनुभवी लोगों को अपना सलाहकार बनाएं, जो देश-समाज-लोगों के हित में सोचें और उसी दिशा में काम करें ! मोदी जी के कपड़ों, उनकी चाल-ढाल या उनके दैनन्दिनी कार्यों पर उलटी-सीधी टिपण्णी कर या उनका मखौल बना, अपने आप को पार्टी और नेतृत्व का हितैषी सिद्ध करने वाले मतलबपरस्तों से बचें और उनको दूर ही रखें ! इसी में भलाई होगी। भले ही उनकी ऐसी हरकतें फौरी तौर पर ''दरबार'' में खूब वाह-वाही बटोर रही हों पर यह निहायत जरुरी है कि वक्त रहते इस धीमे विष से छुटकारा पा लिया जाए !  

जैसे बिना अंकुश के हाथी और बिन ड्राइवर के गाडी का जो हाल होता है वही बिना विपक्ष की किसी भी सरकार का हो जाता है। इसीलिए लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरुरी होता है ! पर आज देश में विपक्ष सिर्फ खानापूर्ति के लिए ही रह गया है ! वो चाहे जितना भी दम भर ले ! कितना भी हाथ-पैर पटक ले ! कितना भी चीख-चिल्ला ले ! कैसा भी जोड़-तोड़ लगा ले ! उसे एक बात समझनी और माननी ही पड़ेगी कि दूर-दूर तक कोई ऐसा नेता नजर नहीं आता जो मोदीजी को हराना तो दूर उनके सामने कोई छोटी-मोटी चुन्नौती ही खड़ी कर सके। खामियां तो आज कोई भी राह चलता निकाल देता है पर उसका पर्याय तो बताए ! हर बात में खामियां खोजने वाले उसका हल तो बताएं ! सच्चाई तो यह है कि जनता भले ही किसी बात से परेशान हो, उसे लगता है कि उस मुसीबत से मोदी ही उबार सकता है और कोई नहीं ! संकट आया है तो मोदी ही कोशिश कर रहा है उससे उबारने की ! क्योंकि अवाम भी आज देख रहा है कि जो काम वर्षों-वर्ष टाले जाते रहे, जिनको पिछली सरकारें विषम, असंभव, नामुमकिन बताती रहीं वे कैसे एक झटके में पूरे हो गए। बड़े-बड़े राष्ट्र जो आए दिन आंखें दिखाने से बाज नहीं आते थे, आज आगे बढ़ कर हाथ मिलाने की कोशिश कर रहे हैं ! दुनिया में एक नई पहचान बन रही है। ऐसे में हारे-थके-लुटे-पिटे हाशिए पर सिमटा दिए गए दलों और उनके लगभग गुमनाम होते आकाओं की नजर, बार-बार राहुल पर ही जा टिकती है, बलि का बकरा बनाने के लिए ! लगता तो यही है कि फिर इस बंदे को दूसरों की लड़ाई में ना चाहते हुए भी भाग लेना और अपना कुछ ना कुछ होम करना पडेगा ! 

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

हमीं ने दर्द दिया, हमें ही दवा देनी है

कुछ वर्षों पहले तक बाजार में हर तरह का सामान तक़रीबन खुला मिलता था। चाहे घर के किराने का सामान हो, चाहे सब्जियां-फल वगैरह हों, बेकरी की चीजें हों या अन्य घरेलू जरुरत का सामान ! दूध और पानी की पैकिंग तो शायद ही कोई सोचता हो। आज साफ़-सफाई या शुद्धता का हवाला दे कर हर चीज को प्लास्टिक में लपेटा जाने लगा है। पहले लोग सामान वगैरह लाने के लिए थैला वगैरह ले कर ही घर से चलते थे ! उधर दुकानदार सामान देने के लिए कागज़ के ठोंगों या लिफाफों को काम में लाते थे। पर पॉलीथिन के चलन में आते ही वे सब बीते दिनों की बात हो गए। अब छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी चीज यहां तक कि झाड़ू-झाड़न जैसी  चीजें भी रैपर में लिपटी मिलने लगी हैं। बाजार ने हमें अच्छी तरह समझा दिया है कि सस्ती खुली मिलने वाली वस्तुएं हमारे और हमारे परिवार के लिए कितनी हानिकारक हैं ! अब साफ़-सफाई या शुद्धता का तो पता नहीं पर इस चलन से पलास्टिक या पॉलीथिन का कचरा बेलगाम-बेहिसाब बढ़ना ही था सो बढ़ता चला जा रहा है...................! 


#हिन्दी_ब्लागिंग 

कुछ साल पहले तक हमारे कृषि प्रधान देश को भरपूर उपज, खुशहाली, समृद्धि व जलीय आपूर्ति के लिए जीवन दायिनी पावस ऋतु का बड़ी बेसब्री से इन्तजार रहा करता था। पर अब इसकी जरुरत तो है, इन्तजार भी रहता है, पर साथ ही इसकी भयावहता को देख-सुन-याद कर एक डर, एक खौफ भी बना रहता है। अब हर साल बरसात के साथ आने वाला जलप्लावन हमारी नियति ही बन गया है। पता ही नहीं चला कब यह जीवन दायिनी ऋतू, प्राण हरिणी के रूप में बदल गई ! ऐसा भी नहीं है कि यह सबअचानक हो गया हो ! कायनात वर्षों से हमें चेताती आ रही थी पर हम अपने लालच, अपनी महत्वकांक्षाओं, अपनी लिप्सा में अंधे हो उसका शोषण करने से बाज ही नहीं आ रहे थे। विकास की अंधी दौड़ में ऐसी-ऐसी चीजों का आविष्कार कर डाला गया जो प्रकृति को नुक्सान पहुंचाने में अव्वल थीं। इन्हीं चीजों में एक है प्लास्टिक ! जिससे सारा विश्व त्रस्त हो चुका है। दुनिया भर के सागर-नदी-तालाबों में टनों के हिसाब से इस ना गलने-सड़ने-नष्ट होने वाले दानव का जमावड़ा पृथ्वी के अस्तित्व के लिए भी ख़तरा बनता जा रहा है ! इस विश्वव्यापी संकट से हमारा देश भी अछूता नहीं है ! आज जगह-जगह जलभराव होने का यह एक प्रमुख कारण है। 


आज प्लास्टिक हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा है। हमारे जीवन का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां इसका दखल नहीं है ! इस बेहद लचीले और मजबूत पदार्थ ने हमें सुविधाएं तो बहुत दीं, पर अब अपनी सैंकड़ों खूबियों और उपयोगिताओं के नावजूद यह हमारी जिंदगी, हमारे वातावरण, हमारे पर्यावरण यहां तक की हमारी पृथ्वी के लिए भी विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। इसमें भी इसका दोष उतना नहीं है जितनी हमारी इस पर निर्भर होते चले जाने की विवेकहीन, अदूरदर्शी निर्भरता ! सुबह टूथ ब्रश करने से लेकर रात बिस्तर पर सोने तक हम सैकड़ों तरह की प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं का, बिना उनका दुष्परिणाम जाने, उपयोग करते रहते हैं। इसीलिए घरों से निकलने वाले कचरे में साल-दर-साल प्लास्टिक की वस्तुओं की मात्रा बढ़ती जा रही है। जागरूकता की कमी के चलते इसके अंधाधुंध इस्तेमाल के बाद फेंक दिये जाने वाले प्लास्टिक के रैपर, बोतलें, पॉलीबैग्स, पैकेट्स, डिब्बे और ना जाने कौन-कौन सी चीजों के कचरे से हमारी धरती, हवा, पानी, सागर, नदियां, तालाब सब कुछ प्रदूषित हो गए हैं। जिससे मानव तो मानव, पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं के जीवन को भी भयानक खतरे का सामना करना पड़ रहा है

**********************************************************************************************************

प्लास्टिक को लेकर बहुत गुल-गपाड़ा मचता रहता है ! पर जब हम सुबह टूथब्रश करने से लेकर रात बिस्तर पर सोने तक सैकड़ों तरह की प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं का, बिना उनका दुष्परिणाम जाने, उपयोग करते रहेंगें, बाजार से पॉलीथिन में लिपटी चीजें लेते रहेंगें तो इसकी खपत कम कैसे होगी ! इसीलिए घरों से  निकलने वाले कचरे में दिन-प्रति-दिन प्लास्टिक की वस्तुओं की मात्रा बढ़ती जा रही है

**********************************************************************************************************

कुछ वर्षों पहले तक बाजार में हर तरह का सामान तक़रीबन खुला मिलता था। चाहे घर के किराने का सामान हो, चाहे सब्जियां-फल वगैरह हों, बेकरी की चीजें हों या अन्य घरेलू जरुरत का सामान ! दूध और पानी की पैकिंग तो शायद ही कोई सोचता हो। आज साफ़-सफाई या शुद्धता का हवाला दे कर हर चीज को प्लास्टिक में लपेटा जाने लगा है। पहले लोग सामान वगैरह लाने के लिए थैला वगैरह ले कर ही घर से चलते थे ! उधर दुकानदार सामान देने के लिए कागज़ के ठोंगों या लिफाफों को काम में लाते थे। जो कुछ ही समय में अपने को प्रकृति के समरूप कर लेते थे। पर पॉलीथिन के चलन में आते ही वह सब बीते दिनों की बात हो गए। अब छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी रोजमर्रा की चीजों के साथ-साथ अनाज, फल, सब्जियां, बेकरी उत्पाद यहां तक कि झाड़ू-झाड़न जैसी चीजें भी रैपर में लिपटी आने लगी हैं। ड्राइक्लीन करने वाले भी अब कपड़ों को पॉलीथिन के लिफ़ाफ़े में रख देने लगे हैं। बाजार ने हमें अच्छी तरह समझा दिया है कि खुली मिलने वाली वस्तुएं हमारे और हमारे परिवार के लिए कितनी हानिकारक हैं !! बिना पैकिंग की चीज यानी घटिया स्तर की !! अब जब हर चीज को प्लास्टिक या पॉलीथिन में सजा कर पेश किया जाएगा तो उसका उपयोग तो बढ़ेगा ही ! जितना उपयोग बढ़ेगा उतनी मात्रा में उसका कचरा भी बढ़ना तय है। ध्यान इस ओर देने की भी आवश्यकता है ! सिर्फ रेहड़ी-ढेले वालों पर जोर डालने से तो यह संक्रमण रुकने से रहा !! 


आज इस भयानक समस्या की ओर सभी का ध्यान जरूर गया है पर हमारी लापरवाही, गैर जिम्मेदाराना हरकतों, जागरूकता की कमी और सिर्फ अपने परिवेश का ध्यान, इसका हल नहीं निकलने दे रहे ! आज भी, हमारा घर साफ़ रहे, बाहर का हमें क्या, वाली मानसिकता के तहत अधिकांश घरों से रसोई का कचरा पॉलीथिन में भर आसपास किसी खुले स्थान या सड़क किनारे फेंक देना आम बात है। रास्ते चलते खाली हुए नमकीन के पैकेट, पानी की बोतलें या छोटे-मोटे रैपर को इधर-उधर फेंक देना असभ्यता नहीं माना जाता ! किसी पार्क में या सैर-सपाटे के दौरान अल्पाहार का मजा ले उस जगह को साफ़ कर भी दिया तो उस कूड़े को पास की झाडी इत्यादि के हवाले कर अपने फर्ज की इतिश्री मान ली जाती है ! जबकि अधिकांश जगहों पर कूड़ा पेटी लगी रहती है पर उस तक जाना भी कई लोग गवारा नहीं करते ! ऐसे ही कचरे को जानवर इत्यादि पॉलीथिन समेत निगल रोग ग्रस्त हो जाते हैं ! कई तो अकाल मृत्यु को भी प्राप्त हो जाते हैं। यही लावारिस कचरा बरसात के दौरान पानी के साथ गलबहियां डाल नालियों और सीवर में पहुँच जाता है। फिर जो होता है, वह तो होना ही होता है। 

जब मुसीबत गले पड़ती है तब हमें यह ज़रा भी ध्यान नहीं आता कि इसका कारण कमो-बेस हम ही हैं ! हमारी लापरवाही हमारे शहर की साफ-सफाई में बाधा डाल, कर्मचारियों पर बोझ तो बढ़ाती ही है साथ ही पर्यावरण को हानि पहुंचाने में भी उसका योगदान कम नहीं होता। इधर बरसात हुई, उधर नाली-सीवर में कचरा फंसा। पानी का दम घुटा ! वह सांस लेने पलटा और बाहर आ कर हमारे साथ-साथ सारे नगर और नगरवासियों का हवा-पानी-खाना-सोना सब हराम कर दिया ! पर इंसान ठहरा इंसान ! उसको कहां अपनी भूल-गलतियों का एहसास रहता है ! वह तो सर झुकाए लग पड़ता है आन पड़ी विपदा से येन-केन पिंड छुड़ाने, उससे किसी तरह पार पाने की जुगत में ! क्योंकि वह एक तरह से मान चुका है कि ऐसा तो होता ही रहता है !

इधर ऐसा सुनहरा सुअवसर पा विपक्ष पिल पड़ता है सरकार पर ! निगम पर ! कर्मचारियों पर ! आरोप-प्रतिरोप का दौर शुरू ! आम आदमी की परेशानियों को दरकिनार कर बात जा पहुंचती है राजनीति के अखाड़े में ! वहां विपक्ष, यह भूल कि चंद दिनों पहले वह भी सत्ता सुख में लिप्त था, को मौका मिल जाता है दुसरों पर आरोपों की बौछार करने का ! वादों के सपने दिखाने का ! अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का !  पर मूल समस्या से ज्यादा छेड़-छाड़ नहीं की जाती ! उसे तकरीबन जस का तस रहने दिया जाता है कभी आगे आने वाले समय में सदुपयोग के लिए ! 

इसलिए और किसी पर भरोसा ना कर अवाम को खुद ही समझदार, जागरूक और विवेकशील होने की जरुरत है। हम सब को समझना होगा कि नगर, शहर, परिवेश को साफ रखना हम सभी की जिम्मेदारी है। इधर -उधर, खाली जगहों में, सड़कों पर कचरा फेंकने के बजाय अगर सभी लोग डस्टबीन में कचरा डालने की आदत बना लें तो सफाई कर्मचारियों को भी अपने काम करने में आसानी होगी। हमें भी बेहतर सेवा मिल पाएगी। इसके साथ ही अब यह कोशिश भी होनी चाहिए कि पॉलीथिन के बजाए कपड़े या जूट के थैलों का इस्तेमाल किया जाए। ऐसा नहीं है कि इस समस्या से पार नहीं पाया जा सकता ! बस थोड़ी सी इच्छाशक्ति को मजबूत करने की जरुरत है। एक बार आदत पड़ गई तो फिर शहरों के आस-पास से कुतुबमीनार जितने ऊँचे कचरे के पहाड़ रूपी दानवों से मुक्ति मिलते देर नहीं लगेगी। 

सोमवार, 17 अगस्त 2020

दशरथ जी के संतान योग पर भारी, रावण की अभिसंधि

पर ऐसा क्यूँ हुआ कि अयोध्यापति संतान का मुख देखने को तरस गए ! जबकि विष्णु जी ने उनका पुत्र बनने का वचन दिया था ! तीन-तीन रानियां थीं ! पूरा परिवार यौवनावस्था में था ! पहले एक संतान हो भी चुकी थी ! हर सुख-सुविधा मुहैय्या थी ! उस युग में ज्ञान-विज्ञान अपने चरमोत्कर्ष पर था, जैसाकि उन दिनों की कथा कहानियों से निष्कर्ष निकलता है ! तिस पर उन्हें पुत्र वियोग का श्राप भी मिला हुआ था, जो तभी फलीभूत होता जब उनके संतान होती ! फिर ऐसा कौन सा कारण था जो अयोध्या को उसका उत्तराधिकारी नहीं मिल पा रहा था ...........!

#हिन्दी _ब्लागिंग 

कई बार कुछ ऐसा पढ़ने को मिल जाता है जो सालों-साल से चली आ रही कथा-कहानियों की किसी घटना या विवरण को एक अलग नजरिया प्रदान कर देता है ! अब जैसे रामायण को ही लें इस महाग्रंथ को कई भाषाओं में विभिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में लिखा गया है। रचयिता की जैसी भावना रही, उसने उसी के अनुरूप अपने ग्रंथ में चरित्रों की व्याख्या भी की। कभी-कभी तो ये उप कथाएं अत्यंत रोचक और सटीक भी लगती हैं। अभी रामजी की बहन शांता देवी के बारे में खोज करने पर एक और रोचक विवरण पढ़ने में आया, उसी को साझा कर रहा हूँ।

राम भगिनी देवी शांता 
सभी राम कथाओं में यह वर्णित है कि राजा दशरथ को कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्हें पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाना पड़ा था। पर जैसी अन्य कथाओं से जानकारी मिलती है, उससे यह पता चलता है कि उनके कन्या रूपी एक संतान पहले थी, जिसका नाम शांता था। उसे उन्होंने कौशल्याजी की बहन वर्षिणीजी को, जो अंगराज रोमपद को ब्याही गयी थीं तथा कई वर्षों तक निःसंतान रहने के कारण सदा चिंतित, दुःखी व अस्वस्थ रहने लगीं थीं, गोद दे दिया था। उस समय ऐसा करते हुए कोई कारण भी नहीं था जो दशरथ जी को जरा सा भी आभास होने देता कि भविष्य में उनको संतान प्राप्ति के लिए बेहद चिंतित होना पडेगा।

राजा दशरथ 
फिर ऐसा क्यूँ हुआ कि अयोध्यापति संतान का मुख देखने को तरस गए ! जबकि विष्णु जी ने उनका पुत्र बनने का वचन दिया था ! तीन-तीन रानियां थीं ! पूरा परिवार यौवनावस्था में था ! पहले एक संतान हो भी चुकी थी ! हर सुख-सुविधा मुहैय्या थी ! उस पर उस युग में ज्ञान-विज्ञान अपने चरमोत्कर्ष पर था, जैसाकि उन दिनों की कथा कहानियों से निष्कर्ष निकलता है ! तिस पर उन्हें पुत्र वियोग का श्राप भी मिला हुआ था, जो तभी फलीभूत होता जब उनके संतान होती ! फिर ऐसा कौन सा कारण था जो अयोध्या को उसका उत्तराधिकारी नहीं मिल पा रहा था ! इसका जवाब दक्षिण की एक राम कथा देती है।

रावण 
जब रावण ने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त किया, जिसके अनुसार उसकी मृत्यु का कारण सिर्फ कोई मानव हो सकता था, तो उसने उस मानव के बारे में जानने की ठानी ! वह परम ज्ञानी, त्रिकालदर्शी, ज्योतिष शास्त्री तथा प्रकांड पंडित तो था ही, उसने ज्ञात कर लिया कि उसकी मृत्यु कौशल्या पुत्र के हाथों होगी। इसलिए उसने अपनी मृत्यु को टालने के लिए, जिस दिन सारे लोग दशरथ-कैकेई के ब्याह में व्यस्त थे, मौका पा कर उसने कौशल्या जी का हरण कर उन्हें मंजूषा में बंद कर दूर एक सुनसान द्वीप पर कड़े पहरे के अंतर्गत ले जा कर रख दिया। इस घटना की सूचना नारद जी द्वारा मिलने पर दशरथ जी सेना सहित वहां पहुंचे पर घनघोर युद्ध के पश्चात  तकरीबन हार चुके दशरथ जी को जटायु जी की सहायता ने बचा लिया। इसके बाद दशरथ और जटायु अभिन्न मित्र बन गए। उधर श्रीराम के जन्म से पहले ही अपनी मौत को टालने का रावण का प्रयास विफल रहा ! परन्तु उसने ग्रहों-नक्षत्रों को वश में कर कुछ ऐसी अभिसंधि की, जिससे दशरथ को पुत्र प्राप्ति हो ही ना सके। यही कारण था कि वर्षों-वर्ष अयोध्या के राजपरिवार में किसी बच्चे की किलकारी नहीं गूँज पाई ! 

श्रृंगी दंपत्ति 
संतान-दुःख, बढती उम्र और चिंता के कारण राजा का मन हर चीज से उचाट हो गया ! राज-पाट से विमुख हो गए ! तब गुरु वशिष्ठ के सुझाव पर श्रृंगी ऋषि को आमंत्रित किया गया, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से अपने जीवन भर की घोर तपस्या से अर्जित सारे पुण्यों को होम कर दशरथ जी के लिए, कठिनतम माना जाने वाला पुत्रकामेष्ठि यज्ञ सम्पन्न करवा अयोध्या के साथ देश-दुनिया की विपदा भी हर ली। इस यज्ञ के प्रभाव और उसके दैवीय प्रसाद के फलस्वरूप ही रावण-पाश से मुक्ति संभव हो सकी और श्री राम और उनके तीन भाइयों का जन्म निर्विघ्न हो पाया और फिर कालांतर में रावण का वध हुआ।

प्रसाद के साथ अग्निदेव, देवी शांता भी प्रतिलक्षित हैं 
यहां एक जिज्ञासा का उठना स्वाभाविक है कि जब पुत्रकामेष्ठि यज्ञ से संतान प्राप्ति संभव थी तो उसे पहले ही क्यों नहीं करवा लिया गया। तो इसके बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार महीनों तक चलने वाले इस बेहद कठिन विधि-विधान वाले यज्ञ को पूर्ण करवाना हर किसी के लिए संभव नहीं था ! यदि ऐसा होता तो गुरु वशिष्ठ या गुरु विश्वामित्र इसे पहले ही करवा चुके होते। इसके लिए ऐसे ऋषि की आवश्यकता थी, जो दिव्य, ज्ञानी, परोपकारी, प्रकांड पंडित, सौम्य, पर-हितकारी और वेदमंत्रों का उद्भट ज्ञाता हो ! जिसका अपनी इन्द्रियों व भावनाओं पर पूरा नियंत्रण हो ! इसके साथ ही अपने जीवन भर के पुण्यों की आहुति, बिना किसी हिचक, सोच या पछतावे के, यज्ञ में होम कर सके ! क्योंकि उन्हीं पुण्यों के तेज और प्रताप से दैवी प्रसाद का निर्माण संभव था। इसीलिए वशिष्ठ जी ने श्रृंगी ऋषि के नाम का अनुमोदन किया था। जो राजा दशरथ के जमाता भी थे और वर्षों, अपनी एक घोर तपस्या को पूर्ण कर उन्हीं दिनों अपने आश्रम लौटे थे। राजा दशरथ के अनुरोध और अपनी पत्नी शांता देवी की सलाह पर त्रिकालदर्शी और ज्ञानी श्रृंगी ऋषि ने जब अपनी दिव्य दृष्टि से यह भी जाना कि उस यज्ञ से प्राप्त संतान के रूप में खुद विष्णु जी, राम रूप में पृथ्वी पर अवतरित होंगें तो वे उस अभूतपूर्व घटना का माध्यम तथा साक्षी बनने को राजी हो गए। इस कार्य हेतु उनकी एक ही शर्त थी कि इस महायज्ञ में उनकी पत्नी भी सहभागी होंगी। दशरथ जी ने उनकी बात मान ली। इस तरह ऋषि दंपत्ति के पुण्य-प्रताप से यज्ञ की पूर्णाहुति हो सकी और खुद अग्नि देव चांदी के पात्र से ढके सोने के कलश में दैवीय प्रसाद को ले प्रकट हुए और उसे राजा दशरथ को सौंप दिया। इस महायज्ञ के पश्चात श्रृंगी ऋषि फिर अपने पुण्यों को अर्जित करने हेतु जंगल में जा घोर तपस्या में लीन हो गए। उनके परिवार की जिम्मेदारी राजा दशरथ ने संभाली।      

हमारे ऋषि-मुनियों ने जो भी नियम-कायदे बनाए और उन्हें तरह-तरह की कथा-कहानियों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश की उसका एक ही उद्देश्य था कि लोग सरल, सहज, अहम् रहित, धर्मपरायण रह समाज कल्याण हेतु जीवन यापन करें। जीव-जंतुओं का हित हो ! देश-प्रदेश में सुख-समृद्धि-ऐश्वर्य का वास रहे। मानव संस्कृति फले-फूले। उन्हीं महान आत्माओं का प्रताप है कि तरह-तरह के बलशाली, विशाल प्रणियों के अस्तित्व के लुप्त हो जाने के बावजूद मानव इस धरा पर विद्यमान है और निरंतर प्रगति भी कर रहा है।

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

श्री रामजी की बहन देवी शांता

श्रीराम जिनका नाम बच्चा-बच्चा जानता है। उनके भाईयों के साथ-साथ उनकी पत्नियों के बारे में सारी जानकारी उपलब्ध है। उनके परिवार की तो बात छोड़िए, उनके संगी साथियों, यहां तक की उनके दुश्मनों के परिवार वालों के नाम तक लोगों की जुबान पर हैं। उन्हीं श्रीराम की एक सगी बहन भी थी। उनके बारे में अब जा कर लोग कुछ-कुछ जानने लगे हैं ! यह जानकारी अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि इसी बीच उनकी एक और बहन ''कुकबी जी'' का नाम भी सामने आ गया है ! नाम के सिवा उनके बारे में और कोई जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं हो पा रही है। फिलहाल शांता जी के बारे में जो जानकारी मिलती है उसी को साझा किया है ...........!


#हिन्दी_ब्लागिंग    

अंग देश नरेश रोमपद तथा उनकी पत्नी वर्षिणी को प्रभु-कृपा से दुनिया की हर नियामत उपलब्ध थी। पर बढ़ती उम्र के साथ नि:संतान होने का दुख दोनों को सालता रहता था। यही एक कारण था जो अंदर ही अंदर दोनों को खाए जाता था। एक बार मन बहलाने के लिए दोनों अयोध्या महाराज दशरथ के यहां पधारे। रानी वर्षिणी महारानी कौशल्या की छोटी बहन भी थीं। वहीं उन्होंने सुंदर, सुशील, वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत दशरथ पुत्री शांता को देखा ! दोनों उस पर मोहित हो गए और हंसी-हंसी में ही राजा दशरथ से उसको गोद लेने की इच्छा जाहिर कर दी। दशरथ भी मान गए। बाद में अपने वचन की रक्षार्थ उन्होंने कन्या राजा रोमपद को सौंप दी तथा साथ ही दिलासा भी दिया कि संतान प्रेम उन्हें विचलित न कर दे, इसलिए उसे कभी भी अयोध्या नहीं बुलाएंगे । इस तरह शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। बड़ी होने पर उनका विवाह शृंग ऋषि से हुआ जो महर्षि विभाण्डक और अप्सरा उर्वशी के पुत्र थे। 

इधर अयोध्या में राजा दशरथ अपना कोई उत्तराधिकारी ना होने के कारण चिंताग्रस्त रहने लगे थे। उनकी बढती उम्र और गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए गुरु वशिष्ठ ने उन्हें पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाने की सलाह दी। राजा को क्या एतराज हो सकता था ! उन्होंने अपनी स्वीकारोक्ति दे दी। पर इस विशेष यज्ञ की यह ख़ास बात थी कि इसे पूर्ण करवाने वाले पुरोहित के सारे पुण्य यज्ञ की ज्वाला में भस्म हो जाते थे। इसलिए ऋषि-महर्षि इस यज्ञ को करने से बचते थे। ऐसे में वशिष्ठ जी ने दशरथ को शृंग ऋषि का नाम सुझाया जो उनके जमाता भी थे। दशरथ ने, अपने शांता को अयोध्या ना बुलाने के संकल्प को याद रख, ससम्मान सिर्फ शृंग ऋषि को प्रस्ताव भेज दिया ! ऋषि पुण्यात्मा, सरल ह्रदय और स्नेहिल व्यक्ति थे। उनमें अथाह आध्यात्मिक क्षमता थी। वे अपने परिवार ख़ासकर शांता से बहुत नेह रखते थे। उसी के कहने और मनाने पर ही वे इस यज्ञ को करवाने के लिए तैयार भी हुए थे।इसलिए अकेले अयोध्या जाने की बात उन्हें ठीक नहीं लगी और उन्होंने यज्ञ करवाने से इंकार कर दिया। फिर बाद में दशरथ ने उनकी बात मानी और यज्ञ पूरा हुआ। अयोध्या से करीब चालीस की मी दूर, जहां शृंग ऋषि का आश्रम भी है, वह जगह आज भी मौजूद है। यज्ञ के पश्चात शृंग ऋषि फिर जंगलों में, अपने खोए हुए पुण्यों को प्राप्त करने, घोर तपस्या हेतु प्रस्थान कर गए।  तुलसी रामायण में शांता जी का जिक्र ना होने के कारण अधिकांश लोगों को उनके बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं है। पर देश में उनके दो-तीन मंदिर जरूर पाए जाते हैं।

***********************************************************************************************************

शांता देवी का उल्लेख अपने यहां तो जगह-जगह मिलता ही है, लाओस और मलेशिया की कथाओं में भी उसका विवरण मिलता है। पर आश्चर्य इस बात का है कि रामायण या अन्य राम कथाओं में उसका उल्लेख नहीं है ?  पता नहीं क्यूं, असमान उम्र तथा जाति में ब्याह दी गयी कन्या का अपने समाज तथा देश के लिये चुपचाप किए गए त्याग का कहीं विस्तृत उल्लेख किया गया ? क्या सिर्फ दूसरे कुल में गोद दे दिये जाने की वजह  से ?

********************************************************************************************************** 

पहला मंदिर : शृंग ऋषि तथा शांता जी का  एक मंदिर  हिमाचल प्रदेश  के कुल्लू जिले  से  करीब  पचास की.मी. दूर  बंजार उपमंडल की चैहणी कोठी  के ''बागा'' नामक स्थान में  एक छोटी सी पहाड़ी पर सुरम्य परिवेश में बना हुआ है  ! जहां पर शांता और उनके पति ऋषि श्रंगी की एक साथ पूजा की जाती है। दृढ  मान्यता के अनुसार  यहां पर जो भी व्यक्ति उन दोनों की पूजा करता है उसे प्रभु श्रीराम का आशीर्वाद जरूर  प्राप्त  होता है।  इस  मंदिर में भगवान श्रीराम से जुड़े सभी उत्सव जैसे राम जन्मोत्सव, दशहरा आदि भी बड़ी ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं। 
 


दूसरा मंदिर : कर्नाटक के कदुर जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे शृंगेरी में स्थित है।  जिसका नाम शृंगगिरि पर्वत के नाम पर पड़ा है। यहीं के ''किग्गा'' नमक स्थान पर श्रृंगी ऋषि और देवी शांता के मंदिर हैं। श्रृंगेरी को यह नाम ऋषि श्रृंगी से प्राप्त हुआ है। श्रृंगेरी प्राचीन काल से बसा हुआ है। यहीं उनका जन्म हुआ था। अत: केरल और तमिलनाडु के कई क्षेत्रों में उनकी और श्री राम जी की बहन शांता की बहुत मान्यता है। ऐसे ही छत्तीसगढ़ सहित कुछ और इलाकों में भी ये मान्यता है कि भगवान राम के जन्म से पहले दशरथ और कौशल्या जी की एक संतान और भी थी, जिसका नाम शांता था। यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन विरूर है जो यहां से करीब साठ की.मी. की दूरी पर है। 

ऐसी ही एक तीसरी जगह है, अयोध्या से लगभग चालिस किलोमीटर दूर विकासखंड मया अंतर्गत स्थित पौराणिक स्थल श्रृंगी ऋषि आश्रम, जहां राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए गुरु वशिष्ठ की सलाह पर श्रृंगी ऋषि से पुतेष्ठि यज्ञ करवाया था। यहां कार्तिक पूर्णिमा के दिन श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ता है, जो  यहां आकर श्रृंगी ऋषि के विग्रह के सम्मुख अपनी विपदा हरने की प्रार्थना करते हैं। साथ ही बगल में स्थित मां शांता देवी की गुफा में भी वे मत्था टेंकना नहीं भूलते। सरयू नदी की गोद में बसे इस पौराणिक स्थल पर साधु संतों की मंडली भी इस मौके पर उपस्थित होती है। 

देवी शांता के बारे में तुलसी दास जी के मानस में कोई उल्लेख्य नहीं मिलता लेकिन दक्षिण के पुराणों में स्पष्ट रूप से शांता के चरित्र का वर्णन किया गया है | युद्धोपरांत माँ कौशल्या के बताने पर जब चारों भाई अपनी बहन शांता से मिलते हैं तो वे अपने भाइयों से अपने त्याग का फल मांगते हुए उन्हें सदैव साथ रहने का वचन लेती हैं | भाई अपनी बहन के त्याग को व्यर्थ नहीं जाने देते और जीवन भर एक दुसरे की परछाई बनकर रहते हैं |   

सोमवार, 10 अगस्त 2020

समयानुसार अहम्, कुंठा व पूर्वाग्रहों को तिलाजंलि दे देनी चाहिए

आडवाणी जी की अनुपस्थिति में दुबले होते लोगों को पहले स्वतंत्रता दिवस के झंडोतोलन पर आजादी के पुरोधा गांधी जी की याद क्यों नहीं आती। जो उस दिन भी कलकत्ते में बैठे आंसू बहा रहे थे !  तब तो उनकी उम्र भी आज के अडवानी जी से काफी कम थी और ना ही कोई अडचन थी ! जबकि देश की आजादी, बाबरी से आजादी से कहीं बड़ा मायने रखती  थी ! किसी को यह समझ क्यों नहीं आता कि गलत समय में सही बात भी कहर ढा सकती है ! आज जब जनता की नब्ज परखने की जरुरत है ! समय के आकलन की आवश्यकता है ! आत्ममंथन की सख्त अपरिहार्यता है ! प्रजा की भावनाओं को समझने का प्रयोजन है ! असंयमित बयानों पर लगाम कसने की जरुरत है तब भी तथाकथित विज्ञ प्रवक्ता (तियाँ) यह ना समझते हुए कि उनके प्रलाप से पार्टी धंसती जा रही है, लगे रहते है विषवमन पर ! इन कुछ सालों में हुआ पराभव भी उन्हें चेता नहीं पा सक रहा ................................! 

#हिन्दी_ब्लागिंग   

जब से राम मंदिर के भूमिपूजन के उत्सव पर आमंत्रित हुए लोगों की सूचि आम हुई तभी से सोशल मीडिया पर हर चौथी पोस्ट आडवाणी जी की अनुपस्थिति को लेकर अफ़सोस करती दिखने लगी। ऐसा नहीं है कि यह सब उनकी अनुपस्थिति की वजह से दुखी हों, या उनके प्रति इनके दिलों में बहुत सम्मान हो ! यह सब दिल की भड़ास निकालने का कोई भी और कैसा भी मौका खोजने वाले कुतर्की लोग हैं। इनके कुतर्क उनकी उम्र और फैली हुई बिमारी का हवाला भी शांत नहीं कर सकता ! क्योंकि शतरंज की बिसात पर हर दांव में मात पा कर इनके आका तो अब किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर रह गए हैं उन्हें तो भरी दुपहरिया में भी अब कोई राह नहीं सूझ रही तो उन्होंने अपने प्यादों को खुली छूट तो दे दी है, पर छूट पाने वाले सिर्फ बगलें झाँक कर रह जा पा रहे हैं। चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात को आगे करने की नाकाम कोशिश भर कर किसी तरह शाम की डांट  से बचने की जुगत भर भिड़ा पा रहे हैं। अभी हाल ही में इनकी एक बड़बोली ''प्रवक्ति'' को एक चैनल पर नायक से खलनायक बना अयोध्या के लोगों ने ऐसा लताड़ा कि अब वह राम या अयोध्या पर बोलने से पहले दस बार सोचेगी।   

एक मान्यता है कि दुनिया में ऐसा कुछ नहीं है जो महाभारत में नहीं है, उसी तरह स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा कुछ नहीं है जो अधेड़ावस्था को पहुँच चुकी पार्टी में ना हो ! इनसे कोई पूछे कि जब येन-केन-प्रकारेण पहले स्वतंत्रता दिवस पर झंडे की डोर थामी गई थी तो आजादी के पुरोधा गांधी जी कलकत्ते में क्यों बैठे हुए थे। क्यों नहीं उनको दिल्ली लाने की जरुरत महसूस हुई। जबकि बाबरी मुक्ति से तो उनका देश मुक्ति का अभियान तो कोई तुलना ही नहीं रखता। वैसे भी आडवाणी जी का पाकिस्तान जा कर जिन्ना की प्रशंसा करना कई सवाल खड़े कर जाता है। 

आज ढाई-तीन लोग ऐसे भी हैं राजीव जी का नाम राम मंदिर से जोड़ भ्रम पैदा करने की तिकड़म में लगे हुए हैं जब कि पूरी बात बताने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे कि उस समय ताला कोर्ट के निर्देश पर मजबूरन खोलना पड़ा था जबकि सरकारी वकील से यह कहलवाया जा रहा था कि ताला खोलने से स्थितियां बिगड़ सकती हैं ! जज के आदेश पर ताला तो खुला पर जज महोदय का तबादला दूसरे प्रदेश में कर दिया गया था ! इस आदेश और उस आदेश में भी जमीन आसमान का फर्क है ! तब सरकार मंदिर खोलना नहीं चाहती थी, कोर्ट ने खुलवाया और अभी सरकार खोलना चाहती थी, परिस्थियाँ विपरीत थीं तब कोर्ट ने खुलवाया !

पर आज सब ऐसा राममय हो गया है, स्थिति ऐसी बन गई है, अवाम के गुस्से का डर ऐसा तारी हो गया है कि राम को काल्पनिक कहने वाले, उनकी जन्म स्थली पर सवाल उठाने वाले, राम सेतु का विध्वंस करने का षड़यत्र रचने वाले, ग्रंथों का मजाक उड़ाने वाले, धर्म को अफीम कहने वाले लोग भी अपने घरों में पूजा का आयोजन कर जनता को अपने धार्मिक होने का संदेश देने में जुट गए हैं या यूं कहें कि अपने राहू ग्रसित भविष्य का आभास पा मजबूरन जुटना पड़ रहा है ! पर साथ ही वोट के लिए बाहर आ तरह-तरह के प्रपंच और बोल बच्चन रचने से भी बाज नहीं आ रहे हैं ! पता नहीं इनकी दो नावों की सवारी का क्या हश्र होगा ! सबसे बड़ी बात यह है कि ये नीम हकीम अवाम की नब्ज नहीं समझ पा रहे हैं ! अब नहीं समझ पा रहे, तो खामियाजा तो भुगतना ही पडेगा !!

अधेड़ावस्था के पार जा चुकी अति अनुभवी पार्टी के लंबरदारों को यह क्यों नहीं समझ में आता कि गलत समय में सही बात भी कहर ढा सकती है ! फिर यहां तो बातें ही ऊल-जलूल की जा रही हैं। अपना इतिहास भूल, लंका विजय के समय आप रावण का गुणगान करोगे ! देश की आवश्यकता पूर्ती पर आप सवाल खड़े करोगे ! जिससे तनातनी चल रही हो उसी के घर जा कर गलबहियां डालोगे ! सिर्फ विरोध के लिए विरोध करोगे ! सच को झूठ साबित करने से बाज नहीं आओगे ! अपने घर के सदस्यों के विरोध पर दूसरों को दोष दोगे और फिर कहोगे कि जनता को बरगलाया गया है ! आज जब जनता की नब्ज परखने की जरुरत है ! समय के आकलन की आवश्यकता है ! आत्ममंथन की सख्त अपरिहार्यता है ! अवाम की भावनाओं को समझने का प्रयोजन है ! असंयमित बयानों पर लगाम कसने की जरुरत है तब भी तथाकथित समर्पित, विज्ञ प्रवक्ता (तियाँ) यह ना समझते हुए कि उनके प्रलाप से पार्टी धंसती जा रही है, लगे रहते है विषवमन पर ! इन कुछ सालों में हुआ पराभव भी उन्हें चेता नहीं पा सक रहा ! क्या इसे ही विनाश काले, विपरीत बुद्धि कहते हैं ! सोचने की बात है !!

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

मैं और मेरे चश्मे

चश्मा लगने के साथ ही शुरू हो गयी उनकी बेहाली की कहानी भी ! उनका टूटना थमता ही ना था। एक बार चश्मा दिलाने मेरे वेद चाचाजी मुझे कलकत्ते के बहूबाजार, जो चश्मों का गढ़ होता था, ले गए और ऐसे ही मुझसे पूछ लिया कि कौन सा फ्रेम अच्छा लगता है ! तो मैंने जिस ओर इशारा किया उसे देख वे हस पड़े और बोले ''धुत्त पगला'' ! और फिर उन्होंने मेरे इतिहास और चश्मे के भविष्य की परवाह ना कर मुझे एक अच्छा-खासा फ्रेम दिलवा दिया। दूकान से बाहर आ उन्होंने मुझसे पूछा की मैंने वह फ्रेम क्यों चुना था ? मैंने बताया कि मुझे लगा कि वह कानों को अच्छी तरह पकडेगा, जिससे झटके से गिरेगा नहीं, इसलिए ! बाद में गांधीजी वाले उस फ्रेम की बात सोच अक्सर हंसी आ जाती रही...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
मेरा और चश्मे का संबंध बहुत ही पुराना है। बालपन में ही इसने मेरे कानों का सहारा ले मेरी नाक पर कब्जा जमा लिया था। शुरुआत में तो हमारी आपस में काफी तनातनी रही ! तूफानी धमाचौकड़ी वाला मिजाज होने के कारण कोई भी चश्मा नाक पर ज्यादा देर कब्जा जमाए नहीं रख पाता था ! एक-दो पखवाड़े में एक चश्में का शहीद होना निश्चित था। शाम के समय खेलने-कूदने जाओ और जब तक मुझे कुछ समझ आए, तब तक ये भू-लुंठित हो जाते थे ! घर पहुंचते ही ''आदर-सत्कार'' जैसे मेरा इंतजार ही कर रहा होता था। ये टूटना इतना आम हो गया था कि हर बार घर से निकलते समय माँ की हिदायत होती थी कि ''चश्मा मत तुड़वा कर आना !'' मैं कोई जान बूझ कर थोड़े ही तोड़ता था......टूट जाता था !

मेरा बचपन करीब चार साल तक पंजाब में अपने दादा-दादी जी के साथ ही बीता था। सुना है कि उन्हीं दिनों मेरी आँखों में कोई बड़ा इंफेक्शन हो गया था ! उन दिनों चिकित्सा व्यवस्था इतनी व्यापक और उत्कृष्ट नहीं थी ! खैर जैसा भी था रोग पर काबू पा लिया गया। पर उसका दुष्परिणाम नजरंदाज हो गया या उसका पता ही नहीं चल पाया होगा ! फिर मेरा ''ट्रांस्फर'' कलकत्ता हो गया। उन दिनों पढ़ाई और स्कूलों की इतनी मारा-मारी नहीं थी। स्कूल भी कम और दूर-दूर हुआ करते थे। तब हम बंगाल के कोन्नगर में रहा करते थे। जब बाबूजी के कार्यस्थल से पांच-छह बच्चों का जत्था स्कूल जाने लायक हो गया तो हम सब एक-एक रिक्से में दो-दो जने लद रिसरा विद्यापीठ में जाने लगे। जो घर नौ-दस किलोमीटर दूर था। मेरा स्कूल में दाखिला चौथी कक्षा में हुआ था। उसके पहले की पढ़ाई घर पर ही हुई थी। इसलिए आँखों की खामी सामने नहीं आ पाई। 

रोज रात को सोने के पहले बाबूजी तरह-तरह से मुझे कुछ न कुछ सिखाया करते थे। उसमें एक कैलेण्डर की भी अहम भूमिका होती थी जो बेड के सिरहाने टंगा होता था। एक दिन उन्होंने मुझसे कैलेण्डर से संबंधित कुछ पूछा, तो मैं उठ कर उसके नजदीक जा देखने लगा ! इस पर उन्होंने इतना पास जा कर देखने का कारण पूछा तो मैंने बताया कि मुझे दूर से अक्षर साफ़ नजर नहीं आते ! बाबूजी को शंका हुई, आँखों का परिक्षण हुआ और उन्हें कमजोर पाया गया। जब मुझसे पूछा गया तो मैंने कहा कि मुझे लगता था कि सबको ऐसा ही दिखता होगा ! 
चश्मा तो लग गया साथ ही शुरू हो गयी उनकी बेहाली की कहानी भी ! उनका टूटना थमता ही ना था। ऐसे ही एक हादसे के बाद, एक बार चश्मा दिलाने मेरे वेद चाचाजी मुझे कलकत्ते के बहूबाजार, जो चश्मों का गढ़ होता था, ले गए और दूकान के शोकेस में सजे चश्मों को देख यूँही मुझसे पूछ लिया कि कौन सा फ्रेम अच्छा लगता है ! तो मैंने जिस ओर इशारा किया उसे देख वे हस पड़े और बोले ''धुत्त पगला'' ! और फिर उन्होंने मेरे इतिहास और चश्मे के भविष्य की परवाह ना कर मुझे एक अच्छा-खासा फ्रेम दिलवा दिया। दूकान से बाहर आ उन्होंने मुझसे पूछा की मैंने वह फ्रेम क्यों चुना था ? मैंने बताया कि मुझे लगा कि वह कानों को अच्छी तरह पकडेगा, जिससे झटके से गिरेगा नहीं, इसलिए ! बाद में गांधीजी वाले उस फ्रेम की बात सोच अक्सर हंसी आ जाती रही। 

आज चश्मा बहुत आम बात हो गई है। हर छोटे से छोटे बच्चे को भी लगा दिखता है। पर उन दिनों चश्मा लगना, कौतुहल और कमजोरी की निशानी माना जाता था। बड़े शहरों में तो उतना नहीं, पर छोटे शहरों-कस्बों में इसे पहनने वाला और वह भी बच्चा, अजूबा ही बन जाता था। मुझे भी इसके कारण कई बार बड़ी विचित्र स्थितियों का सामना करना पड़ा है। 

पंजाब तब सेहत का गढ़ माना जाता था। माँ के साथ एक-दो साल के अंतराल में जब भी वहां का चक्कर लगता तो ननिहाल में मेरा घर से निकलना दूभर हो जाता था। पहले दिन मुझ चश्माधारी को देख, आस-पड़ोस के बच्चे पता नहीं क्या मुनादी फिराते थे कि दूसरे दिन पता नहीं कहां कहां से ढेर सारे बच्चे हमारे घर के पास ऐसे इकठ्ठा हो जाते जैसे सर्कस में किसी नए जानवर को देखने आए हों ! मुझे देखते ही खुसुर-पुसुर शुरू हो जाती ''ओए ! निक्के जए मुण्डे नू ऐनक लग्गी ऐ !'' हंसी-ठिठोली-फब्तियां कसी जातीं ! मैं रुंआसा हो अंदर जाता तो मामा लोग आ कर उन्हें खदेड़ते।  बच्चे तो बच्चे, वहां बड़े भी मेरे चश्मे को लेकर माँ से ऐसे बात करते जैसे मुझे कोई बिमारी लग गई हो। 

आजआज ज़माना कितना बदल गया है ! चश्मे कहां से कहां पहुँच गए हैं ! व्यक्तित्व और सम्पन्नता की निशानी बन गए हैं ! विज्ञान ने इनमें तरह-तरह की विशेषताएं जोड़ दी हैं। गुणवत्ता ऊँचे दर्जे की हो गई है। अब ये टूटते नहीं, वैसे ही बदलने पड़ते हैं। ये जिंदगी का एक अभिन्न अंग ही बन गए हैं। बुद्धीजीवी होने का प्रमाण बन गए हैं। पर कहां भूलते है वह पुराने दिन ! वह टूटे चश्में, वह गांधी जी का फ्रेम, वह बच्चों की ठिठोली, ढीली निक्कर और भारी चश्मे को संभालने की कवायद, चश्मे के साथ आ जुडी उपमाऐं ! नहीं भूलती और ना भूलेंगी ताउम्र !! 

शनिवार, 1 अगस्त 2020

ये दर्द कब हद से गुजरेगा, कब दवा बनेगा

विडंबना हर बार की तरह यही है कि इस अभूतपूर्व संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला, इस बार भी वही मध्यम वर्ग है, जो सदैव सारे देश को पालता, उसकी जरूरतें पूरी करता, हारी-बिमारी-मुसीबत में हर बार, हर तरह से उसके काम तो आता है. पर जिसकी कहीं, कभी कोई सुनवाई नहीं होती ! उसे बस निचोड़ा जाता है, सिर्फ निचोड़ा..........................!!






#हिन्दी_ब्लागिंग 

मार्च 19 गुरुवार, अवाम को सम्बोधित करते हुए मोदी जी ने आने वाले 22 मार्च के रविवार को, प्रयोग के तौर पर आजमाए जाने वाले जनता कर्फ्यू में सहयोग करने को कहा ! आसन्न संकट की गंभीरता से अनजान लोगों ने इसे तफरीह के तौर पर ले बड़ी सहजता से सफल बना दिया। नब्ज समझते ही एक दिन बाद मंगलवार को उन्होंने फिर देश को संबोधित कर कोरोना वायरस के अभूतपूर्व संकट, उसकी कोई दवा न होने और सिर्फ संकल्प और संयम से खुद की सुरक्षा ही एकमात्र इलाज होने की बात बता, उसी मध्य रात्रि से यानी 24 मार्च से 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा कर दी।









देश में ऐसे अवकाश का अनुभव लोगों को पहली बार हुआ था। बिना भविष्य की चिंता करे लोगों ने इसे हल्के तौर पर लिया ! कालोनियों, मोहल्लों, गलियों में अपने-अपने घरों की बालकनियों, छतों, खिड़कियों से लोगों ने एक-दूसरे के साथ संवाद और मनोरंजन के लिए तरह-तरह के उपाय ढूँढ निकाले ! रोज शाम को रौनक लगने लगी। इसी बीच दूसरे लॉकडाउन की घोषणा हो गई ! इंसान की फितरत है कि वह जबरदस्ती बंध के नहीं रह सकता। उसे खुलापन व आजादी चाहिए होती है। इस लंबी घर-बंदी से लोग अब ऊबने लगे ! शुरूआती उत्साह ठंडा पड़ने लगा ! जैसे-जैसे निष्क्रिय दिन-हफ्ते-महीने बढ़ते गए, वैसे-वैसे लोगों में बेचैनी, ऊब, हताशा, निराशा घर करने लगी। कई तो डिप्रेशन के शिकार भी हो गए !



   




  


 

बात सिर्फ निष्क्रियता से उपजी ऊब की नहीं थी ! धीरे-धीरे इस ''बंद'' का भयावह व डरावना रूप सामने आने लगा ! ठप्प व्यवसाय, नौकरी से छंटनी ! कुछ अपवादों को छोड़, हर तरफ से आमदनी की आवक अवरुद्ध होते ही अधिकांश घरों में चिंता का सन्नाटा पसरने लगा ! जमा-पूंजी हाथ की रेत के जैसे तेजी से फिसलती जा रही थी ! वैसे भी आज के हालात में मध्यम वर्ग की बचत होती ही कितनी है ! उसे रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में दांतों पसीना आने लगा ! ऊँची दर के ब्याज पर या फिर जेवर गिरवी रख पैसे का जुगाड़ करने की नौबत आ चुकी थी ! फिर इस मुसीबत के ख़त्म होने का कोई निश्चित समय भी तो नहीं था कि इतने सप्ताह या महीनों के बाद इससे राहत मिल जाएगी ! कितना भी कोई आशावादी था इस संकट ने उसे बुरी तरह तोड़ कर रख दिया ! ऊपर से देख भले ही अंदाज ना लगता हो, पर अंदर ही अंदर हर इंसान चिंता-भय-आशंका से ग्रसित हो जल बिन मछली की तरह तड़प रहा है।

   


 



 





 

 

अब तक मार चौतरफा हो चुकी है ! बुरी तरह घिरे आम इंसान को बाहर बिमारी और भीतर बेरोजगारी पीसे जा रही है ! बिमारी तो एक तरफ उस पर होने वाले खर्च से वह और भी ज्यादा भयभीत व आतंकित है ! घर से ना निकलने पर उसके सामने भुखमरी का संकट मुंह बाए आ खड़ा हुआ है ! पर घर से निकलते ही कोई रोजगार मिल जाएगा, इसकी भी कहां कोई गारंटी है ! विडंबना हर बार की तरह यही है कि इस अभूतपूर्व संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला, इस बार भी वही मध्यम वर्ग है, जो सदैव सारे देश को पालता, उसकी जरूरतें पूरी करता, हारी-बिमारी-मुसीबत में हर बार, हर तरह से उसके काम तो आता है. पर जिसकी कहीं, कभी कोई सुनवाई नहीं होती ! उसे बस निचोड़ा जाता है, सिर्फ निचोड़ा !!  




 


   




कहते हैं ना कि दर्द यदि हद से गुजर जाए तो फिर कोई दवा काम नहीं करती, दर्द खुद ही दवा बन जाता है। इसलिए यह बात तो साफ़ है कि इस बहादुर वर्ग को भी डर तभी तक सताएगा जब तक इसकी जेब और रसोई साथ देगी। जिस दिन दोनों रीत गए फिर इसे किसी हारी-बिमारी-कोरोना का डर नहीं रहेगा, चिंता रहेगी तो अपने परिवार की ! क्योंकि है तो वो एक पारिवारिक प्राणी ही !




 

 


विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...