चश्मा लगने के साथ ही शुरू हो गयी उनकी बेहाली की कहानी भी ! उनका टूटना थमता ही ना था। एक बार चश्मा दिलाने मेरे वेद चाचाजी मुझे कलकत्ते के बहूबाजार, जो चश्मों का गढ़ होता था, ले गए और ऐसे ही मुझसे पूछ लिया कि कौन सा फ्रेम अच्छा लगता है ! तो मैंने जिस ओर इशारा किया उसे देख वे हस पड़े और बोले ''धुत्त पगला'' ! और फिर उन्होंने मेरे इतिहास और चश्मे के भविष्य की परवाह ना कर मुझे एक अच्छा-खासा फ्रेम दिलवा दिया। दूकान से बाहर आ उन्होंने मुझसे पूछा की मैंने वह फ्रेम क्यों चुना था ? मैंने बताया कि मुझे लगा कि वह कानों को अच्छी तरह पकडेगा, जिससे झटके से गिरेगा नहीं, इसलिए ! बाद में गांधीजी वाले उस फ्रेम की बात सोच अक्सर हंसी आ जाती रही...........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
मेरा और चश्मे का संबंध बहुत ही पुराना है। बालपन में ही इसने मेरे कानों का सहारा ले मेरी नाक पर कब्जा जमा लिया था। शुरुआत में तो हमारी आपस में काफी तनातनी रही ! तूफानी धमाचौकड़ी वाला मिजाज होने के कारण कोई भी चश्मा नाक पर ज्यादा देर कब्जा जमाए नहीं रख पाता था ! एक-दो पखवाड़े में एक चश्में का शहीद होना निश्चित था। शाम के समय खेलने-कूदने जाओ और जब तक मुझे कुछ समझ आए, तब तक ये भू-लुंठित हो जाते थे ! घर पहुंचते ही ''आदर-सत्कार'' जैसे मेरा इंतजार ही कर रहा होता था। ये टूटना इतना आम हो गया था कि हर बार घर से निकलते समय माँ की हिदायत होती थी कि ''चश्मा मत तुड़वा कर आना !'' मैं कोई जान बूझ कर थोड़े ही तोड़ता था......टूट जाता था !
मेरा बचपन करीब चार साल तक पंजाब में अपने दादा-दादी जी के साथ ही बीता था। सुना है कि उन्हीं दिनों मेरी आँखों में कोई बड़ा इंफेक्शन हो गया था ! उन दिनों चिकित्सा व्यवस्था इतनी व्यापक और उत्कृष्ट नहीं थी ! खैर जैसा भी था रोग पर काबू पा लिया गया। पर उसका दुष्परिणाम नजरंदाज हो गया या उसका पता ही नहीं चल पाया होगा ! फिर मेरा ''ट्रांस्फर'' कलकत्ता हो गया। उन दिनों पढ़ाई और स्कूलों की इतनी मारा-मारी नहीं थी। स्कूल भी कम और दूर-दूर हुआ करते थे। तब हम बंगाल के कोन्नगर में रहा करते थे। जब बाबूजी के कार्यस्थल से पांच-छह बच्चों का जत्था स्कूल जाने लायक हो गया तो हम सब एक-एक रिक्से में दो-दो जने लद रिसरा विद्यापीठ में जाने लगे। जो घर नौ-दस किलोमीटर दूर था। मेरा स्कूल में दाखिला चौथी कक्षा में हुआ था। उसके पहले की पढ़ाई घर पर ही हुई थी। इसलिए आँखों की खामी सामने नहीं आ पाई।
रोज रात को सोने के पहले बाबूजी तरह-तरह से मुझे कुछ न कुछ सिखाया करते थे। उसमें एक कैलेण्डर की भी अहम भूमिका होती थी जो बेड के सिरहाने टंगा होता था। एक दिन उन्होंने मुझसे कैलेण्डर से संबंधित कुछ पूछा, तो मैं उठ कर उसके नजदीक जा देखने लगा ! इस पर उन्होंने इतना पास जा कर देखने का कारण पूछा तो मैंने बताया कि मुझे दूर से अक्षर साफ़ नजर नहीं आते ! बाबूजी को शंका हुई, आँखों का परिक्षण हुआ और उन्हें कमजोर पाया गया। जब मुझसे पूछा गया तो मैंने कहा कि मुझे लगता था कि सबको ऐसा ही दिखता होगा !
चश्मा तो लग गया साथ ही शुरू हो गयी उनकी बेहाली की कहानी भी ! उनका टूटना थमता ही ना था। ऐसे ही एक हादसे के बाद, एक बार चश्मा दिलाने मेरे वेद चाचाजी मुझे कलकत्ते के बहूबाजार, जो चश्मों का गढ़ होता था, ले गए और दूकान के शोकेस में सजे चश्मों को देख यूँही मुझसे पूछ लिया कि कौन सा फ्रेम अच्छा लगता है ! तो मैंने जिस ओर इशारा किया उसे देख वे हस पड़े और बोले ''धुत्त पगला'' ! और फिर उन्होंने मेरे इतिहास और चश्मे के भविष्य की परवाह ना कर मुझे एक अच्छा-खासा फ्रेम दिलवा दिया। दूकान से बाहर आ उन्होंने मुझसे पूछा की मैंने वह फ्रेम क्यों चुना था ? मैंने बताया कि मुझे लगा कि वह कानों को अच्छी तरह पकडेगा, जिससे झटके से गिरेगा नहीं, इसलिए ! बाद में गांधीजी वाले उस फ्रेम की बात सोच अक्सर हंसी आ जाती रही।
आज चश्मा बहुत आम बात हो गई है। हर छोटे से छोटे बच्चे को भी लगा दिखता है। पर उन दिनों चश्मा लगना, कौतुहल और कमजोरी की निशानी माना जाता था। बड़े शहरों में तो उतना नहीं, पर छोटे शहरों-कस्बों में इसे पहनने वाला और वह भी बच्चा, अजूबा ही बन जाता था। मुझे भी इसके कारण कई बार बड़ी विचित्र स्थितियों का सामना करना पड़ा है।
पंजाब तब सेहत का गढ़ माना जाता था। माँ के साथ एक-दो साल के अंतराल में जब भी वहां का चक्कर लगता तो ननिहाल में मेरा घर से निकलना दूभर हो जाता था। पहले दिन मुझ चश्माधारी को देख, आस-पड़ोस के बच्चे पता नहीं क्या मुनादी फिराते थे कि दूसरे दिन पता नहीं कहां कहां से ढेर सारे बच्चे हमारे घर के पास ऐसे इकठ्ठा हो जाते जैसे सर्कस में किसी नए जानवर को देखने आए हों ! मुझे देखते ही खुसुर-पुसुर शुरू हो जाती ''ओए ! निक्के जए मुण्डे नू ऐनक लग्गी ऐ !'' हंसी-ठिठोली-फब्तियां कसी जातीं ! मैं रुंआसा हो अंदर जाता तो मामा लोग आ कर उन्हें खदेड़ते। बच्चे तो बच्चे, वहां बड़े भी मेरे चश्मे को लेकर माँ से ऐसे बात करते जैसे मुझे कोई बिमारी लग गई हो।
आजआज ज़माना कितना बदल गया है ! चश्मे कहां से कहां पहुँच गए हैं ! व्यक्तित्व और सम्पन्नता की निशानी बन गए हैं ! विज्ञान ने इनमें तरह-तरह की विशेषताएं जोड़ दी हैं। गुणवत्ता ऊँचे दर्जे की हो गई है। अब ये टूटते नहीं, वैसे ही बदलने पड़ते हैं। ये जिंदगी का एक अभिन्न अंग ही बन गए हैं। बुद्धीजीवी होने का प्रमाण बन गए हैं। पर कहां भूलते है वह पुराने दिन ! वह टूटे चश्में, वह गांधी जी का फ्रेम, वह बच्चों की ठिठोली, ढीली निक्कर और भारी चश्मे को संभालने की कवायद, चश्मे के साथ आ जुडी उपमाऐं ! नहीं भूलती और ना भूलेंगी ताउम्र !!
25 टिप्पणियां:
मीना जी
हौसलाअफजाई के लिए हार्दिक आभार
सुन्दर। गाँधी कहीं कहीं अब भी नजर आ जा रहे हैं थोड़ी देर के लिये ही सही। चश्मे के बहाने ही सही। अच्छा लगा।
सुशील जी
आभार ¡ अब तो बुरा ही दिखया मोय, हो कर रह गया है सब कुछ :(
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
श्वेता जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
आपके चश्मे की कहानी बहुत दिलचस्प लगी ! --ब्रजेन्द्रनाथ
ब्रजेंन्द्रनाथ जी
बचपन की कुछ यादें भुलाए नहीं भूलतीं
बेहद दिलचस्प और शानदार ...
दिलचस्प
सुंदर रचना ।
सादर ।
बहुत बढ़िया
बहुत सुन्दर।
यादे ही जीवन की अमूल्य धरोहर हैं।
ऋषभ जी
''कुछ अलग सा'' पर सदा स्वागत है
@hindiguru
आपका हार्दिक आभार
हर्ष जी
आपका ''कुछ अलग सा'' पर सदा स्वागत है
ओंकार जी
नमस्कार, यूँही स्नेह बना रहे
शास्त्री जी
आपका स्नेह ही हौसला बढ़ाता है
सुंदर संस्मरण।
ज्योति जी
अनेकानेक धन्यवाद
यादें देर सबेर अंदर से बाहर निकल ही आती हैं
चश्में वाला बच्चा बोले तो 'चश्मिश'
आजकल तो चश्में जैसे फैशन हों, ऐसा लगता है
बहुत अच्छा संस्मरण
बहुत सहज सरल प्रवाह लिए सुंदर संस्मरण
सच आज तो बच्चे इतने दिखने लगे हैं चश्में में
कि जैसे पहले पचास के बाद वाले दिखते थे
पर बच्चों के चश्मा देख आज भी बहुत हृदय तरल हो जाता है।
शानदार संस्मरण।
कविता जी
कहां भूल पाया जाता है बचपन
कुसुम जी
उपकरणों की दस अच्छाईयां हैं तो चार बुराईयां भी हैं ¡ रहन-सहन के बदलाव का भी बहुत असर पडा है
"वह टूटे चश्में, वह गांधी जी का फ्रेम, वह बच्चों की ठिठोली, ढीली निक्कर और भारी चश्मे को संभालने की कवायद, चश्मे के साथ आ जुडी उपमाऐं ! नहीं भूलती और ना भूलेंगी ताउम्र !! "
बचपन की कोई यादें ताउम्र नहीं भूलती,बचपन की यादो में सिमटी सुंदर संस्मरण,सादर नमन
कामिनी जी
स्वस्थ व प्रसन्न रहिए ¡
आप सब के स्नेह से ही हौसला बना रहता है
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