बुधवार, 29 अप्रैल 2020

समय पर दोषी को दंड मिलना भी जरुरी है

चौथा वर्ग समाज और देश के दुश्मनों का है ! ये जान-बूझ कर अवाम को खतरे में धकेलने का उपक्रम करता है। बेवजह घर के बाहर निकलना, रक्षा कर्मियों के साथ बदसलूकी, अक्खड़पन, उद्दंडता से भरपूर ये लोग बार-बार समझाने को अपनी जीत और व्यवस्था की कमजोरी समझने की भूल करने लगते हैं। ऐसे शठों को उन्हीं की भाषा में समझाना जरुरी है। लंका अभियान पर समुंद्र के आड़े आने पर तीन दिन बाद ही प्रभु राम ने और शिशुपाल के हद लांघने पर श्री कृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों ने भी दंड देने में कोताही नहीं बरती थी ! ज्ञात्वय है कि उनका बैर सिर्फ एक इंसान से था ये लोग तो पूरी जात-बिरादरी और समाज के दुश्मन हैं फिर इतनी ढिलाई क्यों ...........? 

#हिन्दी_ब्लागिंग  
देश या दुनिया में यदि कभी कुछ अप्रत्याशित घटता है तो हर बार उसके कई तरह के परिणाम देखने को मिलते हैं ! अब जैसे इस कोरोना रूपी दानव के आतंक से विश्व भर में त्राहि-त्राहि मची हुई है ! आबालवृद्ध सभी आक्रांत हैं, भयभीत हैं !  तथाकथित विश्व के अग्रणी, शक्तिशाली, विकसित देश भी आज घुटनों पर आ गए हैं। वहीं गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भूख, असंतोष, भ्रष्टाचार, षडयंत्र, चिकित्सा साधनों की कमी से त्रस्त हमारे देश ने इस विकट आपदा में बहुत बड़ी हद तक अपने को इस संकट से बचा, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिसाल कायम की है। जिसके कारण विश्व भर में उसकी सराहना की जा रही है। साथ ही पचास से ऊपर देशों को कुनैन  की दवा भेज एक त्राता के रूप में भी उभर कर सामने आया है। यह कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है। परंतु अपने ही देश में कुछ लोगों के लिए यह बात अपच का कारण बन गई है।   

आज लगभग सारे राज्य और उनके मुख्य मंत्री केंद्र की सलाह को मान उसका पालन कर रहे हैं, पर एक-दो कुतर्की, पूर्वाग्रही अभी भी जनता की सहायता के बदले उसे मिल रही सुविधाओं में कमियां खोजने में लगे हुए हैं। हालांकि उनकी बेढब बातों पर कोई ध्यान नहीं देता फिर भी वे अपने बचे-खुचे अस्तित्व के प्रदर्शन और सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने को अपना बेतुका राग अलाप देते हैं। इन छुटभइयों और इनके आकाओं को यह समझ नहीं आता कि यही समय अवाम की सहायता कर उसके दिल को जीतने का है। ये मुफ्त में राशन, बिना काम वेतन, कर्ज माफ़ी, मजदूरों की वापसी की मांग तो करते हैं पर उसके लिए पैसा कहां से आएगा ये नहीं बता पाते ! यदि पैसों के इंतजाम के लिए सरकार कुछ करती है तो फिर ये बुद्धिहीन उसका विरोध शुरू कर समझते हैं कि हमने लोगों का दिल जीत लिया जबकि होता बिल्कुल विपरीत है। काश दूसरों की मीन-मेख निकालने और बातें बनाने की जगह की जगह कुछ अपनी तरफ से भी सकारात्मक सहयोग की पहल की होती। 

इसी जमात के साथ समाज के चार और वर्ग इस दौर में सामने आए हैं। पहला, जो सबसे आदरणीय है वह है सेवा कर्म में जुटे लोग ! फिर वे चाहे डॉक्टर हों, सेवाकर्मी हों, सफाईकर्मी हों, जरुरत का सामान बेचने वाले हों या बेसहारा लोगों को भोजन प्रदान करने वाले ! वे सब आज देवतुल्य हैं।

दूसरे वर्ग में वे तमाम आम जन हैं जो स्वस्थ रहने के लिए दी गई हिदायतों का पूरी तरह पालन करते हैं। ये सब भी प्रशंसा के पात्र हैं क्योंकि इन्हीं की वजह से आज देश अपने आप को संभालने में सफल हो पाया है। 

तीसरे वर्ग में वे मासूम लोग आते हैं जो हाल-बेहाल हो परिस्थितिवश अपने आश्रय से निकल बाहर आने को मजबूर हो जाते हैं। इनका ध्यान रखना सरकार और समाज दोनों की प्राथमिकता होनी चाहिए। यही वे लोग हैं जो सबसे ज्यादा उपेक्षित होते हुए भी समाज की रीढ़ हैं।

चौथा वर्ग समाज और देश के दुश्मनों का है ! ये जान-बूझ कर अवाम को खतरे में धकेलने का उपक्रम करता है। बेवजह घर के बाहर निकलना, रक्षा कर्मियों के साथ बदसलूकी, अक्खड़पन, उद्दंडता से भरपूर ये लोग बार-बार समझाने को अपनी जीत और व्यवस्था की कमजोरी समझने की भूल करने लगते हैं। ऐसे शठों को उन्हीं की भाषा में समझाना जरुरी है। पता नहीं क्यों व्यवस्था ने इतनी ढ़ील दे रखी है। लंका अभियान पर समुंद्र के आड़े आने पर तीन दिन बाद ही प्रभु राम ने और शिशुपाल के हद लांघने पर श्री कृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों ने भी दंड देने में कोताही नहीं बरती थी ! ज्ञात्वय है कि उनका बैर सिर्फ एक इंसान से था ये लोग तो पूरी जात-बिरादरी और समाज के दुश्मन हैं फिर इतनी ढिलाई क्यों  ? 

आज जनता प्रत्यक्ष हर चीज देखना चाहती है चाहे वह छूट हो, सहायता हो या फिर दंड ! दोषी को दंड मिलता देख ही दूसरे दोषियों को सबक मिलेगा और भय रहेगा कुकर्म करते समय और समाज को संतोष और विश्वास की प्राप्ति होगी व्यवस्था के प्रति !!    

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

बंगाल में शतरंज के खेल में घटी थी एक अप्रत्याशित घटना

कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी. टी. रोड पकड दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छुट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी थी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
शतरंज  बड़ा अजीब खेल है ! इसमें खेलने वाले से ज्यादा, देखने वालों को चालें सूझती हैं। 
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बंगाल, यहां के बारे में मशहूर था कि बंगाल बाकी देश के पहले ही भविष्य भांप लेता है ! इसीलिए हर बंगवासी में एक उत्कृष्टता का भाव बना ही रहता था। 
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उन दिनों कलकत्ता (आज का कोलकाता) और उपनगरीय इलाकों के तक़रीबन हर ''पाड़े'' में एक क्लब हुआ करता था, जिसमें कैरम, ताश, शतरंज जैसे अंतरदरवाजीय खेलों के साथ ही हर प्रकार की बहस-मुसाहिबी का भी इंतजाम रहता था। जहां शाम घिरते ही इलाके के दादा (मुंबइया अर्थ से ना जोड़ें), दिन भर की एकरूपता से ऊबे भद्रलोक, समाज की विसंगतियों से आक्रोशित युवा,  विवाह रूपी बंधनों से मुक्त अधेड़, दिशाहीन कुंठित युवक, तथाकथित छुटभइए नेता आदि उस छोटे से कमरे में उधार की चाय पीने के लिए आ  जुटते थे। दुनिया भर की बातों पर धुंआधार गोष्ठियां होतीं, तीखी बहसें आग उगलने लगती, व्यवस्था के विरोध में तकरीरें सामने आने लगतीं। कभी-कभी तो लगता कि आज देश को नई दिशा और नेतृत्व मिल कर ही रहेगा। ऐसा माहौल तकरीबन बंगाल के सारे अड्डों में पाया जाता था। भड़ास निकल जाने के बाद बाबू लोग निकल पडते अपने-अपने घरों की ओर, भात खा, सुबह के दफ्तर की चिंता में चश्मा, छाता, सुंघनी, रुमाल, धोती-कमीज को सरिया, सोने के लिए ! यह दिनचर्या भी करीब-करीब सब जगह कमोबेस ऐसी ही होती थी। 
 पर इन सब के बीच कुछ लोग हर तरफ से निस्पृह रह, सिर्फ और सिर्फ अपने मनपसंद खेलों में ही आपाद-मस्तक डूबे रहते थे ! उन्हें आस-पास के शोर-शराबे से कोई मतलब नहीं हुआ करता था। लोकप्रियता में कैरम और ताश के बाद शतरंज का नंबर आता था। इसे चाहने वाले भी बहुत होते थे। पर एक समय में खेल सिर्फ दो जने ही सकते थे ! सो पहले आओ, पहले पाओ की तर्ज पर दो जने हक़ जमा लेते थे बिसात पर ! अपने को सर्वोपरि, विलक्षण, विश्वनाथन आनंद के समकक्ष मानने वाले बाकी लोग न खेल पाने की कुंठा लिए सिर्फ घेर पाते थे मेज को चारों ओर से दर्शक बन। ऐसा भी तक़रीबन सभी क्लबों में होता था। पर जो कभी किसी जगह नहीं हुआ, वह हो गया बेलघरिया के एक पाड़े के एक क्लब में ! जहां और जगहों की बनिस्पत शतरंज लोकप्रियता में पहले स्थान पर था। सुस्त व जोश रहित होने के बावजूद वहां इसकी जटिलता, सैंकड़ों व्यूह रचनाओं, त्वरित सोची जाने वाली हजारों-हजार चालों से बनते-बिगड़ते नक्शों की भूल-भुलैया के इंद्रजाल में गाफिल आत्मश्लाघि दिग्गजों और समर्पित आशिकों की मात्रा भी बेहिसाब थी।  
कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी.टी. रोड पकड़ दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छूट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी। 

विश्व के शतरंज के खेल में विश्वनाथन के पदार्पण की धमक सुनाई देने लगी थी। जिसकी आहट से उसके कोच, साथी खिलाड़ीयों के साथ-साथ विश्व के दिग्गज भी अचंभित थे। जाहिर है इसका असर देश के सिखिए-नौसिखिए खिलाड़ियों पर पडना ही था सो पड़ा ! और ऐसा पड़ा कि गली-कूचे-मौहल्ले के सभी शतरंजिए अपने आप में आनंदित हो अपने को विश्वविजेता ही समझने लग गए। इसका असर हमारे छेनू बाबू वाले क्लब पर भी तो पड़ना ही था। सो वहां खेलने वाले दो और उन्हें चाल समझाने वाले पचीसों हो गए। खेल के दौरान तरह-तरह की सलाहें दी जाने लगीं। कभी-कभी तो सलाहकारों में आपस में ही अपनी सलाह और उसकी सटीकता पर बहसबाजी हो जाती। दिन ब दिन दर्शकों का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला जाने लगा। ऐसे में खेलने वालों की एकाग्रता पर असर पड़ना ही था ! धीरे-धीरे खेलना दूभर होता जाने लगा। अति हो जाने पर किसी कड़े नियम के प्रावधान के होने की जरुरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी ! इसीलिए एक दिन सभी मेम्बरों की आपात बैठक बुला कर इस समस्या पर विचार किया गया ! काफी  जद्दो-जहद के बाद सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास कर दिया गया कि खेल के दौरान यदि कोई अनावश्यक हस्तक्षेप करेगा तो उसकी नाक क्षत कर दी जाएगी। प्रस्ताव की गंभीरता को दिखाने के लिए एक नया, तेज, नोकीला चाक़ू भी ला कर कप बोर्ड पर सजा दिया गया। 

उक्ति काम कर गई ! लोग कुलबुलाते तो बहुत थे पर सलाह देने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। खिलाड़ी शांति के साथ, बिसात पर अपने हुनर का प्रदर्शन करने का सुख पाने लगे। पर वह जादू ही क्या, जो सर चढ़ कर ना बोले ! अभी महीना भी नहीं गुजरा था, पंद्रह-बीस दिन ही हुए थे कि एक शाम शांतनु चटर्जी और बिमल दा, जोकि यहां के बेमिसाल और सर्वमान्य विजेता थे और इसी कारण कुछ लोगों की ईर्ष्या का वायस भी, की बाजी फंस गई ! आज पहली बार शांतनु को बढ़त प्राप्त थी ! पर काफी देर से उसे खेल ख़त्म करने का रास्ता नहीं सूझ रहा था। घडी की सूई लोगों का रक्तचाप बढ़ाए जा रही थी। तभी एक अप्रत्याशित घटना घट गई ! अचानक कन्हाई ने आगे बढ़ कर कहा, भले ही मेरी नाक क्षत हो जाए पर यह शह और यह मात ! इतना कह उसने शांतनु के घोड़े से बिमल दा के ऊँट को विस्थापित कर दिया !

वहां फिर जो हुआ सो हुआ ! क्या हुआ इसका अंदाजा लगाते रहिए ! पर यह स्थापित हो गया कि शतरंज एक अजीबो-गरीब खेल था ! है ! और रहेगा !   

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

सागर कभी अपनी मर्यादा नहीं लांघता, पर...

भारत में मरीन ड्राइव से लगी सड़क और करीब की इमारतों को बचाने के लिए 1958 में आस्ट्रेलिया से 6500 शिलाखंडों का आयात किया गया । जिनका प्रत्येक का वजन दो टन और कीमत 5000/- थी। उस समय के अनुसार जो निश्चित तौर पर एक भारी-भरकम रकम  थी। वह एक अलग विषय है.......................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
मुंबई जाने वाले हर पर्यटक का मरीन ड्राइव पर जाना लगभग तय होता है ! वहां जा सागर तट पर किनारे के साथ पड़े नक्षत्र रूपी पत्थरों पर  बैठ फोटो लेना भी एक पसंदीदा शगल है ! ये पत्थर या शिलाएं हैं क्या ? और यहां क्यों हैं ? कई इसका उत्तर खोजते हैं और कई इसे सागर तट का ही एक अंग मान  वापस हो लेते हैं। 
हम 
मुंबई, जिसके अतीत का छोर पाषाण युग तक चला गया है, असल में सात द्वीपों, बम्बई, कोलाबा, लिटिल कोलाबा, माहिम, मझगांव, परेल और वर्ली से बना भूभाग है। मुंबई का वर्तमान शहर इन सब क्षेत्रों को मिला कर बनाया गया है। इन क्षेत्रों को जोड़ने के लिए इनके बीच पसरे पड़े दलदली क्षेत्र को ठोस भूमि बनाने के लिए समुद्र के आधिकारिक क्षेत्र को हस्तगत किया गया ! जिसके लिए आस-पास की पहाड़ियों को काट कर छिछले स्थानों को भरने और द्वीपों को आपस में जोड़ने के काम में लाया गया !

लहरों का आक्रोश 
समुद्र के बारे में यह ध्रुव सत्य है कि वह कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लांघता ! पर मुंबई ने उसके क्षेत्र में दखल दिया है शायद इसी लिए अक्सर यह इलाका उसके कोप का भाजन बनता रहा ! खासकर बरसात के मौसम में तो उसकी उत्ताल तरंगें रौद्र रूप ले तटीय क्षेत्र को नुक्सान पहुंचाने लगीं। इस समस्या का निदान विदेशों में प्रयोग में लाए जा रहे टेट्रापॉड के रूप में सामने आया। इसे सन 1950 में फ्रांस ने विकसित किया था जो अपनी उपयोगिता के चलते दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। जापान के लगभग आधे समुद्र तट पर टेट्रापॉड का उपयोग करके सागर जल से छरण को कम किया जाता है। 
सागर, टेट्रापॉड और..हम 
टेट्रापॉड - टेट्रा यानी चार और पॉड यानी पैर ! दो शब्दों के मिलने से बना यह शिलाखंड कंक्रीट से बनाया जाता है। अपनी बनावट की विशिष्टता के कारण ये एक दूसरे में फिट हो जाते हैं। जिस वजह से जब लहरें इनसे टकराती हैं तो उनकी विध्वंसक शक्ति बहुत ही कम हो जाती है और एक हद से आगे नहीं जा पातीं। इनकी बनावट की विशेषता के कारण इनके बीच बनी जगह से तीव्र गति से आते पानी को आगे, पीछे, ऊपर, नीचे जाने का मार्ग भी आसानी से मिल जाता है। अपने भार और विशिष्ट आकार के कारण अत्यंत विषम मौसम की स्थिति में भी ये अपनी जगह पर बने रहते हैं।  जिससे समुंद्र के तट से लगी सड़क या अन्य इमारतों का बचाव हो जाता है।
टेट्रापॉड
भारत में मरीन ड्राइव से लगी सड़क और करीब की इमारतों को बचाने के लिए 1958 में आस्ट्रेलिया से 6500 शिलाखंडों का आयात  किया गया था। जिनका प्रत्येक वजन दो टन और कीमत 5000/- थी। उस समय के अनुसार जो निश्चित तौर पर एक भारी-भरकम रकम  थी। वह एक अलग विषय है !   
मरीन ड्राइव पर पड़े टेट्रापॉड
अपनी तमाम विशेषताओं के बावजूद, समय के साथ इनकी अनेक हानियां भी उजागर हुईं हैं ! जो ज्यादा व्यापक हैं ! भले ही प्रत्यक्ष रूप से ये इंसान के लिए फायदेमंद हों पर अप्रत्यक्ष रूप से ये प्रकृति और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले ही साबित हो रहे हैं ! एक तरफ जहां ये समुद्र की लहरों की अबाध व प्राकृतिक बहाव में अड़चन डालते हैं। वहीं तेज़ लहरों के साथ किनारे की ओर आने वाले समुद्री जीवों से टकरा उन्हें चोटिल कर उनकी दुखद मृत्यु का कारण भी बनते हैं ! इसके साथ ही प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को भी ख़त्म कर एक अप्राकृतिक दृश्य की रचना कर परिदृश्य को बोझिल सा बना देते हैं ! इसलिए बहुत सारे देशों में इन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया है ! पर हमें तो होश बहुत देर बाद ही आता है !

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

अब तो ! शठे शाठ्यं समाचरेत

जिस दिन सेना निकल आई, और अपनी पर आ गई तो सारी अकड़, सारी हेकड़ी, सारी उदंडता, सारी गुंडागर्दी, सारी बकवाद भुलवा दी जाएगी ! बहुत हो गया ! कुछ समय पश्चात कमजोरी, लाचारी और बेबसी के प्रतीक बने प्रेम, मनुहार, आग्रह, उपहार इत्यादि से निजात पा ही लेनी चाहिए ! उसके बाद तो ''शठे शाठ्यं समाचरेत'' की नीति का ही प्रयोग हितकारी रहता है ! फिर चाहे वह उद्देश्य पूर्ती के बीच बाधा बनता समुद्र हो, कटु वचनों का जहर उगलता शिशुपाल या फिर अपनी कलम को देश अहित के लिए उपयोग में लाता, खैरात पर पलता कोई भी ऐरा-गैरा ...............!     

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कल एक अखबार में एक तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार के ज्ञान बांटने की बारी थी। ये भला आदमी चाहे कितना भी अपनी निष्पक्षता का ढोल पीटे या बौद्धिकता का प्रदर्शन करे, इसकी प्रतिबद्धता, इसकी मानसिकता, इसकी स्वामिभक्ति किनके प्रति है ये कोई छिपी बात नहीं है ! ठीक है अपने उपकृत करने वालों को नहीं भूलना चाहिए पर उसके लिए सही को गलत या अच्छाई को नजरंदाज करना पत्रकारिता तो नहीं ही होती !

कल तक स्टेज पर खड़े हो जनता को बेवकूफ समझते, गलबहियां डालते, मन में प्र.मं. की कुर्सी को कब्जियाने की लालसा पाले दो दर्जन नेताओं की कारगुजारियों को सदा ही नजरंदाज करते इस जैसे कामगारों को अब कोरोना के चश्में से उन्हीं में फिर भविष्य के वैकल्पिक नेतृत्व की झलक दिखने लगी है ! यू.पी. में काम बड़े पैमाने पर हुआ है इसलिए उसको तो छिपाया नहीं जा सकता था, पर इसके शब्दों के खेल में यह पूरी कोशिश रही है कि किसी भी तरह मोदी उभर कर सबके ऊपर ना छा जाए ! राज्य सरकारों से केंद्र की दूरी बनाए रखने जैसी बेबुनियाद बात गढ़, मोदी को क्या- क्या करना चाहिए, इसकी समझाइश देते इस इंसान को शायद सपने में भी यह ख्याल नहीं आया होगा कि मोदी में रत्ती भर भी सत्ता की लालसा, अपने पूर्वगामियों की तरह होती तो इस दारुण संकट के समय का लाभ उठाते हुए वह कभी भी आपातकाल का सहारा ले तानाशाही लागू कर देता ! कोई मुश्किल आड़े नहीं आती, रोज दिखती जहालतों को काबू करने की कोशिशों में ! वे कूढ़ मगज भी निगलने और उगलने की स्थिति में होते, जिनके आकाओं ने अपने देशों के लाखों लोगों को विरोध करने के कारण देशनिकाला या नजरबंद कर डाला था ! विरोध के जहर से कुंद इनकी यादाश्त को तो यह भी याद नहीं आता कि पडोसी ने तंग आ कर अपने ही देश में मस्जिद पर सैनिक कार्यवाई कर दी थी। 

जो हुक्म मेरे आका ! ये चिरागी जिन्न आजकल पत्रकारों का रूप धर अपनी कलमों से क़यामत ढाते हैं ! पर इनकी कलमों की रोशनाई भी इस बात पर रोशनी डालने से परहेज कर गई, कि इस समय कोई भी अड़चन नहीं थी एक और ब्लूस्टार के उदित हो जाने देने में ! कौन रोकता ! उल्टे हैरान-परेशान अवाम साथ ही देती ! पर जिस तरह सरकार द्वारा अब तक नर्मी, धैर्य, व सहनशीलता का परिचय दिया गया है वह काबिले-तारीफ हो ना हो आश्चर्य का विषय जरूर है ! 

एक सवाल जो आज आम नागरिक को परेशान कर रहा है, कि एक साधारण आदमी का किसी पर थूकना या पत्थर उठाना तो दूर, यदि वह सड़क पर निकल भी जाए तो उसके तफरीह के भूत को पुलिस का डंडा झाड़ा लगा भगा देता है ! तो ये कौन लोग हैं. जिनको किसी का खौफ नहीं ! जिनको दूसरों की जान की परवाह नहीं ! जो देश समाज के दुश्मन बने हुए हैं ! सबसे बड़ी बात इनके पीछे कौन है जिसकी शह पर यह इतने बेखौफ हो दुनिया की पांचवीं सैन्य शक्ति की तरफ से बेखबर हो उत्पात मचा रहे हैं !

पर एक सच्चाई यह भी है कि कुछ लोग सिर्फ लातों की भाषा जानते हैं ! जिस दिन सेना निकल आई, और अपनी पर आ गई तो सारी अकड़, सारी हेकड़ी, सारी उदंडता, सारी गुंडागर्दी, सारी बकवाद भुलवा दी जाएगी ! बहुत हो गया ! ऐसा हो भी जाना चाहिए ! कुछ समय पश्चात कमजोरी, लाचारी और बेबसी के प्रतीक बने प्रेम, मनुहार, आग्रह, उपहार इत्यादि से निजात पा लेनी चाहिए ! उसके बाद तो ''शठे शाठ्यं समाचरेत'' की नीति का ही प्रयोग हितकारी रहता है, हर दृष्टि से ! फिर चाहे वह उद्देश्य पूर्ती के बीच बाधा बनता समुद्र हो, कटु वचनों का जहर उगलता शिशुपाल या फिर अपनी कलम को देश अहित के लिए उपयोग में लाता, खैरात पर पलता कोई भी ऐरा-गैरा !      

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कोचीन, चाइनीज फिशिंग नेट, यात्रा का समापन,

क्रूज, जो कि एक बड़ा द्वितलीय बजरा ही था, में लंबे मोल-भाव के बाद सवारी साध ली गई। अंधेरा घिरने लगा था, इतने में बोट वाले ने गाने लगा दिए, कुछ देर तो सबने गीत-संगीत व सागर का आनंद लिया पर उसके बाद ''बुजुर्ग युवाओं'' का जोश नृत्य में बदल गया जिसमें उन्होंने अपने ग्रुप के अलावा अन्य सहयात्रियों को भी सम्मिलित कर लिया। घंटा-डेढ़ कब बीत गया पता ही नहीं चला.............!     

#हिन्दी_ब्लागिंग     
जनकपुरी के #Retired_&_Senior_Citizens_Brotherhood (RSCB) के सौजन्य से 29 फरवरी से सात मार्च तक की केरल यात्रा का अंतिम चरण आ गया था। आज सुबह मुन्नार से चल कर कोचीन पहुंचना था, जहां से कल सात तारीख को सुबह साढ़े नौ बजे विस्तारा का विमान हमें वापस दिल्ली पहुंचाने वाला था। रोज की तरह सब निपटा कर अपनी बस ''रानी" में सवार हो, प्रभु का ध्यान कर हल्के-फुल्के माहौल में सब कोचीन की ओर रवाना हो गए ! माहौल मस्ती भरा जरूर था पर सभी के मन में कहीं ना कहीं इस खुशगवार, आनंदमयी, रोचक सफर के समापन का मलाल भी था ! पर जो भी चीज शुरू होती है उसका कभी ना कभी अंत भी होता ही है !
एशिया का सबसे बड़ा मॉल, लु लु 

कोचीन एयरपोर्ट 
इस बार यह तय पाया गया था कि होटल में ''चेक इन'' करने से पहले कोचीन दर्शन किया जाएगा ! यह शायद हमारे ट्रिप आयोजक #Riya_Travel की चूक थी कि उनको इस बात का ध्यान नहीं रहा कि शुक्रवार होने की वजह से सारे मुख्य चर्च और सिनागॉग बंद थे ! मायूसी होना लाजिमी था, कुछ गर्माहट भी आई इस लापरवाही पर, परंतु जल्दी ही सब नॉर्मल हो गया और कोचीन तट पर पुराने समय से प्रयोग में चले आ रहे मछलियां पकड़ने वाले जालों को देखने अग्रसर हो गए !


चाइनीज फिशिंग नेट - चीन से आई, मछली पकड़ने की यह तकनीक अपने आप में एक अजूबा सा ही है। जो चीन के अलावा सिर्फ कोचीन में ही प्रचलित है। इसे लिफ्ट नेट या कैंटीलिवर नेट के नाम से भी जाना जाता है ! ऐसा मानना है कि 1350 में कुबलाई खान के समय के सौदागरों के साथ यह विधि भारत आई थी। कुछ विद्वानों के अनुसार चीन के खोजकर्ता झेंग-हे ने इसे भारतवासियों से परिचित करवाया था ! चीन से जुड़े होने के कारण ही इसे मलयालम भाषा में चीनीवाला कहते हैं। विशाल झूले की तरह टंगे गोलाकार थैलेनुमा जाल को पानी में कुछ देर डुबो कर फिर ऊपर ले आते हैं, तब तक इसमें सैंकड़ों मछलियां फंस चुकी होती हैं। कोच्चि-फोर्ट के सागर तट पर लगे ऐसे अनेकों जाल आजकल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन चुके हैं। इसीलिए वहां के मछुआरे अपने जाल की कार्यप्रणाली दिखाने के पैसे वसूलने लग गए हैं।
कोच्चि डॉक यार्ड 


उस दिन गर्मी बहुत थी सो कुछ देर ठहर कर हम सब होटल आ गए। कुछ अपनी शॉपिंग का अंतिम डोज पूरा करने निकल गए और कुछ हम जैसे जिन्होंने अभी तक बैक वॉटर या झील में ही जलविहार किया था, वे पहुंच गए कोचीन सागर तट ! क्रूज, जो कि बड़ा द्वितलीय बजरानुमा ही था, में लंबा मोल-भाव कर सवारी साध ली गई। अंधेरा घिरने लगा था, इतने में बोट वाले ने गाने लगा दिए, कुछ देर तो सबने गीत-संगीत व सागर का आनंद लिया पर उसके बाद ''बुजुर्ग युवाओं'' का जोश नृत्य में बदल गया जिसमें उन्होंने अपने ग्रुप के अलावा अन्य सहयात्रियों को भी सम्मिलित कर लिया। घंटा-डेढ़ कब बीत गया पता ही नहीं चला। निश्चित जगह सब मिल कर होटल लौट आए ! दूसरे दिन दोपहर एयर पोर्ट पर मिलते रहने का वादा कर,सुखद यादों और भरे मन से सब अपने-अपने घरौंदों को हो लिए। 
क्रूज पर 
क्रूज से 

मिसेज वालिया 
इस सफर में एक से एक उम्दा, नेक, खुशदिल, हिम्मती और उम्र के इस पड़ाव पर भी बुलंद हौसले वाले इंसानों से मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ ! पर सबसे ज्यादा किसी ने मुझे ही नहीं, सबको प्रभावित किया वह हैं  वालिया ! बैंक से अवकाश प्राप्त इस महिला की जीजीविषा अनुकरणीय है ! हालांकि उनका जिस्म उनको पूरी आजादी नहीं देता खुल कर चलने की फिर भी पूरी यात्रा में उनका जोश, उनकी जिज्ञासा, उनका कौतुहल किसी से भी किसी मायने में कम नहीं ! नाहीं उनकी वजह से यात्रा की निर्धारित रूप-रेखा में कोई व्यवधान आया ! इस मिलनसार, हंसमुख, जिंदादिल महिला के लिए हैट्स ऑफ ! वे सदा ऐसी ही स्वस्थ और प्रसन्न रहें ! उनके साथ ही सभी हमसफ़रों को भी शुभकामनाएं ! सभी स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें ! सबसे जल्द मिलना हो इसी कामना के साथ समय आ गया है विदा लेने का, गुड़बाय कहने का........सायोनारा, सी यू अगेन ! 

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

महाभारत युद्ध के दौरान भोजन व्यवस्था संभाली थी उडुपी नरेश ने

युद्धोपरांत उडुपी नरेश को श्री कृष्ण जी ने गले लगा आशीर्वाद दिया कि जिस तरह तुमने 18 दिनों तक, बिना किसी लाभ की कामना के, अथक परिश्रम कर लाखों लोगों की क्षुधा शांत कर मानव जाति की सहायता की है, उसी तरह तुम्हारे वंशज  आदि काल तक लोगों को भोजन प्राप्त करवाते रहेंगे और उसके लिए तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को सदा आदर-सम्मान और यश मिलता रहेगा ! यही कारण है कि हजारों वर्षों के पश्चात आज भी पूरे देश में भोजन के क्षेत्र में उडुपी के नाम को श्रेष्ठ, विश्वसनीय और  सर्वोपरि माना जाता है.....................!

#हिन्दी_ब्लागिंग
हमारी पौराणिक कथाओं-कहानियों का असर अत्यंत प्रेरक और व्यापक होता है ! उसके मुख्य किरदार और कथावस्तु इतने प्रभावोत्पक होते हैं कि उसमें खोया हुआ या लीन श्रोता या पाठक विषयवस्तु से अलग कुछ सोच ही नहीं पाता। इससे दसियों ऐसी महत्वपूर्ण बातें अनदेखी रह जाती हैं, जिनका वर्णन कथा में किसी कारणवश नहीं हो पाया होता है। ऐसी ही एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात महाभारत से है !  

ज्ञातव्य है कि महाभारत युद्ध में दोनों पक्षों की सेनाओं की संख्या 18 अक्षौहिणी थी। भारतीय गणना के अनुसार प्राचीन भारत में सेना की सबसे बड़ी इकाई ! जिसके अनुसार एक अक्षौहिणि की इकाई में 21870 रथ जिनमें चार घोड़े, सारथि व रथी होता था ! इसमें हाथियों की संख्या 21870 निर्धारित थी, एक हाथी पर महावत, उसका सहायक, योद्धा व उसके दो सहायक यानि पांच लोग होते थे ! 65610 घुड़सवारों के अलावा 109350 पैदल सैनिकों का दस्ता होता था। इस प्रकार एकअक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों की संख्या 634243 के करीब बैठती है। इस हिसाब से महाभारत में सम्मिलित होने वालों की संख्या 11416374 तक जा पहुंचती है जिसमें मनुष्यों की संख्या 55 से 56 लाख होती है। 

बहुत से लोगों की इस संख्या पर भृकुटि तनना स्वाभाविक है पर उनके लिए प्राचीन इतिहास में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज की भारत यात्रा में वर्णित सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना के वर्णन को जान लेना चाहिए। जिसमें 30000 रथों, 9000 हाथियों और 600000 पैदल सैनिकों का उल्लेख किया गया है जो भारत के सिर्फ एक राज्य की सेना की संख्या है। समस्त भारत के राज्यों की सेना का हिसाब लगाया जाए तो एक विशाल आकार सामने आ जाता है। इसलिए महाभारत में एकत्रित हुई उतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं लगती, जिसमें सम्पूर्ण भारत के अलावा अनेक दूसरे देशों के राजाओं ने भी भाग लिया था ! 

पर इसके साथ ही एक जिज्ञासा यह उठती है, जिसका जिक्र आम नहीं मिलता कि सागर समान इतने लोगों के जमावड़े के भोजन की व्यवस्था कैसे होती होगी। सुबह युद्ध पर जाने के पहले और शाम को थके-हारे सैनिकों के आहार की व्यवस्था और मात्रा का आकलन कैसे और कौन करता होगा ! यह एक जटिल प्रश्न बन कर उभरता है। इसके लिए यदि महाभारत की उपकथाओं को खंगाला जाए तो एक किंवदंती सामने आती है, जिसमें उडुपी नरेश के नाम का उल्लेख मिलता है। उडुपी के कृष्ण मंदिर में इस कथा का सदा पाठ होता है। 

कथा के अनुसार उस समय शायद ही कोई ऐसा राज्य रहा होगा जिसने इस महायुद्ध में भाग ना लिया हो। उस समय भारतवर्ष  के समस्त राजा दोनों पक्षों में से किसी ना किसी के साथ खड़े दिखते थे। इसी के अनुसार जब  दूरदर्शी उडुपीराज अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुंचे तो उन्होंने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण से भेंट कर उनसे अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि प्रभु यहां सब युद्ध के लिए उतावले हैं, पर इन असंख्य लोगों के भोजन के प्रबंध के बारे में आपको छोड़ शायद ही किसी ने सोचा हो ! हे वासुदेव ! सत्य तो यह है कि मैं भाइयों के इस आपसी युद्ध को उचित नहीं समझता इसीलिए इस युद्ध में भाग लेने की मेरी इच्छा कतई नहीं है। पर यह युद्ध टाला भी नहीं जा सकता ! इसी कारण यदि आप अनुमति दें तो मैं चाहता हूँ कि अपनी पूरी सेना के सहयोग से यहां उपस्थित सभी के लिए मैं भोजन का प्रबंध करूं ! श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए सहर्ष उनकी बात मान सारी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। 

उडुपी नरेश की कुशलता के कारण, रोज सैकड़ों-हजारों सैनिकों की मृत्यु के बावजूद कभी भी अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होता था। उतना ही भोजन बनता था जितने की जरुरत होती थी ! इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध बिना अन्न की क्षति के बगैर घोर करना किसी चमत्कार से काम नहीं था ! सभी के लिए यह घोर आश्चर्य की बात थी। इसीलिए युद्धोपरांत अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए जब युधिष्ठिर ने इस रहस्य को जानना चाहा तो उडुपी नरेश ने श्रद्धापूर्वक इसका सारा श्रेय श्रीकृष्ण के प्रताप और उनके मार्गदर्शन को दिया जिसके बिना इतना बड़ा आयोजन कतई संभव नहीं था। ऐसा सुन कर वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो प्रभु के प्रति नतमस्तक हो गए।

युद्धोपरांत जब उडुपी नरेश वापस जाने के अनुमति लेने श्री कृष्ण जी के पास गए तो उन्होंने उन्हें गले लगा आशीर्वाद दिया कि जिस तरह तुमने 18 दिनों तक, बिना किसी लाभ की कामना के अथक परिश्रम कर, बिना शस्त्र उठाए युद्ध में अपना सहयोग दे, लाखों लोगों की क्षुधा शांत कर मानव जाति की सहायता है, उसी तरह तुम्हारे वंशज आदिकाल तक लोगों को भोजन प्राप्त करवाते रहेंगे और उसके लिए तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को सदा आदर-सम्मान और यश मिलता रहेगा ! यही कारण है कि हजारों वर्षों के पश्चात आज भी पूरे देश में भोजन के क्षेत्र में उडुपी के नाम को श्रेष्ठ, विश्वसनीय और सर्वोपरि माना जाता है।

संदर्भ - महाभारत व अंतरजाल 

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

काश ! कोरोना संकट के बाद भी पर्यावरण साफ़ और स्वच्छ रह पाता

आज निरभ्र, धूम्र, धूर रहित गगन !नब्बे से ऊपर शहरों में स्वच्छ व संतोषजनक होती वायु ! चमकीली पहाड़ों जैसी धूप ! निर्मल होता नदियों का जल ! उनमें बढ़ती मछलियों की तादाद ! 36 मॉनिटरिंग  स्थलों में से 28 की रिपोर्ट के अनुसार नहाने योग्य साफ़ होता गंगा का पानी ! हिंडन और यमुना जैसी सबसे प्रदूषित नदियों की गुणवत्ता में आता सुधार ! सागर तट के करीब डॉल्फिन, जो सिर्फ साफ़ पानी में ही रहती है, की उपस्थिति ! कालिमा रहित पेड़ों की हरीतिमा ! अक्सर मुरझाए रहने वाले गमलों पर आती रौनक ! उन पर मंडराते भौंरे-तितलियां-शलभ ! कबूतरों के अलावा अब तोते, गौरैया, कौवे, तोते, चील, मैना, टिटहरी जैसे अन्य पंक्षियों की संख्या में इजाफा ! इन दिनों प्रकृति और पर्यावरण में आए साफ़ और शुद्ध वातावरण के द्योतक हैं ! काश, संकट के बाद भी यह बदलाव चिरस्थाई रह पाता  ! वैसे संकेत सीधा और साफ़ है कि कायनात सिर्फ मानव को सबक सिखाना चाहती है....................!                                                                   

#हिन्दी_ब्लागिंग   
नीला, निरभ्र, धूम्र-धूल रहित आकाश ! पहाड़ों जैसी चमकीली धूप ! लगातार स्वच्छ होती हवा ! निर्मल होता नदियों का पानी ! सागर जल में आती सवच्छता ! धूल-मिट्टी-कालीमा मुक्त पेड़ों के हरे-भरे पत्ते, पेड़ की शाखाओं में एकाधिक प्रजाति के पक्षी, घरों के गमलों में कीट रहित पौधे और फूल, उनपर मंडराते भौंरे-तितलियां-शलभ ! ये सारे परिवर्तन कोरोना के संकट के दौरान उठाए गए सुरक्षात्मक कदमों का सकारात्मक परिणाम हैं। जो इन दिनों प्रकृति और पर्यावरण में आए साफ़ और शुद्ध वातावरण के द्योतक पर देश-दुनिया पर छाए विकट संकट का दूसरा पहलू है !
अब और तब, चित्र अंतरजाल से 
हर चीज की हद होती है ! प्रकृति ने भी एक सीमा तक हमारी ज्यादितियों को सहन किया  ! बीच-बीच में बार-बार चेतावनी देने पर भी जब हम बाज नहीं आए और हमारी बेवकूफियों के कारण धरती के दूसरे वाशिंदों की जान पर बन आई तो उसने धीरे से अपनी करवट बदली। जिसका खामियाजा आज सारा संसार भुगत रहा है। यह शायद पहली बार हुआ है कि प्रकृति की नाराजगी सारी दुनिया को भोगनी पड़ रही है ! अपने को ही भगवान समझ लेने वाले इंसान की औकात आज किसी कीड़े-मकौड़े से ज्यादा नहीं रह गई है ! जबकि अन्य जीव-जंतुओं पर इसका असर नहीं पड़ा है ! संकेत सीधा और साफ़ है कि कायनात सिर्फ मानव को सबक सिखाना चाहती है !
सांस लेते पत्ते 
एक तरह से खुद ही पैदा की गई इस आपदा के खौफ के कारण आज दुनिया भर में इंसान को चूहे की तरह अपने घरों में दुबकना पड़ गया है। पर उसके इस तरह भयजदा हो, निष्क्रिय पड़े रहने का भी कुछ लाभ तो हुआ ही है। जैसे हर चीज के दो पहलू होते हैं, उसी तरह इस आपदा के भी दो पक्ष नजर आ रहे हैं ! मुसीबत, परेशानी, खौफ जिनका प्रतिशत भी बहुत ज्यादा है, भले ही अपनी जगह हों, पर इसकी कुछ अच्छाइयां, भले ही कम और कुछ समय के लिए ही हों, भी सामने आने लगी हैं। 
पता नहीं पहले कब देखा था ऐसा आकाश 
दिल्ली की ही बात करें तो बरसात के कुछ दिनों को छोड़ शायद ही आसमान का असली रंग कभी किसी को दिखाई देता हो ! बच्चे तो सिर्फ किताबों में ही उसके नीले रंग के बारे में जान पाते रहे हैं ! पर इधर वह अपने असली रंग के साथ रोज ही रूबरू हो रहा है। सुबह से शाम तक निरभ्र तथा रात को तारों से सजी चदरिया को सर पर तने देखने का आनंद वर्षों बाद दिल्ली वासियों को नसीब हुआ है। प्रदूषित पर्यावरण के कारण यहां की हवा तो कभी भी सांस लेने लायक होती ही नहीं ! पर आज खुल कर गहरी सांस ले उसे फेफड़ों में भरते घबड़ाहट नहीं होती। हवा का प्रदूषण कम होने का ही फल है कि करीब चालीस साल के बाद डेढ़ सौ की.मी. दूर धौलाधार की पहाड़ियां जालंधर शहर से नजर आने लगी हैं ! 
जालंधर से नजर आने लगीं धौलाधार के बर्फीले शिखर 
पेड़ तो दिल्ली में बेशुमार हैं पर उनकी हालत पर सदा तरस आता रहता था, पत्तियों में हरापन तो दिखलाई ही नहीं पड़ता था ! सदा उन पर धूएं-धूल-मिटटी की काली परत चढ़ी रहती थी, पौधों का सांस लेना दूभर था ! पर पिछले कुछ दिनों से उनकी हरीतिमा मन मोह ले रही है। चहूँ ओर हरियालो परिलक्षित होने लगी है। उसका असर पश्क्षियों पर भी पड़ा दिखता है ! पहले जहां कालोनी में सिर्फ कबूतर नजर आते थे वहीं अब उनके अलावा तोते, गौरैया, कौवे, चील, मैना, टिटहरी के साथ-साथ और भी एक-दो प्रजाति के पंछी उड़ान भरते दिखते हैं। घरों में गमलों में लगे नाजुक पौधे जो अक्सर बीमार व मुरझाए से रहते थे अब उन पर भी रौनक बरकरार रहने लगी है। इसी कारण अब उन पर भौंरे-तितलियां-शलभ आदि अक्सर मंडराते दिखते हैं, जो कि साफ़ और शुद्ध वातावरण का द्योतक है।
कीट रहित तुलसी 
पर कड़वी सच्चाई यही है कि यह सब ज्यादा दिन तक नहीं रहने वाला ! जैसे ही बिमारी-महामारी का भय दूर होगा, आपदा-विपदा दूर होंगी, हम श्मशान बैराग की तरह सब भूल अपनी उसी औकात पर वापस आ जाएंगे। क्योंकि हम आदतों से बाज न आ अपनी भूलों से कभी सीख नहीं लेते पर उन्हें दोहराते जरूर हैं ! इस बात के लिए किसी गवाही की जरुरत है क्या ?  

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