गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

लेडिकेनी ! यह कैसा नाम है मिठाई का !

लेडिकेनि ! कुछ अजीब सा नाम नहीं लगता, वह भी जब यह किसी मिठाई का हो ! लेकिन यह सच है कि पश्चिम बंगाल में इस नाम की एक मशहूर मिठाई पाई जाती है जो काफी लोकप्रिय भी है। छेने और मैदे के मिश्रण को तल कर फिर चाशनी में सराबोर कर तैयार किए गए इस मिष्टान का नाम, 1856 से 1862 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे, चार्ल्स कैनिंग की पत्नी चार्लोट कैंनिंग के नाम पर रखा गया था.....!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग 
उन दिनों देश में फिरंगियों के विरुद्ध गंभीर माहौल था। उन्हें दुश्मनी की नज़रों से देखा जाता था ! विद्रोह की संभावना बढ़ती जा रही थी ! ऐसे में भी एक अंग्रेज महिला ने ऐसी ख्याति अर्जित की, इतना स्नेह जुटाया कि उनके नाम पर एक मिठाई का नामकरण कर दिया गया ! ऐसा होने का भी एक बड़ा कारण था ! उन दिनों देश का माहौल अत्यंत खराब और भयप्रद होने के बावजूद लेडी चार्लोट देश भ्रमण कर लोगों से मिलती-जुलती रहीं। जनता के करीब रह उनका हाल-चाल जानने के लिए प्रस्तुत रहीं। इसी कारण अवाम में वे काफी लोकप्रिय हो गयीं, आम आदमी उन्हें अंग्रेज होने के बावजूद पसंद करने और चाहने लगा। वे भी शायद इस देश से प्रेम व लगाव रखने लगी थीं इसीलिए शायद उन्होने इसी धरा में दफ़न होना उचित समझा हो ! उनकी कब्र कोलकाता के नजदीक बैरकपुर में आज भी मौजूद है। उनकी इसी लोकप्रियता के कारण उनकी अभ्यर्थना स्वरुप एक नयी मिठाई की ईजाद कर उसका नाम उनके नाम पर रखा गया।  


मिष्टी प्रेम 



वैसे लेडिकेनि के उद्भव के बारे में तरह-तरह के लोकमत हैं। कोई कहता है कि कलकत्ता के मशहूर हलवाई भीम चंद्र नाग, जिनकी छठी पीढ़ी अभी भी कलकत्ते में अत्यंत सफलता पूर्वक अपना कारोबार चला रही है, द्वारा इसे खासकर लेडी कैंनिग के भारत प्रवास पर इसे बनाया था ! कोई इसे उनके जन्मदिन के उपहार स्वरुप निर्मित किया मानता है ! कोई उनके आगमन पर उनके स्वागत हेतु प्रस्तुत किए गए व्यंजन के रूप में देखता है तो कोई इसका जन्म बरहमपुर में लॉर्ड कैंनिग के आगमन के समय बनाया गया बताता है। कहानी कोई भी हो पर यह सच है कि इसका नाम लेडी कैनिंग को ही समर्पित है। इसी समर्पण की वजह से ही इसे इतनी अधिक ख्याति मिली बजाए इसके स्वाद के ! उस दौरान यह इतनी लोकप्रिय हो चुकी थी कि 1861 में उनकी मृत्यु के पश्चात भी इसको सम्मलित किए बगैर, मिष्टी प्रिय सभ्रांत बंगाली परिवारों का कोई भी महाभोज पूरा नहीं हो पाता था। पर समय के साथ धीरे-धीरे इसका नाम लेडी कैनिंग से बदल कर लेडिकेनि होता चला गया !  


बैरकपुर में स्थित ग्रेव 
देखने में और कुछ-कुछ स्वाद में भी यह अपने चचेरे भाई गुलाब जामुन के बहुत करीब है। पर दोनों में एक बुनियादी फर्क है, गुलाबजामुन जहां खोये से बनाया जाता है, वहीं लेडिकेनि के लिए छेने का प्रयोग किया जाता है। बाकि बनाने की विधि और रूप-रंग तक़रीबन समान ही होते हैं। जो भी हो, है तो यह भी एक जिह्वाप्रिय मिष्टान ! तो जब कभी भी मौका मिले, चूकना नहीं चाहिए इसका स्वाद लेने को ! 

शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

आतिशी मायाजाल का करिश्मा

आप सभी मित्रों, परिजनों और "अनदेखे अपनों" को ह्रदय की गहराइयों से इस पावन पर्व की ढेरो व अशेष शुभकामनाएं। परमपिता की असीम कृपा से हम सब का जीवन पथ सदा प्रशस्त व आलोकित रहे ! राग-द्वेष दूर हों, सुख-शांति का वास हो, आने वाला समय भी शुभ और मंगलमय हो !


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दीपावली का शुभ दिन पड़ता है अमावस्या की घोर काली रात को। शुरू होती है अंधेरे और उजाले की जंग। अच्छाई की बुराई पर जीत की जद्दो-जहद। निराशा को दूर कर आशा की लौ जलाने रखने की पुरजोर कोशिश। इसमें अपनी छोटी सी जिंदगी को दांव पर लगा अपने महाबली शत्रु से जूझती हैं सूर्यदेव की अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करने वाली रश्मियाँ।  


हम भारतवासियों दृढ का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है, असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है।अंधकार कितना भी गहरा क्यों ना हो, ये छोटे-छोटे रोशनी के सिपाही अपनी सीमित शक्तियों के बावजूद एक मायाजाल रच, विभिन्न रूप धर, चाहे कुछ क्षणों के लिए ही सही अंधकार को मात देने के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगा देते हैं। ताकि समस्त जगत को खुशी और आनंद मिल सके। 

ऐसा होता भी है, इसकी परख निश्छल मन वाले बच्चों के चेहरे पर फैली मुस्कान और हंसी को देख कर अपने-आप हो जाती है। एक बार अपने तनाव, अपनी चिंताओं, अपनी व्यवस्तताओं को दर-किनार कर यदि कोई अपने बचपन को याद कर, उसमें खो कर देखे तो उसे भी इस दैवीय एहसास का अनुभव जरूर होगा। यही है इस पर्व की विशेषता, इसके आतिशी मायाजाल का करिश्मा, जो सबको अपनी गिरफ्त में ले कर उन्हें चिंतामुक्त कर देने की, चाहे कुछ देर के लिए ही सही, क्षमता रखता है।  
एक बार फिर आप सब मित्रों, परिजनों और "अनदेखे अपनों" को ह्रदय की गहराइयों से शुभकामनाएं।  
हम सब के लिए आने वाला समय भी शुभ और मंगलमय हो।    

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

त्योहारों का सरताज, उत्सव दीपावली का ¡ पर........ ¡¡

यह त्योहार हमें रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीने या जितनी चादर है उतने पैर पसारने की सलाह नहीं देता। इन उपदेशों का अपना महत्व जरूर है पर यह त्योहार यह सच्चाई भी बताता है कि भौतिक स्मृद्धि का भी जीवन में एक अहम स्थान है, इसका भी अपना महत्व है ! हमारे वेद-पुराणों में सर्व-शक्तिमान से यह प्रार्थना की गई है कि वे हमारे अंदर के अंधकार को दूर करें, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएं जिससे हमें ज्ञान और शांति प्राप्त हो जिसका उपयोग दूसरों की भलाई में किया जा सके। इसी बात को, इसी संकल्प को हमें अपने जेहन में संजोए रखना है पर यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो पाएगा जब तक इस पर्व को मनाने की क्षमता, समृद्धि का वास देश के हर वासी, हर गरीब-गुरबे के घर-आंगन में नहीं हो जाता...............!

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फिर एक बार दीपावली आ पधारी ! अपने साथ खुशियां, उल्लास और उजाला ले कर ! इस पारंपरिक त्यौहार से हम आदिकाल से जुड़े हुए हैं। यह अपने देश के सारे त्योहारों से एक अलग और अनोखे तरह का उत्सव है। रोशनी के त्योहार के रूप में तो यह अलग है ही, इसे सबसे ज्यादा उल्लास से मनाए जाने वाले त्योहारों में भी गिना जा सकता है। इसे चाहे किसी भी कथा, कहानी या आख्यान से जोड लें पर मुख्य बात असत्य पर सत्य की विजय की ही है। प्रकाश के महत्व की है। तम के नाश की है। उजाले के स्वागत की है।  इसीलिए इसके आते ही सब अपने अपने घरों इत्यादि की साफ-सफाई करने, रौशनी करने मे मशगूल हो जाते हैं। साफ-सफाई के अलावा इस त्योहार मे एक बात और है कि यह अकेला ऐसा त्योहार है, जिसमें हर आदमी, हर परिवार समृद्धि की कामना करता है। यह त्योहार हमें रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीने या जितनी चादर है उतने पैर पसारने की सलाह नहीं देता। इन उपदेशों का अपना महत्व जरूर है पर यह त्योहार यह सच्चाई भी बताता है कि भौतिक स्मृद्धि का भी जीवन में एक अहम स्थान है, इसका भी अपना महत्व है। 
 
 धन की, सुख की आकांक्षा हरेक को होती है इसीलिए इस पर्व पर अमीर-गरीब अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार दीए जला, पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हां यह जरूर है कि अमीरों के ताम-झाम और दिखावे से यह लगने लगता है जैसे यह सिर्फ अमीरों का त्योहार हो।  

हमारे वेद-पुराणों में सर्व-शक्तिमान से यह प्रार्थना की गई है कि वे हमारे अंदर के अंधकार को दूर करें, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएं जिससे हमें ज्ञान और शांति प्राप्त हो जिसका उपयोग दूसरों की भलाई में किया जा सके। इसी बात को, इसी संकल्प को हमें अपने जेहन में संजोए रखना है पर यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो पाएगा जब तक इस पर्व को मनाने की क्षमता, समृद्धि का वास देश के हर वासी, हर गरीब-गुरबे के घर-आंगन में नहीं हो जाता। 

सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

परवा जरूर हो, पर अतिरेक नहीं

पौधों को नई जगह की आबो-हवा, धूप-झांव, मिटटी-पानी के साथ ताल-मेल बैठाने, परिस्थियों के अनुसार खुद को ढालने, आस-पास के माहौल में खुद को रमाने में कुछ तो समय लगना ही था ! हाथी इस बात को बखूबी समझते थे ! वे पौधों इत्यादि का समुचित ध्यान रख, समयानुसार उनका पोषण करते थे। पर इधर वानरों को अपने लता-गुल्म की कुछ अनावश्यक ही चिंता थी ! वे हर दूसरे-तीसरे दिन अपने लगाए पौधों को उखाड़ कर देखते थे कि उनकी जड़ें विकसित हुए कि नहीं ..............!

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आनंदवन को जीवों के लिए सुगम, सुंदर और व्यवस्थित करने के लिए सिंहराज के नेतृत्व में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित हुआ, जिसके तहत वन के सघन, दुर्गमनीय इलाके के पेड़-पौधों को हटा कर दूसरी विरल जगह रोपित कर दिया जाए जिससे दोनों जगहों का समुचित विकास हो सके। समाज हितकारी इस परियोजना की जिम्मेदारी बुद्धिमान हाथी और चपल बंदरों को सौंपी गयी, जिससे कार्य सुचारु और तीव्र गति से हो सके। कुछ ही दिनों में बीहड़ के पेड़-पौधों का पूरी साज-संभार के साथ नई जगहों पर ला प्रेम और सावधानी के साथ रोपण कर दिया गया ! 

अब पौधों को नई जगह की आबो-हवा, धूप-छांव, मिटटी-पानी के साथ ताल-मेल बैठाने, परिस्थियों के अनुसार खुद को ढालने, आस-पास के माहौल में खुद को रमाने में कुछ तो समय लगना ही था ! हाथी इस बात को बखूबी समझते थे ! वे पौधों इत्यादि का समुचित ध्यान रखते थे, समयानुसार उनका पोषण करते थे। पर इधर वानरों को अपने लता-गुल्म की कुछ अनावश्यक ही चिंता थी ! वे हर दूसरे-तीसरे दिन अपने लगाए पौधों को उखाड़ कर देखते थे कि उनकी जड़ें विकसित हुए कि नहीं ! कभी अनावश्यक रूप से उनकी झाड़-पौंछ कर देते ! कभी पानी देने में अतिरेक ! उनकी खैर-खबर लेने की इन गलतियों से ना तो पौधे अपनी जड़ जमा पाए, नाहीं उनका अपने नए वातावरण से ताल-मेल बैठ पाया और ना ही वे पनप पाए ! नतीजतन जहां हाथियों द्वारा रक्षित पेड़-पौधे कुछ ही दिनों में विकसित हो पनप गए और लहलहाने लगे ! वहीं वानरों की अदूरदर्शिता ने, भले ही यह उनका अपने पौधों के प्रति अतरिक्त केयर, लगाव या चिंता थी, उनके पौधों को अविकसित, निर्जीव सा कर उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा ! 

ऐसी ही कुछ प्रवृत्ति हम में से कुछ मानवों में भी पाई जाती है जिनकी भावनाओं का, लगाव का, अनावश्यक चिंता का, नकारात्मक सोच का, अविश्वास का अतिरेक उन्हें तो परेशानी में डालता ही है, संबंधित माहौल को भी आविष्ट व तनावग्रस्त बना डालता है !

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

दो बार हुई थी अर्जुन की मृत्यु

यह तो सर्व ज्ञात है कि अपने अंतिम समय में स्वर्ग यात्रा के दौरान पर्वतारोहण के समय, युधिष्ठिर को छोड़ एक-एक कर सभी पांडव भाइयों की मृत्यु होती चली गयी थी। लेकिन महाभारत की उपकथाओं में इस महाकाव्य के प्रमुख पात्र अर्जुन की इसके पहले भी एक बार हुई मृत्यु का एक बहुत अल्पज्ञात जिक्र मिलता है ! आज करवा चौथ के अवसर पर एक पत्नी का अपने पति को बचाने के उपक्रम का विवरण........!

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हमारी पौराणिक कथाओं में ''अष्टवसु'' का जिक्र आता है। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। एक बार इनमें सबसे छोटे वसु द्वारा वशिष्ठ ऋषि की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लेने के फलस्वरूप आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप मिला पर इनके द्वारा क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने सात वसुओं के शाप की अवधि एक वर्ष कर दी पर सबसे छोटे वसु को जिसने यह कृत्य किया था, उसे महान विद्वान, वीर, ख्यात और दृढ़प्रतिज्ञ होने के साथ-साथ दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने, संतान उत्पन्न न करने तथा स्त्री परित्यागी होने का दंड भी मिला। इसी शाप के अनुसार महाभारत काल में उसका जन्म भीष्म के रूप में हुआ था।   
भीष्म पितामह 
महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर राज-पाठ संभाल रहे थे। तभी एक दिन महर्षि वेदव्यास और श्रीकृष्ण ने पांडव भाइयों को अश्वमेध यज्ञ करने की सलाह दी, जिससे शासन व्यवस्था और मजबूत हो सके। इसी के तहत, शुभ मुहूर्त देखकर यज्ञ का शुभारंभ कर घोड़ा छोड़ दिया गया, जिसकी रक्षा का भार अर्जुन को सौंपा गया था। जहां कहीं घोड़े को रोका गया वहां के राजाओं को अर्जुन ने परास्त कर अपने राज्य का विस्तार किया। इसी दौरान यह कारवां मणिपुर जा पहुंचा। एक बार पहले नियम भंग करने के प्रायश्चित स्वरुप, घूमते हुए अर्जुन के यहां  आने पर यहां की राजकुमारी चित्रांगदा से उनका विवाह संपन्न हुआ था, जिसके फलस्वरूप उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी जो की अब वहां का राजा था, बभ्रुवाहन ! 
अर्जुन 
 बभ्रुवाहन
जब बभ्रुवाहन को अपने पिता अर्जुन के आने का समाचार मिला तो उनका स्वागत करने के लिए वह नगर के द्वार पर आया। अपने पुत्र को देखकर अर्जुन बहुत खुश हुए पर नियमों से बंधे होने के कारण मजबूरीवश उन्हें कहना पड़ा कि यज्ञ के घोड़े को यहां रोका गया है, जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी है इसलिए तुम्हें मुझसे युद्ध करना पडेगा ! बभ्रुवाहन ने ऐसी परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी ! पर अर्जुन भी अपनी बातों पर अड़े हुए थे !  इसी वाद-विवाद के बीच अर्जुन की एक और पत्नी नागकन्या उलूपी भी वहां आ गई और बभ्रुवाहन को अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया ! अपने पिता के हठ व सौतेली माता उलूपी के कहने पर बभ्रुवाहन युद्ध के लिए तैयार हो गया। पिता पुत्र में भयंकर युद्ध हुआ। अपने पुत्र का पराक्रम देखकर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। दोनों बुरी तरह घायल और थक चुके थे। इसी बीच बभ्रुवाहन का एक तीक्ष्ण बाण सीधा आ अर्जुन को लगा जिसकी चोट से अर्जुन गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गयी ! उधर बभ्रुवाहन भी बेहोश हो धरती पर गिर पड़ा। पति और पुत्र की यह हालत  देख चित्रांगदा पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा ! कुछ देर बाद जब बभ्रुवाहन को होश आया तब वह भी अपने पिता की हालत देख शोकाकुल हो उठा और ऐसे जघन्य कृत के लिए अपने को दोषी मान विलाप करने लगा। 
उलूपी व संजीवनी मणि 
अर्जुन की मृत्यु से दुखी होकर चित्रांगदा और बभ्रुवाहन दोनों ही आमरण उपवास पर बैठ गए। जब नागकन्या उलूपी ने यह देखा तो उसने संजीवनी मणि का आह्वान कर उसको बभ्रुवाहन को देते हुए उसे अर्जुन की छाती  पर रखने को कहा, ऐसा करते ही अर्जुन जीवित हो उठे। तब उलूपी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि महाभारत में भीष्म पितामह की धोखे से किए गए वध के कारण ''वसु'' बहुत नाराज व क्रोधित हो गए थे। जिसके कारण उन्होंने अर्जुन को श्राप देने का संकल्प ले लिया था। जब यह बात मुझे पता चली तो मैंने यह बात अपने पिता को बताई। उन्होंने वसुओं के पास जाकर सब विधि का विधान बता प्रार्थना की। तब वसुओं ने कहा कि मणिपुर का राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है यदि वह बाणों से अपने पिता का वध कर देगा तो अर्जुन को अपने पाप से छुटकारा मिल जाएगा। इसीलिए वसुओं के श्राप से बचाने के लिए ही मुझे अपनी यह मोहिनी माया रचनी पड़ी। तत्पश्चात अर्जुन बभ्रुवाहन को अश्वमेध यज्ञ में आने का निमंत्रण दे पुन: अपनी यात्रा पर आगे चल दिए। 

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

एक ठो खेला है, नाम है ''कौबक''..... यानी कौन बनेगा करोड़पति

कुछेक हिंदी के शब्द, नाम या चीजें अंग्रेजी में ज्यादा प्रचलित, सहज स्वीकार्य और कुछ-कुछ कर्णप्रिय सी हो जाती हैं। उदाहरण स्वरुप जैसे ''महाशयां दी हट्टी,'' एम.डी.एच. के रूप में ज्यादा प्रचलित और जाना-माना है। युवाओं द्वारा बहु प्रयोगी  ''शिट, हगीज, बम'' जैसे शब्दों को शायद ही कोई भद्र-लोक  हिंदी में सुनना या बोलना पसंद करे ! इसीलिए टी.वी. पर चल रहे एक खेल ''कौन बनेगा करोड़पति'' के हिंदी में संक्षिप्त रूप ''कौबक'' को लोग बुडबक ना कहने लगें इसलिए उसे अंग्रेजी के अक्षरों से उच्चारित कर केबीसी के नाम से प्रचारित किया जाता है। अब किसी को अच्छा लगे या बुरा पर एक बात तो साफ़ है कि साधारण मनई लोग अमीर बने ना बने पर चैनल, खेल की टीम और बच्चन साहब, इन सब की तकदीर तो इस खेल ने बदल ही दी है। अच्छी बात है ! इसमें कोई खराबी भी नहीं है, आज के समय में हर कोई पहले अपना  फटा कुर्ता सीना चाहता है.....................!

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KBC, कभी-कभी तो लगता है कि यह खिलाड़ी के खिलाफ रचा गया एक षड्यंत्र है ! खेल में येन-केन-प्रकारेण जब कोई इस लायक होता है कि वह दूसरे प्रतियोगियों की बद्दुआओं और चैनल की ढेर सारी हिदायतों यथा, आपको कब उछलना है, कितनी देर रोना है, पैर छूना है या गले लगना है, क्या कहना है, बच्चन जी की कब प्रशंसा करनी है, उन्हें कैसे संबोधित करना है इत्यादि, इत्यादि के साथ जब सहमा हुआ प्रतियोगी बीच मंच तक पहुंचता है तो सामने बैठे, तेजोमय प्रभामंडल, भव्य व्यक्तित्व, सिनेमा जगत की सबसे बड़ी और महान हस्ती की धीर-गंभीर वाणी से और भी हतप्रभ, भौंचक्क व ऐंड बैंड हो जाता है ! फिर ऊपर से टिकटिकाती घडी से रिसते समय का डर उसका ध्यान भटकाए रखता है ! तिस पर  गर्म सीट की बेचैनी सर पर हावी रहती है ! फिर ऐसे में वो क्या तो सवाल सुनेगा, उसे समझेगा, कब सोचेगा और क्या उत्तर देगा ! एक बात और जो समझदानी के बाहर है कि प्रतिभागी जब झटपट ऊँगली वाला बैरियर पार कर जब खेल में शरीक होता है तो उसको ''गरम आसन'' क्यों सौंपा जाता है ! देश में किसी-किसी जगह किसी अविश्वसनीय इंसान को ले कर एक कहावत है कि वह ''गर्म तवे पर बैठ कर बोलेगा तो भी उसका विश्वास नहीं है !''  खैर यहां गर्म सीट पर होने के बावजूद उसका कहा मान लिया जाता है। इसके बावजूद कई मंच-वल्लभ तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी यहां परचम लहरा जाते हैं।

जैसे हर चीज में कोई न कोई अच्छाई भी जरूर होती है, उसी तरह इस खेल का शुक्रवार को प्रसारित होने वाला कर्मवीर एपिसोड एक सार्थक पहल है जो दिल को छू जाता है ¡ इसमें कर्मठ, समर्पित, दृढ प्रतिज्ञ, अभावों के बावजूद संघर्षरत, देश समाज के लिए कुछ भी कर जाने को उद्यत, निरपेक्ष, किसी चाहत-लालसा-कामना से परे सिर्फ जनहित में जुटे लोगों को मंच प्रदान किया जाता है। उसके लिए सारी टीम को साधुवाद ¡¡
कर्मवीर 
वैसे मामला एकदम्मे ना उखड जाए, इसलिए थोड़ा-बहुत हेल्प करने का भी यहां इंतजाम किया गया है वह अलग बात है कि उसमें इक्के-दू ठो ही थोड़ा काम लायक हैं। उसी हेल्पाइन में एक है वहां उपस्थित महानुभाव लोगों की राय ! पर इसके लिए कहा गया और दिया गया समय वर्षों से दर्शक वगैरह को आंकड़ों के ''पंभलपुस्से'' में डालता आ रहा है। सालों-साल से चली आ रही एक ऐसी चूक, जिस पर अयोजकों, संचालकों, उपस्थित दर्शकों, प्रतिभागियों यहां तक कि अमिताभ बच्चन जी का भी ध्यान या तो गया नहीं है या फिर कोई देना ही नहीं चाहता ! जबकि ऐसे प्रोग्राम काफी जांच-पड़ताल के बाद प्रस्तुत किए जाते हैं। इस बात पर ध्यान दिलाने की कोशिश सालों पहले भी की थी पर सबका ध्यान सिर्फ उपार्जन में ही है, यही प्रतीत होता है -
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
जैसा कि बहुत से लोग जानते ही होंगे कि इस खेल की ''गरम कुर्सी'' पर बैठने वाले को सही उत्तर ना मालुम होने पर सहायता के रूप में शुरु में तीन "हेल्प लाईनों" की सुविधा दी जाती है जिनमें से एक है "आडियंस पोल" इसके लिए दर्शकों को उत्तर देने के लिए दस सेकेण्ड का समय दिया जाता है। पर #अमिताभ_जी हर बार "इसके लिए आपको मिलेंगे तीस सेकेण्ड" कहते आ रहे हैं।  
शुक्रवार, 11-10-2019      
आज नौ साल बाद स्थिति कुछ सुधरी है ! "आडियंस पोल" में दर्शकों को तो अभी भी दस सेकेण्ड ही मिलते हैं पर #अमित_जी तीस की बजाए पंद्रह सेकेण्ड कहने लगे हैं ! शायद अगले साल तक दस के लिए दस मिलने लग जाऐं..............! 
चलिए छोड़िये ! अपुन ने कौन सा इसमें हिस्सा लेना है या कोई आस लगा रखी है ! खेल चल रहा है, अवाम सम्मोहित है ! गरीब देश का मनई लोगन को जबरिया करोड़पति बनाने, देश को खुशहाल बनाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है ! अब ये तो समझ के बाहर की बात भी नहीं है कि कौन खुशहाल हो रहा है ! कोई तो हो ही रहा है ना ! अच्छी बात है ! जितने ज्यादा लोग अमीर होंगे, उतने और टी.वी. बिकेंगे ! और ज्यादा लोग उसे  देखेंगे ! और ज्यादा विज्ञापन झोंका जाएगा ! और ज्यादा बेकार, प्रयोजनहीन चीजों की बिक्री बढ़ेगी ! बाज़ार की सुरसा रूपी भूख को और ज्यादा खुराक मिलेगी ! पैसा बरसेगा ! एक करोड़, पांच करोड़, सात करोड़................
इस बार की धन राशि है दस करोड़ !!!

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

तो फिर..... ऐसे में रावण का मरना भी असंभव है

आज, भले ही सांकेतिक रूप से ही सही, रावण को मारने, उसका दहन करने का जिम्मा किसको दिया जाता है ? आज पार्कों में, चौराहों पर, कालोनियों में या मैदानों में जो रावण के पुतले फूंके जाते हैं उनको फूंकने में अगुवाई करने वाले अधिकांश तो खुद बुराइयों के पुतले होते हैं ! उनकी तो खुद की अपनी लंकाऐं होती हैं, काम-क्रोध-मद-लोभ जैसी बुराइयों से भरपूर ! तो बुराई ही बुराई पर क्योंकर विजय पाएगी ? आज बुराई पर अच्छाई की विजय निश्चित करने के लिए किसीको उसके गुणों का आकलन कर के नहीं बल्कि उसकी हैसियत देख कर चुना जाता है। आज रावण दहन के लिए उसे ''धनुष'' थमाया जाता है जो अपने क्षेत्र में येन-केन-प्रकारेण अगुआ हो................!

#हिन्दी_ब्लागिंग              
अभी-अभी दशहरा हो कर गया है। शायद ही कोई माध्यम ऐसा होगा जिसमें किसी कवि, लेखक, संत, दार्शनिक, पंडित, कथावाचक, कलाकार या स्वयंभू बुद्धिजीवी ने साल दर साल रावण के पुतले के दहन के बावजूद उसके ना मरने, हर साल आ धमकने की बात कह-कह कर अपनी सलाह दूसरों यानी आम अवाम पर जबरन ना थोपी हो ! वैसे ऐसा कहने वालों में अधिकांश वही हैं जिन्हें हिंदुओं के हर त्यौहार में कोई न कोई खामी नज़र आती है। त्यौहार आते ही इनकी विद्वता भी कुलांचें मारने लगती है दूसरों पर हावी होने के लिए !  

पर ऐसा कहने वाले और दूसरों को सलाह देने वाले कभी यह सोचते हैं कि आज, भले ही सांकेतिक रूप से ही सही रावण को मारने, उसका दहन करने का जिम्मा कौन लेता है या किसको दिया जाता है ? आज पार्कों में, चौराहों पर, कालोनियों में या मैदानों में जो रावण के पुतले फूंके जाते हैं उनको फूंकने में अगुवाई करने वाले अधिकांश तो खुद बुराइयों के पुतले होते हैं ! उनकी तो खुद की अपनी लंकाऐं होती हैं, काम-क्रोध-मद-लोभ जैसी बुराइयों से भरपूर, तो बुराई ही बुराई पर क्योंकर विजय पाएगी ? आज बुराई पर अच्छाई की विजय निश्चित करने के लिए किसीको उसके गुणों का आकलन कर के नहीं बल्कि उसकी हैसियत देख कर चुना जाता है। आज रावण दहन के लिए उसे ''धनुष'' थमाया जाता है जो अपने क्षेत्र में येन-केन-प्रकारेण अगुआ हो ! फिर चाहे वह राजनीतिज्ञ हो, चाहे कलाकार हो, चाहे व्यापारी हो या फिर अपने इलाके का प्रमुख ही हो, जैसे किसी कॉलोनी या हाऊसिंग सोसायटी का प्रेजिडेंट ! अगुआ होना ही उसकी लियाकत है भले ही कर्मों से वह दुर्योधन ही क्यों न हो ! 

रावण अपने आप में ज्ञानी-ध्यानी, सबसे बड़ा शिव भगत, पुरातत्ववेता, ज्योतिष का जानकार, विद्वान तथा युद्ध विशारद, महाबली योद्धा था। उससे बड़ा महा पंडित उस युग में कोई दूसरा नहीं था। ऐसा नहीं होता तो क्या श्री राम उसे अपने यज्ञ का पुरोहित बनाते ! उस पर राम जो सारे जगत के पालनहार हैं, नियोजक हैं, सर्व शक्तिमान हैं, सारे चराचर के स्वामी हैं, उन्हें भी उस रावण पर विजय पाने में ढाई महीने लग गए थे ! तब जा कर कहीं उसका वध हुआ था। रावण को मारने के लिए राम का होना जरुरी है और राम ऐसे ही कोई नहीं बन जाता ! उसके लिए उसमें प्रबल शक्ति का होना तो अवश्यंभावी है ही, साथ ही उसे कर्त्वयनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, दृढ़निश्चयी, करुणामय, ज्ञानी, वचन पालक, संयमी, ईर्ष्या मुक्त, विवेकी, निरपेक्ष, शरणागत वत्सल, दयालु, समदर्शी, काम-क्रोध-मोह विहीन होना भी बहुत जरुरी है ! क्या आज एक ही इंसान में इतने गुणों  होना संभव है ? 
नहीं ! 
तो रावण का मरना भी असंभव है !  

शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

आज कितने लोग जानते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री जी का उपनाम वर्मा था ?

जैसा कि कायस्थ परिवारों में श्रीवास्तव और वर्मा सरनेम लगता है उसी के अनुसार उनका नाम लाल बहादुर वर्मा रखा गया था। शास्त्री जी शुरू से ही जात-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत जैसी प्रथाओं के विरोधी रहे थे। समय के साथ जब उन्हें गांधी जी के नेतृत्व में काम करने का अवसर मिला तो उनके विचार और भी परिपक़्व हो गए। उन दिनों काशी विद्यापीठ में ग्रैजुएट डिग्री के बतौर शास्त्री टाइटल मिलता था। चूँकि शास्त्री जी ने यह उपाधि हासिल की हुई थी सो उन्होंने अपने उपनाम वर्मा को हटा कर शास्त्री जोड़ लिया, तबसे वे  लाल बहादुर शास्त्री के नाम से ही जाने और माने जाने लगे..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पिछले हफ्ते में देश पूर्णतया गांधीमय रहा। गांधी जी की डेढ़ सौवीं जयंती के लैंडमार्क को मनाने के दिखावे की जैसे होड़ लगी रही। उन्होंने तो करना ही था जिन्होंने शुरू से ही इस नाम को हाई प्रोफ़ाइल कर अपना ट्रेड मार्क बना रखा था ! पर इस बार मौके की नजाकत और आम अवाम की नस पहचान कर कुछ और लोग भी जुटे रहे अपने को उनका अनुयायी सिद्ध करने के लिए ! जबकि कटु सत्य और विडंबना यह है कि आज सिर्फ और सिर्फ इस नाम को अपने मतलब के लिए भुनाने की कोशिश की जाती है। क्योंकि अभी भी यह नाम भारत के भावुक जनमानस में बहुत गहरे तक पैबस्त है और यह पैबस्ती वोटों में तब्दील होती है। 

अब इसे क्या कहें कि देश के सबसे लायक, ईमानदार, विनम्र, मृदु भाषी, हमेशा धीमे बोलने वाले, सादगी और सच्चाई पसंद, वीर और दृढ इच्छाशक्ति के व्यक्ति लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्म दिन भी गांधी जी के साथ ही पड़ता है ! देश के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप में उनके बिना शोर शराबा किए देश के निर्माण में योगदान और सफल नेतृत्व के कारण वे सदा ही भारतीयों के प्रोत्साहन के महान स्रोत तो रहे ही पूरे विश्व में भी उनकी योग्यता और सक्षमता की प्रशंसा होती रही है। वे तो खैर बिना दिखावे के अपने काम से मतलब रखते थे पर उनकी पार्टी ने भी पता नहीं उन्हें क्यों लो प्रोफाइल व्यक्तित्व  ही बनाए रखा जिसकी वजह से अक्सर लोग उनकी जयंती याद नहीं रख पाते थे, वह तो अब जा कर कुछ महत्व मिलना शुरू हुआ है। पर यह खेद का विषय है किअभी भी उनके बारे में अधिकांश लोगों को पूरी और सही जानकारी नहीं है। आज कितने लोग जानते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री जी का असली सरनेम वर्मा था ?   

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय शहर में हुआ. शास्त्री जी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था. वो एक स्कूल में शिक्षक थे। जैसा कि कायस्थ परिवारों में श्रीवास्तव और वर्मा सरनेम लगता है उसी के अनुसार उनका नाम लाल बहादुर वर्मा रखा गया था। शास्त्री जी शुरू से ही जात-पात, ऊँच-नीच, छुआ-छूत जैसी प्रथाओं के विरोधी रहे थे। समय के साथ जब उन्हें गांधी जी के नेतृत्व में काम करने का अवसर मिला तो उनके विचार और भी परिपक़्व हो गए। उन दिनों काशी विद्यापीठ में ग्रैजुएट डिग्री के बतौर शास्त्री टाइटल मिलता था। चूँकि शास्त्री जी ने यह उपाधि हासिल की हुई थी सो उन्होंने अपने उपनाम वर्मा को हटा कर शास्त्री जोड़ लिया, तबसे वे  लाल बहादुर शास्त्री के नाम से ही जाने और माने जाने लगे।

आज कई लोग मौका मिलते ही विभिन्न मंचों से, विभिन्न अवसरों पर, कुछ समय के अंतराल पर विनम्रता का मुखौटा लगाए बार-बार अपने पुरखों की उपलब्धियों का जिक्र कर उन्हें महान सिद्ध करने में गुरेज नहीं करते। शास्त्री जी तो थे ही सरल, सहज और आडम्बर रहित पर उनके वंशज भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए कभी भी बड़बोले नहीं बने। आज जरुरत है देश के ऐसे सच्चे सपूतों की जीवनियों को उजागर करने की जिससे वर्तमान और भावी पीढ़ियां उन लोगों को भी जान सकें, जिन्होंने देश की इमारत को बुलंद करने में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया पर खुद उसकी नींव में अनजान से पत्थर की तरह ही बने रहे !   

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